कॉलम

इक आग का दरिया था और डूब के जाना था – गणित का परचा

मशहूर कथाकार मुंशी प्रेमचंद को गणित हिमालय सी ऊँचाई का लगता था. आगे की कई पीढ़ियों को भी लगा. महावीर को उससे भी ज्यादा. पाँचवी का बोर्ड उसके लिए अभेद्य सा दुर्ग बन गया . चार साल से लुढ़कते-लुढ़कते वह किशोर वय में पहुँच चुका था. मसें भीग आई थीं, लेकिन दर्जा पाँच पास करना उसके लिए दुःसाध्य हो चुका था.

उस दौर में रिश्तेदार स्कूली लड़कों को देखकर, छूटते ही सवाल पूछते थे. महावीर हर बार ‘कितने नमा एक सौ चवालीस’ के जाल में फँस जाते.

इस बार बोर्ड-सेण्टर कहीं दूर पड़ा था. मास्टर जी महावीर की दशा देखकर द्रवित से हो उठे. उन्होंने थोड़ी सी दरियादिली दिखाई. उसे क्लास के किसी होशियार लड़के के पीछे बिठा दिया. इतना ही नहीं, वे होशियार लड़के को खास हिदायत देना नहीं भूले, “हे भाई, कॉफी जरा एगतरि करिक राखि. यू बेकूफ बि पार ह्वैजाल.” (अरे भइया, अपनी कॉपी जरा तिरछी किये रहना. इस मूर्ख का भी बेड़ापार हो जाएगा.)

गणित के कोर्स में एक सवाल अक्सर पूछा जाता था. खास बात यह थी कि, यह सवाल और सवालों से ज्यादा नंबर का होता था. मास्टर जी खुद बोलते थे कि, ये सवाल ‘खास’ है. ज्यादा पढ़े-लिखे मास्टर ‘मोस्ट’ लिखवाते थे. ‘इंपॉर्टेट’ और ‘वेरी इंपॉर्टेट’ विशेषण उच्चतर कक्षाओं में सुनने को मिलते थे. चैटर्जी महाशय ‘स्टार’ लगाते थे. उनकी लिखी, मास्टर डिग्री के कोर्स तक की गणित की कुंजी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध होती थी. चतुर लड़के पूरे कोर्स में सिर खपाने के बजाय, कुंजी से ‘फाइव स्टार’ से ‘थ्री स्टार’ के सवालों पर ‘फोकस रखते थे. कई होनहारों ने चटर्जी महाशय का जयकारा लगाकर परीक्षा-भवन में प्रवेश किया और जब गाँव लौटे तो यूनिवर्सिटी से स्वर्ण अथवा रजत-पदक लेकर.

कथा में विषयांतर अच्छी बात नहीं बताई जाती. कान की लौ छूते हुए भूल-गलती माफ. खैर, बुनियादी शिक्षा की ओर लौट चलते हैं. तो सवाल ‘लठ्ठे के सवाल’ के नाम से जाना जाता था और बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहता था.

सवाल की तफसील कुछ यूँ थी- ‘एक लट्ठा एक-तिहाई जमीन के अंदर गड़ा हुआ है और दो तिहाई जमीन के ऊपर. जमीन के बाहर लट्ठे की लंबाई बीस मीटर है, तो लट्ठे की कुल लंबाई कितनी होगी.’ कभी-कभी कुछ ‘पेपर सेटर’ होशियार भी निकल आते थे. वे चालबाजी दिखाते हुए मीटर की माप में कुछ फेरबदल कर जाते थे.

खैर इस बार भी सवाल पूछा गया.

तो भाई महावीर ने पूर्व अनुभव से सबक लेते हुए इस सवाल को ‘घोट्टा लगाके’ रटा हुआ था. पर्चा मिलते ही उसे अपना एकमात्र जाना-पहचाना सवाल दिखाई दिया. फिर क्या था.उसने आव देखा ना ताव. दक्कनी सिनेमा के नायकों की तरह अद्भुत गति दिखाते हुए वह इस सवाल पर टूट पड़ा.

