पहाड़ में अपनी भावनाओं को रेखाओं, आकृतियों का रूप दे उनमें रंग भर जीवंत कर देना हर घर-आँगन, देली-गोठ और देबता की ठया में दिखाई देता. इसमें हाथ का सीप होता. कुछ नियम कायदों के संग सीधी सादी मन की कलाकारी का गुणवंती योग होता. जिसकी चौल दूर-दराज तक फैलती. आमा-दादी, ईजा-कैंजा बड़े जतन से इसे ब्वारी-बेटी को सिखातीं. कई चेलियां तो देख देख ही हाथ घुमाने लगतीं.
(Traditional Artwork Colors of Uttarakhand)
पहाड़ में इस चित्रकारी कलाकारी का जो भी सामान इस्तेमाल होता वह आस पास ही मिल जाता, इकठ्ठा हो जाता. जरा से गेरू को घोला. लाल मिट्टी भी होती पहाड़ में. चीड़ के जंगलों में, ताम्बा खानी के आसपास. अब जो भी मिल गया, आस पास से जुगाड़ हो गया, तांबई, गेरूआ या लाल माट. उसे खोद, साफ सूफ कर बर्तन में रख पानी में भिगा दिया. गाल जाने घुल जाने एकसार हो जाने पर साफ कपड़े के हन्तरे में डुबाया और लगा दिया देली में. सूखने दिया. जब तक ये सूखे तब तक सिलबट्टे में पहली रात भिगाये चावल खूब पीस लिए. ये कहा गया बिस्वार.
सूख गई लाल मिट्टी-गेरू की पट्टी पर घरलछमी के हाथ से उकेरी रेखा और बिंदु दिखाते हैं कमाल. सीधी रेखाओं से बनती है आउट लाइन जो पहले लम्बाई और चौड़ाई में फैलती चौखट बनाती. इस चौखट के कई हिस्से होते. इनमें बनती कहीं बिस्वार की सीधी रेखा. कहीं वक्र, कहीं त्रिकोण, कहीं वृत. घर की उभरी देली पर गेरू पुता है और किनारों से बिस्वार की बूंद सरकते हुए नीचे की ओर लुढ़क रहीं हैं पूरी चौड़ाई में. पूरी पत्ती में ऊपर से नीचे. लो बन गया डिज़ाइन. और तो और मुट्ठी बंद कर कानी ऊँगली या कनिष्टिका वाले भाग को सीधा बिस्वार भरे ब्याले में डुबा, थाप दिया गेरू पुती जमीन पे. पहले दायां फिर बायाँ. बाहर से भीतर मंदिर की ओर जाते. ये बने पौ. साक्षात् लक्ष्मी के पद चिन्ह. लछमी माता धन-धान्य प्रदान करने वाली हुई इसीलिए दोनों पौ के बीच में बिस्वार का गोल रुपइया यानि गोला भी बनेगा. तभी भरेगा बूबू का बटुआ, आमा का गोलक और घर का भकार.
घर कुड़ी गोठ से विकसित लोक कला का ये पहला रूप जिसे कहा गया ऐपण. इसकी बुनियाद में होती सफ़ेदी और गेरू के रंग. फिर चन्दन का पीलापन और हल्दी निम्बू वाले पिठ्या की लाली भी काम आई. बेदी अंकन और डिक्रे रंगने में भी बिस्वार का सफ़ेद रंग तो झलका ही. वहीं जमीन से खुदे श्वेत पर्पटी से कमेट ने उजाले और बढ़ाये. इसे लम्बे समय तक टिकाऊ भी बनाया. अब इसी सफ़ेद, पीले और लाल रंग से जहां एक ओर भित्ति चित्र बनाये गये तो द्वार पत्र भी बने जो गंगा दशहरा के दिन घर के मुख्य द्वार पर लगते. साथ ही अन्य शुभ अवसरों, शादी बारात के अवसर पर बनने वाले कई किस्म के चौके, वेदी, जीव मातृका, ज्यूँति पट्टा हो या जन्माष्टमी के दिन लगने वाला पट्टा जिसमें बाल गोपाल से किशन भगवान तक की अनगिनत लीलाएं, शेर पर सवार अष्टभुजा माता, त्रिदेव व देवियां, कालिया नाग, नागकन्या, गणेश जी, कोनों में सूर्य चंद्र बनाये जाते. उन रंगों में जीवंत हो जाते जो आस पास से मिले. पेड़ पौंधों वनस्पति और मिट्टी पानी से लिए गये. इन्हीं ने जन्म पत्री और पोथी चित्रण में भी सुलेख के साथ विश्वास और आस्था के रंग भरे.
