उत्तराखण्ड सरकार राज्य में पूंजी निवेश के लिए देश विदेश में इन दिनों ‘रोड शो’ कर रही है. मुख्यमंत्री समेत सरकार के तमाम मंत्री और बड़े नौकरशाह ‘रोड शो’ के जरिये उत्तराखण्ड में ‘आल इज वेल’ और ‘इजी डूइंग बिजनेस’ का संदेश दे रहे हैं. आश्चर्य है कि सरकार के ये रोड शो ऐसे वक्त में हो रहे हैं जब प्रदेश कठिन दौर से गुजर रहा है. प्रदेश की पूरी व्यवस्था सरकार और हाईकोर्ट के बीच ‘झूल’ रही है.
सरकार की निष्क्रियता पर हाईकोर्ट की सक्रियता लगातार ‘चोट’ कर रही है. आए दिन न्यायालय के फैसलों से यह साफ हो गया है कि प्रदेश में आज तक जरूरी पारदर्शी नीतियां सरकार तैयार नहीं कर पायी है. न्यायालय के सख्त रुख के चलते आज प्रदेश में तमाम निर्माण कार्य बंद हैं. साहसिक खेलों, उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ट्रैकिंग और जल क्रीड़ा पर रोक लगी है. इससे पर्यटन कारोबार को झटका लगने के साथ ही स्थानीय बेराजगारों की दिक्कतें भी बढ़ी हैं. प्रदेश के राजस्व क्षेत्रों में कानून व्यवस्था ध्वस्त है तो शहरी क्षेत्रों में अतिक्रमण हटाओ अभियान से आम जनता भी परेशानी झेल रही है. सरकार नाकामी का ठीकरा हाईकोर्ट के आदेशों पर फोड़ती है, लेकिन दिलचस्प यह है कि इसके बावजूद न्यायालय पर आम लोगों का भरोसा और मजबूत हुआ है.
यह स्पष्ट है कि न्यायालय के फैसलों के निहितार्थ सरकार नहीं समझ पा रही है. जबकि उच्च न्यायालय ने खुद एक फैसले में सरकार को यह ध्यान दिलाया है कि समाजवाद और जनकल्याण भारतीय संविधान के मुख्य गुण हैं. हालत यह है कि कई मौकों पर तो सरकार की भूमिका खुद हाईकोर्ट निभाता नजर आ रहा है. प्रदेश के लिये जरूरी नीतियां बनाने से लेकर हड़तालें खत्म कराने तक में हाईकोर्ट को आगे आना पड़ रहा है. हाईकोर्ट के फैसलों से ‘प्याले में तूफान’ तो है मगर फैसलों के मूल में स्थित अवधारणा अधूरी है. सिस्टम की लचर कार्यप्रणाली के चलते हाईकोर्ट के बेहतरीन फैसले भी अपना सही इम्पैक्ट नहीं छोड़ पा रहे हैं. कई बार सरकार के मजबूती से पक्ष और तथ्य न रख पाने के कारण अव्यावहारिक फैसले सामने आते हैं, तो कई बार सही तरह से अमल न करने पर हाईकोर्ट के फैसले उल्टा परेशानी का सबब बन रहे हैं.
चलिये एक नजर डालते हैं हाईकोर्ट के कुछ अहम फैसलों और उनके ‘इम्पैक्ट’ पर. शुरूआत अतिक्रमण पर दिये चर्चित फैसले से जिससे देहरादून सहित तमाम दूसरे शहरों में भूचाल है. न्यायालय ने अपने आदेश में तय सीमा के अंदर सख्ती के साथ देहरादून में अतिक्रमण ध्वस्त करने के निर्देश तो दिये ही, साथ ही नदियों के किनारे खाली कर उन्हें पुनर्जीवित करने को भी कहा है. सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले का बड़ी सफाई के साथ अपनी जरूरत के मुताबिक मनमाना इस्तेमाल किया. आजादी से पहले का एक नक्शा लेकर सरकार की तमाम टीमें सड़कों पर उतरीं और अतिक्रमण हटाने के नाम पर अपनी जरूरत पूरी करती चली गयीं. पता चला कि जो अतिक्रमण सरकार ने हाईकोर्ट का खौफ दिखाकर हटाया, वह तो स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए सरकार की जरूरत था.सरकार की कलई तो तब खुली जब सरकार नदियों के किनारे बसी मलिन बस्तियों को इस अभियान से बचाने के लिए एक अध्यादेश लायी. न्यायालय के आदेश पर शहर भर में कहर बरपा रही सरकार ने इस अध्यादेश से नदियों किनारे अतिक्रमण और अवैध कब्जों को साफ बचा लिया .
