वे मुझसे पाँच साल सीनियर थे और छः साल भी. पाँच साल इसलिए, क्योंकि जब मैं बी.ए. में एडमीशन लेकर उनका रूम पार्टनर बना, तब वे एल.एल.बी. द्वितीय वर्ष के ‘तथाकथित’ छात्र थे. छः वर्ष इसलिए, क्योंकि दो साल पहले उनके द्वारा की गयी एक घोषणा की बुनियाद पर उनके पापाजी अगली जुलाई में उनके फाइनल रिजल्ट के बाद घर के दरवाजे पर चार मोटे कीलों से ‘सर्वोदय पाण्डे उर्फ टुन्नाजी, बी.ए. एल.एल.बी. अधिवक्ता’ लिखा टिन का बोर्ड ठोकने की हसरत पाले पूरे गाँव में छुट्टे साड़ की तरह घूम रहे थे. पड़ोसी गाँवों के खलिहर लोगों को भी बोर्ड की साइज और बैकग्राउंड के कलर के साथ हर लाइन का रंग याद हो चुका था. उनके पापाजी अपने को सफेद (गोरा) मानते थे, सो होली में बोर्ड के लिए तय लाल, नीला और काला गुलाल लाने के लिए पूरे जवार के बनियों को नौ महीना पहले से आर्डर देना शुरु कर दिये थे. (Story Ashutosh Mishra)
उनके पापाजी का उनसे एक साल आगे द्रुत गति से दौड़ने का कारण यह था कि सीनियर बी.ए. में एडमीशन लिये, तभी से वकालत में अपना उज्जवल भविष्य देखने लगे. क्योंकि वे अपनी क्षमता और हुनर के बड़े पारखी थे और उनका हुनर उन्हें केवल वकालत पेशे में कुलाँचें भरने की इजाजत देता था. वे अपने समय के उन दिशाहीन युवकों को, जो बी.ए. के बाद एम.ए., एम.ए. के बाद पी.एच.डी., उसके बाद बी.एड. और फिर थक हारकर एल.एल.बी. करते थे, निरा मूर्ख मानते थे. बी.ए. के छात्रों को घेर-घोटकर एल.एल.बी. करने की सलाह देते हुए अक्सर कहते थे, ‘‘जब झख-मारकर वकालत ही करना है, तो जवानी में शुरू करो. बुढ़ापे में वकालत शुरू करोगे, तब कमाओगे कब और खाओगे कब?’’ श्रोताओं की रुचि को दृष्टिगत रखते हुए यह भी जोड़ते थे, ‘‘एक तो वकीलों की वैसे ही काइदे का शादी-विवाह नहीं होता है. दहेज तो केवल रस्म अदायगी के लिए मिलता है. ये लॉ करने वाले बुढ़ऊ लोगों को इतनी पढ़ाई के बाद तो कोई डाइवोरसी भी मिलने से रही. आखिर लड़की वालों को शादी लड़के से करनी है या उसके डिग्री से.”
खैर! बात हो रही थी उनके छः साल सीनियर होने के रहस्य की. दरअसल हुआ ये कि वे बी.ए. की डिग्री मात्र तीन साल में हासिल करके इतिहास रच दिये. हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट की तरह दो साल बर्बाद करके अपनी पीठ और नींव (महीनों पापाजी के जूते पड़ने के कारण) मजबूत करने की सदियों पुरानी खानदानी प्रथा से अपने को बचा लिये, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी एक साल बर्बाद करने के अपने इतिहास को दुहराने से नहीं रोक पाये. तीन विश्वविद्यालयों और पाँच महाविद्यालयों ने उन्हें एल.एल.बी. में प्रवेश देने से साफ मना कर दिया, क्योंकि वे वेटिंग लिस्ट में भी जगह नहीं बना पाये थे.