थोड़ी देर बाद मास्टर जी दूसरे कमरे से इस कमरे में आए. शायद महावीर की प्रगति देखने के लिए आए थे. उन्होंने झाँककर देखा. महावीर का उत्तर था- तीस मीटर. बस यूँ समझिए कि महावीर की किस्मत ही खराब थी. पेपर सैटर ने इस बार फिर से चालाकी दिखाई थी. जमीन के ऊपर लट्ठे को दस मीटर ही रखा गया था.

मास्टर जी आपे से बाहर. उन्हें होशियार लड़के पर संदेह हुआ, कहीं महावीर ने इसका टीपकर बेड़ागर्क तो नहीं कर दिया. उन्होंने फौरन उसकी कॉपी में झाँककर देखा. उसका उत्तर था- पंद्रह मीटर. फिर उनका संयम जाता रहा. स्थान-महिमा का भेद न मानते हुए, उन्होंने चलती हुई बोर्ड परीक्षा में ही महावीर को धुनककर रख दिया.

“माना कि ‘क’ की आयु 20 वर्ष है.”

“किसकी गुर्जी.”

“क की.”

“साफ-साफ क्यों नी बताते गुर्जी.”

हालांकि यह संवाद मुँह ही मुँह में बोला गया था. लगभग आप्त वचन के रूप में कहा गया था, लेकिन गुरुजी ने सुन लिया. उनका धैर्य चुक गया लगता था. ब्लैकबोर्ड से एक ही छलाँग में वे वक्ता के समीप जा पहुँचे और उसकी आयु समाप्त करने पर उतारू हो गए.

इधर विमल का कहना था कि, “‘क’ ‘ख’ या ‘अ’ ‘ब” सुनते ही मेरे दिमाग की बत्ती गुल हो जाती है. बेहोशी सी छाने लगती है. फिर किसने क्या कहा, कुछ भी नहीं सुनाई देता.”

एलजेब्रा में ‘ए’ प्लस ‘बी’ सुनते ही उनकी सोच के फाटक, फटाक से बंद हो जाते थे.

‘चाहे कितना सिर मार लूँ, ये तो मुझे आएगा ही नहीं’ सोचकर वे सुनना-समझना मुल्तवी कर देते थे. वे प्रायः इस बात से खिन्न रहते थे कि, ‘जब दो नलों से टंकी आसानी से छह घंटे में भर जाती है, तो भर जाने देते. टंकी का नलका क्यों खुलने दिया. पहरा बिठाए रखते. अब मुझसे क्यों पूछते हो कि एक नल कितनी देर में भर देगा. अगर ऐसा ही रहा तो कोई टंकी का बड़ा नलका भी खोल ले जाएगा. फिर टापते रहना. तुम्हारी टंकी जिंदगी भर भरने से रही.’

“इकराम एक खेत गेहूँ की कटाई छह दिन में कर लेता है और जगराम पाँच दिन में. दोनों मिलकर तीन दिन से पहले निपटा लेते, लेकिन जगराम दो दिन बाद काम छोड़कर चला गया.’ इस पर विमल फिर से परेशान हो जाते, “मुझसे क्यों पूछते हो भाई कि अकेला इकराम कितने दिन में काट लेगा. भाई मेरे, मजूर देख-परखकर रखने चाहिए. है कि नहीं. खराब शोहरत वाले मजूूर रखते ही क्यों हो. हमसे ज्यादा ही पूछोगे तो हमारा जवाब यही रहेगा कि, हम तो इकराम से रात में भी कटवाएँगे. चाहे स्साले को ‘डबल ध्याड़ी’ क्यों न देनी पड़े.”

मिश्र समानुपात के सवाल भी कोर्स में थे. चवन्नी, अठन्नी और एक रुपए की कुछ ढेरियाँ लगी रहती थी. उन ढ़ेरियों में से सिक्के, कम-ज्यादा करके फेरबदल करते रहते थे. फिर लड़कों से सवाल पूछे जाते थे, “व्यापारी को लाभ होगा कि हानि और कितने-कितने परसेंट.”

