फोटो: जगमोहन रौतेला
कुमाऊं में लगने वाले मेलों में थल का मेला सबसे महत्वपूर्ण मेलों में शामिल रहा है जो धार्मिक और व्यापारिक महत्वपूर्ण रहा है. कभी महीने महीने लगने वाला यह मेला अब केवल एक दिन तक सिमट कर रह गया है. बुजुर्ग पुराने जामने की याद कर कहते हैं –
(Thal Mela Old Memories)
क्या जो कौतिक होता था. जिसका नाम ही ठुल थल हो सोचो वह कितना भव्य होता होगा. काशीपुर से कपड़े आते थे साथ में पीतल के बर्तन, काली कुमाऊं से लोहे की ये बड़ी-बड़ी कढाइयां. मथुरा और बरेली से आये हलवाइयों के हाथ की रंग-बिरंगी मिठाई. बड़ी बात जो क्या हुई, थल और उसके आस-पास के गावों के लोगों ने तो जलेबी भी पहली बार ठुल थल में खाई हुई. खाली जो क्या कहने वाले हुये
धन अंगरेज तेरी काल,
नलऊ सिणुक भीतर मौ कसके हाल
अंग्रेजी राज में तो यहां सैनिक भर्तियाँ हुआ करती थी. पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ठुल थल में हुई सैनिक भर्ती में कई स्थानीय युवा भर्ती हुये. यह भर्ती थल से 2 किमी की दूरी पर स्थित डाक बंगले के पास आयोजित होती थी. 1947 से पहले ठुल थल में प्रशासन न्यायालय भी लगाता था इसमें जनता के वाद-विवादों को सुना जाता है.
(Thal Mela Old Memories)
ठुल थल की एक ख़ास विशेषता थी थल में बनाये जाने वाले हुक्के. थल का पूरा क्षेत्र हुक्का बनाने के लिये खूब जाना जाता था. यहाँ हुक्का बनाने का उद्योग इस कदर लोकप्रिय था कि थल में बने हुक्के तिब्बत,नेपाल, तराई क्षेत्र आदि के लोग मेले से हुक्का ले जाकर अपने यहां बेचते थे. आज यह कारोबार पूरी तरह से खत्म हो गया है.
बदलते समय के साथ ठुल थल की सारी रौनक फीकी पड़ गयी. जिसका एक मुख्य कारण बदलती मानव जरूरतों के अतिरिक्त समाज का बदलता स्वरूप भी है. थल के विषय में एक लम्बी पोस्ट यहां पढ़ें:
(Thal Mela Old Memories)
थल: सांस्कृतिक व व्यापारिक महत्व का पहाड़ी क़स्बा
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