लॉ में एडमीशन न होने पर वे ग्रेजुएट की डिग्री का ख्याल रखते हुए अपने पापाजी के जूते वर्ष भर अनवरत खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये. उनकी दलील थी कि ‘‘ग्रेजुएट आदमी को अपनी नहीं तो कम-से-कम अपनी डिग्री के इज्जत का ध्यान रखते हुए जाहिल बाप से कभी-कभार ही मार खाना चाहिए. हाँ, बाप की गाली हमेशा सुनाने में कोई हर्ज नहीं है.’’ सो घोषणा करने की खानदानी परंपरा का निर्वहन करते हुए पूरे गाँव में, विशेषकर अपने घर में, एलान कर दिए कि पाँच यूनिवर्सिटी और पंद्रह-बीस कालेज अपने यहाँ एडमीशन देने के लिए उनका खाना-पीना, उठना-बैठना, हगना-मूतना, सोना-जागना सब हराम कर दिये हैं. सबकी चिट्ठियां पढ़ते-पढ़ते उनकी हालत पागलों जैसी हो गयी है. डाकिया बेचारा दो बजे रात तक उनको जगाकर चिट्ठी पकड़ा रहा है. लेकिन वे भी अपने सगे बाप के सगे पूत हैं… एडमीशन तो पुरानी यूनिवर्सिटी में ही लेंगे. आखिर उसी का तो नमक-पानी खाकर वे बी.ए. का मजबूत किला फर्स्ट डिविजन (आती गांधी डिविजन थी) से ध्वस्त किये हैं.
वे थोड़ा-बहुत पढ़ने वाले आदमी थे. लिखने वाले व्यक्ति भी थे. पॉकेट में हमेशा चार-पाँच कहीं से झटकी हुई पार्कर की पेन रखते थे, लेकिन पेन की स्याही हमेशा परीक्षा हाल में व्यर्थ करते थे. अन्य दिनों में अपनी ऊर्जा और स्याही दोनों का संचय करते थे. अक्सर मनोहर कहानियां, माया, मनोरमा कभी-कभी गृह शोभा और इसी तरह की पत्र-पत्रिकाएं हॉस्टल के किसी कमरे से उठा लाते और मुस्कुराते हुए गहन अध्ययन में लीन हो जाते. वे पाठ्य-पुस्तकों के अध्ययन करने की जहमत नहीं उठाते थे, क्योंकि उनके पास कोई पाठ्य-पुस्तक थी ही नहीं. ऐसा नहीं था कि उन्हें पाठ्य-पुस्तकों से कोई नफरत थी. यदि ऐसा होता तो वे मेरी पुस्तकों को जलाने के बजाए करीने से सजाकर आलमारी में नहीं रखते. दरअसल वे पाठ्य-पुस्तकों के प्रति तटस्थ थे.
मुझे अच्छी तरह से स्मरण है, रूम-पार्टनर के तौर पर मुझ जैसा आज्ञाकारी जूनियर पाकर वे प्रफुल्लित हो गये थे. बर्तन धोने (सिवाय अपने जूठे बर्तनों के), चावल-दाल-सब्जी बनाने, आटा गूंथने (रोटी वे गर्म खाना पसंद करते थे, सो रोटी खुद सेंकते थे) और कमरे की सफाई करने की जमींदारी स्थायी तौर पर मुझे सौपकर वे दिनभर सूर्ती ठोकते कैम्पस का चक्कर लगाते रहते थे. लेकिन विधि संकाय, जिसके वे होनहार छात्र थे, में जाते हुए शायद ही कभी किसी ने उनको देखा होगा. हॉस्टल खुलते ही वे पिन्टू चायवाले के यहाँ से अखबार लाकर मेरी पुस्तकों पर कवर चढ़ाने के एकसूत्रीय काम में लग गये. इस दरियादिली का राज तब पता चला, जब उनकी शादी के लिये लड़की वाले उनका औचक निरीक्षण करने आये. वे अपनी आँखों पर जीरो पावर का मोटे फ्रेम वाला चश्मा चढा़कर मेरी किताबों को अपने भावी ससुर से दिखाते हुए कह रहे थे, ‘‘देखिये पापाजी, एल.एल.बी. में कितना पढ़ना पड़ता है. पढ़ते-पढ़ते आखों में चश्मा चढ़ जाता है और मुवक्किल ‘स्साले फीस देते समय काखने लगते हैं.”
