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बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना

इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते रहे जहाँ भेजा चला गया और फिर एम बी कॉलेज हल्द्वानी. भय ये भी था कि डिग्री प्राचार्य में आना है. भले ही अनुवांशिकता में बाबूगिरी के जीन्स मिले हों पर ये मुझे अच्छी तरह मालूम था कि कार्यालय तो संभाल लूंगा पर अध्यापकों के प्रपंच की नटवर गीरी मेरे बस की थी ही नहीं. भला हो बॉटनी वाले एम एम जोशी का जिसने अपनी वरीयता को ले कर हाई कोर्ट में दस्तक दे दी थी और मामला लटक गया था.दिल कहता था कि जब एम सी पांडे जी से सज्जन पुरुष बरसों एम बी कॉलेज में जमें हैं और कॉलेज चला जा रहा है तब भी उनका बाल बांका नहीं हुआ जब महाविद्यालय के एक छात्र नेता ने आत्मदाह कर डाला. और कोई प्राचार्य होता तो उसकी अस्थियां भी न बीनी जातीं. पर मेरा असमंजस कुछ भिन्न था. प्राचार्य रहे डॉ डी डी पंत जिनका वैज्ञानिक आभा मण्डल उनके प्रति श्रद्धा से भर देता और जब वह ए एन सिंह हाल में कोई भाषण देते तो उनके स्वर सीधे ज्ञान विज्ञान की अपार दुनिया में प्रवेश करा देती. ऐसी ही कई बातों का सूत्र इंटर हिंदी में मुझे त्रिपाठी जी के भाषणों से मिल चुका था अब ये फैल रहीं थीं. पंत जी गाँधी दर्शन पर भी बोलते थे और बाद में बटरोही जी के साथ उनकी एक किताब भी सामने आई थी पर इसका सम्बन्ध गाँधी के स्वालंबन और ग्राम स्वराज के साथ ब्रम्हचर्य व संतति निग्रह से उपजे सवालों को कहीं हाशिये पर छोड़ देता था. नौकरी लगने के तुरंत बाद तो मैंने परिवार नियोजन के सर्टिफिकेट को प्रस्तुत किये बिना तन्खा न मिलने के दुरूह पलों को झेला था और तमाम लिजलिजे अधिकारी कैसे सख्त डंडे बाज बन जाते हैं इसका अनुभव किया था.

त्रिपाठी जी तब मिले थे जब बिरला कॉलेज श्रीनगर में गर्मियों की छुट्टी होने पर में नैनीताल आया था.1974 में जब में दिल्ली दूरस्थ शिक्षा व फिर राजकीय महाविद्यालय में नौकरी पर आया तब वह यहीं इंटर कॉलेज में थे. उनसे बड़ी लम्बी बातचीत हुई. उत्तराखंड के अतीत के बारे में उन्होंने बहुत विस्तार से बताया. ऐतिहासिक पुनरावलोकन में मेरी कोई खास रूचि न थी. उनकी बातें सुन मैंने सोचा कि इस दिशा में मुझे कायदे से पढ़ना है. आखिर अंग्रेजों के द्वारा लिखे सन्दर्भ ही आज प्रामाणिक हैं. यहां बी डी पांडे के इतिहास से आगे के लिए भी हम पलट एटकिंसन को ही देखते हैं. शेरिंग की बॉर्डरलैंड पलटते हैं. श्रीनगर रहते दो बार में दुगड्डा जा शिवप्रसाद डबराल जी जैसे मनीषि के दर्शन कर चुका था जो लगातार लिखते उसे प्रकाशित भी करवा रहे थे.मुझे कौन से सन्दर्भ से शुरुवार करनी है इस पर त्रिपाठी जी ने पूरा रोडमैप खींच दिया. वापस श्रीनगर आने पर अपने मित्र महेश चंद्र कर्नाटक जो वहां इंटर कॉलेज में कॉमर्स प्रवक्ता थे ने बताया कि त्रिपाठी जी ने पिथौरागढ़ से माध्यमिक के शिक्षकों को एकजुट करना शुरू किया है. मैंने उन्हें बताया कि वह तो कंपास की तरह हैं. बस सही दिशा दिखा देते हैं रास्ता तो खुद ही पार करना पड़ेगा. श्रीनगर में डॉ के एन नौटियाल उनके काम की बड़ी तारीफ करते थे जो पुरातत्व कामों में उलझे दिखते थे. अर्थशास्त्र विभाग के मेरे अग्रज धनेश पांडे भी अक्सर यह कहते कि उन्होंने ऐतिहासिक तथ्य बड़ी खोजबीन से सामने रखे हैं नहीं तो यहां ऐसा हुआ होगा, ऐसा प्रतीत होता है की भेड़ चाल ही दिखाई देती है. श्रीनगर से जब में अल्मोड़ा महाविद्यालय आया तब वहां इतिहास के बड़े मनीषी नित्यानंद मिश्र से अक्सर ही मिलता जो नैनीताल बिरला स्कूल से सेवानिवृत होने के बाद अल्मोड़ा जाखनदेवी से ऊपर की सड़क में अपने पैतृक आवास में रहने लगे. मैं नैनीताल से हूँ जान उन्होंने दो लोगों के बारे में मुझसे पूछा पहले त्रिपाठी जी और दूसरे विशम्भर नाथ साह ‘सखा’.

