पहाड़ चढ़ना जितना मुश्किल होता है, उस पर जिन्दगी बसर करना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता. जीवन की मूलभूत सुविधाओं की दुश्वारियों के दंश उन्हीं पाषाणों में पुष्प खिलाने के गुर भी उन्हें सिखाते हैं, सामान्य भाषा में जिन्हें हम जुगाड़ कह सकते हैं, इस तरह का जुगाड़ वेकर ही लेते हैं. आज भी पहाड़ के कुछ दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जहां डॉक्टर और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की बात तो दूर गर्भवती महिलाओं के प्रसव कराने के लिए मिडवाइफ या दाईयां भी नसीब नहीं होती. ऐसे इलाकों में गर्भवती महिलाओं के परिजनों की आश उसी अथवा पड़ोस के गांव की स्वै पर टिकी होती है जो अपने अर्जित अनुभव से गर्भवती महिलाओं का प्रसव कराती हैं.
(Svai Bhuwan Chandra Pant Article)
पहाड़ के हर गांव में एक-दो स्वै जरूर मिल जायेंगी, जो बिना किसी जाति, धर्म व सम्प्रदाय के भेदभाव के कठिन समय में इन्सानियत के नाते अपनी सेवाऐं देती हैं. स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के साथ शहर के समीपवर्ती गांवों में हालांकि अधिकांश लोग यह जोखिम न उठाकर समय रहते गर्भवती महिलाओं को नजदीकी अस्पताल में भर्ती करा देते हैं और कई क्षेत्रों से इस तरह की खबरें भी छनकर आती है कि चारपाई पर ले जाते हुए गर्भवती महिला ने अस्पताल जाते समय रास्ते में ही शिशु को जन्म दे दिया या प्रसव वेदना में रास्ते में ही दम तोड़ दिया.
पहाड़ की जीवट महिलाओं के प्रसव के दिन तक निरन्तर अपने काम में जुटे रहना और कभी-कभी तो लकड़ी-घास के लिए जंगल गई महिलाओं द्वारा वहीं बच्चे का जन्म देने की खबरें भी आती रहती है. आज स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार से हालांकि जागरूक लोग अस्पताल में ही प्रसव करवाना सुरक्षित समझते हैं, लेकिन एक दौर वो भी था जब गांव की स्वै ही शत-प्रतिशत प्रसव कराती थी. कुछ जटिल मामलों को छोड़कर सभी प्रसव सफलता पूर्वक सम्पन्न होते. अपवाद स्वरूप कुछ गंभीर मामलों को छोड़ दिया जाय तो सभी प्रसव बिना ऑपरेशन के सफलता पूर्वक कराये जाते थे और प्रसव के दौरान गर्भवती की मौत के मामले कम ही सुनने को मिलते थे. इस बात में भी सच्चाई है कि यदि किसी महिला का अत्यधिक रक्तस्राव अथवा अन्य कोई दिक्कत प्रसव के दौरान हो गयी तो स्वै के पास हाथ खड़े करने के सिवा कोई चारा नहीं रहता.
स्वै शब्द कुमाउनी बोली का है और हर शब्द के पीछे उसका कोई अर्थ निहित होता है. स्वै नाम भी यों नहीं दिया गया होगा, उसके पीछे भी व्युत्पत्ति की सार्थकता निहित होगी लेकिन कहां से आया यह शब्द, निष्कर्ष तक पहुंचना आसान नहीं. कई शब्दों का अपनी अथवा अन्य किसी भाषा के समीप के शब्दों से अपभ्रंश का पता लगाया जा सकता ,कि यह शब्द अमुक शब्द से बिगड़कर (अपभ्रंश रूप में) बना होगा. लेकिन इतने छोटे वर्णसमूह (केवल डेढ़ वर्ण) के निकट स्व शब्द ही आता है, इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि स्व-अनुभव ही स्वै बना होगा, यह मेरा अपना मानना है.
