देवेन मेवाड़ी

नैनीताल में पत्रकारिता का परचम फहराने वाले ‘विष्णु दत्त उनियाल’ की जन्म शताब्दी

आज से ठीक पैंसठ वर्ष पहले 1956 में उन्होंने पहली बार, पहले दैनिक अखबार ‘पर्वतीय’ का प्रकाशन शुरू करके पर्यटन नगरी नैनीताल में पत्रकारिता का परचम फहराया था. आज कड़े जीवन संघर्ष में तपे उस जुझारू संपादक-पत्रकार के जीवट को सलाम करके उनकी स्मृति को नमन करने का दिन है. नमन, पत्रकारिता की राह को रौशन करके नई पीढ़ी को प्रेरणा देने वाले जुझारू पत्रकार और अनुभवी संपादक विष्णु दत्त उनियाल जी को शत-शत नमन.  
(Vishnu Datt Uniyal)

कौन थे विष्णु दत्त उनियाल? पत्रकारिता का परचम फहराने कहां से आए थे वे? जीवन संघर्ष की यह एक लंबी कहानी है जो सौ वर्ष पहले ठीक आज के ही दिन 30 मई 1921 में आवई-बिचला गांव, उदयपुर पट्टी, पौड़ी गढ़वाल में उनके जन्म के साथ शुरू हुई थी. नौ सदस्यों के किसान परिवार में जन्म हुआ था विष्णु का, जिसकी आजीविका का साधन था केवल चंद सीढ़ीदार खेत और एक घराट (पनचक्की). विष्णु बारह वर्ष का था कि पिता चल बसे. तब स्कूल जाने के साथ-साथ खेतों में हल जोतना, घराट में लोगों का आटा पीसना, जंगल से घास-लकड़ियां लाना और पशुओं को चराना सभी काम सिर पर आ गए. कक्षा चार तक गांव में पढ़ने के बाद पांचवी से सातवीं कक्षा की पढ़ाई उसने किसी तरह दूसरे गांव चमकोट से की. हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए देहरादून जाने का खर्चा तो था नहीं इसलिए पढ़ाई रुक गई.

विष्णु किसी काम से एक दिन लैंसडाउन गया और मन में पढ़-लिख कर मां की मदद का सपना संजो कर लाहौर को चल दिया. जेब में केवल पांच सिक्के. उनमें से भी तीन खोटे सिक्के. कभी पैदल, कभी बिना टिकट और पानी पीकर भूख मिटाते हुए वह पहले फगवाड़ा, अमृतसर और फिर लाहौर पहुंच गया. वहां अचानक गांव का हरिजन लड़का बिसराम काका मिल गया जिसने तीन दिन तक उसके खाने और सोने का इंतजाम किया. फिर एक बुजुर्ग दंपति के यहां चैका-बर्तन का काम मिल गया. विष्णु पहले महीने की मजदूरी से किताबें खरीद लाया. उसको पढ़ते हुए देख कर बुजुर्ग बहुत खुश हुए और उन्होंने उसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. अपनी मेहनत से विष्णु सेकेंड डिवीजन में पास हो गया. बुजुर्ग दंपति की संतान न होने के कारण वे उसे गोद लेकर अपना वारिस बनाना चाहते थे. लेकिन, विष्णु पढ़-लिख कर मां के पास लौटना चाहता था.

बाद में विष्णु एक डेंटल सर्जन का सहायक बन गया और पच्चीस रुपए तनखा मिलने लगी. उसने अपनी मेहनत से पंजाब विश्वविद्यालय की प्रभाकर परीक्षा, इंटर परीक्षा और अंग्रेजी में बीए की परीक्षा भी पास कर ली. फिर शार्टहैंड सीखा और एक डेयरी में सेल्स मैनेजर हो गया. 1944 में विष्णु देहरादून लौट आया. कुछ समय आडिनेंस फैक्ट्री और मिलिट्री एकांउट्स में नौकरी करने के बाद दिल्ली के नेवल हेड क्वार्टर्स में स्टेनाग्राफर बन गया. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नौकरियों में छटनी शुरू हो गई लेकिन अंग्रेज रक्षा सचिव फिलिप्स मैसन की मदद से वह वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर, अल्मोड़ा में स्टेनोग्राफी का इंस्ट्रक्टर हो गया.

उन्हीं दिनों उसे तपेदिक हो गया जिसे तब जानलेवा रोग माना जाता था. हिम्मत जुटा कर वह स्वयं भवाली सेनोटोरियम में पहुंचा जहां अधीक्षक डाॅ. खजान चंद्र ने एक्सरे देख कर उसे होपलेस केस बताया. इसलिए एडमिशन नहीं हो पाया. बीमार विष्णु फिर हिम्मत जुटा कर लखनऊ पहुंचा और वहां स्वास्थ मंत्री चंद्रभानु गुप्त से मिला. वहां से आदेश लेकर फिर भवाली सेनेटोरियम में भर्ती हो गया. नियमित भोजन और उपचार से स्वास्थ सुधरने लगा लेकिन भोजन की कुव्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने के कारण सेनेटोरियम से निकाल दिया गया. वह फिर लखनऊ पहुंचा. सिर मुड़ा कर सचिवालय के सामने लेट गया. पत्रकारों ने पूछताछ की, मामला उछला और विष्णु को फिर भवाली सेनोटोरियम भेज दिया गया.