एम बी कॉलेज, हल्द्वानी में रहते नैनीताल नजदीक हो गया. पुराने सभी अड्डे फिर रौनक हो गये. नैनीताल की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि दर्शन घर से माल रोड का एक चक्कर लगा तमाम लोग टकरा जाते. एक चक्कर दुर्गा साह लाइब्रेरी का भी लग जाता जिसकी सदस्यता मैंने 1974 से बाहर रहते छोड़ी न थी. लाइब्रेरी के ऊपर ही मोहन निवास में अपने गुरु के साथ बिताये पल याद आते तो उनके बगल में ही हाई स्कूल के अपने हेड मास्टर श्री गिरीश चंद्र पांडे जी. जब भी उस सड़क तक पहुंचता जिससे सट कर मोहन निवास का परिसर आता तो दो क्रोकर स्पेनियल कुत्ते स्वागत के लिए तेजी से दुम हिलाते तब तक भोंकते रहते जब तक भीतर से कोई आ उन्हें शांत न कराये.तब जो भी लिखा उसे गुरू को दिखाने का बड़ा चस्का था. कैपिटल कॉपी के कितने पन्ने चिरते. स्याही वाली पेन में कैमल स्याही भरी जाती. बप्पा जी के खजाने में हरी स्याही वाली दवात भी होती थी जिसके लिए मैंने पूरे दस रूपये खर्च कर नई अजंता पैन खरीदी थी. यह दस रुपए मेरे एक महिने में ट्यूशन से कमाई रकम थी. जोशी मिष्ठान भंडार के रामदत्त जोशी ने मुझे अपने सेंट जोसफ जाने वाले लड़के को मैथ्स पढ़ा देने का अनुरोध किया था और साथ में दुकान में दो मलाई के लड्डूओं के साथ दूध का गिलास भी पेश किया था. विनोद नाम था मेरे चेले का जो बाद में मेरा दोस्त बन गया. उसे किताब खरीद सजाने का बड़ा शौक था और तब नैनीताल में एक बंगाली बाबू आते कुर्ता धोती वाले. राम दत्त जोशी की मिठाई की दुकान के बगल में उप्रेती लोगों का जो बड़ा मकान था उसमें बंगाली का किताबों का गोदाम था. हमारे बप्पा उसे जानते और जब इतवार को सुबह वहां सब्जी की आड़त में हम उनके साथ झोले थामे पंहुचते तो बप्पा जी बंगाली से मिलते और अपनी पसंद की किताब छांटते. हमारे लिए भी देखी जातीं. रूपये दो रूपये में ले मोटी मोटी बढ़िया जिल्द वाली किताब.

