भादों की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को कुमाऊं और नेपाल में हर्षोल्लास और श्रृद्धा भक्ति से भरा प्रकृति को समर्पित, उसकी पूजा का त्यौहार मनाया जाता है सातूं आठूं. शिव पार्वती तो हिमालय में ही वास कर इन्हीं हिमशिखरों में रम गए. जन श्रुति है कि मंदरांचल पर्वत पर गौरी गौरा की उत्पत्ति हुई. शिव जी को तो मंदरांचल बहुत ही भाया. सो बना लिया इसे अपना आवास.
(Saton-Athon Festival of Uttarakhand)
शिव पुराण में कथा है कि मंदार ने शिव पार्वती को अपने शिखर अपने मस्तक में धारण कराने के लिए कठिन साधना की. शिव प्रसन्न हुए और मंदरांचल में रम गये. दूसरी ओर शुम्भ निशुम्भ ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप कर रहे थे. उनकी अखंड भक्ति देख ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और इच्छित वर मांगने को कहा. शुम्भ -निशुम्भ ने कहा कि प्रभुजी, हम किसी के द्वारा मारे न जा सकें. ब्रह्मा जी ने वरदान दिया. साथ ही साथ यह चेतावनी भी दी कि अगर तुमने जगदम्बा से उत्पन्न किसी कुंवारी कन्या की अभिलाषा की तो ही तुम्हारी मृत्यु होगी.
अब अमर होने के दर्प से चूर शुम्भ-निशुम्भ ने हाहाकार मचा दिया. त्रैलोक्य में अधिकार कर लिया. अपने बल के घमंड में आ कर शचीपति इन्द्र से तीनों लोकों का राज्य व यज्ञ भाग छीन लिया. सूर्य, चन्द्रमा, यम, कुबेर, वायु, अग्नि व वरुण के कार्य व अधिकार का भी दुरुपयोग करने लगे.
दुर्गा सप्तशती में उल्लेख है कि दोनों असुरों से अपमानित, राज्य भ्रष्ट, पराजित व अधिकार विहीन तथा स्वर्ग से निकाले देवगण गिरिराज हिमालय पर गए और भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे. जब देवता स्तुति कर रहे थे तब पार्वती देवी गंगा जी के जल में स्नान करने वहां आयीं. तब उन्होंने देवताओं से पूछा कि वह यहाँ एकत्र हो किसकी स्तुति कर रहे हैं? तब उन्हीं के शरीर कोष से प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं कि शुम्भ से तिरस्कृत और युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो ये देवता यहाँ मेरी ही स्तुति कर रहे हैं. पार्वती के शरीर कोश से अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ इसलिए वह समस्त लोकों में कौशिकी कही गईं. कौशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वती का सारा शरीर काले रंग का हो गया.
जब शुम्भ निशुम्भ के भृत्य चंड-मुंड ने परम रूपवती अम्बिका देवी को देखा तो उन्होंने दैत्य राज शुम्भ को बताया कि हिमालय में मौजूद वह रूपवती हर दृष्टि से वरण योग्य है. यह प्रस्ताव ले शुम्भ ने अपना मंतव्य पूर्ण करने को भगवती के पास दूत भेजा. देवी ने प्रस्ताव सुन गंभीर भाव से मुस्कुरा कर कहा कि उनकी यह प्रतिज्ञा है कि जो उन्हें संग्राम में जीत लेगा, जो उनके अभिमान को चूर्ण कर देगा, जो संसार में उनके सामान बलवान होगा वही मेरा स्वामी होगा. अतः शुम्भ- निशुम्भ स्वयं आ मुझ पर विजय प्राप्त कर मेरे साथ पाणिग्रहण कर लें. युद्ध में अम्बिका ने शत्रुओं के प्रति इतना क्रोध किया कि उनका मुख काला पड़ गया.विकराल मुखी काली प्रकट हो गई. तदन्तर उन्होंने निशुंभ व शुम्भ का वध किया. देवताओं का हृदय हर्ष से भर उठा. गन्धर्व मधुर गीत गाने लगे. अप्सराएं नृत्य करने लगीं. पवित्र वायु बहने लगी. सूर्य की प्रभा उत्तम हो गई. अग्निशाला की बुझी हुई आग अपने आप प्रज्वलित हो उठी तथा संपूर्ण दिशाओं के भयंकर शब्द शांत हो गए.
