भारत की आजादी में उत्तराखंड के पत्रकारों (Uttarakhand Journalists) ने भी सक्रिय भूमिका निभाई थी. ऐसे ही कुछ बहादुर पत्रकारों का संक्षिप्त परिचय –
अनुसूया प्रसाद बहुगुणा
अनुसूया प्रसाद का जन्म गोपेश्वर में मंडल घाटी के प्रसिद्ध अनुसूया देवी मंदिर में 18 फरवरी 1894 को हुआ. इस मंदिर के नाम पर इनका नाम भी अनुसूया ही रख दिया गया. अनुसूया की प्रारम्भिक शिक्षा नन्दप्रयाग में हुई जिसके बाद आगे की शिक्षा के लिये वो पौड़ी और अल्मोड़ा भी गये. सन् 1914 में उन्होंने इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज से बी.एस.सी. और एल.एल.बी. की डिग्री पाप्त की. वह एक सफल वकील बने पर 1919-20 में असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने चमोली में कुली-बेगार आंदोलन में बढ़-चढ़ के हिस्सा लिया. उस समय बैरिस्टर मुकुन्दी लाल इस आंदोलन में सक्रिय थे. सन् 1921 में जब अनुसूया प्रसाद ने ककोड़ाखाल में डिप्टी कमिश्नर की बर्दायश का विरोध करने पर जनता ने उन्हें ‘गढ़केसरी’ की उपाधी दे दी.
जब अनुसूया प्रसाद जिला बोर्ड गढ़वाल के अध्यक्ष पद पर थे वो एक राष्ट्र्रीय स्तर का अखबार निकालना चाहते थे जिसके लिये वो मुम्बई से एक प्रेस भी लेकर आये पर कोई अच्छा कार्यकर्ता न मिलने के कारण प्रेस बेकार पड़ा रह गया. सन् 1934 में उन्होंने देवकी नन्दन ध्याणी से इस बारे में बात की और उनके कहने पर देवकी नन्दन ने ‘स्वर्गभूमि प्रेस’ की शुरूआत की. मगर ध्याणी जी का जल्दी ही देहान्त हो गया और काम फिर रुक गया. सन् 1936 में महेशानन्द थपलियाल ने इस प्रेस को फिर शुरू किया ‘उत्तर भारत’ अखबार का प्रकाशन शुरू किया. सन् 1939 में जब ‘गढ़वाल प्रकाशन मंडल’ की योजना बनी तब अनुसूया प्रसाद इसमें शामिल हो गये. इस प्रकाशन की ओर से ‘नव प्रभात’ पत्र की शुरूआत हुई पर वो जल्दी ही बंद हो गया. अनुसूया प्रसाद का बहुत रुपया इसमें डूब गया. पर उन्होंने कभी भी हिम्मत नहीं हारी. कुछ समय बाद उनके भतीजे ने इस काम को फिर शुरू किया और नन्दप्रयाग में प्रिंटिंग प्रेस लगाकर ‘देवभूमि’ अखबार निकाला.
गिरिजा दत्त नैथाणी
गिरिजा दत्त नैथाणी का जन्म सन् 1842 में पौड़ी के मन्यारस्यूं पट्टी के नैथाणा गांव में हुआ. प्रारम्भिक शिक्षा कांसखेत से पूरी करने के बाद उन्होंने बरेली से मैट्रिक पास किया. सन् 1902 में उन्होंने लैंसडौन से ‘गढ़ समाचार’ नाम से एक मासिक पत्रिका शुरू की. जो 16 पृष्ठों वाली फुलस्केप पत्रिका थी और इसे आर्यभास्कर प्रेस मुरादाबाद से छापा जाता था. यह पत्रिका धन के आभाव में जल्दी ही बंद हो गयी. इसके बाद उन्होंने ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से एक हिन्दी अखबार निकाला जो गढ़वाल का पहला हिन्दी अखबार था. आजादी की लड़ाई में अपना सहयोग देने के लिये गिरिजा दत्त नैथाणी ने ‘पुरूषार्थ’ अखबार में काम करना शुरू कर दिया जिसने कुली-बेगार जैसे आंदोलनों को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. सन् 1918 में जब डिप्टी कमीश्नर ने ‘अल्मोड़ा अखबार’ बंद करवाया तो उन्होंने इसका मुखर विरोध किया और अपने अखबार में लिखा –
“एक फायर में तीन शिकार
कुली, मुर्गी और अल्मोड़ा अखबार”
गिरिजा दत्त नैथाणी द्वारा की गयी ये टिप्पणी आज भी याद की जाती है.
