पहाड़ और मेरा जीवन – 60
(पिछली क़िस्त: वह भी क्या कोई उम्र थी पिताजी ये दुनिया छोड़कर जाने की)
मैं किस सिलसिले में गया हुआ था वहां यह याद नहीं आ रहा पर बात यह दिल्ली की है और बारहवीं के बाद की ही है. क्योंकि ये ही दिन थे जब मैं किसी बात पर निराश होकर फौज में सिपाही के रूप में भर्ती हो जाने को तैयार हो गया था कि कम से कम परिवार का आर्थिक संकट तो दूर होगा लेकिन भला हो बड़े भाई का उसने मुझे ऐसा आत्मघाती कदम उठाने से रोक लिया. Sundar Chand Thakur Memoir 60
अगर मैं चला जाता तो मेरा जीवन भी हुबहू पिताजी के जीवन जैसा ही होता क्योंकि मुझमें ज्यादा तो उन्हीं के गुण हैं. मैंने तो फौज में अफसर बनने के बाद भी एक लंबा जीवन गहरी बेहोशी में जिया. बहरहाल दिल्ली में उन दिनों मेरे मामाजी मकान नंबर 939, नेताजी नगर में रहते थे. उनके घर से मेरे बचपन की भी यादें जुड़ी हुई थीं क्योंकि जब मैं पहली दूसरी कक्षा के दौरान दिल्ली में था, तब भी हम सपरिवार मामाजी के इसी घर में जाया करते थे. जब बारहवीं के बाद मैं फिर से मामाजी के इस घर में गया, तो बचपन मेरी आंखों में तैर गया. Sundar Chand Thakur Memoir 60
ये किशोर उम्र के दिन थे. हर चीज, हर व्यक्ति में अपने लिए संभावनाएं तलाशने वाले दिन, जाने कहां से कोई नई राह निकल जाए. मामाजी भारत सरकार के एविएशन विभाग में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. वे महज तेरह साल की उम्र में मां के गांव ज्ञालपानी से भागकर दिल्ली पहुंचे थे और जैसा कि पहाड़ से भागे हुए बच्चे अपनी जीविका के लिए करते हैं. Sundar Chand Thakur Memoir 60
संभवत: उन्होंने भी होटलों में बर्तन धोए, काम किया, पर सही समय पर किसी भले व्यक्ति ने उनकी सरकारी नौकरी लगा दी. मामाजी के तीन बच्चे थे. बड़ी बेटी और दो बेटे. बड़ी बेटी रेनू के बेटे की शादी अभी कुछ ही दिनों पहले खटीमा में संपन्न हुई. वह फुटबॉल का कोच है. रेनू के पति मारूति कंपनी में काम करते हैं. रेनू से छोटा भाई लक्ष्मण एक बेवजह किस्म की दुर्घटना में दुनिया से चला गया.
वह कई सालों से कॉन्ट्रेक्ट की नौकरी कर रहा था और शादी के बाद एक पक्की नौकरी की तलाश में जुटा हुआ था. एक दिन ऑफिस से लौटते हुए वह घर के पास ही लोहड़ी बनाते पड़ोसियों के बीच खड़ा हो गया. ठंड थी. सामने आग जल रही थी. आग थोड़ी कम हुई तो उसने अनायास पास में रखा मिट्टी तेल का जरीकेन उठा उसमें से तेल आग में फेंका ताकि आग तेज हो. आग ने तेल को पकड़ा और पलक झपकते ही तेल के साथ वह जरीकेन में समा गई और जरीकेन फट गया. उसने जीन्स पहनी हुई थी. दूसरे ही पल जीन्स ने आग पकड़ ली. आग बुझाते-बुझाते वह चालीस फीसदी जल गया. मैं कुछ दिनों बाद मां के साथ उसे अस्पताल में देखने गया. उसने बहुत जोश के साथ यह कहते हुए कि वह जल्दी ही ठीक हो जाएगा मुझे बिस्तर से उतरकर चलकर दिखाया. मैं लौटने को हुआ तो मेरा हाथ पकड़कर बोला – ‘भैया, कहीं पक्की नौकरी तो लगवा दो. इतने साल से आप कह रहे हो लगवा दूंगा, लगवा दूंगा.”
