आज जहाँ पलायन उत्तराखण्ड की प्रमुख समस्या बना हुआ है वहीँ कुछ युवा ऐसे भी हैं जिनमें महानगरों के सुविधाजनक जीवन का त्याग कर अपनी जड़ों से जुड़ने और जीवन के नए रास्ते तलाशने का जज्बा दिखाया है. जिनके सफ़र में मिट्टी की खुशबू है और संस्कृति के रंग भी. ऐसे ही जुनूनी युवा हैं कैलाश कुमार.
मूल रूप से मझेड़ा, डीडीहाट के रहने वाले कैलाश कुमार की परवरिश और शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में हुई. पिताजी लक्ष्मण राम यहाँ एमटीएनएल में कर्मचारी हैं. दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री सीनियर से सेकेंडरी स्कूल में अध्ययन करने के दौरान ही कैलाश ने मंचीय गतिविधियों में हिस्सेदारी कि शुरुआत की. छात्र जीवन से ही उनका मन सांस्कृतिक गतिविधियों में रमने लगा.
12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही उन्होंने फैसला लिया कि वह रंगमंच को ही अपनी कर्मभूमि बनायेंगे. उन्होंने ‘नाट्य कुलम, जयपुर’ से संगीत एवं नाटक अकादमी द्वारा संचालित डिप्लोमा कोर्स में दाखिला ले लिया. इस दौरान उन्होंने अभिनय, निर्देशन, साज-सज्जा, मंच सज्जा समेत रंगमंच के सभी गुर सीखे.
साल 2011 में डिप्लोमा पूरा करने के बाद कैलाश मंचीय गतिविधियों में लग गए. इसी दौरान इन्हें संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार की तरफ से नाट्यशास्त्र के अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति मिली.
लोक से जुड़ाव कैलाश को घुट्टी की तरह पिलाया गया था. वह बताते हैं कि परिवार की आपसी बातचीत के लिए कुमाऊँनी बोलने की बाध्यता थी. दिल्ली में रहकर भी परिवार अपनी जड़ों के साथ मजबूती से जुड़ा रहा, यही वजह रही कि कैलाश अपनी लोक संस्कृति से गहरे जुड़े रहे.
लोकसंस्कृति से उनके आत्मिक लगाव की वजह उनके बुबू (दादा) फकीर राम भी रहे, जो सधे हुए लोक कलाकार थे. 100 बरस से ज्यादा जीवित रहे इनके दादा ने अपना आखिरी समय दिल्ली में बिताया. उनके सानिध्य से कैलाश पहाड़ में और गहरे धंसते चले गए. गुलाम भारत के चश्मदीद बुबू के पास अपने नाती में संस्कार भरने के लिए बहुत कुछ था.
इसी परवरिश का नतीजा रहा कि कैलाश थिएटर या सिनेमा में अपना कैरियर बनाने के बजाय रंगमंच को चुना. उससे भी आगे बढ़कर उन्होंने उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति, लोक कला के संरक्षण, संवर्धन तथा यहाँ बसकर रंगमंच के लिए काम करने का निश्चय किया. इसके लिए भी उत्तराखण्ड के राजनीतिक, आर्थिक महत्त्व के सत्ताकेंद्रित शहरों का चुनाव करने के बजाय उन्होंने पिथौरागढ़ जैसे दुर्गम और सीमान्त जिले को अपनी कर्मभूमि बनाया.
2012 में उन्होंने पिथौरागढ़ में अपनी संस्कृतिक गतिविधियाँ शुरू कर दीं. इस कार्य के लिए उन्होंने 2014 में ‘भाव, राग, ताल नाट्य अकादमी’ संस्था की स्थापना की. अकादमी की उद्देश्य लोक संस्कृति, लोक कलाओं का संरक्षण, प्रचार-प्रसार करने के साथ ही अगली पीढ़ी को इनका हंस्तान्तरण भी रखा गया. कैलाश बताते हैं कि इस तरह मैं उस गुरु शिष्य परंपरा को भी आगे बढ़ा पा रहा हूँ जिसकी कि मैं खुद भी पैदाइश हूँ.
तीन साल बाद कैलाश आसन्न चुनौतियों से निपटने के लिए अपना बोरिया बिस्तर समेटकर पिथौरागढ़ आ गए. उनका परिवार आज भी दिल्ली में ही रहता है और वो किराये के कमरे में रहकर अपने अरमानों कि उड़ान भरते हैं. नए संकल्प लेते हैं.
अब उन्होंने रंगमंच के लिए नयी पीढ़ी को प्रशिक्षित करना भी शुरू किया. कैलाश ने ‘हिल जात्रा’ के लिए फैलोशिप पाने का प्रयास किया और 2016 में उन्हें ‘संगीत नाट्य अकादमी’ की फैलोशिप मिल भी गयी. इसके बाद इन्होंने हिल जात्रा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया. कैलाश ने संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली द्वारा हिलजात्रा के दस्तावेजीकरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. भाव राग ताल अकादमी की बदौलत हिलजात्रा का मंचन उत्तराखंड के अलावा दिल्ली, चित्रकूट और इटारसी में भी किया जा चुका है. दिल्ली में तो इसके कई मंचन हो चुके हैं. इसके अलावा अकादमी लोकगाथाओं, हिंदी और संस्कृत नाटकों के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय काम कर रही है.
कैलाश बताते हैं कि जब मैंने हिलजात्रा के क्षेत्र में अपना काम शुरू किया तो पाया कि आर्थिक बदहाली की वजह से कई लोगों ने इसे मनाना छोड़ दिया था. वे बताते हैं कि हिलजात्रा की ‘प्रोपर्टीज’ में खासा पैसा खर्च होता है. यही वजह थी कि पिथौरागढ़ कस्बे के संपन्न इलाकों में तो इसे बेहतर तरीके से मनाया जाता है. लेकिन गरीब ग्रामीण क्षेत्रों के लोग इसे ठीक तरह से नहीं मना रहे थे. अकादमी अपनी टीम बनाते समय इसमें अलग-अलग गावों के लोगों का प्रतिनिधित्व रखती है.
भाव राग ताल अकादमी पिछले दो सालों से ‘विश्व रंगमंच दिवस’ के अवसर पर पिथौरागढ़ में ही दो दिवसीय लोकोत्सव का सफलतापूर्वक आयोजन भी कर रही है. अकादमी द्वारा प्रशिक्षित कुछ युवाओं खासकर लड़कियों ने राज्य से बाहर भी रंगमंच की दुनिया में अपना नाम बनाया है.
कैलाश ने हिलजात्रा के संरक्षण और प्रसार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. राज्य के कई युवा रंगमंच की दुनिया में अपनी जगह तलाशने निकले और वहीँ के होकर रह गए मगर कैलाश उस उम्र में यहाँ लौटे जब उनके सामने एक अपना कैरियर बनाने का भरपूर अवसर था. उन्होंने युवाओं के सामने एक मिसाल प्रस्तुत की है कि कैसे मिट्टी से जुड़े रहकर भी अपना जीवन जिया जा सकता है, बस मन में कुछ कर गुजरने की चाह होनी चाहिए और अपनी मातृभूमि के लिए प्यार. कैलाश उजड़ते पहाड़ की उम्मीद भी हैं और हौसला भी. ऐसे युवा उत्तराखण्ड के कई युवाओं के प्रेरणास्रोत भी बनेंगे. जमे रहो.
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