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बेजान लकड़ियों में प्राण फूंकते जीवन चंद्र जोशी ‘चाचू’

वो सबके बीच चाचू नाम से जाने जाते हैं. उनके सामने पड़े रहते हैं लकड़ी के बेडौल टुकड़े जिन्हें वह जंगल जंगल से बटोर अपनी आँखों के सामने सहेज कर रख देते हैं.बेजान लकड़ियों का हर टुकड़ा इस उम्मीद में रहता है कि कब चाचू के हाथों का स्पर्श उसे मिलेगा और फिर वो भी कोई आकार ले सजीव हो उठेगी. यह हुनर यह जादूगरी है चाचू के पास जो लकड़ी को भी बोलना सिखा देती है.
(Jeevan Chandra Joshi Almora)

अल्मोड़ा की गल्ली के जोशी हुए अपने चाचू. सर्टिफिकेट वाला नाम है जीवन चंद्र जोशी. अप्रैल 1960 की 18 तारीख को अल्मोड़ा में जन्मे. घरवाले बताते कि दो बरस का होने तक सब ठीक था. हाथ-पाँव सही चलते थे. फिर अचानक ही कुछ बीमारी लगी. घरवालों ने सब कुछ इलाज करवा दिया पर पाँव निष्क्रिय हो गए. बाद में पता चला कि ये तो पोलियो था और पहले इलाज टाइफाइड का हो रहा था. अब इतना समय गुजर चुका था कि पैर फिर कभी मजबूत न हो सके. बच्चे जैसे हाथ पाँव से चौपाये की तरह कुछ समय चल फिर पैर का सहारा ले उठ चलना सीख जाते हैं दौड़ते हैं कूदते हैं, पर मैं तो घिसट-घिसट के ही आगे बढ़ा.

स्कूल की दुनिया मैंने नहीं देखी. घर में भाई बहिन पढ़ते. मुझे भी पढ़ाते. मेरे बाबू जी मोहन चंद्र जोशी बहुत होशियार और नये नये काम कर दिखाने वाले. पेशे से इंजीनियर रहे सिंचाई विभाग में. उनकी पोस्टिंग उत्तर प्रदेश देवरिया में रही. हाथ की कारीगरी उनने ही मुझे सिखाई. मेरा वह चचेरा भाई जिसने मुझे सिर्फ पांवों से घिसट घिसट और अपने जाखन देवी अल्मोड़ा के घर की देहरी से हट कर बाहर की दुनिया दिखाई. वह अक्सर अल्मोड़ा आता और घर में अक्सर आने वाले डोटियाल की पीठ पर मुझे बैठा कभी मेले में घुमाता, कभी सिनेमा हॉल में ले जा पिक्चर भी दिखाता. घर में भाई बहिन जो लिखते-पढ़ते उसकी मैं नकल करता वह मुझे लिखना भी सिखाते. ऐसे ही में पढ़ना भी सीखा. लिखने-पढ़ने का मुझे खूब शौक रहा. उसी अपने घरेलू से नेपाली डोटियाल की पीठ पर बैठ कर स्कूल जा मैंने पांचवी की परीक्षा दी.ऐसे ही प्राइवेट हाई स्कूल भी किया.
(Jeevan Chandra Joshi Almora)

