लड़के, पढ़ने के लिए देहात से शहर जाते थे. आसपास के इलाकों में अव्वल तो कोई इंटर कॉलेज नहीं था. अगर था भी, तो तब तक उसमें साइंस नहीं खुला था.लड़कों की मजबूरी थी, रोज का तीस किलोमीटर आना-जाना. किशोर उम्र का लड़का, रोज तीस किलोमीटर साइकिल चलाए, तो उसे साइकिल चलाने में दक्ष होने से कौन रोक सकता है. कुछ ही दिनों में वह मँजे हुए खिलाड़ी की तरह एकदम ट्रेंड हो जाता. फिर राजमार्ग पर तरह-तरह के करतब. कभी वक्ष पर कसकर हाथ बाँधे साइकिल-संचालन, तो कभी चमत्कारी ढंग से साइकिल-सवारी. न डर, न भय. सब आत्मसात् किए रहता. स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में हल्का सा अंतर बताया जाता है. जीव शास्त्री कुछ भी बोलें, ये बात सौ टका सही है कि, हार्मोन सही वक्त पर अपना जलवा जरूर दिखाते हैं.
जॉली मुखर्जी के एक गीत का उन दिनों बड़ा शोर था. स्कूली लड़के, हाथ छोड़कर फुल स्पीड में साइकिल चलाते और जॉली मुखर्जी को दोहराते जाते- “रंग भरे बादल से, तेरे नैनो के काजल से…’ मुखड़े के उत्तरार्ध में, वे सीट पर उछलकर पहले जोर से ताली बजाते, तब जाकर अंतरा खत्म करते. ‘ओ मेरी चांदनी’ का उद्घोष करके, मानो वे अजीब सा संतोष महसूस करते थे. या फिर फोटो फ्रेम के अंदर से, “तुझे याद किया, तेरा नाम लिया…” किस्म की प्रतिबद्धता दोहराना चाहते थे. इतना ही नहीं, इस किस्म की गहरी हसरत भी रखते थे. सयाने लोग इसे उम्र का तकाजा कहकर टाल जाते. शाम को या छुट्टी के दिन, लड़के नदी किनारे हरे-भरे मैदान पर ढोर चराने जाते थे. नजदीक ही गाँव वालों के कुछ खेत पड़ते थे. किनारे के एक खेत पर मचान बना था. उस मचान पर अक्सर रेडियो बजता रहता.’मुन्ना अजीज’ के गाए एक गीत की उन दिनों बड़ी धूम मची हुई थी. गाना एकदम हाईवोल्टेज असर पैदा कर जाता. खास धुन के बजते ही लड़कों की धड़कनें थम सी जाती-‘आजिकल याद्द कुछ औरि रेहता नहीं, एक बस्स आपक्के याद्द आने के बाद…’ गीत को सुनकर कई ‘टीनएजर’ चरवाहे मैदान में लोट लगा जाते. पछाड़ें खा-खाकर गिरते. मानो अब तक अंदर ही अंदर धधक रहे थे. थोक में उन्हें भावुकता के दौरे पड़ने लगते. कुछ स्मरण नहीं रहता था. चेतना एकदम से लुप्त हो जाती थी.न जाने इस गीत में ऐसी क्या बात थी.इतने विह्वल और असहाय तो वे कभी नहीं दिखते थे. दरअसल सिनेमा में भी वैसा ही भूभाग दिखाई पड़ता था. कल-कल बहती नदी, हरा-भरा किनारा और ऊपर उन्मुक्त नीला-नीला आसमान. गीत बजते ही, दृश्य एकदम साकार सा हो उठता. मानो गीत, उनकी मनोदशा पर रिसर्च करके, खास उन्हीं के लिए लिखा गया हो.
मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है.’ स्कूल पहुँचने में अक्सर देर हो जाती थी. कभी साइकिल की चेन उतर जाती, तो कभी पंक्चर. गेट पर पहुँचते ही समस्या उठ खड़ी होती. बड़ा सा ताला लटका हुआ मिलता. कहने की बात नहीं है कि, स्कूल में विशुद्ध अनुशासन का बोलबाला था. अब वैतरणी कैसे पार हो. कोई उपाय न दीखता, तो लड़के अन्य दिशाओं का रुख कर जाते. प्रायः सिनेमा हॉल, कभी कभार रमणीक स्थलों की ओर भी. इस तरह से भ्रमण-विहार क्रमशः शौक में शामिल होता चला गया. एकदम गंधर्वों जैसे शौक. समय तो काटना ही था. शाम से पहले घर लौट नहीं सकते थे लौट तो जाते, पर जवाब क्या देते. गणित की किताब देख-देखकर अक्सर उकता जाते. प्रायः अध्ययन-कर्म की पेचीदगियाँ भारी पड़ने लगतीं. इस निष्ठुर मन का अब क्या उपाय हो. उपाय, बड़ा आसान सा था. मन को फौरन सांस्कृतिक स्पर्श दे दिया जाता.
स्कूल के सामने से एक सीधी सड़क जाती थी, जो स्कूल की सड़क को सीधे समकोण पर काटती थी. उसके ठीक सामने सिनेमा हॉल पड़ता था. इधर क्लास से गायब होओ तो सीधे हॉल में हाजिर मिलो. क्लास से एकदम संपर्क कट जाता. स्कूल की फिक्र एकतरफ फेंक-फाँककर लड़के उधर का रुख अपनाते रहे. इस प्रकार सिनेमा पर, एक तरह की निर्भरता होती गई. जब भी ऊब हो या पढ़ने से मन उकता जाए, आसान सा उपाय था- सुखपूर्वक सिनेमा हॉल में जा बैठो. सिनेमा का शौक उन दिनों, ढाई-तीन रुपये का शौक हुआ करता था. स्कूल के लेट लतीफ लड़के वहाँ समय से हाजिर मिलते. एकदम पंक्चुअल. कई सुहृद एक साथ मिलते, तो आह्लाद से भर उठते. सभी एक मंजिल के राही हों, और ऐसे मिलें, तो अपनापा तो वैसे भी बनता ही था. हाँ, टिकट खिड़की पर थोड़ी सी जद्दोजहद रहती थी. उसका व्यूह-भेदन, लड़के अच्छे से जानते थे. समानधर्माओं में से सबसे मजबूत अथवा सबसे फुर्तीला लड़का, खुद को स्वयं सेवी के रूप में प्रस्तुत कर देता था. वह धर्म युद्ध, मल्ल युद्ध अथवा मुष्टिका युद्ध में से, कोई भी प्रारूप अपनाने को स्वतंत्र रहता था. क्षणभर में वह ‘यूरेका-यूरेका’ जैसे भाव लिए मुठ्ठी में टिकट दबाए, दोस्तों की तरफ दौड़ लगा जाता. सीट की जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती थी.इसके लिए एक बड़ा आसान सा उपाय था. गेट पर निर्विकल्प खड़े हो जाओ. भीड़ का धक्का अपने आप आपको उचित स्थान तक पहुँचा जाता. हालांकि चैन से सिनेमा देखना मुनासिब नहीं हो पाता था.
मास्टरों के जत्थे, सिनेमा हॉल में अक्सर रेड किया करते थे. लड़के हरपल सतर्कता बरतते. सिनेमा हॉल के ‘टॉर्च चमकाने वाले’ पर हरदम सतर्क निगाह रखते.’कहीं लिए तो नहीं चला आ रहा है’ वाला भाव ओढ़े रखते. घबराहट और आशंका से भरे रहते. सिनेमा की विचार श्रृंखला के समानांतर, एक और विचार श्रृंखला चलती रहती थी. एकदम चौकस. कभी-कभी तो गुरुजन, सिनेमा में डूबे लड़कों के ऐन सामने जा पहुँचे. बेहद नजदीक. महज कुछ सेंटीमीटर दूर. ऐसी दशा में ठंडी में पसीना छूट जाता. साँस लेना सचमुच दूभर हो जाता. ‘गुरुकुल’ के टॉकीज में पहुंचने की खबर से सिनेप्रेमी लड़कों में भगदड़ मच जाती थी. अंधेरे सिनेमा हॉल में ‘शिष्यों’ की पहचान बहुत आसान थी. जाँच के मानक मोटा मोटी रहते थे-दर्शक किशोर सा हो, संदिग्ध सा दिख रहा हो और सफेद कमीज पहने हो. ‘डाउटफुल’ होने के लिए इतना मसाला काफी रहता था. प्रारंभिक लक्षणों की पहचान के बाद गुरुजन उसे घसीटकर रोशनी में ले जाते. खुदा ना खास्ता अगर उसकी ‘हरी पतलून’ निकल आए, तो फिर क्या कहना. वह शर्तिया ‘परम शिष्य’ बन जाता था. वहीं पर दीक्षा’ संपन्न हो जाती. इतने में भी मुक्ति संभव नहीं रहती थी.
