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अपना सफरी थैला, स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान ले कर जब वह गाँव पहुँचा, सूर्यास्त का समय हो चला था. महेश का घर ढूँढ़ने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई. आमा घर पर नहीं थीं, एक छोटी-सी बारह-तेरह वर्ष की बच्ची, जो शायद महेश की लड़की थी, और जैसा उसने बताया था कि गाँव में दादी के साथ रहती है, पथरीले आँगन में बैठी, गुट्टियों से खेलने में तल्लीन थी!
(Scenario Hindi Story By Shekhar Joshi)
अपना सामान आँगन की दीवार पर रख कर रवि सामने फैले हुए हिमशिखरों को एकटक देखता ही रह गया. महेश ने ठीक ही कहा था, उसने सोचा. हिमालय का ऐसा विस्तृत और अलौकिक फलक उसने पहले कभी नहीं देखा था. आसमान साफ था. अस्त होते हुए सूर्य का आलोक किन्हीं अदृश्य दिशाओं से आ कर उस सम्पूर्ण हिम-विस्तार को सिन्दूरी आभा से भर गया था. धीरे-धीरे वह सिन्दूरी आभा बैंगनी रंग में परिवर्तित होने लगी और पर्वत श्रृंखला की सलवटें गहरी श्यामल रेखाओं में अपनी पहचान बनाने लगी थीं.
रवि की कल्पना आकाश छूने लगी. वह अपने वृत्तचित्र की ओपनिंग कुमारसम्भव की पंक्तियों के पाठ से करेगा ‘अस्तुत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः’ गुरु गम्भीर स्वर, पहाड़ी चरवाहे की मधुर वंशी ध्वनि और धीरे-धीरे चीड़-देवदारु के वनों से होता हुआ कैमरा का फोकस क्रमशः हिम मण्डित शिखरों को उद्घाटित करेगा और अन्त में यह विस्तृत फलक अपनी सम्पूर्ण गरिमा और भव्यता के साथ पूरे पर्दे पर मूर्त हो उठेगा. अपनी योजना की तैयारी में उसने संस्कृत काव्य-सम्पदा ही नहीं, हिन्दी कविता, लोक-गीतों और लोक-धुनों का भी विस्तृत अध्ययन किया था. कॉमेण्ट्री और पार्श्व संगीत के लिए जो कुछ उपादेय हो सकता था, उन्हें अपने नोट्स में शामिल कर लिया था. हिम-श्रृंगों की बदलती हुई रंगत को देख कर सुमित्रा नन्दन पन्त की पंक्तियाँ उसके मस्तिष्क में कौंध गयीं– पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश– कितनी सटीक और कितनी प्रासंगिक रहेंगी ये पंक्तियाँ, उसने सोचा.
अब गाँव के निकट की पहाड़ियों के ऊपर भी धुँधलका छाने लगा था. सिर पर लकड़ी का छोटा-सा गट्ठर सँभाले, कमर में घाघरे के फेंट में दराँती खोंसे, लाठी टेकती हुई आमाँ ने घर के निकट पहुँच कर ‘सरुली, चेली!’ आवाज दी तो रवि की एकाग्रता भंग हुई और उसने अपनी उपस्थिति का एहसास कराने के लिए ही जैसे आमाँ के सम्मुख आ कर ‘राम-राम’ कहा.
एकाएक एक सम्भ्रान्त परदेसी को सामने पा कर आमाँ क्षण-भर के लिए असहज हो उठीं. लेकिन रवि के मुँह से महेश का नाम सुन कर और कुछ दिन पूर्व प्राप्त महेश के पत्र से इसका सन्दर्भ जोड़ कर वह आश्वस्त ही नहीं हुईं बल्कि अपनी अनगढ़ भाषा में महेश और बाल-बच्चों की कुशल जानने के लिए व्यग्र हो उठीं. आमा का निष्कपट, सहज व्यवहार रवि को अच्छा लगा. प्रारम्भ में उसके मन में इस अपरिचित वातावरण के लिए जो संकोच था, वह दूर हो गया और वह सहज भाव से घर में प्रवेश कर गया.
