जी हाँ, पहाड़ के जंगल में ही उगता है काफल. जिसका रसासस्वादन अपने किया और पसंद तो किया ही. फिर हिसालू, किल्मोड़ा, कैरू, चिगोड़ा, गेठी, गिवें की पहचान भी आपको होगी जो पहाड़ में होने वाले कंदमूल और फलों में फेमस हुए. इनके अलावा जंगल में मिलने वाली और आसानी से स्वाद ली जा सकने वाली कई वनस्पतियां हैं जिनके लिए आपको कुमाऊं और गढ़वाल की चढाई चढ़नी पड़ेगी.
(Wild Edible Plants of Uttarakhand)
हाँ ये वही पहाड़ है जहां अभी भी नौले हैं, धारे हैं. इसमें हाथ की ओक बना कर पानी घुटक आपके भीतर प्यास की तरंग उठती रहेगी. कई जगह रिस्ते पानी में पत्तियों का दोना ठुंसा मिलेगा जिसमें बून्द -बूंद गिरती जलधार तीस बुझाती खाप तृप्त करा देगी.अब आगे जंगल को जाते गाड़ गधेरे पड़ेंगे. इन रास्तों को संभल के पार करना होगा. पानी के भीतर के ढुङ्गों में होती है फिसलन और काई सिमार भी जिनमें पैर रड़ी जाने वाला हुआ. सो बच बच संभल कर चलना हाँ.
अभी हम पंद्रह सौ मीटर की ऊंचाई के बण में टहल रहे हैं. यहाँ बेल के पेड़ मिलेंगे. बेल की पत्ती भोले भंडारी की प्रिय है. तीन पाती वाला पत्ता उल्टा कर शिव लिंग पे चढ़ता है. बेल पत्ती बड़ी शुभ मानी जाती रही. इसके पत्तों का एक चम्मच रस सरदर्द थकान अवसाद दूर करता है. वो उपराड़ा वाले बैद पंत जी तो इसकी पत्तियों के रस लगातार पीने से गर्भ निरोध होने की गारंटी भी देते और झस्का भी देते कि ये वीर्य पतला कर देती है. पर बेल का फल जब पक जाए तो खूब मीठा रसीला होता सीधे खालो. पेट के लिए बहुत भला. आंव व जोका पड़ने में उपयोगी. बेल का मुरब्बा तो खूब लोकप्रिय हुआ ही.
ऐसे ही जंगल में घुसने पर आपको मिलेगा लिसोड़ा या भैरव, च्यूरा, दया या दै, तुस्यारि या तुषारी, गिवें, बेडु, तिमुल, रसबेरि, नागफिणि के साथ महुआ जिसे मौअ भी कहते हैं. इन सब के पके फल खाये जाते हैं.
इसके अलावा किल्मोड़ा, दया या दै, करोंदा, घिंघारू, हिसाउ, काउ- हिसाउ, तंग या तुंग, लोहारी या अबिकनिया, गोगिना, मकोई, ग्वाइ ककड़ी या बण करेला, जामुन, बेर वा वन दूंगूर के भी पके फलों को खाया जाता है. अमरा या अमियाँ का पका रसीला फल खाया जाता है तो इसके कोमल हरे पत्तों से चटनी भी बनती है. इसकी पत्तियों को बेसन की कड़ी में भी डला जाता है और नाजुक सी कोमल पत्तियों का अचार भी पड़ता है. अमरा के फूलों का अचार भी डालते हैं. फालसा का भी अचार बनता है और पके फल खाये भी जाते हैं. पहाड़ी आवंला और चुक या चूख के फल खाये जाते हैं और खटाई भी बनती है.
भिलमोडा की पत्तियों से भी खूब स्वाद खटाई या चटनी बनती है. चलमोड़ की पत्ती से बनी खटाई अजब ही चटपटी होती है. वहीं माल्यो के खट्टे फल खाये जाते हैं.
पहाड़ की जमीन से खोद कर निकाले कई कंद या गांठें, जड़ें मिलतीं हैं.ऐसा ही एक कंद है क्योल, जिसे खोदने के बाद पका कर खाया जाता है. फूंग की जड़ और गोहतिरि की जड़ को कच्चा ही खाया जाता है.मूयां और तरुड़ की जड़ की सब्जी भी बनती है और खाली उबाल कर या फिर पिसे लूण को छिड़क कर भी खाया जाता है. शिवरात्रि और जन्माष्टमी की फराल में तरुड़ जरूर खाया जाता है. इसकी जड़ें पथरीली जमीन में खूब गहरे जाती हैं, सो खोदने में में काफ़ी पसीना भी बहाना पड़ता है.
