बैंगनी, भूरे और नीलम पहाड़ियों के बीच रूपा नदी ने एक सुरम्य घाटी बना दी थी. हरे-भरेधान के खेतों के मध्य एक छोटा सा सुंदर गांव, नाम था देवी सैंण. आधुनिकता तथा कृत्रिम वातावरण से दूर लगता. कलयुग का अर्थ पिचाश वहां अभी नहीं पहुंचा था. सर्वत्र सतयुग का राज्य था सतरंगी धरती और पीली पहाड़ियों के सिर पर उगे चीड़ बांज और देवदारू के सघन वनों में पर्वतीय सुंदरियों के सुरीले गीत तरफ गूंजते रहते. भेड़ों की श्वेत पंक्तियां उन वनों के नीचे सरकती रहती और बीच-बीच में भुटिया कुत्तों की भू-भौं चरावाहोंकी सीटी के अतिरिक्त सन्नाटा पसरा रहता. सुडौल सुंदर ईमानदार भोले भाले और परिश्रमी मानवों की बस्ती थी देवीसैंण. इन्हें रुपए गिनने तक नहीं आते थे काठ के पैमाने पर विनिमय द्वारा उनकी आवश्यकता एक मणा घी देकर एक माणा नमक दुकानदार से लेकर संतुष्ट थे.
(Teen Mod Story Bhagwati Prsaad Joshi)
ऐसे सतजुगी मानवों के शोषण हेतु कलजुगी बनिये धीरे-2 माल काटने लगे. धीरे-धीरे वहां दुकानें खोलने लगे मोलभाव करने लगे लेकिन एक दिन देवीसैण में भी सरकार द्वारा मोटर मार्ग निर्माण का प्रस्ताव पारितहोगई सब निवासी दांतों तले उंगली दबा कर रह गए 5 वर्ष पहले वहां के लोगों का मोटर सड़क या मोटर नामक जंतु विशेष की कल्पना करना नाना-नानी की कहानी में आने वाले उड़न खटोला की कल्पना कर देने के समान था. वहां के गांव प्रधान को घोड़े की सवारी का अभ्यास था वहां की विवाहित स्त्रियों को अपने ससुराल आते जाते डोला और डंडी की सवारी का अनुभव था या यात्रा के दिनों नेपाली कुलियों को कंडी पर लोगों को सवारी करते देखा था वह विश्वास कर सकते थे कि गणेश जी चूहे की, सरस्वती जी मोर की और दुर्गा जी शेर की सवारी करती हैं किंतु बिना आदमी या जानवर की पीठ के अलावा कोई निर्जीव सवारी हो सकती है?
वह आज तक न जान सके थे केवल उनके गांव का परदेसी मास्टर सिताब सिंह किताब में पढ़ कर मोटर जंतु का वर्णन कर सकता था और उसके विद्यार्थी रट-रट कर पूरा पाठ सुना देने भर से अपनी पढ़ाई की इतिश्री समझ लेते. सिताब सिंह जानता था कि उसे मोटर जहाज से तनखा नहीं मिलती. महीने भर किताब पढ़ने-पढ़ाने से 15 कल्दार मिलते हैं विद्यार्थियों के मां-बाप सरकार के डर से बच्चों को स्कूल भेजते थे. हालांकि इससे उनकी पेड़ों की देखभाल और खेती के काम में बड़ा हर्ज होता था और विद्यार्थी इसलिए पाठ रख लेते थे कि उन्हें मास्टर जी की बेल और मुर्गा बनने का भय था. यही नहीं गांव के पटवारी सुखानंद इतना भर जानते थे कि मोटर के चार पहिए होते हैं और आगे खाक. इन बेकार बातों को जानने से उसे मतलब ही क्या था खसरा खतौनी में उलटफेर करना इसकी जमीन उसके नाम चढ़ा आपस में रघु मघु को लड़ा कर माल मारना और कानूनगो साहब को खुश रखना भर उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था.
