समाज

भटिया: पहाड़ में पुरखों की ताकत का असल राज

पहाड़ के भोजन की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सरलता है. गरीबी और पहाड़ एक दूसरे के पूरक रहे हैं. एक लम्बे समय तक पहाड़ के लोगों के पास खाने को बस वही था जो हाड़-तोड़ मेहनत के बाद सीढ़ीदार खेतों की खेती दे सकती थी. बाकी हर परिवार के पास अपने जानवर थे जो दैनिक जीवन में जरुरी उर्जा के लिये कुछ न कुछ जुगत करा ही देते. तेल, मसाला, छौंका कुछ दशक पहले से चली आई बात हैं. उससे पहले पहाड़ के लोगों ने पीसा, घोटा और सपोड़ा. जब जीवन का हर पहर एक संघर्ष हो तो उसका भोजन दुनिया का सबसे सुस्वाद भोजन होता है.
(Traditional Food of Uttarakhand Bhatia)

पहाड़ी इलाकों में बनने वाले भोजन में ‘भटिया’ ऐसा ही एक सरल भोजन है जिसका स्वाद पहाड़ में रहने वाले हर बाशिंदे की जीभ को याद रहता है. पहाड़ में पुरखों की ताकत का असल राज कहा जाने वाला ‘भटिया’ पूरे पहाड़ में अलग-अलग तरीके से बनता है जिसका स्वाद पहाड़ियों की मूल एकरूपता प्रदर्शित करता है.

एक रात भीगोकर भट्ट को सिलबट्टे में दरदरा पीसा जाता है और बड़ी देर तक बांज की लकड़ियों पर इसे लोहे की कड़ाही में पकाया जाता है. बीच-बीच में इसे हिलाकर तय किया जाता है कि यह तले में न लगे. यह दीगर की बात है कि बड़े सारे लोगों को तले में लगा हल्का जला हिस्सा खूब पसंद आता है. कड़ाही के किनारों में लगे हिस्से के लिये तो न जाने कितने भाई-बहिनों के बीच कपाल फोड़ा-फोड़ हुई होगी. समय के साथ लोगों ने भटिया के साथ कई प्रयोग किये. किसी ने इसमें नमक डाला, किसी ने मसाले. किसी ने चावल के कुछ दाने तो किसी ने हरे पत्ते भी डाले. बदलते समय और लोगों की आर्थिक क्षमता के अनुसार मूल भटिया में खूब बदलाव हुये.
(Traditional Food of Uttarakhand Bhatia)

भटिया के पक जाने के बाद इसके के ऊपर अपने-अपने स्वाद अनुसार नमक डालकर उसमें चावल के कुछ दाने डालकर सपोड़ लिया जाता. घर में धिनाली हुई तो मूली की झोली इसके स्वाद को और बढ़ाती. आज पहाड़ में बचे बुजुर्ग नम आँखों से उन संघर्ष के दिनों को याद कर बताते हैं कि भटिया, चावल और झोली का यह तरल कैसे उनकी हथेली से नीचे बाह की ओर टपक जाया करता.

आज़ादी के बाद अलग-अलग समय पर भारत में खाद्यान पूर्ति में हुई कमी के दौरान यह भटिया ही था जिसने पहाड़ के लोगों का न केवल पेट भरा बल्कि जीने की उर्जा का लगातार संचार किया. पेट भरने के लिये दिखने वाले भोजन के साथ अपना एक इतिहास होता है जो स्थान विशेष के सामाजिक ताने-बाने को परत-दर-परत खोलता है. मसलन जब पहाड़ों में भट्ट की खेती को प्रोत्साहित करने के लिये जब इसे सरकारी संरक्षण दिया गया तो पहाड़ की पारम्परिक खेती प्रभावित हुई जिसके प्रभावों पर एक लम्बी रिपोर्ट तैयार की जा सकती है.
(Traditional Food of Uttarakhand Bhatia)

-काफल ट्री फाउंडेशन

इसे भी पढ़ें: जम्बू, गंद्रेणी के छौंक से ही होती है असली पहाड़ी रिस्यार की पहचान

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • ......जब पहाड़ों में भट्ट की खेती को प्रोत्साहित करने के लिये जब इसे सरकारी संरक्षण दिया गया तो पहाड़ की पारम्परिक खेती प्रभावित हुई जिसके प्रभावों पर एक लम्बी रिपोर्ट तैयार की जा सकती है.' --- ये आपका अच्छा सुझाव है पर सरकार में नींद है हावी पहाड़ की एक्चुअल समस्या व समाधान खोजने पर . नीति बनाने वाले तो सिडकुल, आबकारी और दिल्ली से आये निर्देशों से इधर-उधर नहीं जा पा रही है . थोड़ा समय मिल गया तो अपने चेले चपाटों और ठेकेदारों को पद और काम व पैसा दिलाने का सर्वर ही काम कर रहा है . छपाई और बखान बहुत उत्तम दर्जे का हो रहा है . हमारे पौष्टिक अनाजों के उत्पादन की वाट लग चुकी है . ग्रामीण परिवारों में इसका पकाने वाले भोजन पर प्रभाव पडा है . बच्चों को तो गर्भ से ही संतुलित और पौष्टिक ताजे स्थानीय भोजन की कमी हो गयी है . पर्वतीय गर्भवती महिलाओं के भोजन की पौष्टिकता कुप्रभावित हो गयी है . गर्भवती महिलाओं की मृत्यु दर बढ़ रही हैं , और यदि पहाड़ में बच्चे हो रहे हैं तो उनमें कुपोषित और दिव्यांग अधिक हो रहे है .( नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे - 5 के आंकड़े इस निराशा को दर्शाते हैं .) और जो बच्चे बड़े हो रहे हैं उनमें कई नशे और रोड एक्सीडेंट्स के शिकार हो रहे हैं . हमारा भविष्य खतरे में हैं , पर कोई चिंता नहीं है इनकी चुनाव से बड़ी . ऐसे में अन्यमनस्क वाले नेतृत्व से इस तरह के संवेदनशील विषय पर अध्ययन की परामर्श करना परामर्शदाता केलिए निराशाजनक ही हो सकता है . अब पहाडी काले भट्ट होने बहुत कम हो गए हैं और अन्य पहाडी अनाज भी . अब बस यहाँ नेता ही हो रहे हैं और जेसीबी आ रही है और देहरादून सेलेकर दिल्ली तक हर पार्टी के काम आ रहे हैं ...... ऐसे में जनता की भोजन थाली की पौष्टिकता को लेकर आपकी परामर्श इनके काम आयेगी कैसे ?

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago