एवरेस्ट अभियान से लौटने के कुछ महीनों के बाद ई. ई. सिम्पसन ने मुझे गढ़वाल के एक छोटे अभियान का सुझाव दिया. मैं उनके साथ हो लिया. हमारा तीसरा साथी पूर्वी अफ्रीका का डा. नियोल हसुफर था. लेकिन डा. नियोल ने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के ऐलेसा मोरलैण्ड के अभियान का नेतृत्व सँभाल लिया. इस प्रकार अभियान दल में मैं, सिम्पसन और तीन शेरपा- अंग तारके, पसांग तथा कुसेंग-ही रह गये. इन तीनों शेरपाओं ने 1933 में एवरेस्ट की ऊँचाई पर कैम्प स्थापित किया था.
(Rishi Ganga Travelog)
हमारा मुख्य उद्देश्य नन्दादेवी के आधार पर स्थित बेसिन, जिसे ‘इनर सैन्कचुरी’ कहते हैं, का सही खाका खींचना था और साथ ही यह भी मालूम करना था कि क्या किसी दल द्वारा इस स्थान से नन्दादेवी पर पर्वतारोहण सफलतापूर्वक किया जा सकता है. 1883 से इस मार्ग से नन्दादेवी पर चढ़ने के नौ प्रयास किये जा चुके हैं. हग रटलैज के टाइम्स में दिये गये बयान के अनुसारः
‘नन्दा देवी अपने भक्तों की कुशलता और सहनशीलता की परीक्षा लेती है. 70 मील के वृत्ताकार क्षेत्र में जहाँ पर से ऊपर की ओर 12 पर्वत खड़े हैं और जहाँ 17,000 फीट से नीचे किसी भी स्थान पर दबा भाग (depression) नहीं है. केवल नन्दादेवी की तलहटी है जहाँ ऋषि गंगा बहती है. यह तुषार और बर्फ को काटती हुई एक तंग घाटी बनाती है, जो संसार की भयानक घाटियों में से एक है. इस नदी में उत्तर और दक्षिण की ओर से आती अन्दरूनी घाटियों पर यह पर्दे का काम करती हैं, जिसके पीछे 25,660 फीट ऊँचा पहाड़ खड़ा है.’
ऋषि गंगा के सरल रास्तों को छोड़कर अन्य रास्तों से अनेक प्रयास किये गये. 1905 में लौंगस्टाफ को 9000 फीट की ऊँचाई तक, जहाँ पर नन्दादेवी की दक्षिण पूर्वी धार (ridge) इस नदी घाटी (basin) से मिलती है, पहुँचने में सफलता मिली पर खाद्य सामग्री की कमी से वे नीचे उसके अन्दर नहीं उतर पाये.
लौगस्टाफ ने हमें खास तौर से ऋषि गंगा से होते हुए ईनर सैंक्चुरी को जाने की सलाह दी. हमारे लिए इनर सैंक्चुरी में घुसने के लिए यह आवश्यक था कि हम अपने साथ कम से कम एक माह की रसद ले जायें. हम जुलाई के बुरे मौसम तक के लिये खाने का सामान लेकर चले ताकि जुलाई में हम बद्रीनाथ-केदारनाथ के जल विभाजक की ओर अपना कार्यक्रम आरम्भ करें. यह सब कुछ हमारी योजना के अन्तर्गत नहीं था पर बदलती परिस्थिति, मौसम और धन के अनुसार योजना में परिवर्तन किया जा सकता था. शायद मैंने धन पहले कहना था, क्योंकि इसी पर हमारे अभियान का सारा दारोमदार था.
हमने ब्रोकलबैंक के स्टीमर से 6 अप्रेल 1934 को इंग्लैण्ड छोड़ा. इसके मालिक ने हमें खास रियायत दी थी. समुद्री यात्रा से पूर्व हमारे संगठन में खास उत्साह नहीं था. हम लम्बी समुद्री यात्रा के दौरान समय तथा धन आदि का हिसाब लगाते रहे और काम चलाऊ हिन्दी सीखनी भी शुरू कर दी. सिम्पटन को कुछ हिन्दी ज्ञान पहले से ही था पर मैं इससे बिल्कुल अनभिज्ञ था.