‘जब्त लड़के’ अगले दिन असेंबली में मेज पर खड़े किये जाते थे. मानो ओलंपिक स्पर्धा-विजेताओं को, बस अब पदक भर मिलने की देर हो. इन तमाम बाधाओं से बचने के लिए लड़के तरह-तरह की युक्तियाँ लगाते. अपनी ओर से जितनी भी सावधानी बरत सकते थे, बरतते.धीरे-धीरे ‘गुरुकुल’ की आदत सी पड़ती चली गई. लड़के उनकी आहट पहचानने लगे थे. पूरी सतर्कता बरतते. फिर भी मन कुछ अटका-अटका सा रहता था. हरदम उनके आगमन की चिंता लगी रहती. इस तरह से लड़के बड़े धर्म संकट के बीच सिनेमा देखते रहते थे. वे उचित मार्ग से आते और उसी मार्ग से लौटते थे. इसबीच लड़के ‘फायर’ वाले ‘इमरजेंसी’ दरवाजे से सुरक्षित बाहर निकल जाते, उनके बाहर निकलते ही ‘इमरजेंसी’ से अंदर आ जाते. एहतियातन खास कदम उठाये जाने लगे. जरा सी हलचल होती, तो फौरन इशारा पकड़ लेते. तत्काल कमीज़ उतार लेते. फिर बनियान में ठाठ से सिनेमा देखने लगते. अपने लिए आत्मनिर्भर होना, शास्त्रों में अच्छी बात बताई जाती है. सर्दियों में यह तरकीब थोड़ा संदेहास्पद सी मानी जाती थी. तो ‘विंटर्स’ में लड़के दूसरा रास्ता अख्तियार कर लेते. दर्शकों में कुछ भिक्षुक भी पाए जाते थे. भिक्षुक सिनेमा के अच्छे-खासे शौकीन होते थे, घनघोर सिनेप्रेमी समझ लीजिए. वे बड़े दयालु होते थे. ‘रेड’ होते ही लड़के, उनसे शरण की भीख माँगने लगते. शरणागत की रक्षा तो प्राचीन काल से हर हिंदुस्तानी का शौक रहा है. तो भिक्षुक इस प्रार्थना को हाथों-हाथ ले लेते. उन्हें अपने कंबल के नीचे शरण दे देते, जैसे आहट सुनते ही, मुर्गी अपने चूजों को पंख के नीचे छुपा लेती है. दोनों जने आह्लाद से भर उठते. इस प्रकार इस स्पेशल टेकनीक से ‘रेड’ के बीच में विशेष रोमांच के साथ सिनेमा देखा जाता था.