यूनिक सामान्य अध्ययन को दिखाते हुए गम्भीर भाव-भंगिमा बनाकर बोलना जारी रखे, “इस मोटकी कितबिया के बारे में तो पूछिये मत, इसको पढ़ने का मतलब माइंड की नसों को एक-दूसरे से उलझाना है. इसे एक दिन पढ़ता हूँ, तो तीन दिन माइंड को रेस्ट देता हूँ.” ईश्वर जाने उनके भावी पापाजी उनकी बातों को गम्भीरता से लिये या नहीं, लेकिन इस घटना के बाद से मैं उनकी तिकड़म का मुरीद हो गया. बन्दा हमेशा दूर की… बहुत दूर की सोचता था, तभी तो वे अपनी शादी से पहले सैकड़ों अनजान लोगों को ‘पापाजी’ की उपाधि खैरात में बाँट दिये. वे बहुत बड़े वाले भविष्यदृष्टा थे.
उनके लिये मैं केवल जूनियर ही नहीं था, बल्कि वे एक तरह से मेरे गार्जियन (स्वयंभू) हो गये थे. खुद तो पूरे दिन और कभी-कभी रात में भी कैम्पस में मटरगश्ती करते रहते थे. लेकिन मुझे कभी कैम्पस में देखते, तो डाँटना शुरू कर देते, भले ही मैं एक क्लास से दूसरी क्लास में जा रहा होता था. वे केवल मुझे डाँटने वाले गार्जियन नहीं थे, बल्कि मेरी पढ़ाई में भी दिलचस्पी रखते थे. अपना लाइब्रेरी कार्ड यह कहते हुए मुझे पकड़ा दिये थे कि ‘‘भई, मैं तो पढ़ता-लिखता कम ही हूँ. जरुरत ही नहीं है पड़ती. ब्रिलियंट माइंडेड आदमी हूं, सो बिना पढ़े भी अच्छे नम्बरों से पास हो जाता हूँ. तुम अपनी किताबें मेरे कार्ड पर लेकर जी-जान लगाकर पढ़ाई करो.’’
उनकी बातें सुनकर मैं हतप्रभ रह जाता. महीनों अपने औसत दिमाग को कोसता. पहली बार बिना किसी अपराध के आत्मग्लानि की ज्वाला में तपता रहा था. खैर ! ऊपर वाले के दरबार में देर है, अंधेर नहीं. उनके ब्रिलियंट माइंड की पोल-पट्टी उनकी परीक्षा के एक दिन पहले खुली. शाम को मैं भोजन पकाने की तैयारी में जुटा था, तभी वे एक हाथ में बीस प्रश्नोत्तर वाली केला प्रकाशन की मुस्लिम विधि की एक पतली गाइड (सीरीज) और दूसरे हाथ में दस प्रश्नों वाला गेस पेपर लहराते हुए प्रकट हुए. चेहरे पर बेचैनी भरा आत्मसंतोष का भाव लाते हुए बिना किसी औपचारिकता के बोले, ‘भई, कल से हमरे एक्जाम का श्रीगणेश होगा. बीस साल से तो लगातार बिना नागा किये पढ़ ही रहा हूँ. इतना पढ़ लिया हूँ कि किताबों को देखते ही बुखार चढ़ने लगता है. बुद्धि माता की कृपा रही तो अगले साल से इन फालतू के कामों से मुक्ति मिल जाएगी… सुनो! ये सालिड गेस पेपर लाया हूँ. एक काम करो, इस गेस पेपर में लिखे प्रश्नों के उत्तर इस गाइड से फाड़कर पुड़िया बनाकर उन पर प्रश्न नम्बर लिख दो. तब तक मैं खाना बनाता हूँ. रात में सारे प्रश्नों को नम्बर के साथ याद करना है.’