इसी बीच मेरे सुन्न पड़े पैरों के ठीक होने के लिए घरवालों ने बड़े जतन किये.बड़े भाई की नौकरी दिल्ली में लग चुकी थी. तभी मैं अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली में इलाज के लिए भर्ती किया गया.. इलाज लम्बा चला. तीन ऑपरेशन हुए. अब दोनों पैरों में कैलिपर और बैसाखियों के सहारे खुद चल पाने के लायक बना दिया गया. अपने पांवों के नीचे की जमीन को नापते में बस यही सोचता कि अब मुझे भी कुछ कर दिखाना है. इतने साल मेरे अकेले बंद कमरे में सिमट कर रह गए पर उस दौर में भी मैंने हाथ का काम सीखा जिसका सूत्रपात मेरे बाबूजी बहुत पहले ही कर चुके थे. घर में पड़ी फालतू सी चीजों को सहेज कर रखना और फिर कई- कई चीजों को मिला कर कुछ नया सा बना देना. भले ही उनके हाथ में तार का टुकड़ा हो या बेकार यूँ हीं फेँका ऊन का गोला, वह दोनों का ऐसा मेलजोल कराते और फिर उत्सुकता सी जगाते कि देख अब क्या बना. ऐसे ही कभी लट्टू बनता कभी गुड्डा, मजे की बात ये कि और कोई इन फालतू चीजों से और कुछ बनाये न बनाये, मुझे इन सब में मजा आने लगा था.इधर -उधर बिखरी चीजों को घिसट -घिसट कर चल मैं बटोर लेता और फिर सोचता ,किससे क्या जुड़े कि कुछ बने. कुछ ऐसा बने कि मुझे लगे कि ये मैंने बनाया है. मेरे बाबूजी जब अपनी नौकरी से रिटायर हो कर अल्मोड़ा आ गए तो वह गौर से मेरी हरकतें देखते और मेरे हाथ से बनाई चीजों की तारीफ भी कर डालते.

ऐसे ही मेरे हाथ लगा बगेट जिसने मेरे भीतर लगातार कुछ करते रहने की लगन पैदा कर दी. बगेट चीड़ के परिपक्व पेड़ की छाल है जिसके टुकड़े छील कर ,खुरच कर ,घिस कर मेरे हाथ अनगिनत आकार बना डालते. कभी किसी टुकड़े में पत्ती बनती तो किसी में फूल. फूल भी अलग- अलग तरह के. अब मैं यह सोचता कि जो फूल मैंने देखे हैं उन्हें इस बगेट में आकार दे सकने में अपनी सारी ताकत लगा दूँ और फिर एक दिन ऐसा भी आया कि मैं लकड़ी के बेजान टुकड़े में गुलदस्ता बनाने के लायक हो गया.

 वैसाखी के सहारे थोड़ा बहुत चलने फिरने लायक होने पर मुझे बहुत जरुरी लगा कि कुछ ऐसा कामकाज करूँ जिससे आत्मनिर्भर बन सकने की मेरी इच्छा पूरी हो. तो इसकी शुरुवात मैंने अपनी जान -पहचान के लोगों के सहयोग से की. मैं पोस्ट ऑफिस की लघुबचत योजनाओं का एजेंट बन गया. मैं यह जानता था कि वैसाखी और कैलिपर के सहारे पहाड़ की चढ़ाई-उतार को एक सीमा से आगे तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल ही है पर अब तो मैं ये ठान ही चुका था कि भले ही थक जाऊं पर काम तो मुझे करना ही है. घर में रहता तो पेपर मैसी और काष्ठ कला की बारीकियां अपने बाबूजी से सीखता. संयोग से तभी मुझे मिले संजय सिंह बेरी जो लकड़ी पर की जाने वाली कारीगरी के माहिर थे. उन्होंने मुझे एहसास कराया कि बेजान पड़ी इधर -उधर बिखरी लकड़ियां भी कुछ कर दिखाती हैंऔर गौर से देखने की बात है कि इनमें भी एक ऐसा आकार छुपा है जो कलात्मक है या थोड़े सुधार से आकर्षक बनाया जा सकता है. इस काष्ठ के उसी अलग से रूप को समझ लेना और फिर छील कर खुरच कर एक आकार में ढाल देना ही वह शिल्प है जिसमें बड़ी मेहनत और धैर्य की जरुरत होती है. अपने गुरु का सानिध्य मिला तो मुझे महसूस हुआ कि यह लकड़ी का टुकड़ा या यूँ ही गिरी हुई पेड़ की कोई डाल निर्जीव नहीं है यह तो कुछ कह रही है.इसे एक रूप देना है. इसका भी श्रृंगार करना है. मन में आये भाव के साथ इसे ढालना है.