एक दिन तो बहुत ही गजब हुआ. कोई कामगार था. नहा-धोकर, सफेद कमीज धाँसकर सिनेमा देख रहा था. बेचारा ‘शिष्य’ होने के भ्रम में उनके हत्थे चढ़ गया. अर्जुन के चक्कर में एकलव्य धर लिया गया. मास्टरों की टोली उस पर जा चढ़ बैठी. आदतन उसपर बुरी तरह टूट पड़े. वह अंधेरे में चिल्लाया, “काहे मारत हव मर्दवा.” फिर रुदन मिश्रित सुर में बोला, “हम तोहरा का बिगाड़े हैं.” धावा-दल ने तत्काल गलती महसूस की. उसे पुचकार कर चुप कराया गया. बाकायदा क्षमा मांगी. वे तुरंत जान गए कि उनसे रॉन्ग नंबर डायल हुआ है. बाद में कुछ चतुर लड़कों ने इस फार्मूले को मौके की नजाकत के हिसाब से समय-समय पर बखूबी इस्तेमाल किया. एक और तरीका था –पैंट के अंदर पैंट. शर्ट के अंदर शर्ट. कवच-कुंडल टाइप की सुरक्षा. हालांकि यह पद्धति, मात्र शीतकाल के लिए मुफीद रहती थी.
दूसरी समस्या, अपने गाँव के दूधियों को लेकर रहती थी. गाँव में पशुपालन पर जोर होने से दूध खूब होता था. दूधिया उसका व्यापार करते थे. शहर की कॉलोनियों में सुबह-सुबह दूध बाँटकर वे फ्री हो जाते. अब क्या करें. मन-बहलाव के लिए पहले शो तक ठीक-ठिकाने पहुँच जाते. टॉकीज में गांव के लड़कों की झलक भर दिख जाती, तो फिर उसका मन सिनेमा में नहीं लगता था. अधरों पर हल्की सी मुस्कान लाकर दूधिया सोचता, ‘आज नहीं बचोगे, बच्चू.’ दिखावे के लिए वह बिलकुल तटस्थ सा रहने का प्रयत्न करता, लेकिन उसकी प्रसन्नता छुपाए नहीं छुपती थी. ‘इसके घर में किसको बताऊँगा, पिता को, माँ को या बड़े भाई को.’ इनमें से किसी एक विकल्प को चुनने की, उसकी इच्छा बलवती हो उठती. घर पर सबसे पहले सूचना पहुँचाने को वह एकदम व्याकुल हो उठता. ‘फिल्म छूटे तो उड़कर इसके घर पहुँचूँ और इस काम को अंजाम दूँ.’ गाँव पहुँचकर वह अपने घर बाद में जाता था, पहले मूल काम. छूटते ही शिकायत करता, “आज मैंने पिक्चर हॉल में एक लड़का देखा, बिल्कुल तुम्हारे लड़के जैसा दिख रहा.” सीधे-सीधे नहीं बताता था, अन्योक्ति में बता जाता. जानता था, सीधे बताने पर छोकरे अकेले में घेर लेंगे. दामन पर दाग, तो किसी को भी गवारा नहीं रहता था. कोई उनके सिने प्रेम को यूँ ही बदनाम नहीं कर सकता. वैसे लड़कों को यह पद्धतिे नुकसानदेह पड़ती थी-डायरेक्ट बताता, तो सीधे सजा थी. इनडायरेक्ट बताने में इंटेरोगेशन-प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी, जो बहुत खलती थी. इस तरह वह एकसाथ तिहरी भूमिका निभा जाता-व्यापारी के अलावा वह दर्शक तो होता ही था.घरवालों के लिए अवैतनिक गूढ़ पुरुष भी बन जाता. घर पर कड़ी पूछताछ चलती. डाँट-डपट, प्रताड़ना से लेकर निष्कासन के भय तक, सब कुछ. ऐसी स्थिति में उपाय आसान रहता था. चुप रहना सबसे बेहतर. इम्तिहान के नतीजे को लेकर सख्त चेतावनी मिलती, तो मन में सोचते, ‘तब की तब देखेंगे. अभी से क्यों रोएँ.’ लड़कों के इरादे नेक रहते थे और स्पष्ट भी. इतना सब कुछ हो जाने पर भी, इन वायवीय बातों से तनिक भी सहमत नहीं होते थे और न ही प्रभावित. साइकिल स्टैंड पर ‘दूध की ठेकी लटकी’ साइकिल देखकर सतर्क हो जाते. उसके बैठने के धुर दूसरी तरफ बैठते. आमना-सामना न हो, इस तरह की संभावना को टाल जाते. ऐसी हर परिस्थिति को ‘इग्नोर’ कर जाते. उससे एक किस्म की नैतिक आड़ रखते और एकदम कोने वाला छोर पकड़ लेते, जहाँ से पर्दे और उस पर एकसाथ निगाह पड़ती हो.
