इतिहास के पुराने पन्नों में गंगा के मैदानों से हिमालय की गगनचुम्बी उपत्यकाओं की ओर अपने पशुओं के साथ बढ़ती भिल्ल किरात जाति के प्रवेश की गाथा है. पशुचारकों का जीवन जीते प्रकृति के सान्निध्य में जीते ये लोग धीरे -धीरे असम से नेपाल, कुमाऊं- गढ़वाल, काँगड़ा होते स्पीती, लाहुल और लद्दाख तक फैल गए . ये भेड़ पालते, काले कम्बल की गाती से बदन ढकते. वन्य पशुओं का मांस खाते और पहाड़ के ढालों पर झाड़ियां जला ‘कटील’ प्रथा से खेती की ओर भी अग्रसर होते चले. कहा जाता है कि भोटान्तिकों के पूर्वजों का इसी कालावधि में यहाँ पदार्पण हुआ.
(Indo-Tibetan Trade History)
जोहार और दारमा घाटियों में भोटान्तिकों के बसाव की अनेक जनश्रुतियां प्रचलित रहीं .कहा जाता है कि पट्टी मल्ला जोहार में दो दलों के लोग रहते थे. इनमें एक दल का मुखिया हल्दुआ और दूसरे का पिंगलुआ था. किंवदंती है कि इन दोनों मुखियाओं और उनके बालबच्चों के बदन में ही नहीं बल्कि जीभ में भी बाल थे. हल्दुआ और पिंगलुआ के बीच मल्ला जोहार आधा-आधा बंटा था. हल्दुआ के पास मापा गाँव का ऊपरी हिस्सा था तो मापा से नीचे लस्पा तक का भूभाग पिंगलुआ के पास था. तब जोहार का दर्रा तिब्बत के लिए खुला न था.
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कहते हैं कि उस पुराने समय में गोरी नदी के उदगम स्थल के पहाड़ से एक विशाल भयावह नरभक्षी पैदा हुआ. उसके डैने इतने बड़े थे कि वह गोरी नदी के ऊपर ही ऊपर उड़ा और लस्पा गाँव के नीचे मापा नामक जगह गया जहां उसके पर अटक जाते थे. इससे नीचे वह जा नहीं पाता. वो नरभक्षी हल्दुआ और पिंगलुआ को खा गया और उसके बच्चों को भी.
जनश्रुति है कि तब हुण देश यानि तिब्बत में लपथिल नामक गुफा में शकिया लामा नाम का तेजस्वी संत रहता था. उसके अनेक चेले थे. अपने एक चेले की सेवा से प्रसन्न हो शकिया लामा ने उसे आदेश दिया कि वह जोहार जाए. वहां दानव आकृति के एक पक्षी ने त्राहि-त्राहि मचा रखी है. सब लोगों को मार कर खा गया है. मैं तुझे तीर कमान देता हूं और एक बहुरुपिया खोजी भी. ये खोजी कोई भी रूप धरे तू घबड़ाना मत.
अब गुरू का आदेश मान दोनों चल पड़े जोहार. हूण देश से जोहार जाते एक जगह पर खोजी ने रूप बदला और कुत्ता बन गया. इस जगह जहां वह कुत्ता बना उस जगह का नाम ‘खिंगरू’ पड़ गया. चेला कुत्ते के साथ जाता रहा. फिर एक जगह वह रुका और बारासिंगा बन गया. इस जगह का नाम पड़ा ‘दोलथांग’. चेला अब बारासिंगे के साथ बढ़ते रहा. फिर एक जगह रुक खोजी ने नया रूप धरा और वह भालू बन गया. जहां वह भालू बना उस स्थान को ‘दुंग उडियार’ कहा गया. अब यात्रा जारी रही और चलते चलते पहुंची हल्दुआ पिंगलुआ के इलाके में. यहाँ खोजी बन गया खरगोश और कूदता फांदता गायब भी हो गया. इस जगह का नाम पड़ा ‘समगाऊ’.