धर्मानन्द पांडे
धर्मानन्द पांडे का जन्म 16 अप्रेल 1914 को अल्मोड़ा जिले के माला गांव में हुआ. उनकी शिक्षा उनके मामा रामदत्त जोशी के घर से हुई. बदरीदत्त पांडे, हरगोविन्द पंत, मोहन जोशी और गोविन्द बल्लभ पंत द्वारा धर्मानन्द के स्वाधीनता आंदोलन में किये गये कार्यों के लिये उन्हें रतज पदक भी दिया गया. सन् 1935-36 में उन्होंने ‘नटखट’ पत्रिका से पत्रकारिता जीवन की शुरूआत की और बाद में वो ‘शक्ति’ अखबार से जुड़ गये.
आपातकाल के दौरान सेंसर नियमों से क्षुब्ध होकर धर्मानन्द पांडे ने 14 नवम्बर 1975 को ऐसी सामग्री प्रथम पृष्ठ पर लिख के प्रकाशित की जो सेंसर के नियमों का उल्लंघन करती थी. जब उन्होंने अखबार को छोड़ा तो उस समय उन्होंने लिखा – बदरीदत्त जी को मैंने वचन दिया था कि शक्ति रूपी ये पेड़ मेरे जीवन तक नहीं ढहेगा. मैं चाहता हूं कि शक्ति सन् 2018 में अपनी शताब्दी धूमधाम से मनाये.
परिपूर्णानन्द पैन्यूली
परिपूर्णानन्द पैन्यूली का जन्म 19 नवम्बर 1922 को टिहरी में हुआ. इनके दादा टिहरी रियासत के दिवान थे और पिता नन्द रियासत के इंजीनियर. परिपूर्णानन्द पैन्यूली ने ‘पंवार राजवंश’ को दो ऐसे झटके दिये जिसे इतिहास कभी नहीं भुला सका. इसमें से पहला झटका था रियासत का भारत में विलय कराना और दूसरा झटका था महाराजा मानवेन्द्र को लोकसभा चुनाव में पहली और अंतिम बार हराना.
पैन्यूली जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ टिहरी रियासत के लोकतांत्रिक आंदोलन में 7 साल की सजा भुगती. अन्होंने 18 वर्ष की आयु में ‘भारत छोड़ों आंदोलन’ में हिस्सा लिया. जिसके बाद मेरठ बम कांड में उन्हें साढ़े पांच साल की कठिन सजा भुगतनी पड़ी.
पैन्यूली जी एक पत्रकार के रूप में भी काफी चर्चित रहे. अपने सारगर्भित लेखों से उन्होंने हमेशा ही लोगों को रोशनी दिखायी. भारत के आजाद होने और टिहरी रियासत के भारत में विलय होने के बाद वो ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अखबार से जुड़ गये. इसके अलावा ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ‘नेशनल हेराल्ड’, ‘पायोनियर’ व ‘इकानोमिक टाइम्स’ जैसे अखबारों से 60 वर्ष तक जुड़े रहे. उन्होंने लम्बे समय तक देहरादून में ‘हिमानी’ अखबार भी चलाया. परिपूर्णानन्द ने कुछ किताबें भी लिखी हैं. जिनमें से उनकी किताब ‘देशी राज्य जन आंदोलन’ की भूमिका कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष बी. पट्टाभिरमैया ने लिखी थी.
पीताम्बर दत्त पांडे
क्रान्तिकारी पत्रकार पीताम्बर दत्त पांडे का जन्म सन् 1908 में अल्मोड़ा के पांडे गांव पाटिया में हुआ. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उनका झुकाव वामपन्थी विचारधारा की ओर ही रहा और वो नौजवान सभा, यूथ लीग और किसान मजदूर पार्टी के सदस्य बन गये. कानुपर बम कांड में सुरेन्द्र नाथ पांडे के साथ वो भी शामिल रहे पर सुरेन्द्र नाथ को इस कांड में सजा हुई पर पीताम्बर छूट गये पर दूसरे कारणों से उन्हें दो साल की सजा भुगतनी पड़ी.
चन्द्रशेखर आजाद की शहादत के बाद वो अल्मोड़ा वापस आ गये और सन् 1932 में उन्होंने ‘जागृत जनता’ नाम से साप्ताहिक अखबार निकाला. सन् 1942 में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लिखने पर उनकी प्रेस को ब्रिटिश सरकार ने बंद कर दिया जो फिर आजादी के बाद 1947 में ही खुला.