एक तरफ हमारा सबसे खराब दौर चल रहा था, तो हिंदी सिनेमा का भी कौन सा अच्छा दौर था. एक तरह से उसका भी सबसे कठिन दौर चल रहा था. युवा मन की आवाज़ –‘आक्रोश और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष’ को अनिल कपूर जैसे-तैसे खींच रहे थे. बस यूँ समझ लीजिए कि, युवाओं के दर्द का इलाज, अकेले अनिल कपूर ढूंढने में लगे थे. अधिकांश फिल्में, चालू फिल्में रहती थीं. वैसे दर्शक भी कम चालू नहीं होते थे. विशुद्ध फॉर्मूला फिल्में. एक से एक बंबईया मसाला फिल्में, जिनकी विषयवस्तु अत्याचार और प्रतिशोध तक सीमित होकर रह गई थी. एक किस्म से यह समस्याओं का अति सरलीकरण था. सार्थक सिनेमा का तब अकाल सा पड़ा हुआ था. टॉकीज भी सादगी से भरपूर था. चीप प्रिंट. सीन में दगे गोले की कर्णभेदी आवाज, दर्शक को ठीक अपने बगल में सुनाई पड़ती थी.कानफोड़ू स्पीकर्स. वर्तमान पीढ़ी के नौजवान तो उन फिल्मों के नाम सुनकर ही मुँह बिचकाने लगेंगे. गारंटीशुदा बात है कि उन्हें बहला-फुसलाकर भी उन फिल्मों को नहीं दिखला सकते. शर्तिया, वे नहीं देखेंगे. तो सिने प्रेम के लिए, उस दौर के लड़कों ने क्या-क्या जुर्म नहीं सहे. बस यूँ समझ लो कि, एक टाँग पर खड़े होकर तपस्या की. एक-से- एक असहनीय फिल्में देखीं, जिन्हें बर्दाश्त करना, अब बड़े-से-बड़े संयमी के लिए असंभव सा जान पड़ता है, परंतु उस दौर के दर्शकों ने अपनी भावनाओं को हमेशा काबू में रखा. इंडस्ट्री को घाटा नहीं खाने दिया. सब कुछ दाँव पर लगाकर फिल्में देखीं. वो भी पूरे चाव से.
जानकार बताते थे, बड़ी ‘धाँसू’ फिल्म लगी है और बड़ा ‘फाडू’ हीरो है. धाँसू शब्द कहाँ से आया, कैसे आया, ये तो नहीं जानते थे, लेकिन यकीन कर लेते थे कि फिल्म बड़ी शानदार होगी और हीरो भी जबरदस्त होगा. बाद में किसी मैगजीन में पढ़ने को मिला कि, टर्नर ने ‘धाँसू’ शब्द की व्युत्पत्ति, ‘ध्वंस’ से बताई है, जो मन में गहरा प्रभाव पैदा करे. जो अंतरतम तक धँस जाए अर्थात् हृदय स्पर्शी प्रभाव. जहाँ एक तरफ जहरीले, जोशीले, रखवाला, हिम्मतवाला जैसी ‘सदाबहार’ फिल्में थीं. तो दूसरी तरफ आवारगी, आवारागर्दी, आवारा जिंदगी, अंजाम खुदा जाने, जान की बाजी, खतरों के खिलाड़ी, जीते हैं शान से, मर मिटेंगे, हम फ़रिश्ते नहीं जैसी ‘यथार्थ जीवन’ से जुड़ी फिल्में. पोस्टर बदला, मूड बदला. क्षणभर में फैसला.