हम 5 मई को कलकत्ता पहुँचे, जहाँ हमें दो दिन तक दार्जिलिंग से आने वाले तीन शेरपाओं का इन्तजार करना पड़ा. यहाँ पर दो दिन तक, विशेषकर जी.बी. गौरले का आतिथ्य सत्कार और हिमालय क्लब द्वारा दी गई सहायता चिरस्मरणीय रहेगी. दो दिन बाद शेरपाओं को लेकर हम 9 मई को रानीखेत पहुंचे. यहाँ पर एक घंटे के अन्दर हमने बोझ ढोने के लिये 12 नेपाली भारवाहकों का इन्तजाम किया और उन्हें बोझ सहित बैजनाथ की ओर भेज दिया, जहाँ उन्हें हमारा इन्तजार करना था.
अगले दिन हमने अपना किट फिर से ठीक किया और आवश्यक सामान खरीदकर 11 मई को ठीक 6 बजे प्रातःकाल हम बैजनाथ को चल दिये, जहाँ पर नेपाली भारवाहक हमारा इन्तजार कर रहे थे और बिना आनाकानी के अपना बोझ उठा कर ग्वालदम की ओर बढ़े. ग्वालदम बैजनाथ से नौ मील की दूरी पर है. थके माँदे होने के बावजूद हम खुश थे कि पाँच महीनों के बाद हमें सभ्यता के दर्शन हुए.
कुआरी दर्रे से जोशीमठ की यात्रा का वर्णन यद्यपि रोचक है पर यहाँ पर आवश्यक नहीं. साफ मौसम, भव्य दृश्य, खुशमिजाज स्थानीय लोग हिमालय का शानदार परिचय दे रहे थे. यात्रा की दूरी आरामदायक और सुलभ थी. खुले आसमान के नीचे सोना, बर्फीली नदी में नहाना आदि हमें आगे जाने के लिये अनुकूल बना रहे थे लेकिन चिकन और अंडों के अभाव के कारण पूर्ण संतोष नहीं मिल पा रहा था. अतः अपनी थोड़ी सी रसद से हमने नियमित समय से पहले ही खाना शुरू कर दिया.
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हमारी अन्तिम यात्रा अधिक लम्बी थी. हमने अपना कैम्प 6 बजे छोड़ दिया और एक घंटे के अन्दर हम कुआंरी की चोटी पर जा पहुंचे. इस स्फूर्ति और ऊर्जा के कारण हम एक स्वच्छ प्रभात में बद्रीनाथ, कामेट की चोटियों और उत्तर की ओर दूनागिरि के चारों ओर तथा पूर्व की ओर नन्दा देवी के ऊपरी मध्य भाग का दृश्य देख पाये. कुआंरी पास पर बहुत कम बर्फ थी. शीघ्र ही हम नीचे की ओर उतरने लगे. हमने यहाँ से अलग-अलग रास्ता चुना. अपने और शेरपा लोगों के लिए ऊपरी रास्ता और कुलियों के लिए नीचे का रास्ता तय किया जो तपोवन और धौली घाटी से गुजरता हुआ जोशीमठ पहुँचता है. शाम को 5 बजे तक कुली जोशीमठ नहीं पहुंच पाये पर एक कुली, जो बाद को छोड़कर चला गया था, दूसरे दिन तक जोशीमठ नहीं पहुंचा.
जोशीमठ में एक डाक बंगला और एक डाकखाना है. यहाँ हमने अपना सितम्बर तक का मुख्य कार्यालय बनाया. यहाँ पर आने में हमें खुशी हुई. यद्यपि हम यहाँ पर पहले भी दो बार आ चुके थे. खुशी का कारण यहाँ के लोग या स्थान नहीं, यहाँ का पोस्टमास्टर था, जो सभी लोगों से भिन्न था. वह यथा शक्ति हमें सभी प्रकार की सहायता देता रहता था.
