(पिछली क़िस्त का लिंक – रहस्यमयी झील रूपकुंड तक की पैदल यात्रा – 3)
वेदनी बुग्याल को पार करते हुए हम घोड़ा लौटानी की ओर निकल गये और वहाँ से पाथरनचुनिया जायेंगे. जहाँ हमारा आज का कैम्प होगा. बारिश अब थोड़ा तेज होने लगी और अचानक ही मौसम ने ऐसी पलटी मारी की पूरा नजारा ही बदल गया. जोरों से बिजलियाँ चमकने लगी. तेज आंधियों के साथ उससे भी ज्यादा तेज बारिश शुरू हो गयी. सोचा नहीं था इतना भयानक मौसम हो जायेगा. ठंडी तेज हवाओं ने आगे बढ़ना मुश्किल कर दिया और हवाओं के साथ आने वाली तेज बारिश के झोंके मुँह में जोरदार थप्पड़ से मारने लगे. कुछ ही देर में इन ठंडी हवाओं और बारिश ने चलना मुश्किल कर दिया. मैं जितना आगे बढ़ रही हूँ हवा के झोंके मुझे उतना ही पीछे धकेल देते. मेरी सारी ताकत इससे निपटने में ही जा रही है उस पर बारिश पड़ रही है सो अलग. मेरा चेहरा एकदम सुन्न हो गया और मुझसे अब इधर-उधर भी नहीं देखा जा रहा है. मैं कुछ बोलना चाहती हूँ पर मुँह नहीं चल रहा है.
इन बुग्यालों में कोई ऐसी जगह भी नहीं है जिसमें रुका जा सके इसलिये चलते रहने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. मैं सिर झुका के मुझसे आगे चल रहे किशन भाई के पैरों को ही देख रही हूँ. वो जहाँ जा रहे हैं मैं भी वहीं चल देती. बर्फिली हवाओं और बारिश ने बहुत बुरा हाल कर दिया. मेरे हाथों की उंगलियाँ भी सुन्न हो गयी है और पैर भी ठंड से काँप रहे हैं. मेरा मन रुक जाने को हो रहा है पर उससे कोई फायदा नहीं होगा इसलिये मैं काँपते हुए कदमों से आगे बढ़ती रही.
बारिश हवा और ठंड तीनों बढ़ते जा रहे हैं और साथ मेरी मुश्किल भी. इन्हीं मुश्किलों के बीच घोड़ा लौटानी आ गया. घोड़ा लौटानी पहाड़ी की धार में है इसलिये यहाँ से तो मुश्किल और भी बढ़ गयी. मौसम ने भी जैसे कसम खायी है कि वो आज किसी भी हालत में मेहरबानी नहीं दिखायेगा. आज फिर ऐहसास हुआ कि कुदरत की ताकत के आगे इंसान कितना बौना है. कुदरत अगर अपने में आ जाये तो फिर उसके सामने कुछ नहीं टिकता. कुछ देर पहले तक इसी प्रकृति की सुंदरता और खूबसूरती में मैं डूबी जा रही थी और वो ही अब अचानक इतनी क्रूर और भयानक हो गई जिसका मुझे लेस मात्र भी अंदाजा नहीं था.
मैंने जैसे-तैसे ताकत समेट के किशन भाई से पूछा – अभी कितनी दूर है ? उन्होंने चलते हुए जवाब दिया – थोड़ा दूर और बस. तुम चलते जाओ. मेरे पैर बुरी तरह काँप रहे हैं. ठंड ने मुझे बेहाल कर दिया है. मैं कुछ देर के लिये दो पतली सी पहाड़ियों के बीच में रुकी पर रुकते ही मेरे हाथ-पैर बिल्कुल ही सुन्न हो गये हैं और ठंड भी पहले से ज्यादा लगने लगी इसलिये मैंने फिर से चलना शुरू कर दिया ताकि गर्मी बनी रहे. इतने भयानक मौसम में ऐसे ही ठंड से काँपते मैं आगे बढ़ी ही कि मुझे कुछ टेंट लगे नजर आ गये. तेज भाई मेरा टेंट लगा चुके हैं इसलिये मैं सीधे अपने टेंट में चली गयी.
मेरी हालत इतनी बुरी है कि मुझे गीले कपड़े बदलने के लिये भी संघर्ष करना पड़ रहा है. उंगलियाँ बिल्कुल सुन्न पड़ी है और मुँह से भी कुछ बोला नहीं जा रहा है. जैसे-तैसे मैंने कपड़े बदले और में टेंट में ही बैठ गयी. तेज भाई और किशन भाई किचन टेंट भी लगा चुके हैं जिसमें स्टोव जलाकर चाय बनाने लगे और मुझे भी वहीं आने को कहा. तेज भाई ने एक बर्तन में बेसन घोल कर पकौड़ी बनाने की तैयारी शुरू की. मैं इन लोगों की हिम्मत देख कर हैरान हूँ इतने भयानक मौसम में इन्होंने भी उतना ही संघर्ष किया जितना मैंने पर फिर भी बेढाल होने की जगह इतना काम कर रहे हैं. स्टोव की गर्मी से अब सब नाॅर्मल हो गया. मेरे हाथ-पैर की उंगलियाँ ठीक हो गयी और मुँह भी बात करने लायक हो गया. अब बारिश भी रुक गयी है हालाँकि हवायें अभी भी उतनी ही तेज और बर्फिली हैं.
कुछ देर तक और मैं किचन टेंट में बैठे रहने के बाद मैं अपने टेंट में आ गयी. अब बादल साफ हो गये हैं परन्तु हवायें तेज हैं इसलिये ठंड में कोई कमी नहीं आयी है. कुछ देर में तेज भाई खाना दे गये और मैं खा के सो गयी. तेज हवाऐं टेंट से टकरा कर भयानक आवाजें निकाल रही हैं जिनसे सिर्फ इतना ही अच्छा है कि मुझे रात का सन्नाटा महसूस नहीं हो रहा.
(जारी)
विनीता यशस्वी
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
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