इस सवाल का विश्लेषण व्यावहारिक धरातल पर किया जाता. प्यारे भाई, विमल के कान में कहते, “स्साला, व्यापारी है कि भिखारी. मुझे तो शक है दोस्त. ऐसा आदमी धंधा तो क्या ही करता होगा. व्यापारी कहीं चवन्नी-अठन्नी के ढ़ेर लगाता है क्या.” श्रोता इस तर्क से पूर्ण सहमत नजर आता था. भरी क्लास में मास्टर से नजर बचाकर सिर हिलाकर सहमति जता दी जाती.

इस सिलसिले में सुनील का जिक्र किए बिना चर्चा अधूरी रह जाएगी. बोर्ड परीक्षा में बैठते- बैठते वह लीजेंडरी हैसियत को पार कर चुके थे. हर बार नए विषय में फेल हो जाते. पाँच वर्षों की मार्कशीट खटिया पर फैलाए रहते थे. बड़े गर्व और गौरव के साथ दिखाते, “देखो- देखो. अपने हिसाब से तो मैं क्लियर पास हूँ. सन सत्तासी में हिंदी में पास. सन अट्ठासी में अंग्रेजी में. ‘उणनब्बे’ में साइंस में. नब्बे में गणित में. अगर मैं बिल्कुल ही ‘लद्धड़’ हूँ तो फिर बोर्ड ने इतने विषयों में, मुझे क्या सोचकर पास किया. इस हिसाब से तो मैं पास ही हुआ.”

हालांकि कई बार तो वे इस हिसाब में फेल हो जाते थे कि, कितने साल, कितने विषयों में फेल हो चुका हूँ. खराब नतीजों के लिए वे बोर्ड पर तोहमत मढ़ते. कभी-कभी एग्जामिनर पर लानत भेजते, “थोड़ा रहम दिखा देता तो उसका क्या जाता.”

इतना सब होने के बावजूद, वे कभी रस्सा तुड़ाकर नहीं भागे. छात्र-जीवन का लोभ उनमें हमेशा बना रहा. एशिया के सबसे बड़े बोर्ड की परीक्षा में बैठने के, वे एक किस्म से आदी से हो गए थे.

वे इस बार फिर से परीक्षा में बैठे. परीक्षा के बाद, पर्चा- मिलान कर रहे थे. काफी खुश थे. चेहरे पर नूर सा टपक रहा था. अपने अजीज दोस्त से अनुभव बाँट रहे थे-

“यू बि ह्वै ग्याई. ऊ बि ह्वै ग्याई. ल्यफ्ट हैंड सैड अर राइट हैंड सैड बि बरैबर ह्वै ग्याई. रिजल्ट देखिक बोलणु छाई, येप्पड़िबै यू क्या ह्वैग्याई.” (ये सवाल भी हो गया और वो भी हो गया. लेफ्ट हैंड साईड और राईट हैंड साईड भी बराबर निकल गई. नतीजे देखकर बोला, ओ मोरी मैया, ये क्या हो गया.)

इतना सब हो गुजरने के बाद भी पठ्ठे का उत्साह क्षीण न हुआ. ‘कुछ कर गुजरेंगे, कुछ कर दिखायेंगे’ का भाव यथावत् बना रहा.
सप्लीमेंट्री, री-चेकिंग, स्क्रूटनी इत्यादि अवसरों का लाभ उठाने में वे कभी चूके नहीं. ऐसा न करते तो उनका छात्र-जीवन संदेहास्पद हो जाता. इन चरणों में हरबार शामिल होते, विधिवत् बिसात बिछाते. लेकिन हा हंत! हरबार पासे पलटे हुए नजर आते.

फिर उन्हें सहज ही यह विश्वास हो चला था कि, कहीं न कहीं हमारी शिक्षा-पद्धति खराब है और हो न हो वर्तमान परीक्षा- प्रणाली में किसी न किसी किस्म का कोई खोट है.