यहाँ पर आकर हमने ऋषि गंगा जाने के लिए भोटिया लोगों को अपने साथ ले जाने का विचार किया पर नेपाली भारवाहक लोग हमारे साथ आगे जाने को अधिक उत्सुक दिखे. हमने उन्हें बहुत समझाया कि ऋषि गंगा का रास्ता रानीखेत से यहाँ तक के रास्ते से बहुत कठिन है पर वे नहीं माने. आखिरकार कुछ आशंका के बाद हमको मानना पड़ा. 21 मई को हमने अपना किट फिर से सुव्यवस्थित किया. हमारा और शेरपा लोगों का बोझ 30 पौण्ड और पोर्टरों का बोझ 20 पौण्ड ठहराया गया. अपने पाँच लोगों के लिये चालीस दिन का भोजन और पोर्टरों के लिये दस दिन का भोजन लेकर हम चलते बने.
अभी ऋषि गंगा की निचली घाटी पार करनी थी. यहां से बकरियों के रास्ते ऊपर की ओर जाते हैं. एक लाता होता और दूसरा तोलमा होता हुआ, जो आगे जाकर मिल जाते हैं और आगे दुराशी के बुग्याल में पहुँचते हैं. इन दोनों रास्तों से जाने पर नीचे जाने वाले सात मील के रास्ते की बचत हो जाती है. इस किनारे के दरवाजे से प्रवेश करने में एक ही कमी है कि रास्ता लाता की 14,700 फीट की ऊँचाई की ऊपरी ढलान से जाता है. अतः बोझ ले जाते कुलियों के लिये दर्रे को जल्दी से जल्दी पार करने में हर ऋतु में अलग-अलग समय लगता है.
दूसरे दिन सिम्पसन, पासंग और मैं लाता (12,624 फीट) से ऊपर की ओर 6000 फीट ऊपर और 6000 फीट नीचे गये. यहाँ पर हमने अपना नक्शा फैलाया ताकि घाटी के किनारे की चोटियों को पहचाना जा सके. उस रात हमने सुरईथोटा में कुलियों और आठ भोटियों के लिये (जिन्हें हमने यहाँ पर से काम पर लगाया था) आटे और सत्तू के आठ बोरे और खरीदे.
अब बोझ केवल 50 पौण्ड प्रति आदमी रह गया था. यहाँ पर से रास्ता सीधा ऊपर की ओर खड़ा है. 23 की रात को हम छोटे घास के मैदान में पेड़ों के नीचे सोये. सबेरे भोटिया लोगों ने यह कहकर कि उनका भोजन नेपाली मजदूरों के ही बराबर है, जो पर्याप्त नहीं है, आगे जाने से मना कर दिया. पर नेपाली मजदूरों ने बड़े शानदार तरीके से स्थिति संभाल ली. दो बोझ छोड़कर हर एक ने 80 पौण्ड का बोझ बना लिया. दिन जिस प्रकार शुरू हुआ था वैसे ही बीता. हम दर्रे की तलाश में बर्फ में भटकते रहे. पर दर्रा शाम को ही नजर आया और हम इसे पार नहीं कर पाये.
दूसरे दिन हमने दर्रा पार किया और तिरछे से कुछ सीढ़ी काटकर दुराशी में गडरियों की खाली झोपड़ी में कैम्प डाला. दूसरा कैम्प डिब्ब्रूघेटा में काफी आनन्ददायक था. यह बुग्याल रंग-बिरंगे फूलों से ढका था. यहाँ पर हमें shallots (प्याज और लुहसन नुमा एक जंगली जड़) और rhubarb (खेत चीनी) आदि काफी मात्रा में मिले, जिन्हें हमने बहुत चाव से खाया.
रास्ता यहाँ से आगे खत्म हो जाता है. इसलिये आगे की ओर जाने में काफी कठिनाई पड़ी. रास्ता थकाने वाला था, खास तौर पर बोझा ढोने वाले कुलियों के लिये. हम अनेक खड्डों, झाड़ियों और बुरूंश के पेड़ों से होते हुए धीरे-धीरे नदी के पास पहुंचे. बजाय उस स्थान से, जहाँ से हमसे पहले आने वाले लोगों ने नदी पार की थी, हम उत्तर की ओर बढ़ते चले गये जब तक कि हमें एक चट्टान नजर नहीं आई. यह रामणी नदी की धार से चौथाई मील नीचे थी. यहाँ पर कुछ भोजपत्र के पेड़ों को काट कर हमने जल्दी-जल्दी एक पुल तैयार किया और अपना कैम्प दक्षिण दिशा की ओर डाला, जो रामणी वाली नदी की घाटी के विपरीत दिशा में था.