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शिव पुराण में वर्णन है कि शुम्भ-निशुम्भ के प्रताप और प्रकोप से मुक्ति पाने देवता ब्रह्मा जी के पास पहुंचे. उनसे प्रार्थना की. ब्रह्मा जी ने शिव जी से अनुरोध किया कि वह देवताओं को काली नामक कन्या दें जो शुम्भ निशुम्भ का नाश करे. यह अनुरोध सुन शिवजी मुस्कुराये और अपनी अर्धांगिनी उमा को ही काली नाम से सम्बोधित कर दिया. साथ ही उनके कृष्ण वर्ण पर परिहास भी कर दिया. काली रूप धारी पार्वती इस पर क्रोधित हो अपना वर्ण गोरा करने के मंतव्य से तप करने लगीं. शिव बोले जब तुम कठिन तपस्या से गौरी बन सकती हो तब में भी गौरा कहलाऊंगा. इस प्रकार शिव -पार्वती गौरा -गौरी कहलाये. और मंदरांचल पर्वत पर उनका वास हुआ.
दीप जलाते हैं. ज्योति जगाते हैं. शंख गूंजती है. घंटियां बजतीं हैं. मंजीरे टुनटुनाते हैं. औरतों, कन्याओं का समूह गौरा -गंवरा का गान करते हैं. उजाले को जगाते हैं:
कां रे उपजी लौली गमरा. दीदी कां भी छैय उज्यालो.
डांडा -कांडा हय उपजी गमरा. दीदी खेत भी छे उज्यालो.
सौं वोट धन वोट ह्यां उपजी गमरा. दीदी का भी छ उज्यालो.
कां रे उपजी…
अटकन ह्यां उपजी गमरी दीदी. पटकन भी छ उज्यालो.
बालू बोट तिल बोट ह्यां उपजी गमरा. दीदी पटकन भी छे उज्यालो.
खेत ह्यों उपजी गमरा. दीदी भीतर भी ह्यों उज्यालो.
कां रे उपजी…
भादों शुक्ल पक्ष पंचमी को बिरुड़ पंचमी मनती है.घरों में लिपाई पुताई की जाती है. ताँबे के बर्तन में गोबर गणेश बनता है. उस पर गाय का दूध डाल अक्षत पिठ्या फूल चढ़ाते हैं. पञ्च अनाजों के बिरुड़ भिगाये जाते हैं. बर्तन में कलूं, उर्द, जौ, ग्रूँश, गहत व भट्ट भिगो दिये जाते हैं. अब सप्तमी के दिन इस बर्तन को सिरपतिया धारा या नौले में ले जा धोया जाता है. सप्तमी को महिलाऐं उपवास रखतीं हैं. अयुक्त भरम सप्तमी को खेत से अनाज के पौंधे व धतूरे सहित अन्य फूल लिए जाते हैं.
गौरा के वस्त्र, गहने, गुलोबंद, पुतके, छापरी, उड़ेला में रख सजा दिये जाते हैं. इसमें फल रखते हैं विशेषकर नरंगी, माल्टा, दाड़िम. फूलों से छापरी सजाते हैं.इसे ले शंख घंट बजाते गौरा स्तुति गाते सारा समूह खेतों की ओर निकल पड़ता हैं. अब कन्या आकार की आकृति बना धान, जौ, तिल अर्पित कर उसका श्रृंगार किया जाता है. वस्त्र पहनाये जाते हैं. पुष्प चढ़ाये जाते हैं. फल अर्पित किए जाते हैं. गौरा की स्तुति वंदना समवेत चलती रहती है कि देवी तुम्हारा आगमन हुआ, तुमने उजाले फेहराये. वस्त्राभूषण से सज्जित कर देवी गवरा का डोला सजा धजा कर शंख ध्वनि के साथ धर लाने की वापसी होती है.
सामूहिक रूप से एक घर में इसे प्रतिष्ठित कर पंडित जी द्वारा पाठ पूजन संपन्न किया जाता है. पंडित जी कद्दू, ककड़ी, तोरई की पत्तियों को पीस उनका रस निचोड़ते हैं. इसे दीवार में थापा जाता है. शिव -पार्वती, गणेश, कृष्ण-राधा के आकृति उकेरी जाती है.घर की भीति पर गौरी महेश्वर के विवाह और गौने का चित्रण कर पूजा की जाती है. महिलाओं द्वारा गले हाथ में डोर दिपज्योड़ बांधा जाता है. सप्तमी के दिन हाथ में और अष्ट्मी के दिन पूजा के दिन गले में डोर पहनी जाती है. घर से बाहर अठवाली संपन्न होती है. मध्य में गौरा को रख उनके चरण पूजे जाते हैं:
पैली पूजा लौली गमरा, दूसरी पूजा छोड़ -छोड़ पैतोली छोड़.
छोड़ छोड़ गठरी छोड़, किनरी छोड़, छोड़ -छोड़ लौली गमरा.
घुडी -घुडी छोड़.
छोड़-छोड़ कमर ज्योड़ी, छोड़ छोड़ कुमथाला छोड़
छोड़ -छोड़ लौली गमरा.