वह पत्थर की दीवारों और पथरीली स्लेटों की ढलवाँ छत वाला छोटा-सा घर था. निचले खण्ड में एक रसोई घर और उसके पिछवाड़े ढोर-पशुओं की कोठरी थी. एक ओर बनी हुई सीढ़ियों से ऊपर पहुँचने पर छोटा बैठका और उसके पीछे एक ओर छोटी कोठरी थी जहाँ कोने में लाल मिट्टी से पुते हुए छोटे चबूतरे पर कुछ मूर्तियाँ और ताँबे पीतल के पूजा के बर्तन रखे हुए थे.
(Scenario Hindi Story By Shekhar Joshi)
आमा ने चाख का किवाड़ खोल, बाँस की चटाई पर एक कम्बल फैला कर उसे आराम करने की सलाह दी और सीढ़ियाँ उतर कर गोठ में जा कर व्यस्त हो गयीं. सरुली द्वार से सट कर खड़ी हुई एकटक उसे देखे जा रही थी. रवि को पहली बार अपनी भूल का अनुभव हुआ. महेश शायद संकोच के कारण उसके हाथों घर के लिए कुछ भिजवा नहीं पाया था लेकिन अपने सैलानी स्वभाव के विपरीत उसे अपना यूँ खाली हाथ चले आना खलने लगा.
थोड़ी देर बाद आमा एक हाथ में दीया और दूसरे हाथ में पीतल के गिलास में चाय ले कर आ गयीं. सरुली ने अन्दर की कोठरी में जा कर चबूतरे पर दीया रख कर घण्टी टुनटुना दी. वह शायद बालसुलभ भक्तिभाव से वहाँ स्थापित देवी देवताओं की पूजा-आरती कर रही थी. थोड़ी देर बाद उसी दीये को ले कर वह चाख में आ गयी और उसे दीवार के ताख पर रख कर आमाँ से सट कर बैठ गयी. आमाँ रवि के बारे में सब कुछ जानना चाहती थीं- माता, पिता-भाई, बहन सभी के बारे में विस्तृत जानकारी. यह भी कि उसकी कैसी है, बहू बच्चे कितने बड़े हैं कि महेश उनका काम ठीक-ठीक करता है, वे उससे अप्रसन्न तो नहीं? यह सुन कर कि वह अभी अविवाहित है, आमाँ जैसे और भी ममतामय हो उठी थीं. उन्हें जितनी बातें कहनी थीं वैसी भाषा वे नहीं जुटा पा रही थीं. और कभी-कभी ठेठ पहाड़ी बोली पर ही उतर आती थीं. ऐसे मौकों पर, रवि का असमंजस भाँप कर सरुली दुभाषिये की भूमिका निभाने लगती थी.
(Scenario Hindi Story By Shekhar Joshi)
आमा सरुली को ‘सैप’ के पास बिठा कर झुकी कमर लिये हुए फिर सीढ़ियाँ उतर गयीं. दीये के मन्द प्रकाश में कुछ लिख-पढ़ पाना सम्भव नहीं था. रवि अपना मन बहलाने के लिए सरुली से बतियाने लगा. अब तक सरुली की झिझक मिट चुकी थी और वह वाचाल हो कर अपनी पढ़ाई-लिखाई, घर-परिवार और गाँव-पड़ोस की बातों में रम गयी थी. काफी देर बाद जब आमाँ लौटीं तो वह थाली में भोजन लिये हुए थीं .
