कल उत्तरकाशी जिले के भटवाड़ी के पास गंगोत्री हाइवे पर गंगोत्री से लौटते समय भूस्खलन के मलबे की चपेट में आने से एक टैम्पो ट्रैवलर 150 फीट गहरी खाई में जा गिरा. मौके पर ही 13 लोगो की मौत हो गयी. इससे दो दिन पहले बूढ़ा केदार के पास एक ही परिवार के 7 लोग तेज बारिश से आये मलबे में दफ़न हो चुके हैं. कुल मिलाकर पिछले पांच दिनों में हुई मूसलाधार बारिश में अब तक दो दर्जन से ज्यादा लोग अपनी जान गँवा चुके हैं. कई घर ढह गए हैं. कई मवेशी बह चुके हैं. खेतों में कड़ी फसल तबाह हो चुकी है. सैंकड़ो गांवों का संपर्क शेष दुनिया से कट चुका है. इन गाँवों के बाशिंदे मूलभूत सुवधाओं से वंचित होकर भयावह हालातों में जीवन बसर कर रहे हैं. सभी पहाड़ी मुख्य मार्ग खुलने बंद होने का खेल खेल रहे हैं. जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास अपने चरम पर है. इस बरसात का कुल आंकड़ा इकठ्ठा किया जाये तो जान-माल की हानि का आंकड़ा केरल की बाढ़ में हुई तबाही के आसपास ही बैठेगा.
इन मौतों को कुदरत का कहर और प्राकृतिक आपदा घोषित कर शासन-प्रशासन अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है. जान-माल के नुकसान का मामूली मुआवजा घोषित कर दिया जाता है और उसका भी खासा हिस्सा न्यौछावर में चला जाता है. इसे हासिल करने के लिए दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं सो अलग.
यह मौतें जितना कुदरत का कहर दिखती हैं उतनी ही मानव निर्मित भी हैं. इन्हें रोक पाने में नाकामयाबी सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति का भी परिणाम हैं. राज्य गठन के बाद से ही सरकार द्वारा बनायी गयीं विभिन्न टीमों ने आबादी के बारूद के ढेर पर बैठे होने सम्बन्धी कई संस्तुतियां दी हैं. भूगर्भशास्त्रियों द्वारा कम से कम 4500 गाँवों को भूस्खलन के प्रति अति संवेदनशील घोषित कर इनके विस्थापन की आवश्यकता पर बल दिया गया है. हर साल विभिन्न सरकारी विभाग बारिश से होने वाले नुकसान का आंकलन करते हैं. इनसे बचाव की कागजी योजनाएं बनायीं जाती हैं. चिंताएँ जाहिर की जाती हैं. मगर धरातल पर स्थितियाँ वही बनी रहती हैं.
पहाड़ी जिलों को कुदरती मार झेलने के लिए छोड़ दिया जाता है. जान-माल के जो नुकसान मैदानी राज्यों में राष्ट्रीय आपदा जैसे माने जाते हैं वह उत्तराखण्ड में सहज स्वीकार्य हैं. सामान्य दिनों में भी स्कूली बच्चों को जानलेवा रास्तों से गुजरते हुए स्कूलों के लिए जाते देखना आम बात है. बरसात में तो जोखिम भरे रास्तों पर चलना और भी बड़ी मजबूरी बन जाता है. जुगाड़ पुल, ट्रालियां, बह चुके रास्तों को पाटने के लिए तय किये गए जानलेवा धार आम दिखाई देते हैं.
निश्चित तौर पर बेहतर प्रबंधन इन मौतों को कम और ख़त्म कर सकता है. ऐसा करने के लिए सरकारों में इच्छाशक्ति होना जरूरी है, जो हाल फिलहाल नहीं दिखाई देती.
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1 Comments
suraj p. singh
बेहद दुःखद!