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लोक की इस कलाकारी में प्रकृति के संसाधनों से जो मुख्य रंग बटोरे गये वो सफ़ेद, पीला, लाल थे फिर कोयले -मोसे -काजल से काला आया, मेहंदी मंजीठी से लाली बढ़ी तो तांबई खानों की चिपड़ लाल मिट्टी भी लगी. दीमक की बांबी की चिकनी पीली मिट्टी भी काम में लाई गई. यहाँ तक राख भी. ये चमकाने में भी काम आई और सफेदी की अपनी अलग सी प छाण भी बना गई. सबसे बड़ी बात तो यह कि इसे भस्म के रूप में भी देखा गया. ये तो कई धातुओं के ऑक्सीकरण से, कई यौगिकों के संयोग से, शरीर की आदिव्याधि का निवारण करने में समर्थ थी तो तेज बढ़ाने त्रिपुंड को दमकाने में भी.
इसी राख को साधु महात्माओं ने बदन पर मला जो उनकी धूनी की होती. राख बदन पर चुपड़ बाहर कितनी ही ठंड क्योँ ना पड़ रही हो, हाड़ कांप रहे हों. इसे चुपड़ रोमकूप भस्म से ढक जाते, बदन के रोयें गरमा जाते. इसी की विभूति लगती त्रिपुंड पे, तंतर मन्तर के साथ तो बिभूति की पुड़िया अटक बटक में नजर उतारने, नानतिनों के डर जाने में, झसकने पर या घर की आपदा विपदा, बुरी नज़र वाले तेरा मूं काला करने में भी बड़े काम आती. घर में चूल्हे की राख से बर्तन तो घिस घिस चमकाए ही जाते. वहीं चूल्हे में लकड़ी की आंच के साथ काला झोल, ताँबे-पीतल-अष्टधातु के तौलों कसेरों में भात पकाने की तौली और दाल उबलने के भड्डू की रंगत खराब ना कर दे इसके लिए इनके आग से सम्पर्क वाले निचले भाग में राख को पानी में घोल इसका मोटा-मोटा पलस्तर बर्तन के पेंदे में चुपड़ देते. बाद में राख से ही ये भड्डू तौली कसेरे चमका दिये जाते.
कई रेशों को और उजला-सफ़ेद करने के काम भी आती राख. जैसे कि भांग के रेशे जिनसे मजबूत डोरी बनती और जिसके बारीक रेशों को कात मजबूत गरम कपड़ा बनता, कुलथे बुने जाते, फतुई झगुला, मफलर -टोपी बनती. इन्हें खूब उजला सफ़ेद रंगत देने के लिए भांग के रेशों को पहले छनी हुई राख पानी में डाल इस घोल में डाल उबाल देते. इससे भांग का मजबूत धागा खूब सफ़ेद हो जाता. कपड़े भी लकड़ी की राख से धोये जाते जिसे ‘डहो’के नाम से जाना जाता था.
सफेदी पाने को जो भी पदार्थ इस्तेमाल किए गये उनमें चूना, खड़िया, कमेट, अलग अलग लकड़ियों की राख, विविध पदार्थ व धातुओं से बनीं भस्म व विविध धान्यों का धोटपीस जैसे चावल के आटे का कसार व भीगे चावल को सिल लोड़े में खूब पीस बना बिस्वार मुख्य होता.
