एक पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के बाद पाण्डव अपने कुल का नाश करने के पाप से मुक्ति हेतु भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करने गये, लेकिन शिव उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे. वे पाण्डवों से छिपने के लिये वाराणसी से गुप्तकाशी चले गये और जब पाण्डव गुप्तकाशी पहुंचे तो शिवजी केदारनाथ चले गये. केदारनाथ में पाण्डवों से बचने के लिये उन्होंने बैल का रूप धारण कर लिया, किन्तु पाण्डवों ने उन्हें पहचान लिया और उनका आशीर्वाद पाने में सफल हुए. शिव बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए तो उनका पृष्ठ भाग केदारनाथ, नाभि मदमहेश्वर, भुजायें तुंगनाथ, मुख रुद्रनाथ और जटायें कल्पेश्वर (कल्पनाथ) में प्रकट हुईं. ये पांच मिलकर पंच-केदार कहे जाते हैं. इनमें से पहले तीन केदार रुद्रप्रयाग तथा अन्य दो चमोली ज़िले में स्थित हैं. मदमहेश्वर, जिसे मध्यमहेश्वर भी कहते हैं, द्वितीय केदार है.
पिछले साल मई के महीने में रुद्रनाथ के कपाट खुलते समय रुद्रनाथ की डोली के साथ रोमांचकारी दुर्गम पदयात्रा के दौरान ही मन में विचार आया कि अगले साल मदमहेश्वर का संयोग बन जाता तो पांचों केदारों के दर्शन पूरे हो जाते. इस साल जून में तीन घनिष्ठ मित्रों ने जब मदमहेश्वर की यात्रा का विचार मेरे सम्मुख रखा तो लगा मानो मनोकामना स्वतः ही पूरी हो रही हो.
मदमहेश्वर यात्रा के लिये ऋषिकेश से ऊखीमठ तक 180 कि.मी. की यात्रा (पहाड़ी मार्ग) बस या टैक्सी से की जाती है. हमारी यात्रा की जून की दस तारीख को सुबह सात बजे हल्द्वानी से हुई. पहाड़ी सड़क पर द्वाराहाट, चैखुटिया, गैरसैंण, कर्णप्रयाग और रुद्रप्रयाग कस्बों से होकर ऊखीमठ तक की 290 कि.मी. लंबी दूरी तय करने में कार को करीब 11 घंटे लगे. थकान के बावजूद हमने 23 कि.मी. आगे रांसी तक पहुंचने का निश्चय किया. मोटर सड़क रांसी तक ही है. घुप्प अंधेरा, घना जंगल, सड़क पर जगह-जगह गड्ढे, बरसाती नाले और कीचड़ होने के कारण सुनसान व अनजान मार्ग पर आगे बढ़ते हुए थोड़ा सा डर भी लग रहा था. रांसी पहुंचने तक शाम के आठ बज गये थे. यहां सड़क किनारे दो-तीन निजी यात्री लॉज हैं जिनमें से एक, ’कैलास टूरिस्ट लॉज’ में सस्ती दरों पर खाने-पीने व रहने का इंतजाम हो गया. निचली मंज़िल में तीन छोटे कमरे थे. एक में रसोईघर था जहां एक प्रौढ़ मां और उसकी स्कूल पढ़ने वाली लड़की मिलकर खाना पका रहे थे, बीच के कमरे में यात्री-लॉज के स्वामी की परचून की छोटी दुकान थी और तीसरे में गोदाम के साथ-साथ यात्रियों के खाने के लिये लकड़ी की एक मेज तथा दो बेंच लगी थीं. खाने में रोटी, दाल, सब्जी और चावल थे. खाना सादा था, पर घर का जैसा स्वाद था.
अगले दिन 16 कि.मी. लंबी पदयात्रा करनी थी इसलिये हम लोग सूर्योदय से काफी पहले उठ गये. नहा-धोकर तैयार होने के बाद कमरे से बाहर आये तो उजाला हो गया था. पहली बार हमें रांसी गांव के दर्शन हुए. पहाड़ की पारंपरिक शैली के मकानों के साथ ही नये बने सीमेन्ट-कंक्रीट के मकान भी नज़र आ रहे थे. रांसी में राकेश्वरी देवी का प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है. सावन के महीने में इस मन्दिर से देवी की पांच दिवसीय लोकजात (लोगों की पदयात्रा) निकलती है जो हिमालय की गोद में ऊंचे बुग्यालों तक जाती है. मदमहेश्वर मन्दिर के कपाट खुलने पर ऊखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मन्दिर से मदमहेश्वर तक जाने वाली उत्सव मूर्ति की डोली-यात्रा का पहला पड़ाव इसी मन्दिर में होता है.