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चेले ने देखा सब ओर वीरानी छायी है. बस एक मकान में एक बुढ़िया बची है. हल्दुआ पिंगलुआ क़ी बिरादरी क़ी तरह उसके भी बदन में खूब सारे बाल थे. अपने सामने उस चेले को आया देख बुढ़िया कातर स्वर में बोली कि तू यहाँ क्योँ आया? यहाँ उस राक्षसी पक्षी से कोई नहीं बचता. अब चेले ने अपने तीर कमान निकाले और बोला कि उसे घबराने की कोई जरुरत नहीं. अब उस नरभक्षी का अंत समय आ गया है. पर मुझे कुछ खाने को तो दे, तगड़ी भूख लगी है. बुढ़िया बोली खाने को चुआ और फाफर तो यहाँ खूब होता है पर उसकी रोटी बिना लूण के खानी पड़ेगी क्योंकि लूण यहाँ होता जो नहीं. इतने में नरभक्षी पक्षी आया और बुढ़िया पर झपटा. चेले ने अपने गुरू लामा का ध्यान लगा तीर चलाया और नरभक्षी पक्षी को मार डाला.
बुढ़िया बहुत खुश हुई. अपनी जान बचाने वाले चेले को उसने दुआऐं दी. अब चेला बोला कि मैं जा रहा लूण लेने अपने गुरू लामा के पास. बस जब तक लौट न आऊं मेरा इंतज़ार करना और हां यहाँ आग जला जा रहा. जब तक लौट न आऊं यहीं बैठी रहना. मेरे लौट के आने तक अगर आग जलती रहे तभी यह जगह मेरे लिए शकुनिया होगी. यह कह चेला चल निकला अपने गुरू के पास. बुढ़िया आग के पास बैठ गई.
गुरू लामा के पास लौटा. नरभक्षी के अंत की खबर सुनाई. फिर बताया कि वहां खाने को तो फाफर-चुवा खूब होता पर नमक नहीं मिलता. ये सुन संत लामा बोला कि यहाँ तो नमक की खान है नहीं. नमक की खदान तो बहुत दूर है पर अब तूने बता दिया तो इसी जगह लपथिल में नमक का प्रबंध कर देता हूं. यह कह गुरू ने अपनी जादुई विद्या से लपथिल में नमक बो दिया. कहते हैं कि तब से वहां नमक की तरह सफ़ेद शोरा बराबर निकलता है जिसे जानवर भी चाटते रहते हैं.
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नमक की व्यवस्था कर संत लामा अपनी गुफा में चला गया और अन्तर्ध्यान हो गया. अब चेला लूण ले ऊंटाधूरा होते उसी जगह पर आया जहां उसने आग जलाई थी. आग अभी भी जल रही थी और बुढ़िया माई वहां चैन से बैठी थी. चेला समझ गया कि यह जगह उसके लिए शकुनिया है. सो इधर उधर के इलाकों से यहाँ ला उसने लोग बाग बसाये. साथ में अपने गुरू संत शौकिया लामा की पूजा चलायी. तभी से यहाँ बसे लोग शौका कहे गए. इन्हीं में कुछ समय बाद एक वीर पैदा हुआ जिसका नाम सुनपति था.
सुनपति का साम्राज्य फैला और उसने आवागमन के साथ ही व्यापार के लिए उसने तिब्बत की ओर जाने वाले कई दर्रे खोजे. लेन-देन, अदल- बदल या गमग्या चलने लगा. सुनपति के बाद जोहार फिर वीरान पड़ने लगा. तभी मिलम वालों का मूल निवासी हूण देश से जोहार की ओर आया. कहते हैं पश्चिम से कोई राजपूत आया और उसने गढ़वाल के राजा की चाकरी की. वह राजपूत कौम का था. उसे बघान के परगने में जौला गाँव जागीर में मिली. वहीं उसने घर गृहस्थी बसाई. कुनबा बढ़ा तो उसकी एक राठ जौला गाँव से चमोली इलाके में नीती में रहने लगी.
सूर्य वंशी राजा के गढ़तोक में राज करते रावत उनके चाकर रहे. एक बार एक रावत आखेट करते एक जानवर का पीछा करते भागा. जानवर दौड़ा सरपट और ऊंटाधूरा की तरफ होते गोरी और खूंगा नदी के संगम तक पहुँच अचानक ही गायब हो गया. जानवर का पीछा करते थका हारा रावत वहीं बैठ गया. तब से उस जगह का नाम पड़ गया “मीडूम”. यहाँ ‘मी ‘का मतलब हुआ आदमी और “डूम” का थकना या पैरों का ढीला पड़ना. यही मीडूम स्थल अब मिलम कहलाता है. यहाँ के रहवासियों को मिलंबवाल कहा गया.