मार्क्स की कैपिटल मैंने बंगाली से खरीदी थी जिसके तीन रूपये विनोद ने सहर्ष दिए थे और जिसे देख बप्पाजी बोले ये अब महेश की लाइन पर जा रहे हो. कम्युनिस्ट बनेंगे साले.

महेश दा कम्युनिस्ट था क्या इसलिए कि वह पूजा नहीं करता. सुबह उसके कमरे में कोई धूप जलाने की गुस्ताखी नहीं कर सकता था. जब हर हफ्ते दस दिन कोई त्यौहार पर्व होता तो सर पर पिठ्या लगाने को तो मना न करता पर उतनी ही तेजी से वह पूछ भी जाता. कोई बर्त वगेरा नहीं करता न शिब रात्रि न जन्मआष्ट्मी. पर फराल जरूर खाता.और कभी कभी तो खूब ही खाता. ईजा माया दी कहते इसे भसम रोग हो गया. पर मुझे धन सिंह ने बताया कि त्यार के दिन तो सिगरेट में भर दम का शकुन होता है. और सिगरेट तो पढ़ने लिखने वाले पीते ही हैं. इससे कंसन्ट्रेशन होता है.

ये कम्युनिस्ट क्या होता है?

उसी मोहन निवास से सीधे बाटा की दुकान को जाती कच्ची पर चौड़ी सड़क पर चलते मैंने अपने गुरू से पूछा था जो बड़े ध्यान से हर बात सुनते मुस्कुराते और बताते. हंसी मजाक भी करते कहानी भी चलती और फिर वह सवाल खुलता. जब से इंटर में उनने मुझे क्लास में सबसे आगे की सीट पर बैठाया तब से ब्लैक बोर्ड भी मेरे करीब था आवाज भी साफ थी और चेहरा भी.

दुनिया में राज करने के कई तरीके हैं. इनमें राजतन्त्र हुआ लोकतंत्र हुआ. हमारी खिचड़ी अर्थव्यवस्था हुई जिसमें पूंजी वाद भी हुआ और समाजवाद भी और इनका चरबा भी. टाटा बिरला गोदरेज, सरकारी कारखाने, किसान और मजदूर, धर्म और राजनीति, ऐसी कितनी ही परछाईयां. जिनसे गुजरने के रास्ते त्रिपाठी जी की क्लास और उनके घर के दरवाजे खुलने की प्रतीक्षा में रहे थे. क्लास फेलो था सुभाष बनर्जी था बंगाल वाला वो बताता कि उसके यहां कम्युनिस्ट सरकार है और दुर्गापूजा भी खूब होती है.सुभाष के साथ ही नैनादेवी मंदिर में दुर्गापूजा की तैयारी देखी कितने लोग आते बंगाल से मूर्ति भी आती माता की. खूब धूप दीप लाल साड़ी गोल बिंदी माथे पर सिंदूर गोल थाली बजा टन टन टन मुँह में उंगली डाल उ लू लू लू. मार्क्स तो धर्म को अफीम कहता है.

ये जो पुजारी है पंडा है ये दिमाग में घुस ऐसा कीड़ा फैलाता है कि सब राजा के आगे कोई आवाज नहीं उठाते. शोषण के हथियार होते हैं सिपाही सामंत मंत्री संत्री. अभी चार साल पहले ही यू एस एस आर में हमारे दूसरे प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु हुई. उन्हें किसने मारा क्या कम्युनिस्ट लोगों ने? चीन ने हमारे देश में हमला किया वो भी कम्युनिस्ट? बड़ी भारी योजनाएं रूस की मदद से चल रहीं. नेहरू जी की पंचवर्षीय योजनाएँ धड़ाम हो गईं अभी चार साल पहले रूपये का अवमूल्यन हो गया. देश की नाक कट गई?

कमलेश्वर की कहानी, “जॉर्ज पंचम की नाक” इस पर नाटक लिखूंगा.करूँगा.