देवीसैंण में मोटर आने की चर्चा जोरों पर थी. लोग मोटर देखने की उत्सुकता में थे और मोटर की आंख नाक कान और यहां तक की दुम तक का नखसिख वर्णन गांव भर में होने लगा था तरह-तरह की अटकल बाजी लगाई जा रही थी. लाल बुझक्कड़को की पूछ जोरो में थी. कोई कहता मोटर ठीक भैंस की तरह होती है. कोई हाथी से भी बड़ी बतलाता. फिर उसके भोजन भजन कपड़े लत्ते और रस्सी, खूटे तक की कल्पनाएं जोरों पर चल पड़ी मास्टर सिताब सिंह इस विषय की गांव भर में विशेषज्ञ बन बैठे एक रात वह ऐनक लगाकर 2 वर्ष पहले पढ़ाई जाने वाली दर्जा तीन की वह पाठ्य पुस्तक कमरे में ढूंढते रहे जिसमें मोटर के बारे में कुछ छपा था रात गए किताब तो मिली उसमें मोटर पर एक बेकार कविता के अलावा कुछ भी ना मिला जिसकी पहली लाइन थी कि पों-2 करती मोटर आई दाना चारा कुछ ना खाती.
बस सारे गांव में घूम-घूम कर मास्टर जी पंचम सुर में अमरश्लोक सुनाने लगे. सारे गांव के निवासी ताजुब में थे कि बिना बिना खाए पिए वह मोटर जंतु कैसे सवारी ढोता होगा? नेपाली कुली तो जब एक धड़ी आटा निगलता है तो आठ मील डांडी ढो पाता है और फिर चाय पानी अलग!
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लम्बे इन्जार व चर्चाओं बीच गाड़ी आने की तिथि आ ही गई. गरज यह कि लोगएक दिन पहले ही सारा कामकाज बंद करके देवीसैंण मैदान में आ डटे. औरतों तक नेसत्याग्रह कर दिया. मजबूरन घरों में ताले डालकर सज-धज कर सब जनें सारा काम-काज बन्द करके देवीसैंण मैदान में आ डटे. मातृ-पितृ श्रवण कुमारों ने माँ-बाप को कन्धों पर चढाकर कूच किया. क्योंकि बूढों का तर्क अकाट्य था कि उनकी सन्तान तो मोटर वोटर सौ-सौ दिन देखेगी किन्तु उनका तो पैर घाट पर है सांस को आस क्या?यह रुकी वह रुकी| बस देवीसैंण में मेला लग गया. और दूसरे दिन शाम को लाल रंग की एक मोटर आ गई दोनो आँखों से प्रकाश फेंकती हुई उस मेले के बीच में आ गई. उसकीघरघराहट और पों-पों से मेले में भगदड़ मच गई. हटो-2 बचना… कहीं कुचल न दे… कुचल न दे!” माताओं ने अपने बच्चे पकड़ लिए. “मोटर के पीछे न जाना लात मारेगी.” “आँखों से जला डालेगी” आदि-आदि और न जाने. कितना स्वागत-सत्कार उस मोटर देवी का रातभर होता रहा.
मोटर के महावत (ड्राइवर) काअपूर्व स्वागत हुआ और उसे पुष्प मालाओं से मन-मन भर लाद दिया गया. मोटर देख कर उसकी निर्जीवितता कुछ-कुछ उनकी समझ में आई और वे ड्राइवरको कोई जादूगर समझने लगे. बच्चे-बच्चे और औरते-औरत की जुबान पर ड्राइवर का नाम था. बड़ा मर्द बच्चा है. कोई कहता- जादूगर है जादूगर. हाथ पैर के इशारे में मोटर हाँकता है. ड्राइवर केदार सिंह और कलिंडर ख़ुशहालमणि सबकी जुबान पर थे.नाचने-गाने वाले आशुकवियों बादियों ने उसी रात मोटर और उसके डरेवर की प्रसस्ति में गीत बना डाले. थारारारा-पम-प्वां आई मोटर आई दिविसैंण दा. बादिनें गा उठी और ढोलक की धिनक-धिनक ता के साथ उनकेघूंगरू छुन-छुनाने लगे. और दुसरे दिन भोर तक सारा मेला उखड़ गया.