भोजन करके वे आधी रात तक प्रश्न और उनकी संख्या रटते रहे, उत्तर तो पुड़िया में सुरक्षित था ही. तीसरे पेपर तक यही क्रम चलता रहा. चौथे पेपर से पहले वे मुझसे हमेशा की तरह पुड़िया बनवाये, साथ ही एक्जाम से दो घंटा पहले अपने साथ चलने का फरमान जारी कर दिये. यह पूछने पर कि आपकी परीक्षा में मेरा क्या काम है ? वे अपने ब्रिलियंट माइंट से इजाद की गयी नकल करने की एक जानदार तकनीक बताये, ‘‘भई, तुम भी तो बी.ए. की परीक्षा दे रहे हो. ये तो पता चल ही गया होगा कि इस यूनिवर्सिटी में केवल जल्लाद भरे हैं. यहाँ नकल करते कुलपति जी के सगे पूत क्या, खुद कुलपति जी यदि पकड़े जाए, तो भी विश्वविद्यालय प्रशासन वाले जरा भी मुरव्वत नहीं करेंगे. डाइरेक्ट रेस्टीकेट करते हैं. क्लास में पढ़ाने-लिखाने में उनकी नानी मरती है, लेकिन परीक्षा में कड़ाई, बप्पा रे बप्पा, पूछो मत…. इनके डर से नकल करने के लिए पुड़िया पढ़ने बार-बार बथरुमवा में जाना पड़ता है. प्रशासन वाले वहाँ भी पहुँचे रहते हैं. वहाँ जिप खोलकर पुड़िया पढ़ना तनिक भी ठीक नहीं लगता है. बुद्धि माता भी श्राप देती होंगी. राम-राम-राम…. भई, कल मेरे साथ चलना. दो बजे परीक्षा शुरू होगी, बारह बजे तक क्लास रूम में रोल नम्बर लग जाएगा. तुम मेरी डेस्क पर इन पुड़ियों का मसाला टीप देना, डेस्क को देखकर मैं आन्सर सीट भर दूँगा. कुछ कमी रही तो मेरा ब्रिलियंट माइंड तो है ही.’’
मरता क्या न करता. अगले दिन ग्यारह बजे वे मुझे लेकर बद्री पानवाले की दुकान पर गये और दस-दस पान की तीन थैली पैक कराये. एक अपने लिये और दो इनविजिलेटर्स के लिये. वैसे तो वे हमेशा सूर्ती रगड़ते थे, लेकिन परीक्षा के दौरान समय बचाने के लिए पान चबाते थे. उनके पान चबाने पर इनविजिलेटर्स कोई आब्जेक्शन न करें, सो उनकी भी खिदमत में पान पेश कर देते थे.
परीक्षा देने की प्रारम्भिक तैयारी करके हम एक्जामिनेशन हाल में पहुँचे. वे अपने रोल नम्बर वाला डेस्क दिखाकर बोले, ‘भई, पुड़िया छपाई का काम शुरू करो. मैं तब तक दरवाजे पर खड़ा होकर नजर रखता हूँ.’ बेंच पर बैठकर मैं छः फीट लम्बे डेस्क पर नजर डाला, डेस्क पहले से ही सुसज्जित नजर आया. तरह-तरह की कलाकृतियां, शब्दों के ऊपर शब्द, आड़े-तीरछे, उल्टे-सीधे और जलेबाकार आकार में खीची रेखायें दिख रही थी. खोजने पर भी दो-चार इंच खाली स्थान नहीं मिला. डेस्क पहले से ही नब्बे नहीं, निन्यानवे प्रतिशत रंगीन था. सारी तरकीब झोकने के बाद मैं प्रिन्ट करने में अपनी असमर्थता से उनको अवगत कराया.