बिस्वार की सफेदी साफ सुथरी धरती, घर-आँगन, देली, देवता की ठया की गोबर मिट्टी से पुती पवित्रता की सोच के साथ लाल गैरिक मिट्टी या गेरू से छलकती लाली को ऐपण की कलाकारी के साथ अनगिनत रूप देती. इसी चावल के बारीक पिसे बिस्वार से शादी- ब्याह में वर वधू के माथे से शुरू कर कान के पास गाल तक कुरमे भी, बारीक लकड़ी की डंडी के एक सिरे पर रुई के बुरुश से ठेपे जाते,अलंकृत किए जाते. शादी होने पे समधी-समधन भी बनाये जाते. इनकी बनावट की टोन जरा हंसी मजाकिया वाली रखी जाती. इसलिए समधी के खाप में एक बीड़ी जरूर घुसेड़ी जाती. हाथ में दारू का अद्धा पौना भी थमा दिखा दो तो सुने में सुहाग. अब समधिन को जरा थुल थुल ऐंचकतानी बनाने-दिखाने में भी बड़ी अव्वल दर्जे की कारीगरी और हुनर चहिये होता. समधन-समधी को चटक मटक दिखाने के लिए अखोड या अखरोट के साथ पांगड़ के छिलके जमा किए जाते उनका सत निकालते तब जा कर लाली लिया रंग निकलता. वैसा ही जैसा खूब रच बस गये पान को खा गिज़े लाल होते वैसी गहरी रंगत इससे भी मिलती.ये रंग खूब टिकाऊ भी होते.समधी समधन के साथ बने रिश्ते जैसे.
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मुख को रंगने में हल्दी का पीत काम आता. मुख को गोरा, चिक्कण, गोरफरांग बनाने के साथ शुभ कर्मों में बदन में इसकी लिपाई पुताई जरुरी ही होती. हल्दी के कच्चे सुमों को उबाल घोंट पीस छान पीला रंग निकलता. साथ ही किलमोड़े के फूलों से भी रंग निकलता. किलमोड़े की जड़ को उबाल कर भी पक्का धानी पीला रंग निकलता. ये दवाई के भी काम आता. बाद बाद में किलमोड़े की जड़े खोद देश की मंडियों में पहुँचाने के बाद इसकी वकत पता चली.
पीले लाल रंग के साथ सफ़ेद रंग घर परिवार में हो रहे काम काज में खून काम आते.त्योहारों में तो जरुरी ही हुए. हरेले के पहले दिन मिट्टी रूई से बने डिकरे भी बिस्वार की सफेदी से पोते जाते और एक पंक्ति में बैठे शिव पार्वती के साथ उनका सर्प और नंदी, गणेश जी और उनका मूषक, कार्तिकेय विराजते. शांति और एकता के भाव को जताने लगते. कई जगह पोथी पढ़ते पंडित जू भी डेकरों के कोने में बैठे दिखाई देते. इनके सफ़ेद धवल वस्त्र भी बिस्वार से रंगे होते. अनाज की कुटाई करने वाली जगह पर बना ओखल हो या अनाज फटकने वाला सूप या सूपा गेरू मिट्टी से पोतने के बाद बिशवार से अलंकृत किए जाते. बग्वाली जो दुतिया के पहले दिन होती है, में भैंसों के बदन पर कमेट के गाढ़े घोल में बड़े ब्याले या गेठी -सानड़ के बने अनाज नापने के माणा से गोल गोल ठप्पे लगाए जाते उजले सफ़ेद.
साइंस वाले कमेट को कैल्शियम ऑक्साइड कहने वाले ठहरे. जो दो तरह का हुआ. एक थोड़ा हल्का, दूसरा खूब चटक. ये जो खूब चटक हुआ उससे घर आँगन की पुताई होने वाली हुई. इसके लिए बाभ्यो घास की पत्ती और धान के पौंधों के तनों की झाड़ू बनती. मूँज की झाड़ू का चलन तो बाद में बढ़ा. सफेदी की चमकार वाला यह कमेट और भी कई काम आता जैसे अगर किसी को बर्रा काट ले या झिमौड़ चटका दे तो कमेट का गाढ़ा घोल चुपड़ देते. सफेदी झलकाने के लिए खड़िया मिट्टी भी बड़े काम आती. विज्ञान के मास्साब बताते कि ये मैग्निसियम का सिलिकेट हुआ जिससे कंपनी वाले पौडर बनाते हैं. इससे मुख भी सफ़ेद हो जाते.पसीना भी सूखता बदन का. तब किसे पता था कि ऐसे भी दिन आयेंगे कि इसी खड़िया को खोद खोद कई लोग ठुल सैब बन जायेंगे और पहाड़ के खेतों में पड़ेंगे खड्डे, बांजा पड़ जाएगा. अन्यारा होते देर नहीं लगेगी.
