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वज्रयान का प्रचार कुमाऊँ में मगध के पाल और सेन राजाओं द्वारा हुआ था. बर्मा में भी पीन धर्म की कुछ बातों को बौद्ध धर्म को आत्मसात करना पड़ा था. बर्मी लोग भी पौन धर्मावलम्बी भूत-प्रेत के उपासक थे.
(Tantricism in Kumaon)
ग्यारहवीं सदी तक भी वे छत्तीस भूतों की पूजा करते थे. इनमें गौतम बुद्ध को सैंतीसवें भूत के रूप में सम्मिलित किया गया. मंगोलिया और चीन से सम्पर्क होने के कारण पौन धर्म में निषेधवाद की भावना प्रबल रही. मृत्यु के बाद सब कुछ शून्य है, यही ताओ धर्म का सिद्धान्त तन्त्रवादी शैवों, बौद्धों और बच्चयानियों का परम आदर्श है.
जागेश्वर के महामृत्युंजय मन्दिर के सम्मुख तन्त्रवादी अपने शरीर का त्याग करते थे. कुमाऊँ के इतिहास में चन्द काल में ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जब राज गुरु इसी प्रकार शरीर त्याग करते थे.
कुमाऊँ के राजा लक्ष्मी चन्द द्वारा गढ़वाल के अभियान में पराजित हो जाने पर अपने तांत्रिक गुरु को नादिया (बंगाल) भेज कर वहां से कोई नया तन्त्र सीख कर आने का उल्लेख है.
(Tantricism in Kumaon)
जन साधारण तन्त्रवाद के जिस रूप को अपना चुके थे वह बौद्ध, शैव और पौन लामावाद का अद्भुत सम्मिश्रण था. उसमें वज्रयान, तन्त्रवाद और हठयोग का भी पुट था. उपासक को यह पता ही नहीं रहता था कि वह किस धर्म या किस मत या देवता का उपासक है. ‘सिद्धि श्री’ या ‘स्वस्ति श्री’ ये दो शब्द तो लिखे जाने वाले पत्र के आरंभ के अनिवार्य शब्द थे. ये दोनों तन्त्रवाद में उपास्य देवियों के नाम हैं.
देवी की उपासना का कुमाऊँ में प्रचलित कर्मकाण्ड भी शामानी या लामा प्रभाव से मुक्त नहीं था. नन्दा देवी की जो केले के खम्भों और पत्तों से विसर्जन के लिए प्रतिमा बनती है वह डिकर या डिकरा कहलाती है यह शब्द भी शक्ति सम्प्रदाय का है. अल्मोड़ा नगर का प्राचीन मन्दिरों की परम्परा में नवीनतम मन्दिर त्रिपुरा सुन्दरी भी शाक्त धर्म की इसी तन्त्रवादी परंपरा का है.
(Tantricism in Kumaon)
(यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक’ की पुस्तक ‘कुमाऊँ का इतिहास’ से साभार)
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