‘सौंदर्य की कविता’ और ‘कविता का सौंदर्य,’ दोनों ही महत्वपूर्ण हैं. परन्तु इन दोनों से भी अधिक महत्वपूर्ण है- सौंदर्य के द्वारा लिखी गई कविता.
सौंदर्य के द्वारा लिखी गई कविता ही पूर्ण कविता है.
ज़रा कल्पना करिये कि कोई षोडशी कवयित्री सौंदर्य पर एक कविता लिख रही है. तो लोकतंत्र की परिभाषा की तरह हम कहेंगे कि ये सौंदर्य की ,सौंदर्य के द्वारा, सौंदर्य के लिये कविता है (ऑफ द ब्यूटी, बाय द् ब्यूटी, फ़ॉर द ब्यूटी). कविता में इससे अधिक पूर्णता और कहाँ मिलेगी भला!
अनेक कवि सौंदर्य पर श्रृंगार रस की कविताऐं लिखते हैं. वे इसके लिये वे बाह्य जगत से तरह-तरह के उपादान प्राप्त करते हैं. फिर अपने अंदर से भी सामग्री खोजते हैं. फिर उन्हें भाषा-शिल्प के साँचों में बिठाने का प्रयत्न करते हैं. तब जाकर एक कविता तैयार होती है. पर सौंदर्य के द्वारा लिखी गई कविता! आहा!
जो साक्षात स्वयं कविता हो उसे किसी अन्य उपादान की क्या आवश्यकता है भला ? वह कवयित्री ही उस कविता का उपादान कारण है, वही निमित्त कारण भी है. वही साध्य है, वही साधन है. कविता का सन्दर्भ भी वही है, कविता का प्रसंग भी वही है, और वही उपसंहार भी है.
प्रियोस्की कहते हैं कि कविता पर पहला हक़ सौंदर्य का है. सौंदर्य के द्वारा रचे गये काव्य का सौंदर्य अद्भुत होता है. रसिक हृदय ही इसका वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकता है, कोई शुष्क हृदय नहीं.
बहुत से शुष्क हृदय आलोचक इस पर आपत्ति उठाते रहते हैं. वे पाषाण हृदय लोग , माथे की बिंदिया की बजाय , कविता में बिंदियां खोजते फिरते हैं. वे उस नारी के आभूषणों के शिल्प के स्थान पर , भाषा के शिल्प पर ध्यान केंद्रित करते हैं. वे कवयित्री के अधरों की लय की जगह, कविता में लय तलाशते हैं.
वे भरे नहीं है भावों से, बहती उनमें रसधार नहीं.
वे क्या जाने कि जब श्रृंगार स्वयं श्रृंगार लिखता है, तो कैसा लगता है. जब कोई कवयित्री कविता लिखने के लिये पृष्ठ पलटती होगी तो उसकी चूड़ियां मधुर ध्वनि करती होंगी. कभी उसकी सिंदूर मिश्रित लाल स्वेद बूंदे उन पृष्ठों पर गिर जाती होंगी. कभी वह लेखनी को अपने अधरों से लगा कर कुछ सोचती होगी. उस पृष्ठ को चूमती होगी.फिर अपनी कविता को अपने सीने से लगाती होगी . परन्तु कोई निर्मोही आलोचक उन कविताओं में भी कमियां निकाल देता होगा. शायद ऐसे लोगों के हृदय में स्पंदन नहीं होता .
ऐसे लोग शिशुओं के मम्-मम, तत्-ता में भी व्याकरणगत अशुद्धियां खोज लेते होंगे. अरे जब सौंदर्य साक्षात स्वयं कविता कह रहा हो , तो आप कविता पर ध्यान देंगे या सौंदर्य पर? कमाल है! आपके लिये कविता प्रथम है, या सौंदर्य? आप आलोचकों की बातों से लगता है कि आप सौंदर्य से कविता लिखने का हक़ छीन लेना चाहते हैं.
एक खूसट से दिखने वाले आलोचक अत्यन्त रुष्ट थे कि सुंदर स्त्रियां कविता क्यों लिख रहीं हैं? मैंने उनसे पूछा कि आप किसानों के लिये संघर्ष करते हैं ,तो क्या किसान स्वयं अपने लिये संघर्ष नहीं कर सकता? यदि किसान ही न हों तो? आप क्या करेंगे? यदि मजदूर ही न हों तो? आप प्रेरणा कहां से लेंगे? आप समय कैसे काटेंगे? क्या आप ये चाहते हैं कि किसान-मजदूर तो रहें ,पर उनके लिये संघर्ष केवल आप करें ,वो नहीं? इसी तरह आप मजदूर-किसानों पर कविता लिखते हैं, और यदि वे मज़दूर-किसान, स्वयं मज़दूर-किसानों पर कविता लिखने लगें तो? क्या आप उन्हें रोक देंगे? फिर सौंदर्य के बारे में इतना पूर्वाग्रह क्यों?
