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बुजुर्गों ने हमारे भविष्य के लिए अपने सभी सपने बलिदान कर दिए

मैं अपनी वार्षिक परीक्षाएं पास करके घर में अपने ग्रीष्म अवकाश का आनंद ले रहा था. आखिर आनंद लिया भी क्यों ना जाए, पूरे वर्ष की माथा पच्ची के बाद किताबों और भारी-भरकम बस्ते से छुटकारा जो मिला. देर तक सोना, पूरा दिन खेलना, टी. वी. पर अपनी पसंद के कार्यक्रम और फ़िल्में देखते हुए पूरा दिन मौज मस्ती में व्यतीत हो जाता. परन्तु शाम को जब बाबूजी घर आ जाते तो फिर क्या मौज मस्ती. बाबूजी आते ही पूरे दिन का ब्योरा मांग लेते. क्या किया, पूरे दिन पढ़ाई की या मटरगश्ती में पूरा दिन खराब किया? बाबूजी की बातें सुन मन ही मन सोचता आखिर छुट्टियों में कौन पढ़ाई करता है. परन्तु क्या करता बाबूजी का खौफ ऐसा था की मन मसोस कर किताब खोल कर बैठना ही पड़ता. बाबूजी सख्त स्वभाव के आदमी थे मुझे थोड़ा भी मटरगश्ती करता या खाली बैठा देखते तो अपने पास बुलाकर जीवन का यथार्थ सुनाने बैठा लेते. वे कहते आज का समय बहुत कठिन है, प्रतिस्पर्धा बहुत बढ़ गई है और संघर्ष भी. पता है बाहर की दुनिया कितनी निर्दयी है जब बाहर दुनिया में जाओगे तो मालूम होगा. इस समय को अगर मौज मस्ती में उड़ा दोगे तो कल को क्या करोगे. पढ़ो-लिखो, अच्छे नंबर लेकर आओ वरना कल को बहुत पछताओगे. तुम्हारी उम्र में मैं नौकरी करने लगा था. तुम किस्मत वाले हो बेटा जो पूरा दिन नवाब की तरह मौज मस्ती करते हो. इस समय का सदुपयोग करो कुछ बनकर दिखाओ. (Memoir by Yogesh Arya)

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मैं चुपचाप बैठा घंटों बाबूजी की बातें सुनता रहता, मजाल है जो चूं कर जाऊं. मुझे समझ नही आता था बाबूजी मुझे समझा रहे है या मुझे डरा रहे है. मगर मेरे बाल्य मन को दुनिया की चोंचलेबाजी से क्या मतलब. दुनियादारी का पाठ खत्म होने पर मेरा मन फिर अपनी ही दुनिया में रम जाता. बाबूजी का डर तो मेरे मन में शुरू से ही था मुझे याद नहीं कब मैंने बाबूजी से कोई बात खुलकर कही हो, या उनके साथ मिलकर ज़ोर से हंसा हो. शायद जब गोद में खिलाने लायक जितना छोटा रहा होगा शायद तब बाबूजी मेरे साथ हंसी ठिठोली किया करते होंगे. जब से सोचने समझने की उम्र में पहुंचा बाबूजी को सख्त मिज़ाज ही देखा. ऐसा नहीं था कि बाबू जी सिर्फ एक कठोर आदमी थे, वे परिवार के प्रति समर्पित एक जिम्मेदार पिता भी थे. साथ ही सामाजिक रूप से शिष्टाचारी, हंसमुख, वाकपटु और कई कामों का ज्ञान रखने वाले एक मिलनसार व्यक्ति थे. उनका व्यक्तित्व ऐसा करिश्माई था कि जिससे भी वार्तालाप करते उसे अपना बना लेते, चाहे वह उनसे उम्र में छोटा हो या बड़ा. इसलिए उन्हें जानने-पहचानने वालों की फेहरिस्त काफ़ी लंबी चौड़ी थी. इसके विपरित मेरा स्वभाव ठीक इसका उल्टा था. मुझे अकेले रहना, कम बोलना, अपनी ही दुनिया में खोए रहना, लोगों दूर भागना पसंद था.  मेरा शर्मिला स्वभाव कहीं न कहीं बाबूजी को कुंठित कर दिया करता था. शायद यह भी एक कारण था की घर में उनका व्यवहार मेरे प्रति ठीक विपरीत था. घर में वे एक कड़क मिज़ाज पिता थे. खासतौर पर मेरे साथ उनकी सख्ती कुछ ज्यादा ही थी.

कभी-कभी बाबूजी का व्यवहार मन कचोटता था. क्योंकि बाबूजी बाहर के लोगों से जितने प्रेम भाव और हंस कर बात किया करते थे, उसके ठीक विपरीत मेरे साथ हमेशा सख्ती से पेश आया करते. ये बात मेरे बालमन को बहुत खटकती. इसका कारण भी शायद यह रहा हो कि— बाबूजी की मुझसे बहुत सी अपेक्षाएं थी और मैं उन अपेक्षाओं के अनुरूप खरा नहीं बैठता था.