सिरमाया छोड़…
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गवरा की पूजा अभ्यर्थना कर महिलाएं गीत गातीं, दुस्का -फाग, दुलर पेल -जोड़े, खेल चलते हैं :
सिलगड़ी का पाला चाला, यो गाँव की भूमिया.
फलुँ फूला लाला त्योलिया, यो गावें कि भूमिया.
इस आयोजन के चलते गवरा को गोद में पकड़ हिलौरी खिलाते घर से बाहर ले आते हैं :
दिय दिय बाबा तामा कुटली दिय,
दिय दिय बाबा सुनहली हार दिय…
बाहर मर्द गोल बना ठुल खेल में रमे रहते हैं. गाथाओं का गान चलता है, विशेषकर सीता माता के स्वयम्बर का :
जनक राज लै प्रतिज्ञा करी हो, है प्रतिज्ञा करी हो हो,
जो यो शिब धनुष तोड़ी हाललो हो तोड़ी हाललो हो
उई संग चेली सीता ब्या होली हो ब्या होली हो
जनकराज ले प्रतिज्ञा करी हो प्रतिज्ञा करी हो.
महाभारत की कथा भी गायी जाती है :
भागे धन भगवान ओ शक्ती तुमारी खिन जै जैकार
तुमरी शक्ती खिन जै जैकार है
जै जैकार हो जै जैकार.
अर्जुन योद्धा बोलन लागी, कृष्ण भगवान हो तुमरी जै जैकार
हो तुमरी शक्ती खिन जै जैकार, हो जै जैकार, जै जैकार.
दुर्वाष्टमी को आग में पकाई कोई खाने पीने की वस्तु का निषेध किया जाता है, बस फलाहार किया जाता है. औरतों के द्वारा दिनमान भर बर्त रखा जाता है. सुहागिनें जिनका बड़ा पुत्र और कन्याएँ, जिनका भाई होता है वो आग में पका भोजन नहीं खाते. इस दिन दूर्वा या दूब को भी नहीं काटा जाता. उसकी पूजा की जाती है.
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अष्टमी के दिन गंवरा के विवाह और गौने के गीत समवेत गाये जाते हैं और नृत्य किया जाता है. अष्ट्मी को शंख नाद व घंटी मजीरे की ध्वनि के साथ महेश्वर अर्थात गौरा को डोला लाया जाता है. इस डोले के साथ मर्द भी साथ होते हैं. गौरा के लोक में उपजने का गीत गाया जाता है:
कां रे उपजो मंगेतर भीना कां भौ छ उज्यालो.
डाना है उपज्या मंगेतर भीना खेत में छो उज्यालो.
सौ बोट, धान बोट, तिल बोट है उपज्या, मंगेतर भीना.
अटकत हयां उपज्या भीना, पटकत में छ उज्यालो.
बालू बोट हया तिल बोट हया उपज्या मंगेतर भीना.
पटकर में छ उज्यालो.
खेत है उपज्या मंगेतर भीना, भीतर भै, छ उज्यालो.
अष्ट्मी के दिन महिलाएं एक सौ आठ बार पञ्च फलों से दीवार पर अंकित देवी देवताओं की, गौरा महेश्वर की पूजा कर गले में दीपजौड़ या दुबधागा बांधती हैं. महिलाओं द्वारा सामूहिक गान चलते रहता है :
पैली पूजा महेश्वर, छोड़ छोड़ पैतोली छोड़.
दूसरी पूजा महेश्वर, छोड़ छोड़ गढ़यूडी छोड़.
छोड़ छोड़ फिनरी छोड़, महेश्वर भीना घुणि छोड़.
छोड़ छोड़ कमर ज्योड़ी छोड़, महेश्वर भीना कुन्याला छोड़.
छोड़ छोड़ महेश्वर भीना सिरमायी पाग छोड़.
अब घर की महिलाएं बिण भाट की गाथा का बखान कर बिरुड़ पात्र अपने सर पर रखतीं हैं. गौरा महेश्वर बाहर खुले आंगन में ले आए जाते हैं. दोनों को हिलोरी खिलाई जाती है:
हिलोरी बाला हिलोरी, बाला महेश्वर हिलोरी.
सासू यो मेरो बालो देखी दिया
मैं तो जानइ छ बालो देखी दिया
तुम म्यार बाला कें धोई दिया, चुपड़ी दिया,
म्यार बाला कें खवाइ दिया
हिलोरी बाला हिलोरी, बाला महेश्वर.