प्रमोद लंबे अरसे से गोते खा रहे थे. अजीज आकर घरवालों ने उन्हें चाचा के यहाँ हाँक दिया. चाचा नामीगिरामी मास्टर थे. गणित के मास्टर होने के नाते बहुत खूँखार थे. दिल दहलाने वाली मार मारते थे.

गणित के अच्छे मास्टर में एक खूबी यह बताई जाती है कि, वह किसी को गणित में कमजोर नहीं देख पाता. कोई ‘शिकार’ दिखा नहीं कि वह उसे होशियार बनाने पर उतारू हो उठता है. ‘अहा! अब जाकर मिले. कब से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था. सारी की सारी गणित तुम्हारे ऊपर उड़ेल डालूँगा.’

दुर्भाग्य से चाचा काबिल मास्टर थे. भतीजे को भी काबिल बनाने पर हठ की सीमा तक अड़ गए. आखिर खानदान की नाक जो बचानी थी.

वे उसे रोज पढ़ाते, रोज धुलते. धुलाई करते-करते थक गए तो ‘हेलीकॉप्टर’ बनाने लगे. लंबी उड़ान के बाद, अगले दिन फिर ‘टेक ऑफ’ होता. चाचा की छत्रच्छाया में बेचारे का सारा गणित तो बदला ही, भूगोल भी बदल गया.

तंग आकर उसने चाची से पैरवी की, “चाची, बताओ न उन्हें, मेरे हड्डे तोड़ने से कोई फायदा नहीं. वे मेरे चार टुकड़े भी कर डालें, तब भी मुझे नहीं आएगा.”

चाची ने समझाइश देते हुए कहा, “थोड़ी कोशिश तो करनी चाहिए बेटा.”

बेटा भावुक होकर बोला, “अरे चाची, तुम भी फालतू की बात करती हो. मेरे दिमाग में घुसता ही नहीं. अरे जब कोई पुर्जा हो, तब तो करेंट पास होगा. बस यूँ समझ लो कि, मेरे दिमाग में वो पुर्जा है ही नहीं.”

चाची पसीज गई.

शाम को चाचा घर आए. आराम करने के बाद उसे बैठालने जा रहे थे. चाची मनुहार करते हुए बोली, “भतीजा है, अपना खून. इसका यह मतलब तो नहीं कि उसका खून ही सुखा डालो. आदमी हो कि, कसाई.”

चाचा मन मसोसकर रह गए. उन्होंने हथियार डाल दिए. निराशा भरे स्वर में बोले, “पैदा हो गए हैं नालायक, हमारे खानदान में. अब रिश्ता भी तो नहीं तोड़ सकते.”

कुल मिलाकर, उस दौर के लड़के, समय की अनंतता में विश्वास रखते थे. इम्तहान पास करने में बिलकुल भी जल्दी नहीं मचाते थे. सालोंसाल लंगर डाले रहते. गणित के चक्कर में बोर्ड-परीक्षा पास करना, ‘सूचिका-छिद्र से ऊँट निकालना’ जैसा हो जाता . अखबार में रोल नंबर देखने को लड़के तरस जाते.

क्या-क्या जतन नहीं करते थे. उधर हिसाब का पर्चा, संकल्पित उत्तर की मांग करता था. खरा-खरा जवाब लिखो, खरे-खरे नंबर पाओ. इधर ये लड़के, कल्पित उत्तर लिखने में ज्यादा विश्वास रखते थे. गणित की किताब देखकर जिन्हें चक्कर आते हों, वो काल्पनिक उत्तर के सिवा लिख भी क्या सकते थे. फिर नैया कैसे पार होती.

इन सबके बावजूद लड़के कभी हताश नहीं हुए. न ही रोना-धोना मचाया. बकौल विमल, “ऐसी बातों पर दुःखी होने लगे तो भैया, मान लो, फिर तो आधी जिंदगी मुँह लटकाए ही गुजर जाएगी.”