मगर कभी बाबूजी के लिए मन कुंठा उत्पन्न नहीं हुई क्योंकि वो एक सख्त पिता होने के साथ एक जिम्मेदार पिता भी थे, हमारी सारी जरूरतों का पूरा ख्याल रखते थे. जैसे-जैसे मेरी सोचने समझने की क्षमता बढ़ी बाबूजी के सख्त होने की कारण भी मुझे समझ में आने लगे .

सबसे बड़ा कारण था बाबूजी के वे दुख जो उन्होंने अपने बाल्यकाल में झेले. बहुत छोटी आयु में बाबू जी के सिर से माता-पिता का साया उठ गया. वे महज 14 वर्ष के ही थे जब गांव से दिल्ली आ गए और यहां नौकरी करने लगे. बाबूजी ने कभी यह बात मुझसे साझा नहीं की.

बचपन के इस दुख ने बाबूजी को कठोर बना दिया था. बचपन में ही माता-पिता से उसके बाद अपने पहाड़ों से बिछोह ने बाबूजी के ह्रदय को जिस पीड़ा से भर रखा था उसका एहसास मुझे काफ़ी बाद में हुआ. कभी-कभी मुझे समझाते वक्त वे अपने बचपन की ओर चले जाते तो उनका गला भर जाया करता. फिर वे चुप हो जाते आगे कुछ ना कहते. वे अपने बचपन की यादों और दर्द को मुझसे साझा कभी ना करते. उस वक्त तक बाबूजी के दर्द से अनभिज्ञ था परंतु जब किसी सयाने रिश्तेदार के मुख से बाबूजी की बचपन करूणारूदार्ण मर्मस्पर्शी कलेजे को झकझोर देने वाली व्यथा सुनी तो मेरा मन करुणा से भर आया, गला रुंध गया और आँखें छलक गई.  उस दिन से मेरे मन में बाबूजी के लिए इज्जत और प्यार कई गुना ज्यादा बढ़ गया. वक्त के थपेड़ों ने बाबूजी को जो घाव दिए वे शायद कभी भर ही नहीं पाए.

पहाड़ों से दूर शहर में बस जाने के बावजूद भी बाबूजी पहाड़ से कभी दूर न थे. रह-रह कर उनका पहाड़ प्रेम छलक जाया करता. कभी उनकी कसक इतनी बढ़ जाती की वे मुझसे कहते हम पहाड़ जाएंगे और वही रहेंगे और फिर खामोश हो जाते. शायद जानते थे ऐसा करना बहुत मुश्किल है. रोजगार का अभाव, संसाधनों की कमी, गरीबी और पहाड़ का कठिन जीवन यही वजहें पलायन कर चुके लोगों के वापस पहाड़ लौटने में बाधाएं हैं. बाबूजी भी पलायन के दंश से पीड़ित थे. हमेशा वापस पहाड़, अपने गांव लौटना चाहते थे. लेकिन उनकी पहाड़ जाने की आशाएं समय बीतने के साथ-साथ शिथिल पड़ती चली गई. जिम्मेदारियों की बेड़ियों ने उनके कदमों को समय बीतने के साथ-साथ और ज्यादा जकड़ कर रख दिया. एक समय के बाद शहर में रहना सिर्फ उनकी मजबूरी भर रह गया. क्योंकि अब उन्हें अपने बच्चों का भविष्य जो संवारना था. उन्होंने पहाड़ वापस जाने के सपने का बलिदान कर दिया. मगर उनके मुख से पहाड़ जाने की इच्छाएं प्रकट होती रहतीं.

पहाड़ों से दूर शहर में बाबूजी पहाड़ो को अपने दिल में हमेशा जिंदा रखते और साथ ही हमे भी पहाड़ों से जोड़े रखा. बाबूजी ने हमेशा घर में ऐसा माहौल बनाए रखा जिससे पहाड़ों से मेरा लगाव बचपन से बना रहा और समय के साथ और ज्यादा प्रगाढ़ होता चला गया.

बाल्य काल की कुछ अविस्मरणीय यादों में से कुछ अच्छी तरह से याद है तो कुछ यादें धुंधली हो चली है. मेरी पैदाइश दिल्ली में हुई तो बचपन का ज्यादातर समय शहर में ही बीता मगर बचपन में इतना जरूर पता था की हम पहाड़ों से संबंध रखते है पहाड़ी है मगर तब मेरा बचपन में पहाड़ों से सीधा कोई सरोकार ना था. काफी छोटी उम्र में मां बाबू जी के साथ पहाड़ गया था तो सब कुछ धुंधला धुंधला सा याद था जैसे वहा की हरियाली, भीनी खुशबू, काली रोटी घी और दही, रात में ढिबरी जला कर घर के अंदर ही बैठना, और रिश्तेदारों का प्रेम भाव बस यही बचपन की स्मृति में अमिट रूप से छपा हुआ था उससे ज्यादा कुछ याद नहीं.