सेनोटोरियम में रहते हुए विष्णु दत्त उनियाल ने साहित्य रत्न और बीए की परीक्षाएं पास की. सेनेटोरियम से उपचार के बाद वे रोजी-रोटी की तलाश में बंबई पहुंचे जहां भारतीय नौसेना में सेवारत एक पुराने मित्र पी.डी. चमोली ने उन्हें युवा कामरेड-कथाकार दयानंद अनंत के पास भेजा. उनसे उन्होंने जीवन में संघर्ष के कुछ नए पाठ पढ़े. फिर वे अल्मोड़ा लौट आए और इंटर कालेज में विद्यार्थियों को कार्मर्स पढ़ाने लगे. उन्हीं दिनों उन्होंने नौकरी न करने का कड़ा संकल्प लिया ताकि अपने ही बलबूते पर जीवन में कुछ कर सकें.

विष्णु दत्त उनियाल

मन में पत्रकारिता का मोह जाग गया था इसलिए उन्होंने अपना अखबार निकालने का निश्चय किया. अल्मोड़ा से तब ‘शक्ति’ और ‘जागृत जनता’ अखबार प्रकाशित होते थे. 1953 में उनियाल जी ने हैंड प्रेस पर ‘साप्ताहिक पर्वतीय’ का प्रकाशन शुरू कर दिया. यह हैंड प्रेस उन्हें अल्मोड़ा के कुमांऊ-कुमुद साप्ताहिक के मालिक श्री प्रेमबल्लभ जोशी ने दिया था. पाठकों को उनकी निडर, निर्भीक और तीखी लेखनी पसंद आई जो सरकार की कमजोरियों, गलत नीतियों और सामाजिक बुराइयों पर कटु प्रहार करती थी. अपनी स्वतंत्र विचारधारा के कारण पर्वतीय पाठकों में काफी लोकप्रिय हो गया. बाद में उन्होंने पर्वतीय को रामनगर से प्रकाशित करने का निश्चय किया लेकिन वहां राजनैतिक चेतना का अभाव देखकर वे पर्वतीय को नैनीताल ले आए. नैनीताल में उन्हें नगर पालिका पुस्तकालय से कुछ आगे मालरोड के ऊपर पर्वतीय प्रेस के लिए जगह मिल गई. 1956 से वहीं से दैनिक और बाद में साप्ताहिक ‘पर्वतीय’ का नियमित प्रकाशन होने लगा और 1986 तक छपता रहा. 
(Vishnu Datt Uniyal)

पर्वतीय ने नैनीताल में साप्ताहिक और दैनिक अखबारी पत्रकारिता का इतिहास रचा. इस अखबार ने कई नए पत्रकारों को जन्म दिया जो ‘पर्वतीय’ से अनुभव अर्जित करके प्रादेशिक और राष्ट्रीय समाचार पत्रों में पहुंचे. स्वयं विष्णु दत्त उनियाल जी को ‘पर्वतीय’ ने एक मजे हुए पत्रकार और संपादक का सम्मान दिया. इस अखबार को समाज और राजनेताओं का भी स्नेह मिला. सर्ववादी सोच के उनियाल जी ने 1963 में एक राजपूत शिक्षिका सावित्री रावत से शादी की. साल भर बाद एक बिटिया सीमा उनियाल का जन्म हुआ जो आज एक जानी-मानी गायिका और संगीतकार हैं.

साप्ताहिक ‘पर्वतीय’ में विज्ञान संपादक देवेंद्र मेवाड़ी और साहित्य संपादक बटरोही

समाज के हित में अपना योगदान देने के लिए उन्होंने 1974 में एक चेरिटेबल ट्रस्ट शुरू किया और अपनी संपत्ति का आधा भाग उसमें लगा दिया. ट्रस्ट ने पहले एक निशुल्क पत्रकार हाॅस्टिल खोला और बाद में ट्रस्ट की लगभग एक लाख रुपए की आय से गरीब बच्चों को छात्रवृत्तियां दी जाने लगीं. जीवन के अंतिम वर्षों में उनियाल जी कोटद्वार, गढ़वाल चले गए थे. वहां उन्होंने ‘हिमालय अध्ययन कुंज’ खोला और मेधावी, निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियां देने लगे. वे ‘सर्ववादी’ विचार के व्यक्ति थे इसलिए जरूरत से अधिक आय को सदा जरूरतमंद लोगों में बांटने के पक्षधर रहे. विष्णु दत्त उनियाल जी का जीवन संघर्ष यह प्रेरणा देता है कि अगर मन में आगे बढ़ने की उद्दाम लालसा हो तो गांव का एक हलवाहा, घसियारा और पशुचारक किशोर भी जीवन में सफलता की मंजिल हासिल कर सकता है.
(Vishnu Datt Uniyal)

देवेन्द्र मेवाड़ी

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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