यहाँ अभी तक सभी लोगों से यह काफी दूर था. पर यहीं पर हमने अपना आधार कैम्प बनाया और नपाली मजदूरों को वापस कर दिया (आठ भोटिया लोग हमें पहले छोड़ कर चले गये थे जिनका अतिरिक्त भार इन लोगों ने ढोया था). 29 मई को एक दिन हमने अपने बोझ को कम करने में बिताया और शाम को उत्तर की ओर से पत्थरों से बने प्राकृतिक पुल का निरीक्षण किया. लेकिन हमने यहाँ से दक्षिण की ओर गहरी घाटी को पार करने का विचार किया. 30 तारीख को मैं और सिम्पसन पहले दिन देखी गयी सीढ़ीनुमा चढ़ाई और चट्टानों से चढ़ने लगे. हर स्थान पर रास्ता तंग होता चला जा रहा था.
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25 मील चलने के बाद दोपहर में ऊपर की ओर से एक तिरछी पड़ी कई फीट लम्बी चट्टान ने हमारा रास्ता रोक दिया. यह चट्टान हमारे और नदी के रास्ते, जहाँ से हमने उतरना था, के बीच खड़ी थी. अब हम नदी से केवल एक मील की दूरी पर थे. जहाँ पर दो नदियाँ उत्तर और दक्षिण से बहती नन्दादेवी की तलहटी पर मिलती हैं. इस तिरछी चट्टान को पिस्गाह के नाम से जाना जाता है. इस तिरछी चट्टान के आगे का रास्ता सीधा था. आगे नदी भयानक नहीं लगती थी. पाँच बार कोशिश करने के बाद हम रास्ता निकालने में सफल हो गये पर यह बहुत ही कष्टदायक था. इसे पार करते ही हम उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ हमने जाना था और शाम को 6 बजे हम संतुष्ट होकर अपने आधार कैम्प पर लौट आये. पर अभी भी नदी की चौड़ाई के बारे में हमें शंका थी.
अगले चार दिन 535 पौण्ड का बोझ ढोने में लग गये. रास्ता पुराना ही अपनाया गया पर कहीं-कहीं पर कुछ सुधार भी किया. हमारे पास कोई और रास्ता नहीं था. कहीं पर हमने बोझ ढोने की रस्सी और लोहे की खूंटियों का इस्तेमाल तंग रास्तों में बोझ ढोने के लिए किया पर बहुत ज्यादा तंग रास्तों पर सामान रस्सी द्वारा घसीट कर ले जाया गया क्योंकि यहाँ पर खूटी गाड़ना असंभव था. इस स्थान का नाम हमने निकृष्ट राह दिया. इस स्थान से सामान उस पार ले जाना एक दुःस्वप्न था, जिसे हम जीवन भर नहीं भूल सकेंगे.
चौथे दिन 3 जून को 3 बजे से बर्फ पड़नी शुरू हो गई. हमारा सारा सामान भीग गया और हम ठंड से काँपने लगे. हमने बहुत कठिनाई से नदी पार की. नदी का पानी काफी ऊपर बढ़ गया था और जब मैंने और सिम्पसन ने नदी पार कर कुछ बोझ ऊपर पहुँचाया तो हमें लगा कि इस स्थान से नहीं और दूसरे स्थान से हमें नदी पार करनी थी. हमारे पीछे अंग तारके और पासंग बड़ी कठिनाई से ही नदी पार कर पाये. कुसांग को लाने के लिये हमें फिर से नदी पार करनी पड़ी. यहाँ से हर एक ने अपना अपना बोझ उठाया और नदी पार करने लगे. अपने जख्मी पैर और शेरपाओं की हालत देख कर लग रहा था कि इस रास्ते से आगे और चार रास्तों से नदी पार करना ठीक नहीं. अतः हमें कोई दूसरा रास्ता खोजना चाहिए. लेकिन इस समय तक आधे से अधिक सामान यहाँ आ चुका था. यहाँ पर अधिक भोज वृक्ष थे, इसी कारण हमने यहाँ पर ही रुकना ठीक समझा.