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अन्यारे के काले रंग को नज़र की झसक दूर करने वाला माना गया. जहां भय, डर और कुछ भी बुरा होने की फड़फड़ होने लगे तो इसी अँधेरे के प्रतीक ने हाड़ का कम्प कम किया. बड़े कटोरे में घी रखा गया वो भी गाय का. उसमें डाला गया शुद्ध भीमसेनी कपूर. अब रूई को बट मोटी सी बत्ती बनाई गई. बत्ती जला उसके ऊपर रख दी गई कढ़ाई, वो भी उलट कर. अब कढ़ाई के भीतरी भाग में जमा होता काजल जो बनाता आँखों को कजरारा. बाल-गोपालों को रोज लगाया जाता. झसक नज़र से बचाने को, क्या मालूम कौन निपूती खित खित करते भाऊ का टिटाट पाड़ दे. कउवे जैसे काणे भी झस्स झुस्स करा देने वाले ठैरे. बचाव के लिए काजल मोसे का टीका माथे पे बड़ी बिंदी सा लगाते. और तो और बाएँ पांव के नीचे कमर के नीचे भी लगता ये ढिठौना. बच्चे जब डाढ़ मारते अपने छोटे छोटे हाथों से आँख मुंह में हाथ मारते तो यही काजल फैल फूल जाता. ईजा गुस्से और लाड़ से कहती, ‘कस बण गो मेर घूंटाडु, म्योर गुलडाडू ‘. ये काजल काला शनि भगवान के नाम उनकी कृपा के लिए छनिचर के दिन माथे पे भी लगता, लगाया जाता. औघड़ जैसे साधु बाबा भी इसी काले काजल रंग की आड़ी तिरछी रेखा लंब खैंच अलग भेस बनाते.
कुछ भी हो काला रंग बनाना बड़ा ही आसान भी होता. बस क्वेले पीस दो, बारीक मषिण. अब इससे तख्ती पाटी पोत लो, स्कूल का श्याम पट्ट काला कर लो. रसोई में खाना बनाने में जहां के इलाके को कोई छू नहीं सकता उसकी सीमा रेखा भी क्वेले के टुकड़े से लाइन पाड़ बनाई जाती.ज्यादातर राख से ही यह लाइन बनती. ऐसी ही बाउंड्री गाय के गोबर या कोयले की खिंची लाइन से उस गोठ में बनती जहां जतकाली अपने शिशु के नामकंद या नामकरण तक रहती. बस क्वेले से लिखना अच्छा नहीं मना जाता. पर काली सियाही तो बहुत काम आती. कमेट से पुते डिकारों में आँख, कान, नाक का उभार इसी से होता. केश इसी से रंगते. जुल्फें भी उकेरी जातीं पारबती मैया की तो शिब जू के नागराज भी इसी से फनफनाते, गणेश जी के मूषक की आउट लाइन भी बनती.
पक्का काला रंग बनाने के लिए दाड़िम के छिक्कल लोहे के बर्तन में पानी के साथ खूब उबाले जाते. रंग छोड़ने पर इनको कपड़छन कर निथार लेते. वहीं मास या उर्द के साबुत दानों को तवे में जलने तक भूना जाता. ठंडा होने पर इनको सिल लोड़े में खूब मसिण पीस लेते. यह सूखा काला रंग है जिसे जरुरत के अनुसार पानी मिला कर गीला कर लिया जाता. इसी तरह रतगली नाम की बेल में जो दाने लगते उन्हें पीस और कपड़छन कर काला रंग निकलता.