बहुत सारे सवाल थे. गुरू था तो जवाब भी थे. पंचशील, गुट निरपेक्षता.जय प्रकाश नारायण और श्रीमती इंदिरा गाँधी. महेश दा नियमित रूप से ब्लिटज अखबार पढ़ते. वह ऑब्जरवेटरी मनोरा पीक में ही रहते इसलिए उन्होंने मुझे ये जिम्मेदारी दी थी कि मैं आर नारायण से हर शनिवार ब्लिट्ज ले संभाल कर रखूँ. यह हिंदी और अंग्रेजी दोनों में आता. ददा ने कहा कि मैं हिंदी वाला भी लूँ और उसे पढ़ूं. बीच का पेज जिसमें आर के करंजिया का संपादकीय होता था और आखिरी पेज जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास का आजाद कलम.

ये मुसलमान कम्युनिस्ट कैसे ही गये. इनके यहां तो इस्लाम है उस हिसाब से तो खुदा ही सब कुछ पर. एक दूसरी पत्रिका जिसे महेश दा रिसाला कहते वह थी उर्दू पत्रिका जो खूब मोटी होती और जिसमें कई कई कहानियाँ होती. ये मॉडर्न बुक डिपो में मिलती और कभी समय पर न मिलती. कितनी बार ले जाता पहले तो वह नहीं है कहते तो मैंने हाथ में दस का नोट पकड़ पूछने की आदत बना ली. तब वह तुरंत मिल जाती. इससे उसके मालिक पंजाबी सेठ से मेरा परिचय भी हो गया. फिर उन्होंने बताया कि ये अच्छे भले केक पेस्ट्री खाने वाले सेंट जोसफ जैसे कॉलेज के लौंडे उनके स्टोर से छुटपुट चोरी बहुत करते हैं इसलिए वह स्टूडेंट टाइप को मुँह नहीं लगाते. अब ये मॉडर्न बुक डिपो था भी तो पूरा अजायबघर वहां खाने पीने की सारी अंग्रेजी चीजें, गिफ्ट आइटम और हर किस्म की पत्रिका किताब भी मिलती थीं. मेरा दोस्त गिरुआ यहीं से आज़ादलोक खरीदता था. वह पत्रिका स्टापेल की होती थी.

ऐसा भी साहित्य होता है? यह पूछने की हिम्मत तारा चंद्र त्रिपाठी जी से तो हुई नहीं पर हिंदी साहित्य पढ़ाने वाले मुनीन्द्र नाथ पांडे जी ने एक दिन ऐसी पत्रिकाओं का पूरा सांगोपांग बखान कर डाला. हुआ ये कि इंग्लिश पोएट्री की क्लास में देबुआ भंचक सबसे पीछे बैठा बड़े ध्यान से पढ़ाई कर रहा था. सर थे श्री शेखरा नंद ओली जी जो बहुत ही धाराप्रवाह पढ़ाते. खूब उदाहरण देते जी पढ़ाते पोएट्री में उसे अपनी भाव भंगिमा से साकार कर देते और पूरी क्लास का दौरा करते पढ़ाते.पढ़ाने में उनके मुँह से निकले थूक से हमारा सर भी भीगता खास कर फर्स्ट रो वालों का. तो ऐसे ही रोमांटिक पोएट्री में डूबे सर ने बड़ी तन्मयता से पढ़ते देबुआ भंचक की टेबल से वह पत्रिका हाथ में पकड़ लहरा दी जिसका नाम आजाद लोक था. देबुआ के बगल ही गिरीश बैठता था. पत्रिका बीते दिन ही मॉडर्न बुक स्टोर से खरीदी गई थी.

ये सब पढ़ते हो ध्यान लगा कर मेरी क्लास में पोएट्री की क्लास में. गुरुदेव ओली जी दहाड़े थे.

सर मेरी नहीं है ये.

शट अप यू बास्टर्ड.गेट आउट फ्रॉम माय क्लास.

ओली सर को हाई बी पी भी था. कभी कभी वह क्लास में भी जेब से एक स्ट्रिप निकाल उससे एक टेबलेट निकाल निगल लेते.

ये पोर्न मटेरियल.

आगे विस्तार दूसरे दिन हुआ क्योंकि घंटी बज गई थी.