ऐसे ही क्योल, बण भड़ के कंद व सिरालू, बिरालु या बिदारी कंद की जड़ को उबाल कर खाते हैं. बिदारी कंद खूब पौष्टिक होता है और बदन को ताकत से भर देता है. इससे मेद या बदन का थुलथुल पना गायब हो जाता है. बड़े नामी गिरामी बैद साठे को पाठा बनाने के गुप्त फॉर्मूले में बिदारीकंद का चूर्ण मिलाते हैं. ऐसे ही ताकत से भारी होती है गेठी जिसकी बेल होती है जिसकी कलिका पर इसके भूरे दाने लटकते हैं. इसका छिकला काफ़ी कड़ा होता है और इसे उबाल के ही सादा या सूखा या पतला साग बना कर खाया जाता है.
अब आता है सिंसौण जिसकी नई कोपल व फूली हुई गांठें जो पीलापन लिए होती हैं का, लटपटा साग बनाया जाता है. ऐसे ही सिमल की कलियों का भी साग बनता है. कुलफी और पनियाँ के हरे पत्तों का साग बनता है तो सकीना के फूल और कली को उबाल कर साग-सब्जी बनती है.
लिंगोड़, लिंगुड़ या लिमोड़ के डंठल मुड़े हुऐ होते हैं जिनमें बारीक रेशे होते हैं जिनकी सूखी सूखी सब्जी खूब लोकप्रिय है. ऐसे ही बेथुआ या बेथु भी यहाँ वहां खूब उगा दिखता है जिसका साग भी बनता है तो उबाल कर रायता बनाया जाता है. ऐसे ही जंगई चू या कंटेली चू और जंगली चू की पत्तियों का भी साग बनता है. कनचाटू की पत्तियों की पकोड़ी बनती है. साथ में भिलमोड़ की पत्तियों की चटनी हो तो कहने ही क्या. दूसरा है चलमोड़ जिसकी चटनी असल चटपटी खट-मिठ होती है. ऐसे ही भंइर या भंगीर के छोटे बीजों को भी खटाई में डाला जाता है.
पहाड़ों में जखिया या जखी भी मिलता है जिसके बीज छौंकने में काम आते हैं. कड़ी पत्ता जिसे गनिया कहा जाता है भी छौंक या बघार में पड़ता है. ऐसे ही तिमुर के बीज भी बघार की तरह मसाले में प्रयुक्त होता है. इसकी चटनी भी बनती है. दाँत के दर्द में फायदा करता है और बैद्य लोग इससे दिल के दाब को ठीक करने वाली दवाई भी बनाते हैं. अब रही बात चाय की तो पहाड़ में होता है गुलबंश जिसके फूलों को सुखा कर अलग किसम के टेस्ट की चहा पी जाती है.
अब थोड़ा और ऊपर चढ़ते हैं. यहाँ आपको बांज और दयार का ठंडा मीठा पानी पीने को मिलेगा. और ऊपर चढ़ते दिखने लगेंगी बरफ से ढकी पहाड़ियां. इस बीच पड़ने वाले पेड़ों में जो पंद्रह सौ से तीन हज़ार फीट की ऊंचाई पे आपको दिखेंगे उनमें काफौ या काफल मुख्य ठहरा. इसे नजदीक से जानने की जरुरत है कहा गया है कि काफल के पेड़ से धरती मैदान ही दिखती है, मतलब ये कि दूर से हकीकत नहीं जानी जा सकती, तभे कुनी, “काफवक बोट बै सैणए देखी“.यह इतना लोकप्रिय कि जन जन से जुड़ने का सफल माध्यम सिद्ध हो गया.
पहाड़ के लोकगीतों, लोकोक्तियों और पहेलियों में भी इसकी खूब चौल ठहरी. गर्मी के मौसम में काफल खा खूब तरावट आने वाली ठहरी. काफल खाने के बाद पानी पीने की बात बड़े बुजुर्ग बताते हैं. पहाड़ का ये ऐसा निराला फल हुआ कि अपने पूरे जीवन कल में तीन रंगों में दिखाई देता है, हरा -लाल और काला. इसीलिए कहा गया कि:
बचपन में हरी भयो, भरी जवानी में लाल
बुढ़ो पन में कालो भयो, कर पंछी विचार.