वे तेज कदमों से डेस्क के पास आये और अपनी पारखी नजर डालते हुए बोले, ‘‘बी.ए. में पढ़ने से ही बुद्धि नहीं आती है, उसके लिये ब्रिलियंट माइंड का होना जरूरी है. ध्यान से देखो ! इस डेस्क पर दिल के आठ निशान बने हैं, जिनमें से छह में ‘आई लव यू…’ नहीं लिखा है, केवल तीर का निशन बना है. शायद बनाने वालों को कोई लड़की पसन्द नहीं आई होगी. छोड़ो यार, हमें उससे क्या लेना-देना! इन छहों में छह पुड़िया का मैटर भर दो. चार पुड़िया मैं रख लेता हूँ. बुद्धि माता की कृपा से तीन-चार क्वेश्चन तो फस ही जाएंगे और एक-दो नहीं फसेंगे, तो बथरूमवा तो है ही. एक-दो बार बथरूमवा में पढ़ने से बुद्धि माता नाराज नहीं होंगी. वो भी बालक की मजबूरी समझती हैं.’
डेस्क पर बने छः दिलों के बीच और उनके आसपास जितना स्पेस मिला उतने में और पहले के लेख पर जितना सम्भव हुआ ओवरराइटिंग करके मैंने कल की छपाई किया और घंटे बाद वापस हो लिया. दो बजे उनकी परीक्षा शुरू हुई. इत्तेफाक से उनको दिल की आकृतियों में से चार प्रश्नों के उत्तर मिल गये, उनकी युक्ति सफल हो गयी. वे पान घुलाते आंसरसीट छापने में तल्लीन को गये. दो प्रश्नों का उत्तर लिखकर जब वे तीसरे की छपाई कर रहे थे, तभी लाइट चली गयी. कुछ मिनटों के बाद जरनेटर चालू हुआ और कमरे में लटके दो सौ वाट के बल्ब पहले से अधिक रोशनी से कमरे को जगमग कर दिये.
जरनेटर की तेज रोशनी के कारण डेस्क पर छपे शब्दों, चित्रों और कलाकृतियों ने तारों की तरह टिमटिमाना शुरू कर दिया. उनकी आँखें चुंधिया गयी. उनसे नकल की पहचान मुश्किल होने लगी, लेकिन सीनियर तो सीनियर थे, वह भी ब्रिलियंट माइंडेड. वे अपने शरीर को विभिन्न कोणों पर झुकाकर, खड़े होकर, लेटकर नकल को पकड़ने की कोशिश करने लगे, लेकिन तेज रोशनी ने शब्दों को इतना ढ़ीठ बना दिया था कि वे लाख प्रयास के बाद भी अपने नकल को खोज नहीं पा रहे थे. इनविजिलेटर ने उनके कारनामे को समझते हुए पूछा, ‘‘सर्वोदय महाराज! नकल कर रहे हो क्या ?’’
वे इनविजिलेटर की ओर देखे बिना नकल खोजने का क्रम जारी रखते हुए उत्तर दिये, ‘‘सर, आप सरासर गलत कहत हई. अबही त नकलवा के हम खोजत हई. का करी! इ बल्बवा त सत्यानाश कर देले ह. नकलवा समझे में नाही आवत है.’’
‘‘चुपचाप बैठकर परीक्षा दो, वर्ना रेस्टीकेट कर दूँगा.’’ पास आकर इनविजिलेटर महोदय ने चेतावनी जारी किया. चेतावनी को इग्नोर करते हुए वे अपने को बायीं तरफ थोड़ा झुकाकर एक एंगल पर खुद को रोकते हुए बोले, ‘‘गुरुदेव, रेस्टीकेट करे के फालतू बात मत करी. जब हमही के हमार नकल थोड़की सा रोशनी बढ़ला पर नइखे मिलत त आपके का मिली आवारा लइका डेस्कवा के नाश मार देले बाड़न स. आप लोग क्लास में पढ़ावत समय छात्रन पर तनिको धियाने नइखी देत. आपे बताई, ई डेस्क दिल बनावे के जगह ह भला!