पोस्टर से याद आया, सिनेस्टार्स के पोस्टर्स की चर्चा किए बिना, यह सांस्कृतिक चर्चा अधूरी रह जाएगी. तब गाँव क्या था, वज्र देहात था. घरों में बिना पलस्तर की दीवार. उबड़-खाबड़ ईंटों पर पसंदीदा सिने कलाकार पूरी धज के साथ स्थान पाते थे. लड़कों में उनके लिए इतना आकर्षण रहता था कि, इन पोस्टर्स के माध्यम से उन्होंने अपने उपास्य देवी- देवताओं को, देखते-देखते, बड़ी आसानी से ‘रिप्लेस’ कर दिया. यह पोस्टर प्रेम, कई घरों में, कई अवसरों पर, नैतिक संकट के रूप में उभरकर सामने आया. बड़ा भाई अगर दो-चार साल बड़ा हुआ तो पोस्टर को लेकर उनमें एक तरह की स्पर्धा की संभावना बनती थी. बड़े भाई साहब की अनकही अपेक्षा रहती थी कि, छोटा भी मेरी तरह उसी का प्रशंसक बना रहे. उससे लगभग निष्ठा की अपेक्षा की जाती थी. हालांकि छोटा उतना आज्ञाकारी तो नहीं होता था, लेकिन क्लेश से डरता था. कभी-कभी यह पसंद-नापसंद का मामला, अनबन में बदल जाता.छोटा, इसे विचारों की आजादी समझ लेता या पसंद थोपने जैसा मान लेता तो, अंदर ही अंदर विद्रोह सुलगने लगता था. कई लड़के तो इस पोस्टर प्रेम के चक्कर में, छुट्टी पर आए फौजी भाई से अक्सर पिट जाते थे. वो जब-जब दो महीने की छुट्टी आते, उसकी ओवरहॉलिंग कर जाते. पढ़ाई तो तहस-नहस रहती ही थी, फौजी भाई के कड़क हाथ पड़ते ही प्रशंसक लगभग ध्वस्त कर दिया जाता था. एक दोस्त के घर में गजब कोहराम मचा हुआ था. ‘ये चल रही है, तेरी पढ़ाई’ की आवाज पगडण्डी तक सुनाई दी. शाम तक ये खबर आई कि, अर्चना पूरन सिंह के पोस्टर और प्रशंसक दोस्त दोनों को, नायब सूबेदार भाई ने एकसाथ फाड़ डाला. मां-बाप सहज ही जान जाते थे, कि ‘लौंडा अब हाथ से निकल गया समझो।’ पोस्टर दिखा नहीं कि, बात सीधे कैरेक्टर और चाल-चलन पर आकर छूटती थी. वे घड़ी-घड़ी आशंका जताते, ‘पहले तो ऐसा नहीं था. उस स्कूल में जाते ही इसके तो पंख लग गए. फैशन पट्टी करना कुछ जादा ही सीख गया. आजकल ज्यादा ही हवा में उड़ रहा है. लच्छन इसके ठीक नहीं चल रहे.’ कुल मिलाकर, कई तरह की धारणाएँ बनती-बिगड़तीं .ध्वस्त होती, उपजतीं. तो इस पद्धति से पूत के लच्छन आसानी से पहचान में आ जाते. जैसे ही वे मर्म समझते, हिदायत देते थे. फिर निगरानी समिति बनाते और लगातार पैनी नजर रखते.
अभिभावकों को सपूत के ‘पथभ्रष्ट’ होने का खतरा, सबसे बड़ा खतरा लगता था. उसे सही पथ पर जोते रखने की जिम्मेदारी घरवालों की ही बनती थी. आखिर संस्कार तो घर से ही सिखाये जाते हैं. कुल मिलाकर, ठुकाई को नैतिक मूल्य लागू करने सबसे सस्ता और सरल उपाय माना जाने लगा. भड़कीले-चमकीले चटक रंग, सिने तारिकाओं के धारदार नैन नक्श आदि गुणधर्म इन पोस्टर्स की खूबियों में शुमार थे. पीठ पर वेल्डिंग का गैस सिलेंडर लटकाए हुए मांसपेशी दिखाता नायक. मजबूत शरीर उघाड़े ‘बड़े देओल’. ये पोस्टर्स नौजवानों की पहली पसंद होते थे. चरवाहे लड़के तो ‘देओल’ को अपनों में से एक मानते थे. खुद को वे लंबे समय से ‘महिवाल’ जो मानते चले आ रहे थे. ‘साड़ी का पल्लू निचोड़ते हुए, खिलखिलाती मधुबाला’ घनघोर सिनेप्रेमियों के कमरों पर कब्जा किए हुए मिलती.