कितने साल तक अपने घर की खिड़की पर बैठा ,दरवाजे की देली पर अपने संज्ञाशून्य पाँव टिकाये मैंने बाहर की दुनिया को अपने जाखनदेवी वाले घर से देखा था. सामने पहाड़ थे. उनमें बने घर थे. खेत थे, जानवर बंधे हुए, गाय जुगाली करती, बछड़ा उसका दूध पीता हुआ. फिर अनगिनत पेड़ थे पेड़ में कितने किस्म की चिड़िया, उनके घोंसले. यहाँ वहां डोलते बंदर कितना उत्पात मचाते. सामने मंदिर, कुछ अलग तरीके से बनी ढली उसकी छत. लकड़ी के दरवाजों पर खुरच खुरच कर दिए गए आकार. शिव लिंग पर जल चढ़ाती आमा. मेरे आसपास की ये मेरी छोटी सी दुनिया में आ जाने वाली आकृतियां जो मेरे आगे पड़े रहने वाले लकड़ी के टुकड़े पर अब साकार होने लगीं थीं. अब कई लोग भी मेरे लिए जंगल से बीन बान कर अलग-अलग आकार की लकड़ियों की ये सौगात ले आते तो मुझे लगता कि पेड़ की हर टहनी, चीड़ के पेड़ का हर छिलका, हर बगेट मुझसे कह रहा कि हमें भी देखो गौर से क्या कुछ छुपा है निकालो उसे.

घर में में अपने भाई बहिनों से, अपने आसपास की जगहों के बारे में मैं खूब सवाल करता. हमारे पहाड़ में जो पर्व त्यार मनाये जाते उनमें मेरी रूचि खूब बढ़ी. पहाड़ की संस्कृति के बारे में कुछ सुन के, कुछ पढ़ के मैंने जो जाना समझा, अब वह मेरे हाथ में पकड़ी लकड़ी में बिम्ब तलाशने लगी थी. अब बहुत सारी चीजों को जोड़ कर चिपका कर ठोक कर मैं आकृतियां बनाने लगा था. अख़बार के कागज से गुलदस्ते, बेकार पड़ी लकड़ी को खुरच छील फूल-पत्ते-शाखा-टहनी के साथ अलग अलग आकृतियां और बगेट को तराश कर बनतीं सजावट की चीजें तो थी हीं. मैं बस इस कोशिश में लगा रहता कि अपने पहाड़ की जो लोक कला है शिल्प है उसे कैसे और कितने रूपों में तराश कर रख दूँ.लोक में प्रचलित हस्त शिल्प की बारीकियों को समझूँ और जिस तेजी के साथ लकड़ी पर की जा रही कारीगरी को लोग एक किनारे रख खिड़की, दरवाजों और घर में बहुत सी चीजों पर की जाने वाली नक्काशी पर बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे उसे फिर से लोगों के बीच लाने की अपनी कोशिश जारी रखूं. इस बारे में जैसे जैसे मेरी समझ विकसित होती गई तो मुझे यह जान कर बड़ी ख़ुशी हुई कि गांव देहात में जो हमारे घर मकान हैं, आपस में जुडी हुई बाखलियाँ हैं उनमें लकड़ी का प्रयोग काफी अधिक किया गया है. पर अब इनमें से अधिकांश की दशा ख़राब है.
(Jeevan Chandra Joshi Almora)

