पिछौड़ा उत्तराखण्ड में सभी मांगलिक कार्यक्रमों में विवाहित महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला एक पारंपरिक परिधान है. पुराने समय में पिछौड़ा शादी के समय केवल दुल्हन द्वारा ही पहना जाता था. जिसे लड़के वाले शादी के समय लड़की को सौंपते थे. इसे लड़की के सुहाग का निशान माना जाता था. समय के साथ दुल्हन की माँ द्वारा भी शादी के दिन पिछौड़ा पहना जाने लगा. अब विवाह के दौरान दोनों ओर की महिलायें, जो परिवार से खास रूप से जुड़ी रहती हैं पिछौड़ा पहनती हैं. आज के समय पिछौड़ा विवाहित महिलाओं द्वारा सभी मांगलिक कार्यों में पहना जाने वाला मुख्य परिधान हैं.
पिछौड़ा एक तरह की ओढ़नी होता है जो तीन या पौने तीन मीटर लम्बा और सवा मीटर तक चौड़ा होता है. पिछौड़ा रंगने के लिये सामान्यतः वाइल या चिकन का कपड़ा प्रयोग में लाया जाता है. गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि पर लाल रंग से रंगाई की जाती है. पारम्परिक पिछौड़े में बीच में एक स्वास्तिक बना होता है.सवास्तिक अलग – अलग ज्यामितीय आकारों फूलों या पत्तियों के आकार के बने होते. जिसके चारों खानों में सूर्य, चंद्रमा, शंख और घंटी बनायी जाती है. इसके चारों ओर के हिस्से को छोटे गोल ठप्पों से रंगा जाता है. कुछ पारंपरिक पिछौडों में देवी – देवताओं की आकृति भी बनायी जाती हैं.
पुराने ज़माने में पिछौड़े घर पर ही बनाये जाते थे. इसके लिये सफ़ेद रंग का तीन या पौने तीन मीटर लम्बा और सवा मीटर तक चौड़ा कपड़ा लिया जाता था. हल्दी या किलमोड़े की जड़ को पीसकर पीला रंग तैयार किया जाता था. रंग को पक्का करने के लिये इसमें नीबू भी डाला जाता था. कपड़े को पीले रंग में रंगने के बाद छाया में सूखने के लिये रखा जाता था. लाल रंग बनाने के लिये कच्ची हल्दी को पीसा जाता और उसमें नीबू के साथ सुहागा डालकर रात भर के लिये रख दिया जाता. इसके बाद अगले दिन इसे नीबू के रस के साथ पकाया जाता था.
पिछौड़े में सबसे पहले बीच के हिस्से पर कुशल महिलाओं द्वारा स्वास्तिक का निशान बनाया जाता और फिर उसके बीच अन्य आकृति बनायी जाती. यह रंगाई एक सफ़ेद कपड़े के भीतर चव्वनी को लपेट कर की जाती थी. स्वास्तिक और अन्य आकृति बनाने के लिये खड़ी चवन्नी का प्रयोग किया जाता. इसके बाद स्वास्तिक के चारों ओर एक श्रृंखला में कपड़े में बंधी चवन्नी से ठप्पे लगाये जाते थे. और अंत में पिछौड़े का किनारा बनाया जाता. पहले पिछौड़ा केवल दुल्हन द्वारा पहना जाता था इसलिये इसे विवाह से पूर्व गणेश पूजा के दिन गीत संगीत के साथ इसे मिलकर बनाया जाता था.
आज बाजार में एक सामान्य पिछौड़े की कीमत 1200 रुपये है. अमेजन पिछौड़े की आनलाईन बिक्री तक कर रहा है लेकिन ये पिछौड़े प्रिंटेड होते हैं. जिनके नाप और प्रिंट कंपनी अपने हिसाब से बनाती है. बाजार में इनकी कीमत आठ से नौ हजार तक भी है. जिनमें अलग – अलग तरीके की कारीगरी की गयी होती है.
हाथ से बने पिछौड़े अब बहुत कम मिलते हैं. पिछले कुछ समय में एकबार फिर से हाथ से बने पिछौडों की मांग बाजार में बड़ी है. अल्मोड़ा और बागेश्वर में रहने वाले कुछ ही परिवार आज भी हाथ से बने पिछौड़े बाजार में बेचते हैं. जिनकी भारी मांग दिल्ली और मुम्बई के बाजारों में भी है. लेकिन हाथ से पिछौड़ा रंगने वाले लोग अब पूरे उत्तराखण्ड में गिनती के बचे हैं. पिछौड़ा रंगने की यह परम्परा इनके साथ ही समाप्त हो जायेगी.
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2 Comments
Anonymous
जी, प्रस्तुत काफल ट्री के नियमित पाठकों में से एक होने व आपके रोचक और संग्रहणीय लेखों के लिए सर्वप्रथम आपको बहुत बहुत धन्यवाद..
लेकिन क्षमा कीजिएगा, मुझे कुछ अनुमान व धुंधला-धुंधला देखा-सुना सा लगता है कि लाल रंग ढांक के सूखे फूलों से तैयार किया जाता था। मेरा अनुमान क्षेत्रीय विविधताओं से भिन्न भी हो सकता है।
Girish Lohani
सही कहा आपने शुरुआत में ढांक के फूलों का ही प्रयोग किया जाता था. लेकिन रंग पक्का न रहने के कारण बाद में ढांक के स्थान पर सुहाग का प्रयोग किया जाने लगा. जानकारी जोड़ने के लिये आपका शुक्रिया मित्र.