अब बात उस फैसले की जिसके चलते प्रदेश में राफ्टिंग सहित तमाम साहसिक खेल बंद हैं. प्रदेश में सरकार ने पयर्टन को उद्योग का दर्जा जरूर दिया लेकिन पर्यटन से जुड़ी तमाम गतिविधियों के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं थी. पर्यटन के नाम पर अनियोजित गतिविधियों का मनमाने तरीके से संचालन हो रहा था. इसी से संबंधित एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने सुरक्षा और पर्यावरण का हवाला देते हुए सरकार को रीवर राफ्टिंग, पैराग्लाइडिंग और अन्य जल खेलों के लिये उचित कानून बनाने का आदेश दिया. उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि पर्यटन को प्रोत्साहित करने की जरूरत है पर इसका नियमन किये बगैर नहीं. न्यायालय ने दो टूक कहा कि खेलों से मिलने वाली खुशी का अंत आपदा के तौर पर नहीं होने दिया जा सकता. प्रदेश में खेल गतिविधियों के नाम पर अय्याशी की इजाजत नहीं दी जा सकती. सरकार ने इस अहम मुद्दे पर मलिन बस्तियों को बचाने जैसी सक्रियता नहीं दिखायी. न्यायालय के आदेश के क्रम में केबिनेट ने एक नीति को जरूर मंजूर दी . सरकार की यह नीति फैसले के निहितार्थ पूरा कर पाएगी या नहीं यह कहना मुश्किल है.
शिक्षा से जुड़े एक अहम फैसले पर गौर करें. उच्च न्यायालय ने हर स्कूल में पीने का साफ पानी, छात्र-छात्राओं के लिये अलग-अलग साफ शौचालय, फर्नीचर के साथ सुरक्षित कक्षाएं, ब्लैक बोर्ड, अध्यापक और बिजली की व्यवस्था सुनिश्चित करने को कहा. स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिये सरकार को कम से कम सौ करोड़ रुपये के बजट की व्यवस्था कराने को कहा. सरकार ने राज्य की माली हालत का हवाला दिया तो न्यायालय ने कहा कि वह राज्य की खराब वित्तीय स्थिति से परिचित है, लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गिरती स्थिति चिंता का विषय है.
अदालत ने कहा कि राज्य को जमीनी स्तर पर बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा देने और बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिये अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करना चाहिए. सरकार को सुख-सुविधाओं और अन्य अनुपयोगी चीजों पर होने वाले व्यय का इस्तेमाल शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने के लिये व आवश्यक धन जुटाने के लिये करना चाहिए. न्यायालय ने आदेश दिया कि उत्तराखंड के स्कूलों की दशा सुधरने तक सरकार लग्जरी सामान जैसे कार, एसी, फर्नीचर, पर्दे आदि नहीं खरीदेगी. आवश्यक सामान की खरीद भी मुख्यसचिव की अनुमति से ही करेगी. न्यायालय के इस आदेश की समय सीमा गुजर चुकी है लेकिन स्कूलों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार अभी तक नहीं है. सिर्फ शिक्षा ही नहीं उच्च न्यायालय ने प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए भी सरकार को सख्त लहजे में निर्देशित किया. एक जनहित याचिका पर मरीजों की तीमारदारी के हक में फैसला सुनाते हुए उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि जिन अस्पतालों का प्रदेश में क्लीनिकल इस्टेबलिस्मेंट एक्ट के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन नहीं है उन्हें सील कर दिया जाए. साथ ही नियमावली तैयार कर यह सुनिश्चत करने को कहा है कि पंजीकृत अस्पताल नियमावली का पालन करें. नियमावली के साथ ही पंजीकृत अस्पतालों में अलग अलग टेस्टों, आपरेशन और इलाज की दरें निर्धारित करने के लिए कहा है.