इन प्रश्नों से निरुत्तर होकर वे कहने लगे- ‘ठीक है कविता लिखें, पर अच्छी लिखें!’
‘वाह!’ मैंने कहा, ‘जब लिखने वाला दिखने में अच्छा हो ,तो भला उसे क्या आवश्यकता है अच्छा लिखने की? आप अच्छा क्यों लिखते हैं श्रीमान पत्थर दिल? वाहवाही पाने के लिये, प्रशंसा-प्रसिद्धि पाने के लिये. यही न! पर ये सब तो उन्हें पहले से ही प्राप्त हैं. तो फिर भला सौंदर्य क्यों अपना दिमाग खपाये कवित्त के नियमों में? और क्या आप सौंदर्य और बुद्धि के वियुत्क्रमानुपाती सम्बंध से परिचित नहीं है? फिर इस तरह की अव्यवहारिक आशाएं सुंदर कवयित्रियों से क्यों? ये अच्छे काव्य की आपकी ज़िद के चक्कर में देखियेगा एक दिन सुंदर कवयित्रियां संसार से लुप्त हो जाएंगी. फिर अकेले घूमियेगा साहित्य के रेगिस्तान में. क्या उनके बिना आप मुशायरों-कवि सम्मेलनों की कल्पना कर सकते हैं ?’
कुछ दिन पहले जुम्मन चचा के साथ एक मुशायरे में जाना हुआ. श्रोता उबासी ले रहे थे. मंच पर एक से एक भयंकर शायर विद्यमान थे. किसी की तोंद उनकी अचकन का बटन तोड़ने को प्रयासरत थी, तो किसी की कोरों से बही पीक उनकी काली शेरवानी को रंगीन बना रही थी. कहने को तो मुशायरा था, पर मुकम्मल नहीं था.
फिर संचालक ने घोषणा की – ‘अब आ रहीं है बुलंदशहर की युवा शायरा मोहतरमा नाज़नीन ‘फ़ाख्ता’.’
पूरे सभागार में खामोशी छा गई. जाते हुए लोग रुक गये. जो जहां था, ठहर गया. नाज़नीन का मंच पर आना ऐसे था, जैसे कोई चलती हुई नज़्म ख़ुद मंच पर आ रही हो. हम कह सकते हैं – ‘उर्दू पोएट्री पर्सोनिफ़ाइड’.
नाज़नीन ‘फ़ाख्ता’ ने मंच पर आकर आदाब किया. सभी ने उनके आदाब को स्वीकार किया. यूं लगा जैसे उन्होंने सभी से अलग-अलग आदाब किया हो. उनके एक आदाब में हज़ारों आदाब का बल था. फिर उन्होंने ग़ज़ल और नज़्म पढ़नी शुरू की.
वे लोग ,जो एक-एक शायर की मजम्मत कर रहे थे, चोरी के मिसरे पकड़ रहे थे, काफ़िया-रदीफ़ मिला रहे थे , वे सब मौन थे. नाज़नीन फ़ाख्ता के आगे उनके होश फ़ाख्ता थे. वे अब बहर नहीं मिला रहे थे.
सारी बहरें, सौंदर्य के बहाव में बह गईं थीं. मुशायरे में अब आवाज़ें नहीं, दिल की धड़कने सुनाई आ रहीं थीं. धड़कनें शेर सुना रही थीं, धड़कनें शेर सुन रही थीं. और शेर भी कहां थे, श्रोताओं के लिये वे अब आयत बन चुके थे.
सुंदर स्त्री जब शेर सुनाती है, तो शेर आयत बन जाते हैं.
एक-एक आयत को ध्यान से सुना जा रहा था. जुम्मन चचा ,जो पहले एक-एक मिसरा दुहरा रहे थे, सानी मिसरे पर दाद दे रहे थे, अब चुप थे. वे मोहतरमा नाज़नीन ‘फ़ाख्ता’ को एकटक देखे जा रहे थे. उनके खुले मुंह में मच्छर टहल रहे थे. जो शामियाने वाला दस बजे ही चांदनी समेटने की तैयारी कर रहा था ,वो सुबह पांच बजे तक बैठा रहा. मुशायरा मुकम्मल हुआ.
ये थी सौंदर्य की ताक़त! क्या आप केवल कविता की दम पर यूं लोगों को जोड़ सकते हैं?
यदि साहित्य को बचाना है, तो सौंदर्य को पहले बचाना होगा. वह सौंदर्य जो स्वयं कविता लिखता है, साहित्य की सबसे बड़ी धरोहर है.