मन ही मन यह सोचते हुए कि इस बार इसकी नौकरी के लिए पूरा जोर लगा दूंगा, मैंने उससे विदा ली. लेकिन अगले ही रोज खबर मिली कि रात को इंफेक्शन बढ़ने के कारण वह दुनिया छोड़कर चला गया. मामाजी का छोटा बेटा विक्की बचपन से ही मेरी आंखों का सितारा था. वह बचपन में इतना गोरा-चिट्टा था और पढ़ने में इतना तेज कि मुझे लगता था वह बड़ा होकर कुछ कमाल करेगा. कमाल तो उसने नहीं किया पर उसे दिल्ली सरकार में नौकरी मिल गई. लेकिन सबसे बड़ी दुर्घटना यह घटी कि मामाजी एक दिन अचानक घर से गायब हो गए. Sundar Chand Thakur Memoir 60
तब बच्चे छोटे ही थे, स्कूलों में पढ़ रहे थे. बहुत खोजा पर नहीं मिले. किसी ने कहा कि वे साधु बन गए, किसी ने कहा मानसिक संतुलन खो बैठे. पर वे नहीं मिले तो नहीं ही मिले. हालांकि जैसा कि घर छोड़कर गए लोगों को लेकर होता है, सबको लगता है कि वे किसी भी दिन अचानक सामने आकर खड़े हो जाएंगे, मुझे भी कई सालों तक मामाजी को लेकर ऐसा ही लगता रहा था. वे बहुत ही जिम्मेदार व्यक्ति थे. चपरासी होती हुए भी उन्होंने अपने नाते-रिश्तेदारों में जाने कितने लोगों की मदद की थी, लड़कों को नौकरी पर लगवाया था. कुछ साल पहले मामी जी भी सांस की बीमारी से गुजर गईं. लक्ष्मण की पत्नी जिसके पास वह एक साल की बेटी छोड़ गया था, ने दूसरा विवाह नहीं किया.
मैं जब बारहवीं के बाद दिल्ली में उनके घर रुका था, तो विक्की और लक्ष्मण छोटे थे. उन दिनों मेरे एक और मामाजी का बेटा बहादुर चंद भी नौकरी ढूंढने गांव से दिल्ली आकर उनके घर पर ही रुका हुआ था. उन दिनों मामीजी की खाना बनाने में हालत खराब हो जाया करती थी. उनके हाथ के बने पराठों और राजमा की दाल का स्वाद कभी भुलाया नहीं जा सकता. क्योंकि घर के अंदर जगह कम थी, हम अक्सर बाहर शहतूत के पेड़ के नीच खाट डालकर पड़े रहते थे. मेरी नजर सामने के घर पर रहती थी जहां कॉलेज जाने वाली दो बहनें अक्सर चाय पीती या कपड़े सुखाती दिख जाती थी.
बहादुर अक्सर मुझे छेड़ता था कि दोनों बहनें बालकनी में मुझे ही देखने आती हैं. मैं जानता था कि ऐसा नहीं है पर बहादुर के बार-बार बोलने के कारण मैं उन्हें लेकर सजग हो गया और इस बात के संकेत खोजने की कोशिश करने लगा कि कहीं बहादुर की बात सही ही तो नहीं. इसमें कोई शक नहीं कि बहने सुंदर थीं. थोड़ी तंदुरुस्त थीं, पर उनके चेहरों पर गजब का ओज था. बाद में हाल यह हो गया कि मैं सुबह से लेकर शाम ढलने तक शहतूत के पेड़ के नीचे ही पड़ा रहने लगा. मैं इस उम्र में आने वाले परिवर्तनों को महसूस कर रहा था. कोई ताकत थी, जो मुझे सतत उस बालकनी की ओर देखते रहने को मजबूर करती थी. मुझे लगने लगा था कि मैं बड़ा हो रहा हूं इसलिए मुझे बड़ों जैसे काम भी करने चाहिए. Sundar Chand Thakur Memoir 60
बहादुर की दिल्ली में एक फोटो लैब में नौकरी लग गई. एक दिन मैं उसी से मिलने कनाट प्लेस गया हुआ था. उन दिनों जेब में डीटीसी का टिकट लेने भर को पैसे हुआ करते थे. हालांकि इन बसों में मैंने पूरा बचपन बिना टिकट सफर किया था, तो मन तो बहुत करता था कि टिकट के बिना ही सफर करूं, पर उम्र आड़े आ जाती थी. बचपन में तो इंस्पेक्टर बच्चा समझ छोड़ देते थे, पर इस उम्र में पकड़े जाने पर कोई नहीं छोड़ने वाला था. बहादुर को लैब से छूटने में देर थी, तो मैं बाहर आकर सड़क पर खड़े हॉकरों का सामान देखने लगा. एक बंदा धूप के चश्मे टांगे खड़ा था. मैंने कुछ चश्मे देखे. जैसा कि सभी करते हैं एक-दो चश्मे पहनकर मैंने उन्हें उलट-पुलटकर देखा. उससे कीमत पूछी. उसने कहा – दस रुपये. मैंने कहा- दो रुपये में दोगे तो लेता हूं. मैंने मन में सोचा कि कोई दस का चश्मा दो में क्यों बेचने लगा. पर इस लड़के को पता नहीं क्या मिर्ची लगी मेरी शक्ल देखकर कि बोला – ‘भाई दो रुपये निकाल और ले जा. तू भी क्या याद रखेगा.’
