विकासशील देश पालने में लेटे-लेटे लम्बे अरसे तक अमेरिका आदि देशों को ताकते रहते हैं. फिर विकास की घुट्टी पीकर धीरे-धीरे विकसित होते हैं. इनके विकास की पहली शर्त ये होती है कि ये देश हों, पाकिस्तान नहीं. अन्य मुख्य शर्तों में; यहाँ विकास के प्रति आतुर जनता और उदासीन नेता होने चाहिये.
बिजली-पानी, साफ़-सफाई, रोटी-दाल, स्कूल-अस्पताल का यहाँ टोटा होना चाहिए. खैर, मैं यहाँ पड़ौसी मुल्कों पर टिप्पणी करने नहीं बैठा हूँ. मेरा इरादा विकास के इन मानकों के आधार पर ये तय करना है कि वर्तमान में हल्द्वानी विकास की कौनसी सीढ़ी पर है और उसके सापेक्ष दमुवांढुंगा की क्या स्थिति है.
विकसित होने की कोई शर्त अगर नगर निगम का दर्ज़ा होता तो पिछले चार-पाँच सालों में हल्द्वानी नगर तो बन गया होता. इस दौरान सूअरों की संख्या में जो स्वागतयोग्य वृद्धि हुई है, उसके हिसाब से हल्द्वानी की टक्कर उत्तर प्रदेश के कुछ पड़ौसी कस्बों से हो सकती है. हाँ, गधों, कुत्तों और सांडों के मामले में उत्तराखंड के कुछ दूसरे निगम शायद हल्द्वानी से बाज़ी मार ले जाएँ. कुत्तों के मामले में तो नगरपालिका नैनीताल ही हल्द्वानी को मात दे देगी. सूअरों के सापेक्ष गधों, कुत्तों और सांडों की टॉप रैंक नर्सरी के रूप में विकसित ना हो पाने का कारण यह नहीं है कि हल्द्वानी की जलवायु उनके लिए ख़राब हो या नगर निगम उनके खिलाफ़ कोई प्रस्ताव पास कर चुका हो.
वस्तुतः, यहाँ की सफ़ाई व्यवस्था में सूअर अपने महत्वपूर्ण योगदान के चलते निगम की सहानुभूति अर्जित करते है. निगम से वो कोई वेतन, आवास, झाडू वगैरा भी नहीं लेते. भोटियापड़ाव क्षेत्र का उदाहरण लें; सपरिवार घूमते-घामते कूड़ा सफ़ाचट करते सूअर, वाया अम्बिका विहार, दमुवांढुंगा निकल जाते हैं. उनकी सफ़ाई क्षमता और आवाजाही के रूट को देखते हुए ही हो सकता है दमुवांढुंगा को हल्द्वानी नगर निगम में शामिल करने का निर्णय लिया गया हो.
निकट भविष्य में अगर सूअर परिवार अप्रत्याशित रूप से बड़ा हो जाये तो निगम की सीमा भी फतेहपुर तक बढ़ाई जा सकती है. हाँ, इस क्षेत्र में सांडों की बढती मोटाई के मद्देनज़र, निगम को कालोनियों की सड़कें शीघ्र चौड़ी करनी पड़ सकती हैं. जबकि गोबर फार्च्यूनरों और स्कोडाओं के टायरों से निबट जायेगा.
अब मेरा ध्यान दामोदर उर्फ़ दमुवां की ओर जा रहा है. वो किसी भट्ट, सुयाल, सनवाल या नैनवाल का चिरंजीवी रहा होगा. जाने किन कारणों से उसके नाम पर इस इलाके का नामकरण हुआ होगा. विचारणीय है कि दमुवांढुंगा संधि में दामू से ज़्यादा महत्वपूर्ण ‘ढुंग’ है. दामोदर का पत्थर अगर किसी ख़ास श्रेणी का रहा होता तो उसका विशेष नाम होता जैसे सिल (पीसने का), पाथर (चाख का), पटाल (छत का) आदि. निश्चित ही एक अनाम लोड़े/ढुंग पर बैठ कर दामू ने बांसुरी बजाई होगी या ढुंग से किसी का सर फोड़ दिया होगा.
उसने ज़रूर कुछ ऐसा किया होगा कि उसके नाम से ‘ढुंग’ चिपक गया, जैसे उत्तराखंडी संदर्भ में मुलायम से मुज़फ़्फ़रनगर. अब, जबकि दमुवांढुंगा हल्द्वानी नगर निगम में शामिल हो ही गया है तो मेयर को चाहिए कि दामोदर और पत्थर के सम्बन्ध को स्पष्ट करती फ्लेक्सी दमुवांढुंगा के प्रवेश द्वार पर लगवाएं. सांडों, गधों, सूअरों के लिए अलग पैदल मार्ग का निर्माण करवाएं, आदतन कुछ नागरिक उनके साथ चलना चाहें तो ये उनकी चॉइस है. अब दमुवांढुंगा की जनता कई प्रकार के टैक्स देगी.
तसल्ली के लिए चौराहों पर उनके अपने मेयर, सभासदों आदि के बड़े-बड़े कटआउट लटका देने चाहिए. ताकि भविष्य में कभी जनता को फूल चढ़ाने हों तो बाज़ार तक नहीं जाना पड़े. अभी मुझे भविष्य के गर्त में विकासोन्मुख दमुवांढुंगा दिखाई पड़ रहा है. वहां के आकाश पर बिजली के तारों से खिंची विकास की रेखाएं दीख रही हैं. भरे हुए कूड़ेदानों की छटा ही निराली है. सीवर लाइन के लिए सड़कों और बीएसएनएल तार डालने के लिए गलियों को खोद दिया गया है. बची-खुची सड़कों पर नाना प्रकार के वाहन चिंघाड़ते हुए बढ़े जा रहे हैं. इन स्थितियों में चूँकि विकास को पैदल चल कर आने में दिक्कत होगी, वो उड़ कर आएगा. तेजी से आएगा और दमुवांढुंगा को डी डी नगर बना देगा. इन नए हालातों में अम्बिका विहार भी अपनी पड़ौस की बदली हुई पहचान के प्रति उदासीन नहीं रह पायेगा. उसके रेजिडेंट बताएँगे, “हाँ-हाँ उसी से लगा है, पहले दमुवांढुङ्गा कहते थे. अब डी डी नगर हो गया है।” तब अपने मॉडर्न नाम पर इतराते हुए दमुवांढुंगा ख़ुद नगरपालिका बनने का दावा पेश करेगा.
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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास’ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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