बड़ी खुसपुस होती रही. देबुआ तो फरार हो गया पता चला सीधे ऊपर ब्रुक हिल हॉस्टल जा छुप गया. उसके इंचार्ज अंग्रेजी के दूसरे सर जगदीश चंद्र पंत जी थे. उनका बेटा मेरा मित्र था जिसने शाम को ही मुझे खबर दी कि देबुआ को पापा ने समझा दिया है कि ऐसा साहित्य एक नशे की तरह होता है. इससे कई गन्दी आदतें पड़ जाती हैं. इसके चक्कर में मर्डर भी हो जाते हैं.

उसने बताया कि अभी कुछ महिने पहले ताल से जो कॉलेज के पिओन की लड़की की डेड बॉडी मिली उसको रेप कर मारा गया. अरे तुझे नहीं मालूम. मुझे तो कुलदीप हुड़्डा ने बताया कि राज भवन के पीछे जो खूब बड़ा गार्डन है वहाँ ले जाते थे उसे उसके लवर. वो प्रेग्नेंट भी हो गई. अब पुलिस जाँच कर रही. बड़े एफलुएंट हैं वो अंग्रेजी स्कूल के हॉस्टल में रहने वाले.

रहस्य रोमांच कर्नल रंजीत, चन्दर हिन्द पॉकेट बुक के इन नोवल का चस्का तो मुझे भी लग गया था. और वो उर्दू कहानियाँ उसमें भी बड़ी गजब की कहानी होती थीं. इस्मत चुगताई, सदाअत हसन मंटो.

अगले ही दिन जब मुनीन्द्र नाथ पांडे जी की क्लास हुई तो यही विषय छिड़ गया. उन्होंने बताया कि ये ऐसा साहित्य है जो हर युग में खूब पढ़ा जाता है. संस्कृत से हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी साहित्य के इतने उदाहरण कि दिमाग भीग गया. उन्होंने बताया कि जो हमारे प्रोफेसर छैल बिहारी गुप्त हैं उन्होंने अंग्रेजी में जो थीसिस लिखी है उसका उन्वान ही द एलिमेंट्स ऑफ़ नायक -नायिका भेद है.