एक फेलियर लड़का, बंबई गया. कमा- धमाकर तो कुछ खास नहीं लाया, लेकिन दिल को छू जाने वाली एक अद्भुत तस्वीर जुगाड़ कर लाया. जिसमें जंजीरों में बंधी अनारकली (मधुबाला) बहुत ही बेबस दिखाई पड़ती थी. कद्रदान, उस तस्वीर को देखकर, उश्-उश् कर रह जाते. उस दौर में माधुरी दीक्षित बड़ी तेजी से उभरीं. वह मोहनी डालती गई और सबको मूर्च्छित करती चली गई. उन्होंने पुरानी पीढ़ी को एकाएक बेदखल करके रख दिया.
एक पढ़ाकू लड़के से हमारी दोस्ती थी.’अबोध’ पिक्चर का एक पोस्टर वह अपने सिराहने छुपाये रखता था. यह उसकी नई नवेली खोज थी. एक और पोस्टर था, जिसमें, माधुरी दीक्षित दोनों हाथ कमर पर रखे, किसी को डाँट लगा रही होती थी. यह पोस्टर उसने फिजिक्स के प्रैक्टिकल की नोटबुट के आखिरी पन्ने पर चस्पा किया हुआ था. बंदा था तो सीधा, लेकिन रिस्क बड़ा उठाए हुए था. जब लड़कों को इस बात का पता चला, तो उसके शरीफ बनने के दावे की एकदम हवा निकल गई. किसी को भी इस बात का एहसास नहीं था कि, वह इस तरह का कदम उठा सकता है.
‘पंजाब केसरी’ एकमात्र रंगीन अखबार था. उसके उस अंक की व्यग्रता से प्रतीक्षा की जाती थी, जिसमें सिनेसंसार की हलचलों का सचित्र ब्यौरा छपता था. तो कस्बे के उस नाई की दुकान पर ग्राहकों की आमद यकायक बढ़ गई, जिसके यहाँ पंजाब केसरी आता था. चतुर सैलून वालों ने उससे सीख ली और ‘फिल्मी कलियाँ’ मैगजीन को सब्सक्राइब करने में ही भलाई समझी.
यह उम्र का तकाजा ही कहा जाएगा कि, उस उम्र में किसी के बहुत अच्छे लगने का एक रोमानी सा एहसास उभरता था, जो तस्वीरों में खोजा जाने लगा. कोई किसी में किसी का अक्स खोजता, तो कोई किसी की अनुहार. उसी अनुभव में खोए रहने की प्रबल कामना. आवेग, त्रासदी और तपिश सब एकसाथ.
एक पृथक् बात और. एक दशक के बाद हमें देश की प्रतिष्ठित माने जाने वाली परीक्षा में बैठने का मौका मिला. देखादेखी मैं बैठे थे. गिरते-पड़ते कहें या संयोगवश, हम इंटरव्यू तक जा पहुँचे. साक्षात्कार बोर्ड ने जब हमारी शैक्षणिक पृष्ठभूमि के रिकॉर्ड्स पर दृष्टिपात किया, तो वे लगभग उछल पड़े. एक पैनलिस्ट ने हैरत जताते हुए हमसे पूछा, “आपका तो सारा-का- सारा एकेडमिक रिकॉर्ड एकदम उम्दा है, सिवाय इंटरमीडिएट के.” फिर पुचकार कर पूछा, “उस साल आखिर ऐसा क्या हुआ. आखिर क्यों पिछड़ गए थे आप.” उन्होंने हमारी दुखती रग छेड़कर रख दी. उस साल हम सचमुच ‘रियायती नंबरों’ से पास हो पाए थे. नंबर इतने किफायती थे कि, देखते ही किसी को भी झट से यकीन हो जाता था कि, पाला छूने में बंदे की साँस उखड़ गई होगी. हम बमुश्किल सीमा-रेखा छू पाए थे. पूरी-की-पूरी ‘सब्सिडी’ न मिलती, तो हम वहीं धराशाई हो गए होते. इसमें हमने कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी थी. खैर जवाब तो देना ही था. सेकंड के सौवें हिस्से में, हमें एक विचार कौंधा.
