पाली पछाऊँ की सांस्कृतिक विरासत
उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति की धरोहर द्वाराहाट का स्याल्दे बिखौती का मेला पाली पछाऊँ में आयोजित होता है. चैत्र मास की अन्तिम रात्रि ‘विषुवत्’ संक्रान्ति की रात्रि व वैशाख मास के प्रथम दिन मेष संक्रांति को द्वाराहाट के विभांडेश्वर महादेव में यह मेला लगता है. विभांडेश्वर द्वाराहाट से 8 किमी की दूरी पर सुरभि, नंदिनी और गुप्त सरस्वती के संगम पर स्थित है.
कभी कत्यूरियों की राजधानी वैराठ थी यहाँ
कत्यूरियों की उत्तरकालीन राजधानी वैराठ (स्याल्दे/द्वाराहाट) में लगने वाला यह मेला एक सप्ताह तक चलता है. इस साल बिखौती मेला 13 अप्रैल की मध्य रात्रि से शुरू हो रहा है. द्वाराहाट एक ऐतिहासिक क़स्बा होने के साथ-साथ सांस्कृतिक और धार्मिक क़स्बा भी है. मानसखंड के अनुसार देवता द्वाराहाट को द्वारिका बनाना चाहते थे. इसके लिये उन्होंने कोसी और रामगंगा को द्वाराहाट में सम्मिलित होने को कहा. इस संदेश को दोनों नदियों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी छानागोलू में स्थित गार्गेश्वर के सेमल के पेड़ को दी गई. आलस के मारे सेमल का पेड़ सो गया. जब उसकी नींद खुली तो तब तक रामगंगा गेवाड़ से आगे निकल चुकी थी. इस प्रकार द्वाराहाट द्वारिका बनने से रह गया. इसलिये इसे उत्तर द्वारिका भी कहा गया.
द्वाराहाट का स्याल्दे-बिखौती मेला दूर-दूर के लोगों के आकर्षण का केंद्र है. कभी कत्यूरों द्वारा यहां एक सुन्दर सरोवर का भी निर्माण किया गया था. इसी सरोवर के किनारे स्यालदेवी (शीतला देवी) और कोट कांगड़ा देवी मंदिर बने हैं. यहाँ कत्यूरी राजा ‘ब्रह्मदेव’ और ‘धामदेव’ की पूजा-अर्चना की जाती थी. यही सरोवर बाद में स्याल्दे पोखर कहा गया. अब यह पोखर सूख चुका है.
ओड़ा भेंटने की परंपरा
कभी यहाँ पाषाण युद्ध हुआ करता था. इस मेले में सैनिक अपने युद्ध कौशल का परिचय देते थे. अब यह मेला ‘ओड़ा भेंटने’ का होता है. ओड़ा भेंटने की परंपरा में उस पत्थर को लाठियों से मारा जाता है जिसके बारे में मान्यता है कि पौराणिक समय में जब एक अहिंसक राजा को मारा गया था और उसका सर यहीं पर गिरा था. तभी से वह सर इस पत्थर के रूप में यहाँ बिद्यमान है.
यह भी मान्यता है कि एक बार दो दलों के बीच मेले में वर्चस्व को लेकर संघर्ष हो गया था, इस संघर्ष में पराजित दाल के सरदार का सर काटकर यहाँ दफना दिया गया था. यह पत्थर उसी के सर का प्रतीक है. ओड़ा भेंटने की परंपरा का निर्वाह मेले के तीसरे दिन होता है. इसमें तीन आल, नज्यूला और खरक खापें नगाड़े-निशाणों के साथ स्याल्दे-बिखौती मेले की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं. बिखौती का मेला विभांडेश्वर में रात से शुरू होता है.
द्वाराहाट का स्याल्दे बिखौती मेले का ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ सांस्कृतिक महत्त्व भी है. गांवों में मेले के एक माह पहले से झोड़े लगने शुरू हो जाते हैं. ग्रामीण महिलाएं व पुरुष बड़े मनोयोग से इनमें भागीदारी किया करते हैं.
रंगीले-चंगीले लोकगीतों व लोकनृत्यों की धूम
स्याल्दे बिखौती के मेले में हिस्सा लेने वाले झोड़े, लोकगीत लोकनृत्य वाले दलों के विशेष प्रशिक्षण का दौर भी गांव-गांव में महीने भर पहले से ही शुरु होने लगता है. लोग अलग-अलग घरों में इकट्ठा होकर,रात्रि के समय झोड़े, गीत, भगनौल आदि का अभ्यास करते हैं. हालाँकि अब यह एक लुप्त होती हुई परंपरा है.
पाली पछाऊँ के क्षेत्रों के किसी भी धार्मिक मेले, उत्सव के आयोजन की शुरुआत मां जगदम्बा के दरबार में झोड़ा ‘खोली दे माता, खोल भवानी धरम केवाड़ा’ लगाने से होती है. इस झोड़ा गीत में माता भवानी से धर्म के किवाड़ खोलने की विनती की जाती है. देवी भी भक्तों से पूछती है कि पहले यह तो बताओ कि तुम मेरे लिए भेंट में क्या लेकर आए हो? भक्त उत्तर देते हैं कि हम तुम्हारे लिए दो जोड़े निषाण और दो जोड़े नगाड़े लाए हैं देवी और उसके भक्तों का यही वात्सल्यपूर्ण संवाद इस झोड़े की आत्मा है.
बैशाख के पहली दिन आस-पास के सभी गाँवों के लोग स्नान, पूजा करने के बाद शीतलादेवी मंदिर के प्रांगण में इकट्ठा होते हैं और झोड़े भी लगाते हैं. इन झोड़ों में बदलते सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक परिदृश्य का उल्लेख करते गीत भी गाये जाते हैं. आस-पास के ग्रामीण साल भर से इस मेले का इंतजार करते हैं.
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