1991 में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के इतिहास विभाग में एक सेमिनार हुई जिसमें तारा चंद्र त्रिपाठी जी आए थे. मैं सेमिनार के सभी सत्र में शामिल तो हो न पाया क्योंकि बाकी क्लासेज रेगुलर चल रहीं थीं. महाविद्यालय का माहौल भी बहुत कुछ अशांत अराजक सा था. छात्र गुट आपस में तो टकराते ही हैं और ज्यादातर यह लड़ाई अपना वर्चस्व दिखाने के शक्ति प्रदर्शनों, पोस्टर बाजी व थोड़ी बहुत तू तू मैं मैं में लिपटा होता है. मैं 1978से 1983 तक इस महाविद्यालय में रह चुका था और उस दौर में एक से बढ़ कर एक प्राचार्य व अपने अपने विषयों के ज्ञानी प्रोफेसर की संगत कर बहुत कुछ हासिल करने के एहसास से खुश था. यहां रहते तब सीमांत के हिमालय को बड़े करीब से देखने का अवसर लम्बी यात्रा कर पा चुका था. फिर मेरा स्थानांतरण रुद्रपुर व फिर रानीखेत हो गया. रानीखेत में तब प्राचार्य भूगोल के प्रोफेसर यज्ञ दत्त पांडे थे मेरे पिता के अच्छे मित्र व बड़े कुशल प्रशासक. रानीखेत में एम ए अर्थशास्त्र तभी आरम्भ हुआ व जब में पहुंचा तो छात्रों की संख्या गिनती की थी. कुछ ही दिनों में बी एस सी किये कई छात्र छात्राओं को मैंने अर्थशास्त्र की ओर आकर्षित कर लिया. प्राचार्य के अनुमोदन से अच्छी रेफ़्रेन्स किताबें सीधे दिल्ली से तुरंत मंगा वितरित हुईं व साल में एक बार इश्यू हो किताब ले बैठ जाने के बजाय उसे लौटा नई किताब पढ़ने का अवसर विद्यार्थी को मिलने लगा हालांकि लाइब्रेरी संचालक रुष्ट ही रहे. अब यहां हिंदी विभाग में डॉ राम सिंह जी भी आ चुके थे जिनके साथ हर छुट्टी लम्बी दूरी तय कर स्थानीय अनुभव सिद्ध अवलोकन करना भी संभव हुआ. राजनीति विज्ञान के डॉ एच एस फर्तयाल भी यहां विभागाध्यक्ष थे, अपने विषय के धुरंधर तो खरी खरी कहने में मुंहफट. डॉ रामसिंह और उनका वैचारिक द्वन्द प्राचार्य के कमरे के ठीक बाहर आई धूप की कुर्सियों पर चलता. मुद्दे देश की राजनीति के भी होते और धर्म संप्रदाय के भी. रामसिंह जी गांधीवादी पोशाक में टोपी धोती व वास्कट धारक थे तो फर्तयाल साब इसे उसी ढोंग की संज्ञा देते जो सत्ता की लड़ाई में तत्काल राजनीति पर छाया था. जे पी आंदोलन, विश्वनाथ प्रताप सिंह और अब राजीव गाँधी. डॉ रामसिंह और फर्तयाल साब की लड़ाई कभी मोरारजी देसाई के अड़ियल रवय्ये से शुरू होती जिसमें डॉ फर्तयाल उन्हें स्वमूत्र पी नीति बनाने वाला घोषित करते तो डॉ रामसिंह वी पी सिंह को राजवंश का प्रतीक बना अपनी हेकड़ी जमाने वाला.राम सिंह जी इमरजेंसी के कट्टर विरोध में उतरते तो फर्तयाल साब साफ कहते कि अब देखना कुछ ही सालों में भारतीय जनता पार्टी आएगी और धोती टोपी के छद्म से मुक्ति मिलेगी. इन चर्चाओं से उपजी गुत्थम गुत्था को शांति पूर्वक नया मोड़ देने में माहिर थे इतिहास के विभागाध्क्ष जो मामू के नाम से विख्यात थे. वह पृथक पर्वतीय प्रदेश के प्रबल समर्थक थे. नैनीताल के इंद्र सिंह नयाल जी की लिखी पृथक पर्वतीय राज्य की पुस्तिका मैंने उन्हें पढ़ने के लिए दी थी जो मेरे पिता की चुनी हुई पुस्तकों की लाइब्रेरी में सुरक्षित बची थी. मामू बहुत खुश हुए थे और उन्होंने एक दिन चिलियानौला जाती सड़क के किनारे बने ढाबे में मुझे चाय पिलाते पृथक राज्य की संभावनाओं पर अपना विज़न बड़े विस्तार से समझाया था. मामू सिगरेट पीने के खूब शौक़ीन थे और उनकी गहराती गंभीर आवाज तम्बाकू के उड़ते धुवें के साथ अजब खुमार पैदा करती थी.

पृथक पर्वतीय राज्य के नाम के बारे में बड़े विस्तार से मुझे तारा चंद्र त्रिपाठी जी ने समझाया था.गोविन्द बल्लभ पंत से लेकर बड़े बेनाम लोग और चंद्र भानु गुप्त.

“हिमालय का यह भाग चीन के आक्रमण के बाद बड़ा सेंसिटिव इलाका हो गयासीमावर्ती इलाके के एक प्रशासनिक मण्डल के कारण कह दिया गया उत्तराखंड. त्रिपाठी जी ने लिखा था कि,”उत्तराखंड नामकरण में न उसके विन्यास का अर्थ समझा गया न भाषा शास्त्र की दृष्टि से और न ही राज्य के दायित्व की दृष्टि से. फिर उत्तराखंड शब्द व्याकरण सम्मत शब्द तो है नहीं. इसमें ‘उत्तर’ और ‘खंड’ तो ठीक है पर बीच में जो यह फालतू ‘अ’ घुस आया है इसने इसे ‘उत्तर अखण्ड’ बना दिया है. खण्ड या भाग तो यह रहा नहीं. यदि इसे इसी रूप में मान लिया जाए तो अर्थ यही होगा कि पूरे देश में उत्तर के अतिरिक्त सब खण्ड -खण्ड है. इसे हटा देते हैं तो अर्थ तो सही हो जायेगा पर तथाकथित देवभूमि ‘उत्तरखंड’ हो जाएगी.