धीरे-धीरे मोटरों का आना साधारण बात हो गई. मोटरें सवारी लेकर जातीऔर सामान और परदेशी सवारियां लेकर लौटती. देवीसैंण में पहले सिर्फ एक दुकान गुड़ नमक और तेल की थी. फिर तीन हुई फिर तो बढ़कर तीस से ज्यादाहो गई. अब तो अच्छा खास्सा बाज़ार खडा हो गया है. हाल ही तक खिच्चारों और बकरियों से लदा सामान कभी कभार ही आता था. जाड़ों में भेड़ों की पीठ पर लदा तिब्बतीनमक ,ऊन तथा ऊनी माल गाँव में अनाज के बदले बिकता था या खिच्चारोंपर देश से गुड़ तेल मशाले और नारियल गांव की दुकानों पर उत्तरा था. बस लोगों की आवश्यकताएं पूरी हो जाती. भूटिया फेरीवाले हर शीतकाल गाँवों में आकर स्त्री- पुरूषों के श्रृंगार प्रसाधन अन्न के बदले बेच आते थे. सुई-धागे, रंगीन नयी और आइनेदार सुहाग डिब्बियों की बड़ी खपत थी. सुई-सिलाई काम कम वरन पैरों में चुभे हुए कांटे निकालने में अधिक प्रयुक्त होतीं. कांच की डिब्बियों में सिन्दूर रखने के साथ-2 दर्पण का कार्य भी खुले रूप से लिया जाता था. साबुन से कोई परिचित नहीं था- भीमल (वृक्ष) की छाल कूट कर अच्छा खासा झाग बना लिया जाता था- जो सिर धाने तथा साफ़ करने में लाजबाब था. गरम कपड़े रीठे की छल से चमक आते थेगुलाब से सुन्दर और मक्खन से मुलायम मुखड़े पर कुछ लीपने पोतने की न आवश्यकता ही थी न परम्परा.रक्तिम गुलाब से खिले चेहरे रूप् रस ऐसा की सूखे मुंह पर पाणी आ जाय.
किन्तु अब मोटर आ गई. खिच्छर वालों के खिच्चर बेकार हो गए. नेपाली कुली लाचार डांडी-कंडी छोड़कर मोटर से सवारीयों का सामान और दूकानों का माल ढोकर कठिनाई से पेट पालने लगे. फेरीवाले भूटियों ने आना छोड़ दिया.देवीसैंण के पुराने ढर्रे के दुकानदार आधुनिक व्यापार कला में असफल रहे. पंजाबी शरणार्थी तहमत बांधे आए और कुछ दिनों में सरज की सूट पहनने लगे, दूध-मिठाई के स्थान पर चाय बिस्कुट घड़ा धड़ बिकने लगी. तम्बाकू के गन्दे काले गोले अब कोई नहीं लेता. शेर छाप बीडी़ और नेपचून सिगरेट के डिब्बे रोज खाली होने लगे. औरतों भीमल रीठे की छाल छोड़ कर घर-घर में साबुन के लिए सत्याग्रह कर दियानदी किनारे जब कोई युवती जाती तो घाघरे के छोर पर बंधे सुगन्ध बसे रंगीन साबुन को निकाल मल-मल कर चेहरे पर रगड़ती. घाघरे अब पुराने जमाने की महिलाएं या बालिकाएं पहनती-मिल की धोतियां नकली रेशमी साड़ियाँ और शादियों में सटन, लेडी मिल्टन तथा जार्जेट की साड़ियां पहनी जाने लगी. बैसलीन के प्रयोग से थक कर अब क्रीम पावडर के डब्बे बिकने लगे. देवीसैंण में रोज बाहर से लौटने वाले परिवार उतरते. देवीसैंण के स्त्री पुरुष घूर-घूरकर देखते उनसे एक नये फैसने का सबक लेते. युवकों ने पैजामों पर अब क्रीज़ निकालनी शुरू कर दी कि पैंट जैसी लगें. गांव का नाई बौद्ध-भिक्षु-शैली के मुंडन में प्रवीणा था- मजबूरन शहरी नाइयों का मुफ्त काम करके अंग्रेजी कटाई कला सीख करआना पड़ा. स्त्रीयों में अंगड़ियां ऐसे उतार कर फेंक दीजैसे निर्वाण पद प्राप्त आत्मा शरीर रूपी चोली को फेंक देती है अब छींटके ब्लाउज हर छाती पर मुस्कुराने लगे. एक ज़माना था देवीसैंण में जब आर्य भजनोकारी लेखराम अपना हारमोनियम ले गाने आए थे तो सैकड़ों नर-नारी मीलों चल कर भाजन सुनने कम ज्यादा हारमोनियम देखने आए थे. अब ग्रामोफोन तो देहातीमशीन हो गई थी हर दुकान पर रेडियो बजने लगे. अब चर्चा इस बात की थी कि भला देवीसैंणमें सिनेमा क्यों नहीं आ सकता?