इनविजिलेटर साहब सम्पूर्ण अध्यापक समुदाय पर लगाये गये आक्षेप से रुष्ट हो गये और कड़क आवाज में क्रोधित होकर बोले, ‘पाण्डे, ठीक से बात करो और तमीज से बैठो. नहीं तो बाहर कर दूँगा.’
बार-बार की धमकी से सीनियर झुझला गये और मामले का पटाक्षेप करने के लिये धीरे से बोले, ‘गुरु जी शान्त रही. ई अन्दर-बाहर की बकवास हमरा से मत काटी. अगर हमके बाहर करे के मूड बन गईल होखे, त सबसे पहिले आरी लाके ई डेस्कवा के काटी. फिर हमरे आंसरसीटवा के साथ नत्थी करी. और ओकरे बाद कोरट (कोर्ट) में साबित करी कि डेस्कवा में हमार लिखल नकल कहवा बा अउर ई कापी में ऊ नकलवा कहवा बा? ई बी.ए. के एक्जाम ना ह कि हमके आप उरूआ (उल्लू) बना देब. हम लॉ के परीक्षा देत बानी, कानून का बहुते नॉलेज हो गइल ह हमके. एतना कानूनी प्रक्रिया पूरा करे में आपके बेहोशी छा जाई. हमार बात मानी, हई पान पकड़ी अउर चुपचाप घुलाई.’’
कोर्ट-कचहरी से तीन फर्लांग दूर रहने वाले गुरुदेव कोर्ट का नाम सुनते ही अपनी अकड़ और कड़क आवाज दोनों भूल गये. पान को मुँह में घुलाते हुए केवल इतना बोले, ‘‘बात में दम है पाण्डे तुम्हारी. बी.ए. में तुम मेरे स्टूडेंट रह चुके हो. जाओ आशिर्वाद देता हूँ… तुम जब इजलास पर खड़ा होओगे, तो विरोधी वकील ही नहीं, जज भी तुमसे कापेंगे.’’
वे गुरु जी का आशिर्वाद स्वीकार किये या नहीं, ये तो पता नहीं चला. लेकिन तीन सौ साठ डिग्री पर नाचने के बाद भी दिलों में छपे नकलों की पहचान नहीं कर पाये. किसी तरह अपने ब्रिलियंट माइंड से तीसरे प्रश्न का उत्तर पूरा करके बुद्धि माता के नाराज होने की परवाह किये बिना पुड़िया को पढ़ने शौचालय की ओर चल दिये.
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बनारस के निष्कलुष हास्य और शार्प विट से बुना गया है आशुतोष मिश्रा का पहला उपन्यास
बलिया जिले के ग्राम गरया में जन्मे आशुतोष मिश्रा उच्चतर न्यायिक सेवा में अधिकारी हैं. उनका पहला उपन्यास ‘राजनैत’ काफी चर्चित रहा है.
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1 Comments
प्रदीप राय
परीक्षा और परीक्षा हाल का जीवंत चित्रण….
एक बार मेरे एक परम मित्र एलएल॰एम॰ के प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित होने एक विश्वविद्यालय में गए ..थोड़ी देर बाद एक हट्टा लड़का कट्टा खोंसे उनके बग़ल में बैठा मिला।मित्र ने पहचान लिया कि वो तो वही लड़का हैजो चाय की दुकान पर बातों बातों में मेरे बारे में सारी जानकारी ले रहा था।मेरे मित्र ने वाहवाही में अपना एलएलबी का नम्बर बात दिया था।फ़िलहाल मित्रवर ने उस हट्टे और कट्टे के डर से सारा समय उस हट्टे कट्टे का पेपर सोल्व किया …मित्र चूँकि पहले काफ़ी घुलमिलकर उसको अपना पता भी दे चुके थे इसलिए पेपर पूरी ईमानदारी और तन्मयता से हल किया था।निश्चित ही उस “हट्टे विथ कट्टे “ भाई का अड्मिशन हो वय होगा। मेरे मित्र ने बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही एलएलएम में प्रवेश लिया। आज वो जज हैं।