इसलिए “उत्तराँचल” शब्द आया यानी ‘उत्तर’ धन ‘अंचल’ एवम उत्तरा का आंचल भी.

पहले यह “उत्तरपथ “था फिर “उत्तरापथ” के रूप में मान्य हुआ तो देखादेखी ” उत्तर खण्ड” को लोक में “उत्तराखंड” होना ही था.

त्रिपाठी जी की यह व्याख्या मेरे दिमाग में खूब घुस गई और जहां कहीं भी नाम का विवाद होता ये निकल पड़ती अपने गुरू का सन्दर्भ भी चिपका देता तो फिर कोई भी संशय न रहता.

ब्रह्मपुरी की बात चली थी उन दिनों उत्तराखंड के भूगोल पर वह गहरी जाँच पड़ताल कर रहे थे. मल्ली ताल से पाषाण देवी होते रोडवेज स्टेशन तक आते बूंदाबांदी तड़ातड़ बारिश में बदल गई थी और बचते बचाते हम पोस्ट ऑफिस के शेड में खड़े हो गये थे.

‘द्यो हुआ ये. समझते हो सुभाष?’ उन्होंने साथ चल रहे चेले सुभाष बनर्जी से पूछा.

गाड़ियां आ कर सामने स्टेशन पर खड़ी हो रहीं थीं. इतनी तेज बारिश में भी आती गाड़ियों को झील की तरफ मुहं कर रोकने की चालक द्वारा बैक किये जाने वाली कोशिशों व कंडक्टर की सीटी और उन्हें हटाने के लिए तमाम प्रचलित गालियों का छूट उच्चारण करता जिनके बीच सामान ले जाने वाले डोटियाल नगर पालिका द्वारा दिए गये धातु के टोकन को यात्रियों के हाथ में थमाने के लिए भगदड़ मचा देते थे.यही नहीं इनको नियंत्रित करने हेतु हाथ में डंडा पकड़े एक हेड मेट भी होता. अभी इतनी बारिश में उसके दर्शन नहीं हुए.

“तू ले गुमनिया बहादुर के चां नो छै?” उनकी आवाज बरखा की तेज धार के पोस्ट ऑफिस की टिन वाली छत की समागम ध्वनि के साथ सुनाई दी.

“उ होल पछिल राजहंस प्रेसक बगल वाल खड्ड में, खटिक वालि दुकानक तली “

मैं समझ गया. वहां देसी दारू की दुकान थी. श्रम जीवी वर्ग अपनी दिनमान की थकान और मजदूरी वहीं लोहे के बने कटघरे के पीछे की तिजोरी में सौंप जाता था और फटेहाल रहता दिखाई देता था.यहां भी साफ वर्ग विभेद था. कोट पेंट वाला वर्ग इंदिरा फार्मेसी के ठीक सामने बी दास की दुकान से अंग्रेजी की वैरायटी खरीदते थे जहां बड़े कायदे से कागज की थैली में लपेट कर आपूर्ति होती ऐसी ही अभिजात्य शॉप मल्ली ताल में शेकले पेस्ट्री व अलीगढ़ डेरी फार्म से आगे मोहन को थी.

पहले की बात है भाऊ. ये नेपाल से आई श्रम शक्ति यहां रह बड़ा विश्वास बड़ा भरोसा जीतती थी. क्या लाला क्या आम आदमी किसी का भी काम इनके बिना न चले. पल्लेदार भी यही हुए रात को सीटी बजा डंडे से ठक ठक कर पूरी बाजार में पहरा दें. पर अब देखो शाम हुई नहीं इनके मुँह भी पउवा लगता दिखता है. भटुआ सपोड़ते दिखेंगे ये दुकान पे. ज्यादातर मेट गोल बना साथ रहते सुबह शाम साथ खाना बनाते. हर किसी के हाथ का छुवा भात नहीं खाते.और जो भी रुपया पैसा बचाते उसे ले साल में एक दो बार अपने गांव चले जाते बेतड़ी पार काली पार महाकाली अंचल, बजाँग उधर टनकपुर बनबसा होते फरकते नेपाल.

