जिनकी स्मृति में बिजली के लट्टुओं से जगमग पहाड़ की ही छवि है वो पहाड़ में लालटेन के बिम्ब का निहितार्थ कभी समझ ही नहीं सकते. पहाड़ में लालटेन औद्योगिकीकरण का प्रथम संदेशा लेकर आयी थी. पर पहाड़ में लालटेन के कवि ने लालटेन को इस एंगल से नहीं देखा. कवि की नज़र इसे व्यापक अंधेरे के खिलाफ़ सीमित उजाले के संघर्ष के रूप में देखती है.
(Tribute to Manglesh Dabral)
दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज़ आँख की तरह
टिमटिमाती, धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे हुए गहने
देखो भूख से, बाढ़ से, महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आए हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़ कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएं दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर.
पहाड़ पर लालटेन, कविता संग्रह के कवि मंगलेश डबराल के जीवन की लौ आज बुझ गयी पर उनके सृजन का प्रकाश साहित्य को सदैव आलोकित करता रहेगा. यह संयोग है कि इस रचना को उसी साल साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था जिस साल पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड का गठन हुआ था. मानो नवगठित पहाड़ी राज्य को इस पुरस्कार के जरिए सलामी दी गयी हो. उस संघर्ष को भी जो इस राज्य के मुट्ठी भर लोगों ने अजेय से दिख रहे क्रूर अंधेरे के खिलाफ़ किया था.
(Tribute to Manglesh Dabral)
देश को बिजली की जगमगाहट देने वाले टिहरी में ही जन्मा था, पहाड़ में लालटेन का स्रष्टा. टिहरी-उतरकाशी की सीमा पर बसे, काफलपानी गाँव में जन्मे मंगलेश डबराल की ख्याति वैश्विक साहित्य के अध्येता और कुशल अनुवादक के रूप में भी है. पूर्वाग्रह और जनसत्ता जैसे प्रतिष्ठित पत्रों के वे साहित्यिक संपादक रहे हैं और हिंदी पैट्रिएट, प्रतिपक्ष और आसपास जैसी पत्रिकाओं से भी सम्बद्ध रहे. उनके कविता-संग्रह की समीक्षा, द हिंदू जैसे अंग्रेजी अखबार भी सगर्व प्रकाशित करते रहे हैं. 16 मई 1948 को जन्मे मंगलेश डबराल ने 73 वर्ष की अवस्था में 9 दिसम्बर 2020 को अंतिम सांस ली.
अलविदा! महाकवि, तुम्हारी कविताओं की लालटेन हम थामे रहेंगे. अंधेरे के खिलाफ़ संघर्ष के लिए इसे युवा हाथों की ओर बढ़ाएंगे भी.
(Tribute to Manglesh Dabral)
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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