जाड़ों की कंपकपाती अर्द्धरात्रि के बीच भी यदि किसी को प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो एकमात्र सहारा स्वै हुआ करती और परिजन रात में ही उसे बुलाने निकल पड़ते. स्वै किसी जाति, धर्म या सम्प्रदाय से परे इन्सानियत के नाते जाड़ों की ठिठुरती रातों में गांव से दो-तीन मील दूर से बुलावा आने पर भी अर्द्धरात्रि में ही अपना गरम बिस्तर त्यागकर मुंह को अपने आंचल से ढापते हुए बिना किसी नाज-नखरे के नंगे पैंरो निकल पड़ती. सहृदयता, सहयोग एवं इन्सानियत की हमारे पहाड़ की यह समृद्ध परम्परा रही है. गर्भवती महिला के घर पहुंचते ही वह लपककर गर्भवती महिला के पास जाती और प्रसव वेदना से कराह रही गर्भवती को ढांढस बंधाते हुए अपने काम में जुट जाती. उसके ऑपरेशन थियेटर के अपने तौर-तरीके तथा अपनी सहायक सामग्री होती. गांवों में प्रायः एक-दो कमरों वाले घर हुआ करते, जिसमें परिवार के अन्य सदस्य भी होते और उसी कमरे में प्रसव कराना होता. इसके लिए वह प्रसूता के लिए धोती का पर्दा बनाकर एक तरह से अलग प्रसूति कक्ष बना लेती.
घर के लोगों से मजबूत मोटी रस्सी मांगकर और उसे छत की धुरी या बांसे पर बांधकर जमीन तक उस ऊॅचाई तक लटकाया जाता ताकि प्रसूता घुटनों के बल बैठकर इस पर लटक सके. साथ में स्वै कुछ अन्य सामान की मांग करती जिसमें शामिल होती- एक दराती या चाकू तथा एक मटखाणी के मिट्टी के डले की. चाकू तो गर्भनाल काटने के काम आता लेकिन मिट्टी के डले का उपयोग क्या होता ये अब तक नहीं समझ पाया. गर्भवती महिला के पेट पर हाथ फेरने के बाद वह प्रसव की जटिलता का अनुमान लगाती, यदि पेट में शिशु उल्टा अथवा आड़ा-तिरछा हो तो अपनी हथेलियों के सहारे उसे जगह पर लाने का प्रयास करती और गर्भवती महिला को लगातार रस्सी पर लटकने को कहा जाता.
(Svai Bhuwan Chandra Pant Article)
प्रसव पीड़ा से कराहती महिला को प्यार से पुचकारती, ढांढस बंधाते हुए उसका अपना काम चालू रहता. जब प्रसव होने के करीब होता तो घर के लोगों को एक परात व गुनगुना पानी लाने का हुक्म देती. इसी कराह के बीच अचानक ’वहैंऽ वहैंऽ’ के बच्चे के रोने की आवाज के साथ प्रसूता तथा परिवार वालों को राहत मिलती. शिशु की रोने की आवाज के साथ ही जन्म का समय नोट कर लिया जाता तथा शंखध्वनि से नवजात शिशु का अभिनन्दन किया जाता. शंखध्वनि गांव में यह सूचना देने का संकेत भी थी कि अमुक घर में शिशु जन्म हुआ है.
स्वै द्वारा बच्चे की गर्भनाल काटकर उसे गुनगुने पानी से नहलाया जाता और कई लोग गर्भनाल के एक हिस्से को दरवाजे पर भी लटका दिया करते. ऐसी मान्यता थी कि जिसकी गर्भनाल दरवाजे पर लटकाई जाती है, वह ऐन खाने के वक्त ही अभीष्ट जगह पहुंचेगा. यह कितना सच साबित होता ये तो पता नहीं लेकिन ठीक खाते समय जो भी व्यक्ति घर पर पहुंचता है उसके लिए आज भी यह लोकोक्ति चलन में है कि इसकी तो नाभि दरवाजे के ऊपर रखी है. नवजात की आने की खुशी में गुड़ की भेली फोड़कर सभी को बांटी जाती और गांव में भी हर घर में गुड़ वितरित किया जाता. यदि किसी की लगातार लड़कियां हो रही हों तो माना जाता कि लड़की की पीठ के सहारे गुड़ की भेली फोड़ने पर अगली सन्तान लड़का होगा. ये केवल मान्यताऐं थी, इसके पीछे तर्क की कोई गुंजाईश नही. कई महिलाओं के बच्चे अक्सर जिन्दा नहीं रहते, उसके लिए भी एक मान्यता थी कि नवजात बच्चे को पनाण (बर्तन मांजने की जगह पर राख व कोयले के कीचड़) में लटपटाया जाता अथवा बच्चे का नाम बचिया या बचुली रखकर दीर्घजीवन की कामना की जाती. कई लोगों का नाम पनाण में लट्रपटाने के बाद पनुली या पनिया रख दिया जाता.