गरीबी हमारे पहाड़ में कम थोड़ी हुई पर बोझा बोकने का काम तो डोटियाल ही करेंगे जहां ये नहीं पहुंचे वहाँ शिल्पकार. पर वह बाकी सभी लकड़ी लोहे धातु औजार के काम संभालते हैं. अब तो लोग बाग अपने खेत इन डोटियाल परिवारों को दे खेती पाती साग सब्जी का काम भी साल भर करा रहे. पूरा कुनबा पूरा परिवार ले आते हैं और यहां की खेती पाती चमका रहे हैं.

अब पढ़ लिख गये लोग कलम घिसेंगे कोई हल में हाथ थोड़ी लगाएंगे?

बारिश थम गई थी. अंधेरा भी बढ़ गया था तो सभी चर्चाएं आज छुट पुट ही रहीं.

अगला दिन इतवार था पर कॉलेज जाना था. वहाँ अगले दिनों होने वाले फंक्शन की तैयारी होनी थी. हाल में सीटें लगाने, माइक व्यवस्था आदि आदि. मैं लाइट एंड साउंड वाले ग्रुप में था जिसके बॉस थे केमिस्ट्री के प्रवक्ता श्री जे एन पंत जी जो हमें फिजिकल और आर्गेनिक केमिस्ट्री भी पढ़ाते थे. असली कर्ता धर्ता थे चार्ली बाबू.चार्ली बाबू जो फिजिक्स में प्रयोगशाला सहायक थे और तारों की जोड़ जंतर में माहिर.ऐसी खुचुर बुचुर में मेरा भी खूब मन लगता था पर चार्ली बाबू ने मुझे ऐसे टोटके थमा दिए थे जिनसे लाइन चले रहने पर भी बिजली का काम किया जा सकता था और एग्जाम में जो प्रैक्टिकल में दिया जाता उसके नमूनों को में बाकी अपने सहपाठियों को समझाने में कुशल हो गया था. फिजिक्स प्रैक्टिकल की क्लास दो पीरियड वाली शाम को होती जब वह रूम ठंड से भर जाता और बची खुची धूप का आनंद लेने चार्ली बाबू मुझे व गिरीश को समझा बाहर झिकडे मिकड़े बीन आग का भी सहारा लेते.

चार्ली बाबू की तल्ली ताल बस स्टेशन से कॉलेज जाती रोड पर हिमालया होटल के नीचे आटा चक्की भी थी. जहाँ घर का गेहूं पिसाने की जिम्मेदारी मेरी ही होती थी. वहां भी उन्होंने मुझे चक्की के पाट एडजस्ट कर ऊपर से गिरने वाले गेहूं की गति समायोजित करने में कुशल बना दिया. वह तो नाक में रुमाल बांध लेते और मुझे उससे बड़ी असज होती तो वैसे ही शौकिया कइयों के गेहूं पीस तोल छीजन काट रख देता.

ऐसे ही एक दिन खाना खाते बप्पाजी भड़क गये, “क्यों अब चार्ली की चक्की में छोकरे बनोगे?साइंस मैथ्स पढ़ने में ध्यान है नहीं, कभी नाटक हो रहा कभी शराब बंदी पर डिबेट में भाग ले रहे. सब मालूम है मुझे जे एन पंत जी बता रहे थे कि इंऑर्गनिक केमिस्ट्री में छमाहि एग्जाम में फेल हो तुम.”

पर फिजिकल और आर्गेनिक में तो बढ़िया किया है. मैंने प्रतिवाद किया.

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

इसे भी पढ़ें : ब्रह्माण्ड एवं विज्ञान : गिरीश चंद्र जोशी

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