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खैर के पौंधे से नीला रंग निकलता. इसमें हल्दी का चूर्ण मिला कर हरा रंग बनाते. हरे रंग को झट्यालू या ढटेला की झाड़ी, भरेड़ा बेल की पत्तियों तथा निनौनी के कच्चे फल से भी निकाला जाता. बड़े धतूरे व गेंदे की पत्तियों से भी हरा धानी रंग निकालते. टुन के पुष्पों से बसंती रंग तथा किलमोड़े व जामुन के फलों से बैगनी रंग मिलता है. डोलू व श्यामा की जड़ों को उबाल कर भूरा रंग निकलता है.
लाल रंग बुरांश व डेहलिया के फूलों से निकाला जाता रहा. थुनेर की छाल को उबाल कर भी लाल रंग मिलता है. बंजर भांग की जड़, तुन के बीज, खैर व थुनेर की छाल, उतीस की छाल से भी लाल रंग निकाला जाता. धाय के फूल और चिमालि के फूल के साथ अखरोट के छिक्कल. जटामासी की जड़, मजीठी की जड़, श्यामा की जड़, मासी और बालछड़ व मेहंदी भी लाल रंग निकालने में काम आती रही. कच्ची हल्दी, निम्बू व सुहागे के उचित अनुपात को ताँबे के बर्तन में उबाल कर लाल रंग मिलता. पिठ्या भी इसी तरह बनता.चूने के पानी में कच्ची हल्दी पीस कर डालने व गरम करने पर नारंगी रंग बनाते. पारिजात या हरसिंगार के पुष्पों से तथा रूडि के फलों के बाहर लगे लाल धूसे से भी नारंगी रंग निकलता. श्यामा की जड़ भी ताँबे के बर्तन में पानी के साथ उबाल व नमक डाल लाल रंग निकलता. हल्दी के चूर्ण को लाल रंग में मिला लड्डू रंग बनता.
पीला रंग किलमोड़े की जड़ों को उबाल कर निकालते. कई तरह के रोगों विशेष कर मूत्र विकार, पथरी और प्रसूत में यह प्रभावी औषधि भी होती. सामान्यतः कच्ची हल्दी के खूने उबाल या बारीक पीस कर पीला रंग निकालते. इसे पक्का करने के लिए दही का पानी, चूक, चूने का पानी मिलाया जाता. पीला रंग प्राप्त करने की अन्य वनस्पतियों में लोध की छाल, बासिंग की पत्ती, बेल का फल, धौली, ढाक व हजारी के फूलों का प्रयोग होता.
अन्य कई जड़ी-बूटियों जैसे हरड़ और बरड़ का फल, कपूर कचरी और नागरमोथा की जड़ से भी रंग निकालते हैं. जिनका प्रयोग चित्रकला के साथ औषधियों को रंगने के लिए किया जाता रहा. आवंले के दानों से निकला रस भी प्रयोग में लाया गया विशेष कर बालों को रंगने के लिए. विशेष उत्सव व त्योहारों में हाथों में मेहंदी पीस कर लगाई जाती तो मजीठी की पत्ती व टहनी को दाड़िम के छिकले, पिनालू व गड़ेरी के भूरे पड़ गये सड़े अधसड़े पापड़ों के साथ पीस कर हाथ पैरों में लगाया जाता इनसे भी मेहंदी जैसा रंग निखरता. होंठ व मसूड़ों में लाली लाने को अखरोट के हरे फल के छिक्कल और पेड़ की छाल का प्रयोग किया जाता. जामुन और काफल की छाल से भी रंग निकलते. त्योहारों और मांगलिक अवसरों पर पहने जाने वाले रंगवाली पिछौड़े में गुलाबी व पीले रंग पर गुलनार लाल रंग भी कच्ची हल्दी में निम्बू निचोड़ सुहागा डाल ताँबे के बर्तन में रात भर रख प्राप्त होता. पिछौड़े पर लाल ठप्पे इसी रंग से लगते.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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