गांव के लोग बताते कि पहले लकड़ी आसानी से मिल जाती थी. लोगबाग अच्छा पक्का मॉल लगाना पसंद करते थे. गांव में ही कुशल शिल्पकार मिल जाया करते थे. अब तो हाल यह है कि लकड़ी और पत्थर का अच्छा काम करने वाले कारीगर मिलते ही नहीं. जो बचे हैं उनके बच्चे इस काम को करना नहीं चाहते. ज्यादा मजदूरी पाने के अरमान लिए कई लकड़ी के कामगार गांव से बाहर कस्बों और शहरों में चले गए और वहां प्रतिद्वंदिता के चलते अपने इस पुश्तैनी काम का उन्हें कोई सही मोल नहीं मिला. शहरों में लकड़ी का जो काम चल रहा है उसमें बिजली से चलने वाली मशीन इस्तेमाल होने लगीं हैं. पहाड़ के शिल्पकार इसमें भी पिछड़ गए क्योंकि ज्यादातर के पास इतनी पूंजी तो थी ही नहीं कि वह ये नयी मशीन खरीद सकें और लघु उद्योग के तौर पर अपनी इकाई विकसित कर सकें.नैनीताल जैसे टूरिस्ट स्पॉट में कई स्थानीय कारीगरों ने बड़ी मेहनत से अपने लिए बाजार बनाया पर इन कलाकृतियों के सही दाम नहीं मिल पाते.बाहर से आये दुकानदार सहारनपुर का माल उठा लाते हैं जो सस्ता भी होता है और तड़क-भड़क वाला भी. कहने को उद्योग विभाग है सरकारी विकास मेले और प्रदर्शनी भी लगती रहतीं हैं. बरसों से यह कहा सुना जा रहा है कि शिल्पियों के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है पर असल में ऐसे गिने चुने कारीगर होंगे जो लकड़ी के इस काम से अपने परिवार की रोजी रोटी चला सकें. दिल्ली और हरियाणा की तरह यहाँ हाट बाजार भी नहीं जहाँ माल के बिकने की गुंजाइश बन सके.

ये तो ऐसा काम है जिसके कच्चे मॉल के लिए न तो प्राकृतिक सम्पदा को कोई नुकसान पहुँचता है और न पर्यावरण कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.बस पहाड़ के जंगल- जंगल भटकना जरुरी है और ये देखना है कि सूखी पेड़ से गिरी गाड़ गधेरे नदी में बह कर आयी कैसी कैसी लांग, फांग, झेड़ी, तिनड़, खुण और खुम बस इस उम्मीद में पड़ीं हैं कि कोई तो कद्रदान आये और उन पर अपनी नजर डाल उन्हें मनचाहा आकार दे. इसी तरह बारीक़ काम करने के लिए साल, बांज, भिगुल अदि के पेड़ों के तनों और शाखाओं की सूखी छाल बगेट या फगेट है जैसे सावाकबगेट, बांजाक बगेट व भिगुलाक बगेट. इनमें चीड़ के बगेट सबसे अधिक उपयोगी हैं और इनकी मांग ताम्रकार, लोहार और स्वर्णकारों के द्वारा भी की जाती है. चीड़ से लिसा निकालने के लिए पेड़ से छाल का जो हिस्सा निकला जाता है वहां की छाल मोटी और मजबूत हो जाती है. यह भाग बगेट है.

बगेट को तराश कर उससे कलाकृति बनाने के काम की बहुत संभावनाएं हैं. बगेट से अनेक तरह की आकृतियां बनती हैं जैसे वाल हैंगिंग, मूर्तियां, के ढांचे और प्रारूप, पेन पेंसिल के होल्डर, फ्लावर पॉट, कलश, अगरबत्ती और मोमबत्ती के स्टैंड इत्यादि. बगेट से बनी कलाकृतियां देखने में काष्ठ की बानी ही प्रतीत होती हैं. यह मजबूत और टिकाऊ भी होतीं हैं. आसानी से गिफ्ट पैक बना इनको एक स्थान से दूसरे स्थान को लेजाया जा सकता है. हमारे पहाड़ में चीड़ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और उसके ठीठे भी. चीड़ का ठिठा अंडाकार होता है और यह 10 से  25 सेमी लम्बा और 5 से 8 सेमी चौड़ा होता है. यह शुरू में हरा होता है और करीब दो साल बाद इसके भीतर बीज जिसे स्यूँते कहते हैं तैयार होने लगते हैं. तब यह ठीठा भूरे रंग का हो जाता है. इसमें रंग रोगन कर इसका उपयोग अनेक तरह के सजावटी सामान में होता है.