हम सुबह 6 बजे रांसी से चल पड़े. आगे करीब एक कि.मी. तक कच्ची सड़क है, जहां हमने अपनी गाड़ी एक सुरक्षित जगह पर पार्क कर दी और रास्ते के लिये रखा खाने-पीने का सामान बांटकर अपने बैगों में रख दिया. यहां एकमात्र चाय की दुकान में चाय के साथ बिस्कुट खाने को मिले. यहां से पैदल रास्ता शुरू में उतार वाला था जो आसान था. सामने से आ रहे एक यात्री दल में पांच-छः साल के बच्चे को अपना पिट्ठू खुद ले जाते हुए देख कर अचरज हो रहा था. रास्ते के दोनों तरफ घना व खूबसूरत जंगल, नीचे कलकल बहती नदी और बीच-बीच में पहाड़ों से गिरते झरनों को देखकर हम आनंदित अनुभव कर रहे थे. रास्ते में हमने पहाड़ी स्रोतों का मीठा पानी पिया. करीब 6 कि.मी. की पदयात्रा करने के बाद हम गोंडार गांव पहुंचे.
गोंडार मदमहेश्वर यात्रा-मार्ग पर रुद्रप्रयाग जिले का अंतिम गांव है. यहां भगवान मदमहेश्वर डोली-यात्रा का दूसरा पड़ाव होता है. गांव में 74 परिवार रहते हैं. वन संरक्षण कानूनों के कारण यहां मोटर सड़क नहीं पहुंच पायी है, जबकि बिजली 2016 में पहुंची. कक्षा 8 से आगे स्कूल नहीं है, जिस कारण खासकर लड़कियां आगे नहीं पढ़ पातीं तथा मामूली बीमारी के इलाज के लिये भी ऊखीमठ या और आगे रुद्रप्रयाग जिला मुख्यालय तक जाने की मज़बूरी है.
गोंडार में यात्रियों के लिये गांव के अनेक घरों में ’होम-स्टे’ के अन्तर्गत दो-तीन अतिरिक्त कमरे बने हैं. सबसे रोचक बात यह लगी कि मदमहेश्वर यात्रा मार्ग में सभी पड़ावों पर विश्राम गृहों और भोजनालयों का पूरा प्रबन्ध स्थानीय ग्रामीण महिलायें स्वयं करती दिखीं- यात्रियों को आमंत्रित करने, भोजन तैयार करने परोसने और रुपयों के लेनदेन तक के सारे काम. परिवार के पुरुष सदस्य भी मदद करते दिखे, लेकिन मुख्य भूमिका महिलाओं की दिखी.
गोंडार में हमने रास्ते के किनारे ’श्री मदमहेश्वर टूरिस्ट लॉज’ में नाश्ता किया- सब्जी-रोटी और अचार. वहां रसोई गैस थी, लेकिन खाना लकड़ी के चूल्हे में पका था. इतनी दूर से गैस सिलैंडर लायें भी तो कैसे? खाना खाकर करीब एक कि.मी. आगे चले तो छोटी बनतोली आया जहां मधु गंगा और मोरखण्डा नदियों का संगम है. यहां से लगभग दो कि.मी. की चढ़ाई चढ़कर बड़ी बनतोली पहुंचे. इसके आगे दो कि.मी. पर खडारा तथा दो कि.मी. और आगे नानू चट्टी है. आगे दो कि.मी. पर मैंखम्बा चट्टी में हमने जिस यात्री विश्राम-गृह में चाय पी उसे एक बुजुर्ग महिला और उसकी विधवा बहू मिलकर चला रहे थे. यहां से दो कि.मी. आगे कून चट्टी में केवल एक ही विश्राम-गृह दिखा- ’शिखर प्रिंस होटल’ जिसकी समुद्र सतह से ऊंचाई 2,780 मीटर लिखी हुई थी. आम तौर पर उत्तराखण्ड के पहाड़ों में पदयात्रा मार्ग पर घास-फूंस की छत वाली छोटी से छोटी तम्बूनुमा दुकानों में चाय, जलपान और भोजन के साथ-साथ रात्रि-विश्राम की सुविधा भी उपलब्ध रहती है जो थके-हारे पैदल यात्रियों के लिये बड़े सहारे से कम नहीं.