रात में रवि चाख में अकेला ही सोया था. दीये की बाती को धीमा कर और किवाड़ उढ़का कर आमाँ सरुली को ले कर गोठ में सोने के लिए चली गयी थीं. सोने से पहले रवि ने खिड़की के पल्ले खोल कर एक बार फिर सामने फैली हुई हिम-श्रेणियों की ओर देखा. चाँदनी के आलोक में चाँदी के पहाड़ अलौकिक सौन्दर्य की सृष्टि कर रहे थे. रवि मन-ही-मन फिर अपनी सैटिंग में खो गया—ऊँचे त्रिकोणीय वृक्षों से ढँके अँधेरे पहाड़ों का सिलहुट और उसके कण्ट्रास्ट में ये रजत शिखर…. पार्श्व-ध्वनि के लिए कौन-सी कविता ठीक रहेगी?
सुबह के झुटपुटे में किवाड़ों की चर-मर और कमरे में किसी के चलने की आवाज सुन कर उसकी नींद उचट गयी. एक बौनी आकृति कमरे की दीवारों को टोहती हुई एक ओर से दूसरी ओर आ-जा रही थी. फिर उसे लगा, वह आकृति खूँटी पर टँगे उसके कपड़ों को टटोल रही है. आशंका से चौंक कर रवि ने सिरहाने पड़े टार्च को जला कर उसका प्रकाश उस धुँधली आकृति पर केन्द्रित कर दिया. आमा थीं. हाथों के संकेत से उन्होंने जानना चाहा कि क्या उसके पास माचिस होगी? रवि ने शंकित दृष्टि से उनकी ओर देखा. वास्तव में वह उनकी जिज्ञासा से आश्वस्त नहीं हुआ था. फिर उसने ‘न’ कह दिया और यही सचाई भी थी. टार्च के धीमे प्रकाश में, जो अब सीधे आमा की ओर केन्द्रित नहीं था, उन्होंने उत्सुकता से टार्च की ओर इशारा कर पूछा कि उससे आग जल सकेगी? आमाँ के भोलेपन पर रवि मुस्कुरा दिया और उसने अपनी लाचारी प्रकट कर दी. आमा अपनी विपदा सुनाने लगीं. उनकी खिचड़ी भाषा का आशय था कि ऐसा बुरा वक्त आ गया है, अब बाँज की लकड़ियाँ नहीं मिल पातीं और चीड़ के कोयलों की दबी आग सुबह तक चूल्हे में नहीं रहती. स्पष्ट था कि माचिस का खर्च का भार उनके लिए महँगा पड़ता था.
(Scenario Hindi Story By Shekhar Joshi)
रवि पूरी तरह जाग चुका था. नीचे गोठ से आमा की पुकार सुनाई दे रही थी. वह सरुली को जगा रही थीं. शायद गहरी नींद में सोई बच्ची उठने में अलसा रही थी इसी कारण आमाँ की पुकार का क्रम कुछ क्षणों तक चलता रहा.
रवि ने खिड़की खोल दी. ठण्डी हवा का झोंका उसके बदन में सिहरन भर गया. अभी आसमान में सूरज का कहीं कोई चिह्न नहीं दिखाई दे रहा था लेकिन बाहर रात का अन्धकार पूरी तरह समाप्त हो चुका था. हिमशिखरों पर जैसे किसी ने पिघला सोना उड़ेल दिया हो, उगते सूर्य के स्वर्णिम प्रकाश ने अपना जादू बिखेरना शुरू कर दिया था.