बगेट और ठीठे की हस्तकला में हाथ से प्रयोग किये जाने वाले साधारण औजार ही काम में लाये जाते हैं जैसे चौरसी या छेनी, हथोड़ा, गुनिया, हेक्सो ब्लेड, अलग-अलग किसम के रेगमाल और चिपकाने के लिए फेविकोल और एडहेसिव या आसंजक इत्यादि. बगेट को छिलने के लिए और बनायीं जाने वाली कलाकृति में उभर लेन के लिए चौरसी नंबर 2 और उभारी सतह के बेकार भाग को काटने के लिए चौरसी नंबर 3 और 4 प्रयोग की जातीं हैं. लकड़ी या बगेट पर आकृति बनाने के लिए इसे काटते हुए ठोकना-पीटना भी पड़ता है जिसके लिए लकड़ी का हथोड़ा ही काम में लेट हैं जिससे लकड़ी के चिरने या फटने की गुंजाईश नहीं रहती साथ ही हल्का होने के कारन इससे अच्छे व स्पष्ट उभार आते हैं. साथ ही लकड़ी के दो या तीन गुटकों को जोड़ने के काम में सिकंजा काम आता है. इसमें गुटकों को मिला कर कसने के बाद जोड़ के बिच में आरी चला कर गुटके आपस में सही फिट हो कर जुड़ जाते हैं.

बगेट पर कोई कलाकारी करने से पहले यह तय कर लेते हैं की उस पर किसकी छवि उकेरनी है. पहले ही बगेट को करीब हफ्ते भर तक किसी बर्तन में पानी में भिगा दिया जाता है ताकि इससे उसके ऊपर की सतह मुलायम पड़ जाये और उसे आसानी से छीला जाना संभव हो सके. फिर इन्हें सुखा लेते हैं. अब जो आकृति बनायीं जानीं है उसके हिसाब से चौरसी नंबर 1 की मदद से धीरे धीरे छीलते हुए उसकी ऊपरी पर्त को अलग कर देते हैं और रेगमाल से घिसाई कर उसे साफ़ कर देते हैं. यदि कोने उभरे हैं तो उनको हेक्सो ब्लेड से काटना पड़ता है. कई बार अपने आप ही स्वाभाविक सी कोई आकृति दिखने लगती है. या फिर जो कलाकृति हमने बनाने की सोची है उसका कागज पर पेंसिल से रेखाचित्र बना लेते हैं और इसी नमूने के हिसाब से बगेट व लकड़ी के टुकड़ों को जोड़ कर बनने वाली कलाकृति का आकार तय कर लेते हैं. अब शुरू होती है नमूने के हिसाब से लकड़ी के मॉडल की कटाई, सफाई और घिसाई. मोटी घिसाई रेगमाल नम्बर 150 से करते हैं और बारीकी उभारने के लिये 220 नंबर अंत में फिनिशिंग 320 नंबर से की जाती है. बगेट के अलावा सुखी टहनियों, पेड़ की जड़ों और अन्य लकड़ी के टुकड़ों का भी उपयोग होता है. बगेट में ठीक उसी तरह से काम होता है जैसा हमें परंपरागत तरीके और रूप में पुराने भवनों और मंदिरों के शिल्प की नक्काशी में उकेरा हुआ दीखता है.