मैं बहुत से ऐसे अस्सी से नब्बे वर्ष के कवियों और शायरों को जानता हूं जो श्रृंगार पर अद्भुत कविताएं लिखते हैं. प्रारम्भ में उनसे बहुत रुष्ट रहता था कि वे उन कवयित्रियों को क्यों प्रोत्साहित करते हैं जो घटिया कवितायें लिखती हैं. उन्हें मंच पर क्यों बैठाते हैं? हमेशा उनसे क्यों घिरे रहते हैं? दरअसल मैं अपरिपक्व था. मुझमें सौंदर्य के प्रति दृष्टि का विकास नहीं हुआ था.
यदि उनसे रुष्ट होने की बजाय ,मैं उनके उच्च स्तरीय श्रृंगार लेखन की प्रेरणा की खोज करता तो शायद मैं भी कवि बन पाता. इतिहास हमेशा उन सुंदरियों का ऋणी रहेगा जो स्वयं घटिया कविता लिख कर भी, कवियों को अच्छा लिखने की प्रेरणा दे गईं. उन्होंने ही अच्छे साहित्य को बचाया. अन्यथा पुरुष एक-दूसरे का चेहरा देख कर वीभत्स रस की कवितायें ही लिखते रहते. आज कविता में प्रेम सुंदर कवयित्रियों की वजह से ही विद्यमान है. उन सुंदर स्त्रियों ने कविता लिख कर ईश्वर के सृजन को सार्थक कर दिया.
जी हां, ये सही बात है. सुंदरता स्वयं को केवल दो रूपों में ही सार्थक कर सकती है. पहला – या तो सुंदरता अभिनय के क्षेत्र में जाय . जैसा आप फिल्मों, विज्ञापनों और न्यूज़ चैनल्स में देखते हैं. या फिर दूसरा – सुंदरता कविताएं लिखे. इसके अतिरिक्त कोई तीसरा विकल्प नहीं है.
कविता लिखना सुंदर स्त्री का कर्तव्य है. ईश्वर प्रदत्त सुंदरता, एक प्रकार का ऋण है- सौंदर्य ऋण . जिसे केवल कविता लिख कर ही चुकाया जा सकता है. अतः सुंदर स्त्री के लिये कवितायें लिखना अनिवार्य है. भले ही आलोचक लाख आपत्ति करें.
सुंदर कवयित्रियों को आलोचकों से पूछना चाहिए कि यदि हम कविता नहीं लिखेंगी, तो हम क्या करेंगी? हे आलोचक, क्या कोई ‘सुंदर स्त्री भत्ता’ दे रहे हो हमें ? या कोई ‘मोहक युवती पेंशन योजना’ है तुम्हारी? …फिर? जब हम अभिनय नहीं कर रही हैं, मॉडलिंग भी नहीं कर रहीं है, तो कविता ही तो लिखेंगी! और अगर तुम्हें इतनी ही तकलीफ़ है हमारी कविताओं से ,तो दस कवियों से कहलवा दो कि हम कविता न लिखें. एक से भी नहीं कहलवा पाओगे, तुम अकेले खड़े दिखोगे आलोचक! जिन्हें तुम अच्छे काव्य का समर्थक समझते हो, तुम्हारी ग़लतफ़हमी है. वे सब अच्छे सौंदर्य के समर्थक हैं. वे सब एकांत में हम से कह जाते हैं -‘आप बड़ा अच्छा लिखती हैं. बहुत सुंदर.’ वे कहते हैं – मुरादाबाद में मुशायरा है , मैंने आपका टिकट भी अपने साथ करा दिया है.’ अब बोलो आलोचक?
निष्कर्ष यही है कि साहित्य का भवन सौंदर्य की नींव पर खड़ा है. यदि साहित्य से सौंदर्य निकल गया तो यह इमारत भरभरा कर गिर जाएगी. इसलिये सभी का दायित्व है कि साहित्य का सृजन कर रहे सुंदर लोगों को प्रोत्साहित करते रहें. मम्-मम, तत्-ता मान कर सुंदर कवयित्रियों की कविताओं की प्रशंसा करें. ध्यान रखें कि अच्छे साहित्य के नाम पर सौंदर्य का विरोध, और कुछ नहीं, साहित्य का ही विरोध है. ऐसा करने वाले लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं. यदि अधिक कष्ट हो तो उनकी कविता की बजाय उनके चेहरे को देख लें. क्या पता आप भी कवि बन जाएं.
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प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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2 Comments
गजेन्द्र पाटीदार
बहुत शानदार और चुटीला!
हर्षवर्धन वर्मा
पैना कटाक्ष है प्रिय।