रवि ने देखा, सरुली एक चादर लपेटे सिकुड़ी-सिमटी नंगे पाँव सामने की पगडण्डी पर जा रही है, झगुले से बाहर उसकी पतली टाँगें चिड़िया के पैरों की तरह फुदक-फुदक कर आगे बढ़ रही थीं. दायें हाथ में झूलता लम्बा पीतल का करछुल हिम शिखरों की ही तरह चमक-चमक जाता था. रवि बहुत सोचने पर भी सरुली के जाने के उद्देश्य का अनुमान नहीं लगा पाया. उत्सुकतावश उसकी आँखें सरुली का पीछा करने लगीं. पगडण्डी के मोड़ तक वह उसे जाते हुए देखता रहा और फिर वह उसकी आँखों से ओझल हो गयी. आगे पेड़ों की ओट में किसी ऊँचे मकान की पथरीली ढलवाँ छत दिखाई दे रही थी. रवि की नजर उस ओर टिकी रह गयी. थोड़ी देर बाद सरुली उसी रास्ते से लौट कर आती हुई दिखाई दी. इस बार उसने करछुल सीधी थाम रखी थी और अब उसकी चाल में पहले की तरह चिड़िया के पैरों की फुदकन नहीं थी. वह सधे पैरों से, धीमे-धीमे अपने हाथ की करछुल को सँभाले चली आ रही थी. तेज हवा के कारण उसके बालों की लटें और चादर का एक ढीला कोना एक ओर को उड़ते हुए दिखाई दे रहे थे. अब वह रवि की खिड़की के समानान्तर, खुले मैदान में आ पहुँची थी.
शायद कुछ अप्रत्याशित हुआ था. पैर में लगी ठोकर या जमे हुए तुषार की चुभन कि सरुली अपना सन्तुलन खो बैठी और उसकी करछुल उलट गयी. उस बड़े मकान से माँग कर लाये हुए अंगारे तुषार भीगी धरती पर बिखर गये थे. सरुली झुक कर नंगी अँगुलियों से उन्हें उठा-उठा कर फिर करछुल में रखने लगी. शायद उनकी आँच बुझ चुकी थी. लेकिन कहीं कोई उम्मीद शेष रही होगी कि सरुली करछुल को मुँह के निकट ला कर फूँकने लगी और साथ ही उसके पैर भी घर की ओर बढ़ते रहे. अपनी असमर्थता पर रवि को ग्लानि होने लगी. शरीर पर पुलोवर डाल, सीढ़ियाँ उतर कर वह भी गोठ तक चला आया. दरवाजे पर खड़े-खड़े उसने देखा, बच्ची और बुढ़िया दोनों ही बारी-बारी से फूँक कर किसी नि:शेष अंगार के कोने में बची हुई हलकी आँच को जीवित करने की कोशिश में जुटी हुई हैं.
और सच ही, उस आँच का वृत्त धीरे-धीरे फैलने लगा. फिर दूसरे कोयलों ने आँच पकड़ी और देखते-देखते करछुल दमक उठी.
आमाँ ने सूखी फूस और लकड़ियों के बीच में करछुल रख कर फूँक मारी तो लकड़ियाँ भभक कर जल उठीं. पूरा गोठ एकबारगी आलोकित हो उठा. चूल्हे के पास बैठी आमाँ के चेहरे की झुर्रियाँ जैसे उस सुनहरे आलोक से खिल उठीं.
रवि को सहसा आभास हुआ कि काश! इस रंगत को वह अपने कैमरा से पकड़ पाता.
(Scenario Hindi Story By Shekhar Joshi)
शेखर जोशी का जन्म 10 सितंबर 1932 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में जन्म हुआ. अनेक सम्मानों से नवाजे जा चुके हिन्दी के शीर्षस्थ कहानीकारों में गिने जाने वाले शेखर जोशी के अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं. उनका पहला संग्रह था ‘कोसी का घटवार’ जो 1958 में छप कर आया था. इसी शीर्षक की उनकी कहानी ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई. ‘कोसी का घटवार’ अपने प्रकाशन के करीब साठ साल बाद भी पाठक के मर्म में सीधे उतरती है. ठेठ पहाड़ी परिवेश में बुनी गयी दो पात्रों – लछिमा और गुसाईं – की यह कहानी अब एक क्लासिक का दर्ज़ा रखती है. प्रेम के विषय को लेकर को लेकर लिखी गयी कहानियों में इसे खासा महत्वपूर्ण माना जाता है और चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की ‘उसने कहा था’ के समकक्ष रखा जाता है.
शेखर जोशी की यह कहानी भी पढ़िए: शेखर जोशी की कहानी ‘बदबू’
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