‘कूर्माचल केसरी’ बदरी दत्त पांडे
बदरी दत्त पांडे का जन्म 15 फरवरी सन् 1882 को हरिद्वार के कनखल में हुआ था. बचपन में ही इनके सर से इनके माता-पिता का साया हट गया. इनके ताउजी ने इनकी परवरिश की पर उनकी भी जल्दी ही मृत्यु हो गयी. 1903 में इन्होंने नैनीताल के डायमंड जुबली स्कूल के फोर्थ मास्टर नियुक्त हुए और तभी इनका विवाह अन्नपूर्णा देवी से हो गया. सन् 1905 में इनको मिलट्री वर्क्स में नौकरी मिली पर जल्दी ही वो नौकरी छोड़ कर ये पत्रकारिता में आ गये और इलाहाबाद से निकलने वाले ‘लीडर’ अखबार के उपसम्पादक बन गये
सन् 1913 में इन्हें ‘अल्मोड़ा अखबार’ का सम्पादक बना दिया गया. इस अखबार को बदरी दत्त ने विदेशी हुकुमत के खिलाफ जहर उगलने के लिये इस्तेमाल किया. जिस कारण इस अखबार को बंद ब्रिटिश हुकुमत ने बंद कर दिया. पर इससे भी बदरी दत्त पांडे के हौंसलों में कमी नहीं आयी. 1 अक्टूबर 1918 को उन्होंने ‘शक्ति’ अखबार शुरू कर दिया. जिसमें उन्होंने वही सब किया जो ‘अल्मोड़ा अखबार’ में करते आये थे. जिस कारण इस अखबार के सम्पादकों को भी जेल यात्रायें करनी पड़ी.
आजादी के आंदोलन के समर्थन में अखबार में एक लेख लिखा जिस कारण ब्रिटिश हुकुमत ने उनसे 2000 रुपये की जमानत वसूल की. इसी ही साल उन्होंने कुली बेगार आंदोलन में सहयोग करने के कारण गिरफ्तार भी किया गया. बागेश्वर में डिप्टी कमिश्नर डाइबिल के सामने ही कुली बेगार संबंधित रजिस्टरों को उन्होंने नदी में फेंक दिया. इस साहसी काम को करने के कारण ही जनता ने इन्हें ‘कुमाउं केसरी’ की पदवी दी और दो स्वर्ण पदक भी मिले जिसे उन्होंने भारत-चीन युद्ध के दौरान सन् 1962 रक्षा कोश में दे दिया. 1956 में वो अल्मोड़ा लोक सभा सीट पर भी जीते थे पर इनका कार्यकाल 1 वर्ष तक ही रहा.
बुलाकी राम बैरिस्टर
बुलाकी राम देहरादून के उन प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से रहे जिन्होंने आजादी के आंदोलन को धार देने के लिये अखबार का सहारा लिया. हालांकि उन्होंने 1910 में इंगलेंड से ‘बार एट लॉ’ की डिग्री हासिल की थी और उन्होंने भारत लौटते ही वकालत शुरू भी कर दी पर उन्होंने आजादी के आंदोलन में भी हिस्सेदारी की और देहरादून कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे. सन् 1911 में उन्होंने ‘कॉस्मोपॉलिटन’ अंग्रेजी पाक्षिक अखबार की शुरूआत की. यह पत्र शुरूआत में ‘गढ़वाली प्रेस’ में छपा पर बाद में बुलाकी राम ने ‘भास्कर प्रेस’ की शुरूआत की और ये अखबार फिर वहीं से प्रकाशित होने लगा.
ऐसा माना जाता है कि ‘अल्मोड़ा अखबार’ से भी पहले अगर कोई अखबार था जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत की तो वो था बुलाकी राम बैरिस्टर का ‘कॉस्मोपॉलिटन’ अखबार.
मुकुन्दी लाल बैरिस्टर
इनका जन्म 14 अक्टूबर 1885 को चमोली के पाटली गांव में हुआ. इन्होंने ऑक्सफॉर्ड विश्वविद्यालय लंदन से ‘बार एट लॉ’ की डिग्री प्राप्त की. जिस समय ये भारत लौट के आये उस समय यहां कुली बेगार और बर्दायश प्रथा के खिलाफ तेज आंदोलन चल रहे थे. मुकुन्दी लाल भी इन आंदोलनों से जुड़ गये. सन् 1922 में उन्होंने लैंसडौन से ‘तरुण कुमाउं’ अखबार की शुरूआत की. इस पत्र के सम्पादकीय में मुकुन्दी लाल ने लिखा – ‘‘हम स्वराज्य चाहते हैं क्योंकि बिना स्वराज के कोई भी जाति स्वतंत्र और गौरववान, प्रभावशाली, शक्तिशाली और आदरणीय नहीं हो सकती है. परतंत्र राष्ट्रों का कोई सम्मान नहीं करता. पराधीन जाती की कोई नहीं सुनता. हम देश में हों या विदेश में सब जगह हिकारत की नजर से देखे जाते हैं.’’ यह पत्र दो वर्ष ही चल पाया. पर उसने राष्ट्रीय भावना को जगाने के अपने काम को बखूबी अंजाम दे दिया था.