उच्च न्यायालय की इस मुद्दे पर संवेदनशीलता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि न्यायालय की खंडपीठ ने फैसले में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं सुधारने के लिए विशेष पैकेज देने का निवेदन भी किया है. इसके विपरीत सरकार के हाल यह है कि क्लीनिकल इस्टेबलिस्मेंट एक्ट के तहत सरकार खुद प्रदेश के तमाम अस्पतालों को छूट देने की तैयारी में है.
अन्य मुद्दों की बात करें तो प्रदेश में नशे के बढ़ते चलन और कारोबार पर सरकार से ज्यादा चिंतित न्यायालय नजर आ रहा है. न्यायालय ने सक्रियता दिखाते हुए प्रदेश में 434 किस्म की दवाइयों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया है. सभी सरकारी संस्थानों और शिक्षण संस्थानों में ड्रग कंट्रोल क्लब गठित करने और जिला अस्पतालों में नशा मुक्ति सेल गठित के निर्देश दिये गए हैं, इसी तरह आए दिन सड़क दुर्घटनाओं पर संजीदगी दिखाते हुए हाईकोर्ट ने सरकार के परिवहन सचिव को तलब कर व्यापक दिशा निर्देश जारी किये हैं जिसमें रोड सेफ्टी एक्ट और मोटर व्हेकिल एक्ट का सख्ती का पालन करने के साथ ही पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम सुधारने को कहा गया. हाईकोर्ट के निर्देशों का असर काफी हद तक सड़कों पर तो देखने को भी मिला लेकिन नीतिगत मसलों पर सरकार के स्तर से फैसलों की दरकार अभी बाकी है.
प्रदेश में मजबूत कानून व्यवस्था पर भी उच्च न्यायालय ने चिंता जताई है. न्यायालय ने राजस्व पुलिस की व्यवस्था को समाप्त कर सिविल पुलिस व्यवस्था लागू करने के निर्देश दिये । सरकार तय सीमा में इस पर अमल नहीं कर पायी और अंत में उच्चतम न्यायालय में अपील की. इस बीच प्रदेश में राजस्व पुलिस व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है. चलते-चलते एक और फैसले का जिक्र यहां जरूरी है जिसमें उच्च न्यायालय ने राजधानी देहरादून नगर निगम सीमा विस्तार को निरस्त किया है.सरकार ने आनन-फानन में देहरादून नगर निगम से लगते हुए साठ गावों को बिना किसी तैयारी के नगर निगम में शामिल किया था. सरकार के इस फैसले पर शुरू से सवाल उठते रहे हैं, न्यायालय में इस मसले के जाने के कारण नगर निकाय चुनाव लटके हुए हैं.
कुल मिलाकर हालात कतई ठीक नहीं हैं, व्यवस्था सरकार और हाईकोर्ट के बीच झूल रही है. हाईकोर्ट की सक्रियता सरकार को रास नहीं आ रही है. सत्ता के गलियारों में बेचैनी है, हाईकोर्ट की मंशा को लेकर तमाम चर्चाएं भी हैं. इसमें कोई शक नहीं कि शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और रोजगार सहित प्रदेश के जमीनी मुद्दों पर जहां सरकार बेपरवाह बनी हुई है, वही हाईकोर्ट बेहद संवेदनशील नजर आ रहा है.
सिस्टम पर सरकार का इकबाल भले ही नजर न आता हो लेकिन हाईकोर्ट का खौफ साफ नजर आता है. अब तो पहले बात-बात पर हड़ताल की धमकी देने वाले डाक्टर मास्टर कर्मचारी हड़ताल का नाम लेने से भी तौबा करने लगे हैं. मौजूदा स्थिति प्रदेश के लिए बहुत लंबे समय तक के लिए ठीक नहीं है. सरकार को हाईकोर्ट के फैसलों के निहितार्थ समझने ही होंगे. सरकार सिर्फ निहितार्थ समझ कर उन पर ईमानदारी से अमल कराती है तो निश्चित ही हर ‘आरोप’ से बरी हो सकती है.
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