फिर भी पढ़ना नहीं छोड़ते थे. ‘फंड फूक यार.’ (छड्ड यार)

चिंता की कोई बात नहीं. प्राइवेट बैठने पर कौन सी रोक है. डगर है तो कठिन, पर बैठे बिना काम कैसे चलेगा. समस्या शाश्वत थी, तो सार्वभौमिक किस्म के बहाने भी मौजूद थे. रिजल्ट पूछने वालों को उदास स्वर में बताते, “ज्योमेट्री में थोड़ा कमी रह गई.”

इस विश्वास के साथ बताते, मानो ‘अलजेब्रा’ में झंडे गाड़े हों. ज्योमेट्री में तीन नंबर, तो अलजेब्रा में चार नंबर.

कोई नतीजे पर हमदर्दी जताता, तो जवाब में गहरी साँस लेकर अफसोस जताते, “पर्चा ज़रा आउट ऑफ कोर्स आ गया था.”

संजीदा होकर कहते, “जरा गणित में मार खा गया.”

आवाज को सायास गंभीर और भारी सी बनाकर कैफियत देते, “किस्मत ही खराब है. ‘बी’ कॉपी खो गई. ज्यादा नंबर के सवाल उसमें ही लगाए थे. ढीली बाँधी थी. स्साले ने बाँधने का मौका ही कब दिया. घंटा बजते ही, झपटकर कापी लूटने लगा.”

रिश्तेदारों को नाटकीय ढंग से बताते, “दो विषयों में एक-एक नंबर से रह गया. एक ही विषय की बात होती, तो ‘ग्रेस’ मिल गया होता.”

परीक्षा में बैठते-बैठते इतनी सारी बातें इकट्ठी हो चुकी होती हैं, इतने सारे अनुभव एक साथ. तत्पश्चात् एक सुखद संयोग घटा. एक ‘लीजेंडरी हैसियत का फेलियर’ लड़का, कहीं उच्चवर्ती क्षेत्र से बहुत ऊँचे नंबर लेकर लौटा. एक ही झटके में वो इतने नंबर बटोर लाया, जितने उसने पिछले पाँच वर्षों में मिलाकर भी नहीं बटोरे थे. उसने लड़कों की नाउम्मीदी की राख को, आग में तब्दील कर दिया. निराश लड़कों को प्रैक्टिकल गुर सिखाते हुए वह बोला, “वहाँ का प्रिंसिपल बहुत भला आदमी है. मैं तो पुर्जे टीपते-टीपते थक गया. वह है कि माने ना. फटाक से नया पुरजा थमा दे. टीपते-टीपते उंगलियों का माँझा ढीला पड़ गया. मैने तो हाथ जोड़ दिए, अब रहने दो गुर्जी. बहुत थक गया. तो जानते हैं क्या बोला, ‘अरे यार, लिख न. धीरे-धीरे लिख. तू बस लिखता जा.’ माँ कसम, एकसाथ जन्म भर का लिखवा गया. इम्तेहान खत्म होने के बाद, हफ्ता भर खटिया पे लेटके आराम करना पड़ा.”

यह कथानक निराश लड़कों के मन में आशा का संचार कर गया. सेंटर का ट्रेंड पता चलते ही, हुजूम का हुजूम, उस सेंटर पर टूट पड़ा. पास होने को तो वे कालेपानी जाने को भी तैयार थे.

तो उस साल वहाँ, थोक के भाव फार्म भरे गए.

सेंटर सामरिक महत्त्व का सा दिखता था. वहाँ से तीन-चार किलोमीटर तक, मोटर रोड पर सीधी निगाह पर पड़ती थी.

ऐसे स्थानों पर विद्यार्थियों के कुछ हमदर्द स्वतः निकल आते थे. वे मराठा अथवा अफगान लड़ाकों की भाँति दर्रे पर घात लगाए बैठे रहते. निगरानी टावर से दुश्मन पर निगहबानी रखते. उस रास्ते को एकटक, अपलक निहारते. मीलों दूर दुश्मन की झलक पाते ही मुँह में दो उंगलियाँ घुसाकर सीटी बजाते और लड़कों को सतर्क कर जाते थे.