अब मेरे पास दो रुपये तो थे नहीं या अगर थे भी तो वे ज्यादा जरूरी कार्य में खर्च किए जाने थे. लेकिन मना कैसे किया जाए. इज्जत का भी सवाल था. तो जिस चश्मे को लेने की बात थी उसे मैंने कुछ देर और उलटा-पलटा और यह कहते हुए उसे लड़के की ओर बढ़ा दिया कि चश्मा जमा नहीं कुछ. शायद दुकानदार मुझे देखकर समझ गया था कि मैं किसी छोटे कस्बे का गरीब बाशिंदा हूं और नया-नया दिल्ली आया हूं. अब चश्मा तो तैने लेना पड़ेगा – वह चश्मा वापस मुझे लौटाते हुए बोला.
हमारे बीच कुछ देर तीखे संवाद चले. मैंने जब महसूस किया कि वह मेरे वजूद को हल्का बनाते हुआ मुझे एकदम नाकारा, नाचीज साबित करने पर आ गया है, तो मैंने अपने भीतर कुछ पिघलता महसूस किया और जल्दी ही लावे की तरह कुछ शब्द मेरे मुंह से निकले- ‘भाई जिंदगी में सब करना पर कभी गरीब के गुरूर को मत जगाना. बारहवीं पास करके आया हूं फर्स्ट डिविजन से. और चाहूं तो अब फौज में भर्ती भी हो सकता हूं.’ मेरे इन शब्दों ने उस पर क्या असर डाला पता नहीं, पर मैं बोलते-बोलते ही संजीदा हो गया और आगे कुछ बोले बिना मुड़ गया. Sundar Chand Thakur Memoir 60
दुकानदार ने भी चश्मे को वापस अपनी जगह रख दिया. इस घटना को मैं कभी नहीं भुला पाया. ऐसा क्यों हुआ होगा, मैंने संजीदा होकर ऐसी भावुक प्रतिक्रिया क्यों दी होगी, इस सवाल पर बहुत जोर देकर सोचा तो लगा कि शायद अपने पिता के दसवीं पास करने के बाद ही फौज में भर्ती होने की जानकारी ने मेरी समझ में भर्ती होने को एक बहुत बड़ा काम बना दिया था, इतना बड़ा काम कि जिसकी बिना पर पिताजी ने एक पूरा परिवार पाला था और इसके बरक्स वह दो रुपये का चश्मा सामने रख मुझसे यूं बहस कर रहा था!
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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"पहाड़ मेरा जीवन" श्रृंखला के अन्तर्गत आपने जिस बेवाकी व साफगोई से अपनी बखिया उधेड़ी है इससे लगता है की घटना में काल्पनिकता का पुट लेशमात्र भी नहीं है । इस श्रृंखला को आद्योपान्त पढ़ने को पाठक विवश हो जाता है। अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ।
कुछ अपनी जिंदगी के सफर नामे को छूते हुए से लगे आपका जीवन सफरनामा । उम्दा प्रस्तुति ।