कई दिनों का उत्सव चलता है. हफ्ता, पक्ष, मासिक पूरा होने के बाद गंवरा महेश्वर का डोला विदाई के लिए जलस्त्रोत या देवता के मंदिर या पनघट की ओर प्रस्थान करता है. विदाई के गीत सारे वातावरण को वधू की विदाई सा ही कारुणिक बना देते हैं. मन की पीड़ा को लोक के स्वर मिलते हैं:
बसी रैया ईजा बाबा, अब हम घर नसी जानू
बसी रैया ईजा बाबा
बसी रैया दीदी भीना
बसी रैया काका काकी भाई भौजाई नसी जानू
यो मेरा ईजा बाबा रथ ले के नी दियो
यो मेरा दादा भोजा रथ ले के नी दियो
यो मेरा मामा रथ ले के नी दियो
ओ मेरा दीदी भीना रथ तुम नसी ग्योछा सुख्याली हो रया
ओ…
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अब जब डोला ले कर देवता के थान पहुँचते हैं तो वहां धूनी जली है. प्रसादी बनी है. सारी तैयारी कर पंडित जी अपने आसन पर विराजमान हैं.
महिलाएं बाएँ से दाएं सात बार सिर में रखी गौरा महेश्वर की डोली की परिक्रमा करके उनको भूमि में उतार उनकी पूजा करतीं हैं.उनके आभूषण उतारे जाते हैं. उन पर चढ़े फल फूल एकबट्या के मंदिर में रख देते हैं. पूजा के बाद ये चांदनी फल खुले आकाश की ओर कर फटकाये जाते हैं:
झुमक्याली छल-छल फटकूला फल फूल
जो मेरा फलफूल पाई जालो
में तेरो काज पूरी करी द्यूँलो.
ओ मेरा माई बाप, भाई बन्दों तुम भरी दिया भकार
यो भादों की डाली ले
में भरी जूंलो सौकार.
फल फूल जो फटकाये गए वह चांदनी फल अब गोठ कुड़ी के भकार में रखे जायेंगे. मान्यता यह कि धन धान्य कभी कम ना पड़े. भरा रहे. “सैल-सिंगार, भरी भनार”.
हर बरस बड़ी आतुरता से, तैयारी से गौरा महेश्वर को भादों मास में उमड़ती घुमड़ती घनघोर घटा और कभी अचानक ही पड़ गए तेज घाम की प्रकृति लीला के साथ मनाया जाता है. सातों आठों के नाम से जाने इस पर्व में आरम्भ गौरा गौरी के आगमन का उल्लास छलकता है. सातूं आठूं में पहने जाने वाले नये वस्र आभूषण लिए जाते हैं. पौराणिक कथाओं गाथाओं और प्रचलित लोक गीतों को पूरी तैयारी, भाव, ताल के साथ ढोलक मजीरे की लय थाप से सामूहिक स्वर दिये जाते हैं.नाच की तैयारी होती है. पांव एक सम पर थिरकते हैं, बाहें जुड़ीं रहती नृत्य की अलग अलग भाव भूमि के बिम्ब देतीं हैं. गोल घेरा बना कर नाच होता है. ये खेल उस घर के प्रांगण में होते हैं जहां गौरा और महेश्वर को प्रतिष्ठित किया जाता है.
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यह कौतुक दुर्वाष्टमी से पहले और उसके बाद मास भर तक चलता है. रात्रि तक सामूहिक गान वा नाच चलता है. बहू ब्वारियाँ इसे मनाने मायके आती हैं. तो गौरा गौरी की विदाई अश्रुपूर्ण नेत्रों के साथ होती है. विदाई के आखिरी खेले के साथ गाँव में पधारे सभी मेहमान, चैलबट्टी, नई ब्वारियाँ अपनी ससुराल जाने की तैयारी करतीं हैं. सातूं आठूं में अलग अलग व्यंजन बनाये खिलाये जाते हैं.
सावन में पार्थिव पूजन कर, रुद्री पाठ करा भोले नाथ को रिझा, जन्माष्टमी मना घी संक्राति करने के साथ ही सांतू आठूं की तैयारी में लग जातीं हैं गाँव की महिलाएं आमा केंजा जेडज्या हर काम बारीकी से करने के अनुभव बतातीं हैं. बेटियों ब्वारियों की सर फर शुरू हो जाती है लौंडों मौंडों को भी बड़े जिम्मेदारी भरे काम सौंपे जाते हैं. खेत फसल का भी जेठ में हल्का फुल्का काम रहता है. घास लकड़ी की सार पतार भी और महीनों से कम ही होती है. अब इसके बाद श्राद्ध लग जायेंगे. सो सातूं आठूं पर सारा जोर रहता है. गौरा गौरी वरदान दे जाएं, रक्षा करें सबकी. पूरा गाँव इसी खुशी को पाने की आतुरता दिखाता खूब तैयारी के साथ जुट गया है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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bahut he sunder lekh