कून चट्टी से मदमहेश्वर की दूरी तीन कि.मी. है. हम थोड़ा आगे बढ़ रहे थे कि गरज के साथ ज़ोरदार बारिश शुरू हो गयी. हमारे पास छाते थे, लेकिन तेज बारिश में ज्यादा काम के नहीं थे. चारों ओर घना जंगल था जहां कहीं रुकने की सुरक्षित जगह मिलने की संभावना कम और भालू से सामना होने की आशंका ज्यादा लग रही थी. एक साथी का थकान के कारण इतना बुरा हाल था कि एक-एक कदम चलना मुश्किल हो रहा था. हम दो लोग शाम के करीब पांच बजे, जबकि हमारे दो अन्य साथी घंटा भर बाद वहां पहुंचे. सबसे पहले रहने का इंतजाम किया. यहां छः-सात छोटे यात्री लॉज हैं जो सस्ती दरों पर रहने-खाने की सुविधा उपलब्ध कराते हैं. सभी गोंडार गांव के निवासियों के हैं. एक बहुत अच्छी बात यह देखने में आयी कि इन्होंने आपस में मिलकर एक व्यवस्था बनायी है कि रोजाना कितने यात्री किस यात्री-लॉज में ठहरेंगे. इससे आपस में अनुचित प्रतिस्पर्धा नहीं होती और सबको लगभग समान आमदनी हो जाती है. हम जिस यात्री लॉज में ठहरे उसका प्रबंध एक वृद्ध महिला और उसका पुत्र कर रहे थे. स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां होने के कारण बच्चों को साथ लेकर उसकी विवाहित पुत्री यहां अपने मायके आयी हुई थी. वहां बहुत सारे बच्चे दिखे जो स्कूल की छुट्टियों का भरपूर आनंद ले रहे थे.
मदमहेश्वर मंदिर समुद्र सतह से करीब साढ़े ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर हरे-भरे बुग्याल (उच्च स्थलीय घास-युक्त भूमि) के मध्य स्थित है. यह पंचकेदारों में द्वितीय केदार है, जिसमें शिव के मध्य भाग, नाभि-लिंग की पूजा होती है. बद्री-केदार मन्दिरों की तरह यहां के पुजारी भी दक्षिण भारतीय (मैसूर के लिंगायत जो जंगम कहलाते हैं) होते हैं. भारत में उत्तर-दक्षिण के बीच प्राचीन काल से हो रहा यह धार्मिक-सांस्कृतिक संवाद बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है. मन्दिर परिसर में एक मुख्य मन्दिर तथा इसके पीछे दो लघु आकार के मन्दिर हैं. पानी का एक स्रोत है, जिसे शिव गंगा कहते हैं. इसी के जल से भगवान शिव का अभिषेक होता है. हिमाच्छादित चौखम्भा व अन्य पर्वत शिखर यहां की प्राकृतिक सुंदरता को दिव्यता प्रदान करते हैं. शाम को मन्दिर में आरती होती है तो वातावरण भक्तिरस से सराबोर हो जाता है. मंदिर व यात्री- लॉज में सौर ऊर्जा द्वारा प्रकाश की व्यवस्था है.
ऊंचाई ज्यादा होने के कारण इतनी कड़ाके की ठंड महसूस हो रही थी कि हमें तीन-तीन कंबल ओढ़ने पड़े.
मन्दिर के सामने ऊपरी तरफ दो कि.मी. दूर एक बुग्याल में बूढ़ा मदमहेश्वर स्थित है. यहां बहुत छोटे आकार का मन्दिर है. यहीं पर एक बरसाती झील है, जिसमें हिमाच्छादित शिखरों का प्रतिबिम्ब बहुत मनमोहक लगता है. हमें इसे देखने का सौभाग्य नहीं मिला, क्योंकि हम ग़लत रास्ते पर चल पड़े थे और दुर्गम रास्तों पर चार-पांच कि.मी. खड़ी चढ़ाई चढ़ते इतने ऊपर पहुंच गये जहां आगे का रास्ता बर्फ के कारण बाधित था. लेकिन वन में हल्के गुलाबी रंग के बुरांस और ऊपर बुग्यालों में खिले पीले, नीले, लाल रंग के खूब सारे फूलों को देखना कम आनंददायक अनुभव नहीं था.
मदमहेश्वर में बहुत कम, संभवतः पंचकेदारों में सबसे कम संख्या में तीर्थयात्री-सैलानी आते हैं. गोंडार में लोगों ने बताया कि एक यात्रा-सीजन में पांच हजार से भी कम लोग आते हैं. जिस रात हम वहां थे, पच्चीस-तीस से ज्यादा यात्री नहीं थे. रास्ते में जो यात्री दिखे उनमें आधे तो स्थानीय या आसपास के क्षेत्रों के लोग ही थे. मुख्य यात्रा मार्ग से दूर, कम सुख-सुविधा वाले तीर्थ-पर्यटन स्थलों की यात्रा में थोड़ी कठिनाई भले ही होती है, लेकिन पहाड़ों का असली रोमांच यहीं अनुभव होता है.
सभी फोटो: कमल कुमार जोशी
अल्मोड़ा में रहने वाले कमल कुमार जोशी उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान, अल्मोड़ा में कार्यरत हैं. यात्राओं और फोटोग्राफी के शौक़ीन हैं. स्वतंत्र लेखक के तौर पर कई नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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