1980 के दशक में श्री संजय बेरी ने इस विधा में काफी काम किया. मरणोपरांत उनको राज्य स्तरीय शिल्प रत्न पुरस्कार भी दिया गया. साथ ही अल्मोड़ा के धीरेन्द्र पांडे ने पेड़ की जड़ों और टहनियों से कई कलाकृतियों का निर्माण किया जिसमें बगेट में बनी माँ नंदा-सुनंदा की प्रतिमा उल्लेखनीय रही है. रानीखेत के शिल्पी भुवन चंद्र साह ने उत्तराखंड के पारम्परिक बर्तनों जैसे गगरी व फौला तथा आभूषण जैसे नथ की महीन नक्काशी की है.सुरेगांव मासी द्वाराहाट के राधेश्याम पेड़ की जड़ों और टहनियों में आकृतियां उतरने के माहिर हैं. ऐसे ही ज्योलीकोट के दयाकिशोर आर्य, संजय साह एवं भुवनलाल साह, कठघरिया हल्द्वानी के गोपालराम व कसानी धारी के हेमंत दानी भी इस शिल्प के अच्छे जानकार हैं. रानीखेत निवासी मंजू रौतेला साह चीड़ के पेड़ के पत्तों व ठीठों की मदद से आकर्षक डिज़ाइन का हुनर जानतीं हैं. इनके साथ ही काष्ठ शिल्प के अनेक ऐसे जानकार हैं जो बहुत अच्छा काम जानते हैं और उत्तराखंड जैसे पर्यटन प्रदेश में उनके हाथ का बना माल पर्यटक चाव से खरीदते भी हैं पर वह स्वयं गुमनामी में सिमटे हुए हैं. इनमें से अधिकांश कुछ बड़ी दुकानों के लिए मजदूरी पर माल बनाते हैं.उनकी कला किसी सार्थक मंच पर प्रदर्शित नहीं हो पाती और न ही इसके बूते वह अपना आर्थिक स्तर बढ़ा पाते हैं जबकि बड़े आर्ट और क्राफ्ट इम्पोरियम इन्हें ऊँची कीमतों पर देशी -विदेशी पर्यटकों को बेच भारी मुनाफा कमाते हैं.
(Jeevan Chandra Joshi Almora)

उत्तराखंड में लकड़ी की नक्काशी अपने सरल, नाजुक और आकर्षक डिज़ाइन के लिए जानी जाती है. परंपरागत रूप से घर में नक्काशीदार प्रवेशद्वार बनाया जाना व्यक्ति की सम्पन्नता और सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक माना जाता रहा. इसी काष्ठ कला के दर्शन अभी भी कुमाऊं और गढ़वाल के कई घरों के सामने के दरवाजों ,खिड़कियों व छज्जों में दिखाई देता है जो आकर्षक फूल-पत्ती-बेल के साथ विविध ज्यामितीय अलंकरण और यहाँ तक कि मछलियों और जानवरों की अनुकृतियों से युक्त है. सामने के दरवाजे पर सजावटी लकड़ी की नक्काशी को ‘खोली’ कहा जाता रहा. आम तौर पर दरवाजे की चौखटों ,खिड़कियों ,छज्जों इत्यादि पर कई सुंदर आकर्षक तथा पवित्र व शुभ माने जाने वाले प्रतीकों को नक्काशी के साथ उकेरा जाता था.इनमें सागौन, गुलाब, आम या शीशम की लकड़ी का प्रयोग किया जाता जिन पर खोकरदार या अंडरकट, जलधर या जाली का काम, अर्ध नक्काशी या पादरी, वबरवेथ या डीपकार्विंग तथा सदिकाम या शैडो कार्विंग प्रकार की नक्काशी की जाती रही. अब पुराने ज़माने की तिबार, डिंडालया, मोरी छज्जा, छज्ज और खम्ब जैसी वास्तु कला लुप्त हो रही है. पहले गांव में परंपरागत रूप से लकड़ी की नक्काशी का काम शिल्पकारों द्वारा किया जाता रहा. अब लोगों की रूचि इस और कम होती जा रही है.