जब पाठशाला में पढ़ते थे, एक कहानी पढ़ाई जाती थी, कक्षा तीन में. कहानी का शीर्षक था- ‘सच्चा बालक।’ उसका निष्कर्ष तुरंत दिमाग में छाता चला गया. कहानी का कथानक कुछ इस तरह से था-बहुत समय पहले की बात है. एक कारवाँ पर कुछ डाकुओं ने हमला किया.लूटपाट की. एक बच्चे की तलाशी में कुछ नहीं निकला. लेकिन उसने डाकुओं के सरदार को बताया “मेरे पास एक अशर्फी है.” “कहां है.” “घर से चलने से पहले, मेरी माँ ने वह अशर्फी, मेरे कोट के अस्तर में सिलकर रख दी थी.” डाकुओं ने सिलाई खोली तो सचमुच सोने की अशर्फी निकली. डाकुओं का सरदार बच्चे से बहुत प्रभावित हुआ. उसने बच्चे से पूछा, “तुम न बताते तो किसी को क्या पता चलता और तुम्हारी अशर्फी भी बची रह जाती.” बच्चे ने हिम्मत के साथ जवाब दिया, “नहीं, मेरी माँ कहती है कि, हमेशा सच बोलना चाहिए.” फिर बरसों बाद, कभी किसी सूफी कथा में यह पढ़ने को मिला कि, बाद में चलकर वही बच्चा, प्रसिद्ध खलीफा हारून अल रशीद बना. जिसकी न्यायप्रियता के किस्से अरब जगत से लेकर पूरे एशिया में सुनाए जाते हैं.
बहरहाल, हमने बोर्ड के सम्मुख अपने रियायती नंबरों के पीछे के सत्य को उद्घाटित करने का निश्चय किया. सारा आत्मबल संजोकर, संयत स्वर में जवाब दिया, “श्रीमान्! उस दौर में हम, राजमार्ग पर हाथ छोड़कर साइकिल चलाया करते थे.” बोर्ड को शायद यह बेबाक जवाब काफी पसंद आया. ‘डेवलपमेंट’ संबंधी कुछ मुद्दों पर हमारे विचार जानने के बाद वे पुनः ‘मूल विषय’ पर लौटे. मनोभाव भाँपकर हल्के अंदाज में उन्होंने हल्के से पूछा, “फिर तो सिनेमा का शौक भी रखते होंगे.” हमने भी आह्लादित होकर जबाव दिया, “बहुत सर, बहुत ज्यादा.” फिर उन्होंने दो-तीन सिनेमाई सवाल पूछे.’टंटा’ जल्दी निबट गया. एक पैनलिस्ट तो वारे-वारे हो जाने को उतावले से दिखे. उस रुझान का हमें भरपूर लाभ मिला. सभी गद्गद थे, हम कुछ ज्यादा ही. नतीजा निकलने पर मालूम पड़ा कि, वे सचमुच प्रसन्न थे. उन्होंने हमारे ऊपर जी भरकर नंबर लुटाए. विष, औषध का काम कर गया. होम्योपैथी वाले सैमुअल हेनीमेन, आजीवन यही तो करते रहे.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
2 Comments
Anonymous
70 के आस-पास जन्मे लोगों के छात्र जीवन में सिनेमा और पंजाब केसरी का बड़ा महत्व था। आपने अपने बेबाक अंदाज में पूरा परिदृश्य जीवंत कर दिया। हार्दिक साधुवाद
दिनेश कर्नाटक
दिनेश कर्नाटक
वाह, आनंद आ गया। 70 के आस-पास जन्मे हम लोगों के जीवन में सिनेमा तथा पंजाब केसरी का खास महत्व था।