ज्यादा उम्दा तरीका यह रहता था कि, वे परीक्षा-हॉल की टीन की छत पर पथराव कर जाते. अंदर सब सतर्क हो जाते. सबकुछ नीट एंड क्लीन.

पर्चा शुरू ही हुआ था कि, छत की खड़खड़ सुनकर परीक्षार्थी हरकत में आ गए. कारतूस-पुर्जे, कुंजी- गाइड, खिड़की से बाहर फेंक आए. मालमत्ता ठिकाने लगा दिया गया. फिर ठाठ से काल्पनिक उत्तर लिखे जाने के लगे. चतुर लोग लिखने का दिखावा करने लगे. किसी अनहोनी की आशंका में आधा समय बीत चुका था. आशा के विपरीत ‘फ्लाइंग स्क्वायड’ न पहुँची. यह एक संयोग ही कहा जाएगा कि, कोई लड़का ‘विसर्जन’ करने के बहाने, समय काटने को बाहर निकल आया. इत्तेफाक से उसकी नजर छत पर पहुँची तो वह हैरत में पड़ गया. दरअसल, वानर-दल ने उड़नदस्ते का भ्रम पैदा किया था. वानर-टोली फिर से छत पर थी और मौज में चहलकदमी कर रही थी. वह दौड़ता हुआ अंदर गया और यह सुखद समाचार फैला गया. फिर क्या था, उस परचे में सबके दिन फिर गए.

प्यारे भाई उच्चैःश्रवा थे.(इंद्रदेव का अश्व नहीं, अपितु ऊँचा सुनते थे.) परीक्षा चल रही थी. आपाधापी का माहौल बना हुआ था. ऐसे में उनसे संदेशा समझने में अक्सर चूक हो जाती.

‘पर्ची आ गई’ को वे ‘फ्लाइंग आ गई’ समझ बैठते. फौरन हरकत में आकर, यहाँ-वहाँ, कहाँ-कहाँ छिपाये हुए पुरजे-कारतूस खिड़की से बाहर फेंक देते. जब उनका अनुमान मिथ्या साबित हो जाता, तब जाकर दरिद्रों की तरह माँग-माँगकर काम चलाने की कोशिश करते. ऐन मौके पर कौन मदद करता है. दाँत काटी दोस्ती रखने वाले बोले, “अरे भई, अपने ही लाले पड़े हुए हैं. पहले अपना दाद खुजलाएँ कि तुम्हारा.”

तो एक दिन प्यारे भाई ‘फ्लाइंग आ गई’ संदेशे को ‘पर्ची आ गई’ समझ बैठे. उस दिन उड़नदस्ता सचमुच उनके ही कमरे में जा पहुँचा. प्यारे अपनी समझबूझ के हिसाब से उन्हें ‘मददगार’ समझ बैठे. उसे बड़ी आस बँधी. कोरी कापी लहराकर बोला, “मुझे भी दे दो गुर्जी. मेरे हिस्से की तो मुझे मिली ही नी.”

अपने आग्रह को जायज बताते हुए, वह इसरार करते हुए बोला, “मुझे कल भी नी मिली. औरों ने तो कल भी खूब मौज काटी.”
‘दस्ता’ उसे देखकर हँसने लगा.

माँग उसकी बिलकुल सहज थी और प्राकृतिक भी. इनसान उसी चीज की उम्मीद रखता है, जिसकी उसे सबसे ज्यादा जरूरत हो.

अगले दिन थोड़ी सी सख्ती बरती जा रही थी. गणित ‘सेकेंड’ का परचा था. प्यारे ने होशियारी दिखाई. ‘सैटिंग’ कर आया. चपरासी को ‘नैवेद्य’ चढ़ाकर मामला फिट था.