जीवन चंद्र जोशी उर्फ़ ‘चाचू’ लगातार इस कोशिश में लगे हैं कि पहाड़ के सुदूरवर्ती इलाकों में काष्ठ कला के साथ इससे सम्बंधित कई विधाओं में ऐसे युवाओं को प्रशिक्षित करें जो इसमें रूचि रखते हैं. हस्तकला के प्रचार-प्रसार के लिए स्थानीय मास्टर ट्रेनर तैयार करने और ग्रामीण अंचल की कार्यशालाओं में तैयार उत्पाद मुख्य पर्यटन स्थलों में प्रदर्शनी व बिक्री केंद्र लगा लकड़ी के कामगारों की आर्थिक दशा में सुधार लाया जा सकता है. उन अज्ञात शिल्पियों से व्यक्तिगत रूप से संपर्क कर उनके काम को सामने लाना भी जरुरी है जो अवसर और सुविधाओं की कमी के कारण आज भी गुमनामी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं. इसलिए स्थानीय स्तर पर ही ऐसे प्रबल प्रयास किये जाने जरुरी हैं ताकि इसे स्वरोजगार का साधन बनाया जा सके. ऐसे काष्ठ शिल्पी जो अभी अनाम रह अकेले ही इस कार्य में संलग्न हैं को चिन्हित कर मुख्यधारा में ला कर विक्रय केंद्र की स्थापना की जाये. यह सोचना भी जरूरी है कि इस काम में लगे श्रम और निरन्तर मेहनत की कीमत की पहचान कोई कला पारखी ही कर सकता है. इसलिए मुख्य बिक्री केंद्र उत्तराखंड के मुख्य पर्यटक स्थलों में हों जहाँ काष्ठ से बनी कलाकृतियों की बेहतर मांग हो.

जीवन चंद्र जोशी को वर्ष 2017-18 में फोक/ट्रेडिशनल एंड इंडिजीनस आर्ट हेतु सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केंद्र (सीसीआरटी) नई दिल्ली द्वारा सीनियर फ़ेलोशिप प्राप्त हुई. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय भारत सरकार के तत्वावधान में उन्होंने आर्टिजंस एंड क्राफ्ट एक्सपो, कोलकाता 2019 में बगेट से बनी अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित किया और वहां आये बच्चों व अन्य इच्छुक आगंतुकों को काष्ठ कला के हुनर की जानकारी दी. सितम्बर 2019 में भीमताल तथा दिसम्बर 2019 में उन्होंने काष्ठ शिल्प कार्यशालाओं का आयोजन किया. आई आई एस एफ 2019 में आयोजित क्राफ्ट एक्सपो में प्रतिभाग कर अपने शिल्प का प्रदर्शन करने का उन्हें मौका मिला.

अपनी धुन में मगन कटघरिया चौराहे के पास अपनी छोटी सी दुकान को ही अपनी साधना स्थली बनाये सबके चाचू आपको हर समय अपनी धुन में मगन मिलेंगे. अपनी शारीरिक कमजोरी को ही अपना अस्त्र बना अपने बूते उन्होंने अपनी पहचान बनायी है और लकड़ी के निर्जीव टुकड़ों में जान डाल उन्हें उत्तराखंड की कला संस्कृति का नायाब नमूना बना दिया है. काष्ठ को तराशती उनकी उँगलियों ने कई बरस की मेहनत के बाद अब वह नवप्रवर्तक खोज निकाला है जो इस विधा में अनेकों को हुनरबंद बनाने का जादू जानता है. उनकी सरल सी बातें दिल छू जातीं हैं और वह यह एहसास भी नहीं होने देते कि उन्होंने क्या कुछ भोगा है. वह परम भक्त हैं हैड़ाखान बाबा के यहाँ शिवजी का आशीर्वाद लेने जाने का नियम नहीं तोड़ते. बस यही सपना संजोए हैं कि ये कला जो मुझे मिली उसे मैं औरों को सौंप सकूँ.
(Jeevan Chandra Joshi Almora)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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