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शाम होती कि ठट्ट के ठट्ट ग्राम वासी देबीसैंण में इकट्ठा हो जाते बिना चाय पिए, पान चबाए और कैची की एक सिग्रेट पिए यदि खाली हाथ लौटे तो अपना जीवन निरर्थक समझता. सार्थक जीवन उसी भद्र ग्रामीण का समझा जाता जो चाय के साथ पान का चर्वण करता और फिर झोले में विविध प्रसाधन सामग्री, साबुन, चाय-चीनी तथा मांस-मसाले लिए अपने ग्राम की पगडंडी पकड़ता. फलतः देवीसैंण में सतजुग की रही सही नानी मारकर कलजुग साहेबघर-घर में अवतरित होने लगे. किन्तु आपसाधन सतजुगी और खर्च कलजुगी का संतुलन कैसे हो? घर-घर में चख-चख होने लगी पर कोई भी अपना पेट काटने को तैयार न था. और उस मोटर पूर्व के जमाने में ही लौटने को जी चाहता था.
परिणामयह हुआ कि देवी सैंण के निवासियों में पुस्तैनी मकानों पर पंजाबी-मारवाड़ी बनियों की हवेलियाँ खड़ी होने लगी. खेत रेहान पड़ने लगे. और घर केज़ेवर तिजोरीमल की दूकान पसन्द करने लगे.गांव के बड़े-बूढे तिलमिलाए तो बहुत बेकार का खर्च रोकने को बेटे बहुओं को समझाया. पर सिर्फ उनकी बूढी अर्धांगिनी के कोई भी उनकी बात सुनने को तयार नथा. बहुएं कहती आप लोगों ने खा-पीकर अपना जमाना धकेल दिया- अब हमसे जलते हैं. आज आप साबुन चाय बंद करने को कह रहे हैं. कलनमक-मसाले भी बन्द करवाएंगे और परसों रोटी चावल की बारी आएगी. यह होगा कि एक दिन घाट की सीढ़ियों से सारा परिवार धकेल कर जय गंगा मैया करवा आइए. वृद्धजनकी बोलती बन्द हो जाती.
कुपढ गांव के युवकों ने आय बढाने के आधुनिक रास्ते कर दिए शुरू. नयी नवेली दुल्हन घर पर छोड़ कर दिल्ली-देहरादून के होटलों में बर्तन मांजने शुरू कर दिए. देवीसैंण में जुए के अड्डे खुल गए. गाँव से दूर जंगलों में गुड़ और शीरे की शराब खींचते और बोतलों में भर कर उसे देवीसैंणमोटर-अड्डे और दुकानों में बेचाजाने लगा. हर चाय की दुकान अब बार का रूप धारण कर चुकी थी. हर समय गोश्त और बोतल मिल सकती थी. कुछ व्यक्ति पकड़े गए तो अन्य सतर्क होकर अब वे शराब बनाकर बोतलें भर कर झाड़-झाड़ियों में लिया करते. गाहक पटता तो इशारे से स्थान बता देते वह पकड़ा भी नाम तो उनकी बला से. शराब को और तेज करने के लिए नशीले पेड़ों की जड़ें भी डाली जाने लगीं और रंग डालकर उसे मानिन्द डिस्टलरियों के बनाया जाने लगा. एक को कमाई देखकर दूसरा और दूसरे की देखकर तीसरा-गरज ये कि सैकड़ों ने यह पवित्र कलजुगी धन्धा प्रारम्भ कर दिया. प्रतियोगिता होने लगी एक गाहक मिलता तो दस ठेकदार पीछे पड़ जाते “मेरी बाबू मेरी. गुरु, इसके बहकावे में न आना धतूरे के बीच डालता है. एक दफा पीकर आदमी दुबारा उठे तो मेरे मुंह में मूत देना. मुफ्त पीके देखो बाबू, मज़ा आयेगा तब पैसे लूंगा” आदि.