प्रसव के तुरन्त बाद जतकाई (नव प्रसूता) को आटे व गुड़ की गुड़झोली (आटे व गुड़ से बना तरल पीने वाला हलवा) खिलाया जाता. कहा जाता कि इससे नवप्रसूता का पेट सिकेगा. गुड़झोली एक ऐसा पेय था जिसकी पहुंच गरीब से गरीब परिवार तक थी. थोड़े सामान्य श्रेणी व उससे ऊपर के सम्पन्न परिवारों में जतकाई (नवप्रसूता) के लिए पंजीरी बनाई जाती. जतकाई के लिए कई तरह के ’बार ऽ’ (चीजों का उपयोग वर्जित) किया जाता. पुराने समय में तो कई दिनों तक जतकाई को छोंक लगी सब्जी तक नहीं दी जाती , केवल राख में पकाये आलू के साथ जीरे का नमक मिलाकर भुत्र्ता दिया जाता. ठण्डी तासीर वाली चीजों का प्रयोग पूर्णतः वर्जित रहता. गांवों में आपने अक्सर महिलाओं को कहते सुना होगा – ’’वायु परसूद हैगो.’’ वास्तव में ये परसूद कोई बीमारी नहीं होती , बल्कि प्रसूतावस्था में ठण्ड लगने से कई तरह की वायुजनित बीमारियां अपना डेरा बना लेती. परसूद वास्तव में प्रसूत का ही अपभ्रंश रूप है. इसी तरह खाना भी गरम इस कारण नहीं दिया जाता कि जतकाई के गरम खाने से नवजात के होंठो पर फफोले हो जायेंगे. इस प्रकार के दिशा निर्देश स्वै द्वारा भी दिये जाते. शरीर के इस नाजुक दौर में जब प्रसूता को अतिरिक्त पौष्टिक आहार की जरूरत होती है, तब खाने के संबंध में तरह-तरह की वर्जनाऐं उसे और भी कमजोर करती होंगी, लेकिन परम्परा थी, वर्जनाओं के प्रति आस्था थी तो शिशु के खातिर हर मां उसका पूर्णतः पालन करती.
(Svai Bhuwan Chandra Pant Article)
प्रसव कराने के बाद स्वै को टीका-पिठ्या लगाकर आभार के साथ विदा किया जाता और नामकरण के दिन उसे सम्मान के साथ पुनः आमंत्रित किया जाता. हालांकि स्वै पेशेवर नहीं होती लेकिन उनकी सेवाओं के लिए नामकरण का न्यौता भले किसी को दें न दें, लेकिन स्वै को अवश्य आमंत्रित किया जाता तथा उसे भोजन कराकर स्वै के नाम से धोती या साड़ी खरीदकर भेंट की जाती और अपनी अपनी सामथ्र्यानुसार दक्षिणा दी जाती.
वर्तमान दौर में स्वास्थ्य सेवाओं का गांवों तक विस्तार हुआ है, सेहत के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ी है, परिणामस्वरूप स्वै की सेवाऐं सिमटते जा रही हैं. लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि उस दौर में जब पहाड़ के गांवों में स्वास्थ्य सेवाऐं ना के बराबर थी, स्वै पहाड़ के गावों की ’गाइनो’ से कम नही थी.
(Svai Bhuwan Chandra Pant Article)
– भुवन चन्द्र पन्त
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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