उत्तराखंड में नागों का प्रभाव शिव पूजा में भी प्रबल रहा. ब्रह्मा ने नागों को शाप दिया तो नागों ने पुष्कर पर्वत पर शिव शम्भू की प्रार्थना कर उन्हें प्रसन्न तो किया ही उनके कंठ के हार भी बने . फिर नागों के साथ साथ नदी, वृक्ष, शिला, पर्वत, यक्ष, ग्राम देवी व मातृ देवी के पूजन की परंपरा कालांतर में विकसित होती रही. हर गाँव में किसी विशाल पेड़ के नीचे नागदेवता का स्थान बना जहां उसका साथी नरसिंग देवता भी रहता. नरसिंग के प्रतीक रूप में रखा जाता लोहे का त्रिशूल और नागदेवता के रूप में लोहे का दो मुंह वाला नाग और इनके साथ होता लोहे का दीपक. रवि और खरीफ की दोनों फसलों में इनकी पूजा की जाती.
(Traditional Temples in Uttarakhand)
उत्तराखंड में नाग पहले से पूजनीय रहे. गढ़वाल में श्री कृष्ण के रूप में स्वीकारे नाग देवताओं के अनेक मंदिर हैं. वीरनेश्वर को समर्पित देवालय मवालस्यूं, चौथान पट्टी दूधातोली सहित इस जनपद में हैं. दशोली में तक्षक नाग, जौनसार में वसी नाग, विमहंण नाग, बढ़वा नाग, उलहण नाग वा नागपुर में वासुकि नाग की पूजा होती है. इतिहासकार बताते हैं की अलकनंदा घाटी में नाग जाति निवास करती थी जो नाग पूजक रही. पांडुकेश्वर में शेषनाग, पौड़ी में नागदेव, नेलंग – नीति घाटी में लोदियानाग, रठगांव में भेंकल नाग, मार्गों में बनपुर नाग, नागनाथ नागपुर में पुष्कर नाग, तलवर में मंगलनाग, भदूरा में हूण नाग, रमोली पट्टी में नागराज सेम, थाति कठूड़ में महाशर नाग, रैथल टकनौर में स्यूरिया नाग, रवाईं में कालिंग नाग सहित समस्त गढ़वाल में नाग श्री कृष्ण की उपासना भाव से पूजे जाते हैं.
उत्तराखंड में नाग गढ़पतियों की पूजा होती रही है. दानपुर में वासुकि नाग तो जौनसार उत्तरकाशी व टिहरी में सागराजा या सर्वनाग तो टिहरी भदूरा में हूण नाग की पूजा प्रचलित रही है. गुप्त सेम में वासुकि नाग तो सेम -मुखेम में शेषनाग पूजे जाते हैं. खेंट पर्वत पर सात नाग कन्याओं की अतृप्त आत्माओं की पूजा की परिपाटी रही है.
पौड़ी में बनेलस्यूं व कडवालस्यूं पट्टियों के बीच डांडा नागरजा में वैशाखी के दिन नागराजा का मेला होता है जिसमें गुड़ की भेली चढाई जाती है. टिहरी में रमोली पट्टी में ‘सेम का डांडा ‘ में नागतीर्थ है. जहां हर तीसरे साल इग्यारा गते मंगसीर को मेला होता है. सेम नागराज की जात दी जाती है. इसे कृष्ण जात भी कहा जाता है. इसमें चांदी के नागों का जोड़ा जल में चढ़ाया जाता है. नागपूजा के तीर्थ सेम-मुखेम, नागराजा का डांडा नागदेउ, नागराजाधार, विनसर, टिहरी गढ़वाल की रमोली पट्टी में शेषनाग सिद्धपीठ मुख्य रहे. यक्ष, किन्नर व नाग देवताओं को ‘व्यंतर देवता’कहा गया जो शुभ कर्मों में साथ रहते व रोगों से रक्षा करते. इसी तरह जौनपुर में बैट गाँव, श्रीकोट, भटोगा क्यारकुली, औतड़, गौगी, मयाणी बिच्छू, कुआं, मोलधार, वाडासारी, नागथात व नागटिब्बा में नागपूजा की जाती है.
(Traditional Temples in Uttarakhand)
गढ़वाल में नागों की पूजा अर्चना के भिन्न नाम वाले देवस्थल हैं जैसे रथगांव में भीखल नाग, नागनाथ में पुष्कर नाग, पौड़ी में नागदेव, पांडुकेश्वर में शेषनाग, दशौली में तक्षक नाग, तलवर में मंगल नाग, नीति घाटी में लोहियानाग, नागपुर में वासुकीनाग, कुमोट में वनपुर नाग के साथ बिमहणनाग, उलहण नाग, बड़वानाग, वासिनाग मुख्य हैं. इसके साथ ही अलग अलग गावों में जिन नाग देवताओं की विधिवत पूजा अर्चना की जाती है उनमें नागदेव, पुण्डरीक नाग, छड्देश्वर नाग, घददेश्वर नाग, चन्दनगिरि नाग, पुष्कर नाग, हूण नाग, बगासूनाग, कंबलनाग, बेरिंग नाग, भुईसर नाग, पंचसर नाग, कर्मजीत नाग, शेषनाग, भेंकल नाग, वामपानाग, कालिकनाग, लुद्देश्वर नाग, शिकारु नाग, वामपानाग जैसे अनेक मंदिर हैं.
कुमाऊं में वीरनेश्वर के कई देवालयों के साथ धौली नाग, सुन्दर नाग, फेणी नाग, फिश नाग, खरही नाग, धूमरी नाग, हुंकार नाग, फुंकार नाग, बिलानाग, शेषनाग, तक्षक नाग शिशुनाग,पुष्कर नाग, बिसु नाग, पिंगल नाग के साथ बडाउूँ का बेणीनाग, पुंगराऊं का कालीनाग, छखाता नैनीताल का कर्कोटक नाग, अठीगाँव का वासुकि नाग, ग्वालदम का नागदेवता, दानपुर का वासुकि नाग, चम्पावत का नागनाथ, सालम का नागदेव पदमगीर, बसाड़ी महरपट्टी का शेषनाग, भगोटी का सितेश्वर नाग व वीर गणेश्वर का अनंत नाग प्रसिद्ध हैं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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