बेचारे ने मौके पर नमक का कर्ज चुकाया. केतली में मास्टर जी की चाय की जगह ढ़ेर सारे पुर्जे भर लाया. बड़ी उम्दा व्यवस्था हो गई. अहा! आनंद आ गया. प्यारे बेखटके लिखते गए. उन्होंने कलम तोड़कर रख दी. विकट लिख मारा.

परचा खत्म होने के बाद प्यारे, अहोभाव से छलके जा रहे थे. वे आश्वस्त से हो लिए.

प्यारे फिर से रह गए.

नतीजा देखकर प्यारे को गहरा सदमा लगा. यह बात किसी को भी चकित कर देने के लिए काफी थी. बेसब्री से ‘गजट’ की इंतजारी की. प्यारे को गणित सेकेंड में ‘डबल अण्डा’ मिला था.

उनके पीछे बैठा लड़का इस माहात्म्य को जानता था, कि ऐसा क्यों हुख. दरअसल, प्यारे ‘आर्ट्स’ का परचा टीप आए थे. जबकि थे साईंस के स्टूडेंट. लड़के के मुताबिक उसने उन्हें उंगली कोंचकर सचेत भी किया. लेकिन इस इशारे को प्यारे, ‘पर्ची की माँग’ समझ बैठे. अपने कारतूस में हिस्सेदारी उन्हें सहन नहीं थी. “मुझे करने दे. डिस्टर्ब मत कर.” कहकर उसे डपट दिया.

प्यारे पर मानों आसमान टूट पड़ा हो. वही साल, वही गम, वही तन्हाई. समय उसके लिए मानो ठहर सा गया हो.

लड़के उसके दुःख में शरीक हुए. अफसोस जताया. हमदर्दी दिखाई. विमल तो जरा आगे बढ़कर हौसला अफजाई तक कर बैठे. उसने बोर्ड पर लानत भेजते हुए कहा, “प्यारे, बोर्ड को तुम्हारी कद्री नई है. मैं बोर्ड होता तो तुम्हें ‘डिस्टिंक्शन’ दे डालता. अरे भई, अपना परचा तो सबी करते हैं. बात तो तब है, जब कोई दूसरे का परचा करके दिखा दे.”

प्यारे सहानुभूति पाकर गद्गद हो गए. भावुक स्वर में बोले, “तुम्हारे जैसे कद्रदान अब रहे कहाँ.”

तो प्यारे से दो कमरे छोड़ के विमल परीक्षा दे रहे थे. बकौल विमल, “एक किस्म का राजसी ठाठ मान लो. बस उतारना था.” ऐसी सुविधा अन्यत्र किस सेंटर पर मिलती.

उपलब्ध सुविधाओं का हवाला देते हुए उन्होंने बताया, “सिर्फ इतना ध्यान रखना था कि, काले पेन से ‘प्रश्न नंबर फलाने का हल’ सही हो. बाकी चकाचक. कोई दिक्कत नी आई.”

परीक्षा में छोटे-मोटे विघ्नों का हवाला देते हुए उसने बताया कि, “वो तो तब आए, जब छोकरों ने ज्यादा शोरगुल मचाया.” गुरुजी ने आशंका जताई, “अरे छोकरों, हल्ला मत करो. मेरी नौकरी खाओगे.”

लड़कों ने मनुहार की. अनुनय-विनय करते हुए कहा, “पाँच साल हो गए गुर्जी. इस बार पार लगा दो. फिर सीधे फौज-पुलिस.”
लड़के बड़े पते की बात कह गए. सदि्च्छा अत्यंत सीधे-सरल तरीके से जताई गई थी. आमतौर पर इस ‘कल्याणकारी’ उपाय पर किसी को भी ऐतराज नहीं हो सकता था. गुरुजी सहमत से लगे और बोले, “तो फिर जल्दी-जल्दी करो.”

बिना झिकझिक के इम्तिहान निबट गया. विमल जब परचा देकर, बाहर निकले तो उनके मुख से उद्गार निकला, “आनंद आ गया.” उनकी बातों से ऐसा लगा कि वे डिवीजन फटकारे बिना नहीं माननेवाले.

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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