एक तो तरक्की पर था यह व्यापार और दूसरा हाथ ‘नाचने-गाने आ मरा. नृतकियांदिन भरनाच-गाने में व्यस्त रहतीं. कोई मोटर आई नहीं कि ढोलक दमक उठी और घुंघरू छुम-छूम-छनन बजने लगे. दूर के या छांडेमुसाफिर मोटर कर्मचारी रात में रुकते तो नाच गाने की महफिल रात-भरजमती, अधिक कमाओ समय है आन्दोलन के क्रम में कुछ नृतकियों में नाच-गाने साथ शरीर बेंचना भी शुरू कर दिया. साथ ही अपने प्रिय ग्राहकों को व्यर्थ की दौड़ धूप से बचाने के लिए स्वनिर्मितदारू का धन्धा भी चालू कर दिया.
किन्तु इन व्यापारियों को क्या पता था कि उनसे भी बड़े काइयाँ पैदा हो चुके है. आखिर इन देहाती बनियों के व्यापार का मान मर्दन करने वालाएक व्यक्ति शाम की मोटर से देवीसैंण आ पहुंच नज़र सारी बस्ती को देखा. हर ठेकेदार की दारू का रसास्वादनकिया और अपने को डाक्टर बताते हुए एक दूकान के लिए के लिए जनता से प्रार्थना की. अंधा मांगे आंखें दो आँख. देवीसैंण और आस-पासबीसियों मील तक कोई अस्पताल न था. जनता उसे सरआँखों पर उठाया और उस की इच्छानुसार एक दूकान मिल गई. दूसरे ही दिन डाक्टरकी दवाओं से भरी पेटियां आ पहुंची कुछ फस्टएड के सामान को छोड़ शेष सब शीशियां एक सी थी. पुराने रोगियों से परिचित होते ही डाक्टर का कारोबार जोरो चल पड़ा. बस्तीवाले शुरू-शुरू हैरत में रहे कि अच्छे खासे तंदुरस्त लोग भी डाक्टर के दवाखाने में क्यों जाते हैं. पैसा देते डाक्टर एक शीशी से कोई दवा उडेलता पानी मिलाकर पेंटता और फोम उठते है मरीज़ मुआ झूम-झूम उठाता. जैसे सपेरे की बीन सुनते ही रास्ता चलते सांप झूम उठते हैं. उस दवा का जादू देखनेदूर-दूर से ग्रामीण आने लगे. कच्ची बोतलों के ठेकेदारों का धंधा ठप हो गया.
डाक्टर ने भी कच्चे पानी के विरुद्ध जिहाद कर दिया. कहता, मैं आम के आम और गुठली के दाम. देने आया हूँ. कच्चे पानी के ज़हर ने आपके स्वास्थ्य को मिट्टी कर दिया. इस दवा के बल उसे कुन्दन कर दूंगा. यह दवा की दवा और शराब की शराब है. पेट में दर्दहो, सिर में दर्द हो चाहे दर्द में भीदर्द हो बेदर्द बनने के लिए सारे गम गलत करने के लिए, एक बार यह दवा लीजिए. यह केवल अदरक या इलाइची का अर्क हैऔर सरकारी मुहर देख लीजये. कोई भी भाई जो पहली बार आया हो मुझसे साफ़ कह दे. मुफ्त एक खुराख पी के देख ले. पहले-पहले मरीज सेदूकान में पैसे लेने हराम हैं. हमने यह दुकान धन कमानेनहीं परोपकार मात्र के लिए खोली है. इलाज़ की सुविधा के लिए इस प्रकार पहाड़ी इलाके में एक ऐसी दुकान का होना हम जरूरी समझते थे. इस दुकान में लोग खुले आम आने लगे. डाक्टर अवश्य ही छोटी मोटी चोट-जलन आदि की मुफ्त मरहम-पट्टी कर देता क्योंकि मरीज इस दर्द से बेखबरहोने के लिए दवा अवश्य ही खरीदता था.