और फल जो पकने पे खाये घपकाये जाते हैं खूब सारे हैं. इनमें गिवै या गोविन, काउ हिसाउ, तरुआ या चूख तो हैं हीं जो ठीक ठाक पक जाने पे खूब मजेदार स्वाद देते हैं और लार ग्रंथियों को भी पूरा मौका देते हैं. ऐसे ही जंगलों में रामकिया या गोफल भी होता है तो भंग या भालू भी, जमुना या जामुन थोड़ा छोटा काया-काला होता है. खटास भरी मिठास लिए जीभ को भी जरा जर-जर व भारी कर देता है. भमोर भी होता है जो पक जाने पे स्वादिष्ट हो जाता है. तो चुक के फल खा लो या खटाई बना लो. ऐसे ही आसानी से बण काकड़ भी पहचाना जाता है जो पक जाने पे खाते हैं. वहीं माल्यो के खट्टे फल खाते हैं.
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तीन हजार फीट कि ऊंचाई पे उगव, झंगरा या उगौव भी होता है जिसके पात का साग पहाड़ की तासीर के हिसाब से अच्छा होता है. उगल के काले दाने पीस उनकी छोलिया रोटी भी बनती है जो काफ़ी लोचदार होती है. इसके मीठे या नमकीन पूए खूब स्वाद और टेक देने वाले होते हैं.
अब खिलता दिखेगा वो बुरांश जो पहाड़ की हरियाली के बीच लाली के छींटे बिखेर देता है. इस बुरांश के लाल फूलों की पकोड़ी खाइये, बाकी सारे स्वाद भूल जायेंगे. और बुरांश का शरबत तो दिल दिमाग की तरावट के लिए जाना पहचाना नुस्खा है, पहाड़ का रूह अफ्जा.
अब थोड़ा और ऊपर चढ़िये. मतलब तीन हज़ार मीटर से ऊपर, बर्फ की चोटियों के करीब. उस सर्द हवा के बीच जहां मुहं से निकलती भाप आप खुद देख सकें, महसूस कर सकें. अब इस वादी के बनों में मिलेगा सिरकुटि का पेड़, जिसके फल खाये जाते हैं. इनके साथ गाविज या गिवा , गौल, सिपल और सिरकुटि जिसके पके फल खाये जाते हैं तो कबासी के फल को कच्चा या भून कर खाया जाता है. वहीं गाजर के सुवाद वाली जड़ जिसे मनजियारि कहते हैं को कच्चा या भून कर खाया जाता है. फिर जम्बू की घास जैसी मुड़ी पत्तियाँ जिसके छौंक में सब्जी, गुटके व दालों की रंगत ही बदल देने का दम है.
एकदम नेचुरल हैं ये जंगली प्रजातियां जो पहाड़ की धरोहर हैं. तन बदन को चुस्त दुरुस्त रखने का बूता रखती हैं. अकेले कुमाऊं में ही ऐसी नब्बे से अधिक प्रजातियां हैं तो पश्चिमी हिमालय में ढाई सौ व उत्तर -पूर्व में तीन सौ से अधिक. जानकारों ने हिमालय मेंआठ हज़ार से ज्यादा ऐसी किस्मों की पहचान कर डाली है जिनको स्थानीय लोग चाव से खाते हैं.
कोशी, अल्मोड़ा के जी. बी. पंत इंस्टिट्यूट ऑफ एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट ने इस जैव विविधता पर भारी काम किया है. जिसमें टी. एन. ख़ुशू का काम उल्लेखनीय है इससे पहले आइ. सी. ए. आर के एच्. बी सिंह और आर. बी. सिंह ने इन जंगली वनस्पतियों की खोजबीन को बढ़ाया तो डी एस टी की तरफ से जैन व शास्त्री ने हिमालय के स्थानीय पादपों का बेहतर वर्गीकरण किया. ताड़ीखेत के आयुर्वेदिक भेषज अनुसन्धान संस्थान के जी. सी. जोशी ने सर्वेक्षण आधारित लेख लिखे वहीं उत्तराखंड सेवानिधि अल्मोड़ा ने उत्तराखंड के कंदमूल फलों पर पुस्तिका निकाली.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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