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अब इस नई जगह के बारे में वहां पहुँच गए रावत ने सारी बात सब जानकारी गड़तौक के राजा को दी. राजा बहुत खुश हुआ. उसने सोच विचार किया और रावत को आदेश दिया कि वह वहां जाए. अपना कुनबा ले जाए और मातहत ले जाए ऐसे उस जगह को आबाद करे. वहां काम धंधा शुरू हो. क्या कुछ हो सकता है देखे. आस पास में हूण देश से वस्तु, माल, जानवरों का लेन देन शुरू करे. व्यापार की शुरुवात करे. ऐसा होने पर व्यापार व आवत जावत बढ़ेगी. व्योपार के रस्ते खुलने पर जो भी व्यौपारी तिब्बत जो जायेंगे-आयेंगे उनसे छौंकल या जगात की वसूली हो. रस्ते में आवागमन करने वाले व्यापारियों के खाने-पीने, राशन रसद, सवारी और माल ढुलान के लिए जानवरों की व्यवस्था राजा करेगा. चिट्टी पत्री और सन्देश लाने ले जाने वाले हरकारों की व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी भी रियासत की तरफ से होगी. इन सब बातों को ध्यान में रख धीरे धीरे रावत कुनबे ने अपनी गतिविधियां बढ़ानी शुरू कीं.
रावत कुनबे और पूरी राठ के अनवरत प्रयास से इलाके की गतिविधियां बढ़ती गईं. तिब्बत के व्यापारिक घाट दर्रे खुलने लगे. रावतों के साथ बुर्फाल, जंगपांगी, विज्वाल, मपाल आसपास के इलाकों में बसने लगे. हिमाच्छादित इलाकों में हलचल बढ़ी. मौसम की प्रतिकूलता से खेती का दायरा तो बहुत ही सीमित था पर प्रकृति की दुर्लभ सम्पदा ने ऐसे वन उत्पाद अपने गर्भ में छुपाये थे जो अन्यत्र दुर्लभ थे. इनमें भेषज, जड़ीबूटी, विशेष स्वाद-आस्वाद के मसाले, ऊन व मांस देने वाले जानवर मुख्य थे. इन्हीं जातियों के अनवरत परिश्रम से हूण देश या तिब्बत की ओर व्यापार की शुरुवात हुई.
भोट प्रदेश से तिब्बत कि ओर जाने वाले संकरे विस्तीर्ण रास्तों के बारे में भोटान्तिक व्यापारियों में आज भी “नौ बकरी दस ढकरी” वाली कहावत प्रचलित है. सीमांत के दुर्गम इलाके से हूण प्रदेश को बर्फ से ढकी घाटियों, दुर्गम चट्टानी रास्तों, खिसकते हिमनदों को हाड़ कंपा देने वाली ठंड और कभी बदन झुलसा देने वाले सूर्य ताप को सहन करना पड़ता. इन सब प्रकृति दत्त असुविधाओं के बीच से भेड़ों का रेवड़ निकाल ले जाने की दशा में नौ बकरी दस ढकरी की उक्ति सही साबित होती. जितनी बकरियां सामान से लदी होतीं उनको ऊबड़खाबड़ रास्तों से संभल कर लाने ले जाने के लिए बकरियों की संख्या से एक अधिक आदमी की जरुरत होती. ऐसे में एक आदमी सबसे आगे रहता आगे का रास्ता बताता और शेष लोग पीछे भेड़ बकरियों को संभाल कर रास्ता पार कराते.