सस्ती और शरूरदार दवा की शीशियों ने कच्चे पानी की बड़ी-बड़ी बोतलें और घड़े तुड़वा डाले और उसके व्यापारियों की हड्डी-पसली एक हो गई. अब करें तो क्या करें सैकड़ों को कच्चे पानी ने रोजगार दिया था अब एक का रोजगार और सौ बेकार हो गए. एक बार उन्होंने नई दवा के अवगुणों का प्रचार भी किया. किन्तु किसी ने न सुना. कहते कि गन्दे पानी की अर्कवाली दवा से होने बजाय बेहतर है कि शुद्ध गंगा जल तथा कल द्वारा निर्मित जड़ी-बूटियों वालीदवा पीकर मरा जाय. स्वर्ग जब भी मिलेगा और वहाँ भी अमीरों की सुरा पीने को मयस्सर होगी. धन-बल से कच्चे व्यापारियों का प्रचारफिर भी असफल हो गया. लाचार होकर इन बेकार दारू निर्माताओं को कोई और नया काम सोचना पड़ा.
(Teen Mod Story Bhagwati Prsaad Joshi)
देवीसैण गाँव की उर्वरा भूमि ने अब जैसे नाराज होकर या कहिये कलजुग के प्रभाव से बहुत कम अन्न पैदा करना शुरू कर दिया था और उसका भी क्यादोष कलि महाराज के आगमन के बाद उसके मालिकों का बाजारों में बैठने गप्पेंलड़ाने आदि कार्यों से ही कहां फुर्सत थी कि उसके खाने-पीने की पूछें निरा गुड़ाकर श्रृंगार करें. फलतः एक कमजोर उपेक्षित गर्भणी की भांति उसने भी निर्बल फसलों को ही जन्म दिया. जमीन को समय पर खाद पानी नहीं दिया गया और निराई-गुड़ाई ही समय पर हुई क्योंकि औरतों को अपने साज़-श्रृंगार से ही अवकाश न था और पुरुषों को अपने नए शौक पूरा करने से ही फुर्सत न थी. भेड़ पालन और उसकी ऊन को फेंट-काट कर बेचना या पंखियां लावे बेचना उस गाँव का मुख्य धंधा था. जिसे पुरखों का जंगली काम समझ कर ठप्प कर दिया गया. अब तो भेड़-बकरी चराने के स्थान पर फटी पेंट-कोट पहन कर होटलों में जूठे बर्तन घिसना अधिक पसंद करने लगा. नयी-नवेलीयां उस दिन की कल्पना करती जब वे साबुन-तेल से स्वच्छ हो जार्जेट की साड़ी पहने किसी मोटर पर शहरों की सैर करें.
देवीसैंण की नर-नारियों का दिल अपने को उबड़-खाबड़पर्वतों से घिरे उस स्थान को कुआँ अपने को कूप मंडूक से अधिक न समझते. उनका जी चाहता की वे उननीले भूरे पहाड़ों से बाहर छलांग मारकर मैदानों की खुली हवा में सांस लें. उनकी शहर-भ्रमण की कल्पना स्वर्ग की कल्पनाओं से अधिक ऊंची होने लगी. औरऊँची देवीसैंण के नर-नारी उस समय स्तब्ध होकर देखने लगते जब कोई शहर की ओर जानेवाली मोटर घर धराती बलखाती और धूल उड़ाती हुई सामने के भूरे पहाड़ पर चढ़ती होती उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ने के लिए मोटर को सड़क के तीन मोड़ों पर मुड़ना पड़ता और फिर वह क्षितिज में एक बार रंगीन तारे कर तरह चमक कर दूसरी ओर गायब हो जाती. लंव के अधिकांश नर नारी उससे आगे केवल एक मधुर कल्पना कर के रह जाते.
(Teen Mod Story Bhagwati Prsaad Joshi)
भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ का यह लेख सन 1985 में लिखा गया था. यह लेख उनके पुत्र जागेश्वर जोशी द्वारा उपलब्ध कराया गया है.
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