उन दिनों पहाड़ों की तरफ जाना एक रोमांचकारी और चुनौतीपूर्ण काम हुआ करता था. पहाड़ों की यात्रा का नाम सुनकर ही अच्छे खासे आदमी का सिर घूमने लगता था. मुझे भी स्मरण था जब बहुत छोटा था तो बाबूजी के साथ गांव जाते समय मां और मेरी जो हालत हो जाया करती थी वो आज तक नहीं भूला.

इसके बाद लंबे समय तक पहाड़ों की तरफ जाना ना हो पाया. मगर बाबूजी समय-समय पर गांव, पहाड़ जाते रहते. उनका रिश्ता पहाड़ों के साथ हमेशा बना रहा. पहाड़ों और अपने गांव के प्रति बाबूजी का प्यार और समर्पण अद्वितीय था पहाड़ उनके हृदय में बसता था. इस बात का प्रमाण मुझे तब मिलता जब गांव पहाड़ से कोई दोस्त या रिश्तेदार दिल्ली हमारे घर आया करते बाबूजी उनकी खूब खातिरदारी किया करते घंटो उनसे पहाड़ों की बातें पहाड़ी में किया करते. खूब हंसी-ठहाका लगा करता. बाबूजी ने पहाड़ की संस्कृति, खान-पान, रीति-रिवाजों को शहर में भी जिंदा रखा. इसी वजह से शहर में रहते हुए भी मैं अपनी पहाड़ी संस्कृति, खान-पान, रीति-रिवाजों से भली-भांति परिचित रहा.

बाबूजी बहुत व्यस्त रहा करते. ऐसा कम ही होता था कि वे घर पर हों. उनको फिल्मों या संगीत का बहुत शौक तो ना था, हां कभी फुर्सत में होते तो पहाड़ी कैसेट्स लगा कर सुना करते. उस समय घर में गोपाल बाबू गोस्वामी, हीरा सिंह राणा, नैननाथ रावल आदि गायकों के गीत कैसेट्स पर खूब बजा करते.  

बाबूजी जब भी गांव से वापस लौट कर आते तो उनका सूटकेस पहाड़ की सौगात भरी पोटलियों से भरा होता. सूटकेस खुलते ही सारा घर गांव की सौंधी सुगंध से महक उठता. उन पोटलियों को खंगालने के लिए मेरी उत्सुकता और भी ज्यादा बढ़ जाया करती. पोटलियों का कपड़ा थोड़ा मटमैला और पुराना जान पड़ता मगर उसी कपड़े से उन चीजों को बनाने और तैयार करने में लगी कड़ी मेहनत की खुशबू आती थी. किसी पोटली में भट्ट की दाल, किसी में गहत की. किसी पोटली में भांग तो किसी में अखरोट. किसी में पुराने घुघुत तो कहीं च्युड़. शुद्ध घी का एक डिब्बा, कुछ दाड़ीम, माल्टे और साथ में लाल डिब्बे में बंद मेरी पसंदीदा बाल मिठाई.

बस यही सब कुछ था बाबूजी के जीवन में. इन्हीं छोटी-छोटी चीजों से पहाड़ों से दूरी कुछ कम कर लिया करते थे. बचपन में माता पिता का प्यार ना मिला था इसलिए बाबूजी बड़े बुजुर्गो का खास आदर सत्कार किया करते थे.

समय बीतता गया और समय के साथ बाबू जी की पहाड़ों से दूरी भी बढ़ने लगी. परिवार की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने की भाग-दौड़ में जीवन के कई वर्ष व्यतीत हो गए. शहर की भागदौड़, परिवार की जिम्मेदारियां और पहाड़ों से बढ़ती दूरी ने उन्हें बढ़ती उम्र के साथ-साथ शारीरिक रूप से कमज़ोर भी कर दिया. काफ़ी कम उम्र में ही वो इस संसार को अलविदा कह मुझे विरासत में पहाड़ियत और जीवन का यथार्थ दे गए.

बाबूजी के अंतिम शब्द भी सिर्फ यही थे की उन्हें गांव जाना है.

आज भी जब अपने पहाड़ अपने गांव जाता हूं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये बड़े-बड़े पहाड़ मेरे बाबूजी की बड़ी-बड़ी बाहें है जो मुझे अपने सीने से लगाने को आतुर है और जिसके आगोश में आकर मुझे एक अलग ही सुकून शांति और सुरक्षा की अनुभूति होती है.

आज हम शहर में सुख सुविधाओं से परिपूर्ण अच्छा जीवन व्यतीत करते हैं तो यह सब हमारे बड़े बुजुर्गो के बलिदान का फल है. उन्होंने हमारे लिए अपने सभी सपने बलिदान कर दिए.

मूलत: कफड़खान, अल्मोड़ा के रहने वाले योगेश आर्या फिलहाल संघ लोक सेवा आयोग दिल्ली में कार्यरत हैं.

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Sudhir Kumar

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  • बहुत ही खूबसूरत लिखा है अपने। मेरे पास शब्द नहीं है आपकी तारीफ के लिए जितना खूबसूरती से अपने वर्णन किया है बाउजी के बारे में। बहुत सुंदर और भावुक 🙏🙏

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