भोटान्तिक गजब के साहसी, हर विपरीत परिस्थिति को साधने वाले रहे. उनके व्यापार के रस्ते दुर्गम चढ़ाइयों भरे होते. हिमाच्छादित चोटियों की शीत के थपेड़े उन्हें सहने होते. हिमनदों की हाड़ गला देने वाली बर्फ का सामना करना होता. अपने पारम्परिक तरीकों से वह यात्रा के इस जोखिम को वहन करते. रस्ते इतने तंग व संकरे होते कि कई बार दो लोग या दो पशु भी साथ-साथ न निकल पाते. जब भी बर्फ पड़ती और हिमानी भूस्खलन होता तो पहले बने रास्तों का नामोनिशान न रहता. गोरी और काली नदी के मार्ग भी अति वृष्टि से बदल जाते. ये दोनों नदियाँ खड़े चट्टानों से सट बहतीं. पुल भी न थे और तीव्र वेग में तैर कर इन्हें पार करना बढ़ा ही मुश्किल होता.
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तिब्बत से व्यापार बढ़ा और ईसा से तीसरी शताब्दी तक व्यापारिक गतिविधियों में ये पर्वत पुत्र सिद्ध हस्तकुशल व्यापारी हो गए . प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है की भोटान्तिक तिब्बत के स्वर्ण, स्वर्णपीपली, मूँगा, चंवर, मधु, माला बनाने में प्रयुक्त रत्न और जड़ी बूटियों का व्यापार करते थे जब पहली शताब्दी में कुशिन्दों ने कुषाणों की अधीनता स्वीकार कर ली तब भोटान्तिकों के व्यापार को खूब प्रोत्साहन मिला. मध्य एशिया और तिब्बत व भारत के मार्गों पर डाकुओं के उत्पात भी कम होने लगे थे जिससे आवागमन व व्यापारिक लेनदेन अधिक होने लगे.
चौथी शताब्दी में कुणिंदों के उत्तराधिकारी कत्यूरी नरेशों के शासन काल में भी व्यापार की गति बढ़ी. स्वर्ण, रत्न जड़ीबूटी, कस्तूरी, गूगुल, चंवर गाय की पूँछ के क्रय विक्रय में ये व्यापारी सिद्धहस्त थे. पर मुगलों के शासन में अराजकता व लूटपाट के कारण अशांति का माहौल रहा जिससे भोटान्तिक व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा.
भारत तिब्बत व्यापार के इस पहले दौर में भोटान्तिक व्यापारी धन सम्पदा में देश के बड़े से बड़े व्यापारी से कम न थे. जोहार घाटी के व्यापार मार्ग इन्हीं भोटान्तिकों के स्वयं प्रयासों से बने. व्यापार पथों के लिए उन्होंने खुद की पूंजी लगायी. रस्ते निकलना भी बहुत कठिन व जोखिम भरा होता. कई जगह वेगवती गोरी व काली चट्टानों से सट बहती. चट्टानें भी बहुत कम ढाल वाली खड़ी. ऐसे स्थलों को पार करने के लिए चट्टानों में गहरे छेद किए जाते सब्बल डाल रास्ता बनता. फिर भी ये रस्ते बहुत संकरे होते. एक भी गलत कदम से चट्टानों से गिर मौत को गले लगाना होता.
सोलहवीं शताब्दी में चंदों का राज्य हुआ. सन 1670 में कुमाऊं के राजा बाज बहादुर चंद के द्वारा तिब्बत अभियान किया गया. तिब्बत से लौटते समय वह जोहार से अपनी राजधानी अल्मोड़ा आए. उन्होंने जोहार को भी अपने राज्य में मिला लिया और सन 1674 में दारमा भी चंदों के अधीन आ गया. भोट से तिब्बत जाने वाले सभी रास्तों और व्यापारिक दर्रों घाटों पर चंदों का अधिकार हुआ. चंद राजाओं के समय भोटान्तिक व्यापार में मात्रात्मक व गुणात्मक वृद्धि हुई. यह युग कुमाऊं की समृद्धि का युग था.
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सन 1790 में चंदों के हाथ से सत्ता गोरखों के पास आ गई. गोरखा राज में व्यापार की अवनति होने लगी. न्याय प्रणाली ध्वस्त हुई. अनाप शनाप कर थोपे गए. गोरखों का पंद्रह साल का शासन लूट खसोट का समय रहा. भोटान्तिकों के व्यापार पर बढ़ते कर भार और अर्थव्यवस्था की विगलित दशा का विपरीत प्रभाव पड़ा. सन 1815 से ब्रिटिश शासन होने पर अंग्रेजों ने कुमाऊं के साथ ही भोत प्रदेश का भी बंदोबस्त शुरू किया.. गोरखा राज में लगाए अविवेकपूर्ण करों में रद्दोबदल की गई.