मुकुन्दी लाल कुली बेगार और बर्दायश के खिलाफ ‘शक्ति’ अखबार में भी लिखते रहे और राष्ट्रीय भावना की अलख जगाते रहे. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल को पेशावर कांड के हीरो चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों की पैरवी करने की जिम्मेदारी भी दी गयी. सन् 1923 में वो गढ़वाल से लेजिस्लेटिव काउंसिल के लिये भी चुने गये.
विक्टर जोजेफ मोहन जोशी
क्रांतिकारी पत्रकार मोहन जोशी का जन्म नैनीताल में एक ब्राहम्ण कुल में हुआ था. इनके पिता ने हिन्दू धर्म त्याग के इसाई धर्म अपना लिया और मोहन जोशी के नाम के आगे विक्टर जोजेफ लगा दिया. इनके पिता ब्रिटिश हुकुमत के हिमायती थी इसलिये वो पादरी भी रहे पर मोहन हमेशा से ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ रहे इसलिये उन्हें अपने नाम में विक्टर जोजेफ लगाना पसंद नहीं था.
इलाहाबाद में शिक्षा के दौरान उन्होंने वहां से ‘क्रिश्चियन नेशनलिस्ट’ नाम से अंग्रेजी पत्रिका निकाली जो कि राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत थी. इलाहाबाद से लौटने के बाद इन्होंने ‘शक्ति’ अखबार में काम किया और 1921 से 1923 तक इसके सम्पादक भी रहे.
सन् 1930 में उन्होंने अपना अखबार ‘स्वाधीन प्रजा’ की शुरूआत की और शुरू करते ही ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. ‘पिंडारी की सैर’ नाम से अपने एक लेख में मोहन जोशी ने उस समय के लेफ्टिनेंट गवर्नर माल्कम हेली की इतनी खिंचाई की कि उसने इनके अखबार पर 6 हजार रुपये की जमानत लगा दी. इतनी बड़ी रकम अदा न कर पाने के कारण अखबार को बंद कर दिया गया.
25 मई को अल्मोड़ा नगरपालिका भवन में तिरंगा फहराने के लिये जाते हुए गोविन्द बल्लभ पंत को गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन 26 मई को विक्टर मोहन जोशी तिरंगा फहराने अपने साथियों के साथ निकल पड़े. यहां गोरखा सैनिकों ने अनाधुंध फायरिंग कर दी पर मोहन जोशी अभी भी ‘झंडा उंचा रहे हमारा’ गाते हुए आगे बढ़ते रहे. इस दौरान गोरखा सैनिक उन पर टूट पड़े और उन्होंने इनको इतना पीटा की उनकी पसली बुरी तरह टूट गयी जिसके चलते वो हमेशा के लिये विक्षिप्त हो गये. 44 साल की आयु में मोहन जोशी का देहान्त हो गया.
महात्मा गांधी ने मोहन जोशी को अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में इसाई समुदाय का बेहतरीन पुष्प बताया. मोहन जोशी के मित्र रहे शांति लाल को जवाहर लाल द्वारा लिखे एक पत्र में उन्होंने मोहन जोशी के लिये लिखा – मोहन जोशी हमारी आजादी की लड़ाई और असहयोग आंदोलन के एक वीर सैनिक थे. उन्होंने उसके लिये सब कुछ त्याग दिया. अल्मोड़ा जिले में ही नहीं बल्कि समस्त उत्तर प्रदेश में उनका बहुत असर था और सब लोग उनके लिये सम्मान का भाव रखते हैं. मैं आशा करता हूं कि लोग उनके जीवन से प्रेरणा लेंगे.
मोहन जोशी ने शक्ति के 13 दिसम्बर 1921 के अंक में प्रकाशित एक लेख में लिखा – सरकार एक-एक देशभक्त को बीन-बीन कर जेल में डालना चाहती है. यों वह सोचती है कि उसका शासन बना रहेगा. पर 33 करोड़ भारतवासी युद्ध में सम्मिलित हो जायेंगे तो यह नौकरशाही किसको प्रजा बनायेगी किसे जेल में डालेगी.
(यह आलेख जयसिंह रावत की किताब ‘स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता’ के आधार पर लिखा गया है.)
विनीता यशस्वी
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
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