अंग्रेजों के लिए तिब्बत हमेशा रहस्यमय बना रहा. इसके लिए भोटान्तिकों के सहयोग से तिब्बत के बारे में जानने की भरपूर कोशिश की गई. इसमें पंडित नैन सिंह, किशन सिंह, और मानी कम्पासी का महत्वपूर्ण योगदान रहा. इन पर्वत पुत्रों ने छद्मवेश में समूचे तिब्बत का सर्वेक्षण किया और नये व्यापार के रास्तों व दर्रों को खोज निकाला जिन पर चलते व्यापार व वाणिज्य की क्रियाएं बढ़ने लगीं. माल से लदे अपने खच्चरों, घोड़ों याक व भेड़ बकरियों को तंग संकरे रास्तों से पार कराना साहस व जोखिम से भरा होता. और भोटान्तिक व्यापारी अपने प्रयासों से यह करने में सफल रहे. मुंसियारी से तीस मील आगे की दूरी पर जब रास्ता निकलना बहुत ही मुश्किल हो गया तो मानी कम्पासी ने गोरी नदी की तेज धर को ही मोड़ दिया. तभी चट्टानों के किनारे रास्ता निकलना संभव हुआ. कहा जाता है कि गोरी नदी की तेज धार को मोड़ पाना जब असंभव सा लगने लगा तब “नहरदेबी” को स्थापित किया गया. तब जा कर नदी की धार को इच्छित मोड़ देना संभव बना.
भोट तिब्बत व्यापार को सुव्यवस्थित करने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासन ने अनेक भोटान्तिकों को तिब्बत में ट्रेड एजेंट के उच्च पदों पर नियुक्त किया. तिब्बत में भारत के अंतिम ट्रेड एजेंट लक्ष्मण सिंह जंगपांगी रहे.
वेगवती गोरी गंगा से सटे रस्ते पुराने साहूकारों के नाम से जाने गए. मुनस्यारी से बीस मील आगे मापांग का पथ धरम राय पांगती ने सपाट चट्टानों को काट कर बनाया था. ऐसे ही मुंसियारी से आठ मील की दूरी पर सुडंर गौन के रस्ते को किशन सिंह मर्तोलिया के द्वारा बनाया गया. मिलम की ओर दो मील आगे जिमीघाट के ऊपर सपाट चट्टानों के बीच नलीनुमा रास्ता सेठानी भेसू ने बनवाया. ऐसे कई अजपथ हैं जिनको भोटान्तिक व्यापारियों द्वारा बनाया गया. जैसे जैसे व्यापार बढ़ा वैसे वैसे अजपथ का स्थान अश्व पथ ने ले लिया.
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(जारी )
प्रोफ़ेसर जगदीश चंद्र पंत भोटान्तिक अर्थव्यवस्था एवं भारत तिब्बत व्यापार के सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन में ऐतिहासिक विश्लेषण एवं अनुभवसिद्ध अवलोकन के पारखी रहे. सीमांत के साथ उत्तरप्रदेश के पहाड़ी जिलों पर उनके अनेक लेख प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए. डॉ मुन्ना भाई साह के निर्देशन में उन्होंने सीमांत की अर्थ व्यवस्था एवं भारत तिब्बत व्यापार पर उल्लेखनीय शोध कार्य किया. उनके काम को उनके योग्य शिष्यों एवं अर्थशास्त्र व वाणिज्य में दीक्षित पुत्रियों एवं पुत्र ने आगे बढ़ाया. सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में उनका अनुसन्धान कार्य तो प्रकाशित न हो पाया पर विद्यार्थियों के लिए उन्होंने बीस से अधिक किताबें लिखी. पिथौरागढ़ महाविद्यालय में उनके रहते यूजीसी व आईसीएसएसआर की अनेक परियोजनाएं संचालित हुईं. पर्यटन पर डिग्री कोर्स चला. इस लेख को डॉ पंत के शोध कार्य व लेखों के सन्दर्भ से प्रस्तुत किया गया है.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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