आग की गर्मी और रात्रि विश्राम ने हमारा खोया मनोबल फिर से लौटा दिया. कुछ बौने भोज वृक्षों को काट कर हमने एक खतरनाक पुल तैयार किया. अंग तारके और मैं पीछे की ओर यह खोजने के लिए गये कि क्या इस तिरछी पड़ी चट्टान पर से कुछ किया जाना संभव है, जबकि सिप्टन और पासंग ऊपर की ओर बढे. सौभाग्यवश 1500 फीट की ऊँचाई चढने के हमें तिरछी चट्टान पर एक सीढ़ीनुमा रास्ता मिला. जैसे दैवीय संयोग हो.
हमने दूसरे दिन दक्षिण की ओर जाने में समय नहीं गँवाया और 13,000 फीट की ऊंचाई पर दो बार यात्रा की. मुझे इस ऊंचाई पर भी नदी की कल-कल ध्वनि सनाई दी. यहाँ से दो नदियों का संगम, जो घाटी में अन्दर की तरफ था, कुछ ही मील की दूरी पर नजर आया. यहाँ पर उत्तर की ओर से बहती नदी अधिक बड़े बर्फीले मैदान से बहती थी, साफ नजर आई. हमारी बची हुई खाद्य सामग्री से साफ जाहिर होता था कि हम दोनों ओर उत्तर और दक्षिण की नदी की शाखाओं का अनुवेक्षण नहीं कर सकते हैं. अतः हमने पहले उत्तरी क्षेत्र की खोज करने की ठानी. इसी कारण हमें नदी को दूसरी बार पार करना आवश्यक हो गया. 5 जून के दिन हमने अपना कैम्प मुख्य ग्लेशियर के मुख (स्नाउट) पर स्थापित किया. अब हमारे पास केवल तीन और सप्ताह की खाद्य सामग्री ही शेष थी.
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घाटी (बेसिन) में घुसने के बाद रास्ता आसान था, जैसाकि सुरईथोटा के बाद यहाँ आने तक हमने नहीं देखा था. घास के ढलान से गुजरते हम एक हिमोढ़ (मोरेन) पर एक ग्लेशियर के मुख पर पहुंचे, जो 200 फीट चौड़ा था और बैरोमीटर के अनुसार 13,000 फीट ऊंचा था. नन्दादेवी से दूर ढलान के हिमोढ़ पर घास उगी थी. यहाँ पर जूनिफर के अनेक पेड़ खड़े थे. जंगली प्याज भी काफी मात्रा में उगा था. यहाँ के वातावरण को देखकर यह निश्चित लगा कि यहाँ भरल का निवास स्थान है. यहाँ पर आने के बाद हमने करीब एक या उससे भी अधिक बार दर्जन भर भरल के झुण्ड देखे, जो नन्दादेवी से बहती हुयी नदी की ढलान पर चर रहे थे.
इस गल मुख से दो मील आगे ग्लेशियर दाँयी ओर मुड़ता है और पूर्व की ओर के पर्वत से जा मिलता है. इसी स्थान पर एक बड़ा ग्लेशियर उत्तर की ओर से भी आता है. यहाँ दो नदियों के संगम पर मुख्य शिविर बनाना अधिक आसान था. हमने अपना कैम्प ग्लेशियर की ओर नन्दादेवी से दूर 15,000 फीट की ऊँचाई पर स्थापित किया, जहाँ से हम एक घन्टे के अन्दर ग्लेशियर पार कर जूनिफर ला सकते थे.
घाटी में घुसने के बाद हमने अपना नक्शा खोला लेकिन रिचमण्ड पार्क में जो कुछ हमने सीखा था, यहाँ पर काम नहीं आया. हमें चोटियों को पहचानने में काफी कठिनाई हुई, लेकिन शीघ्र ही हमने पाँच सहायक ग्लेशियरों से दो को चुन लिया.
18,००० फीट की ऊँचाई पर पहले कैम्प से हमको एक भयानक दृश्य देखने को मिला. उत्तर पूर्व में नन्दादेवी की मुख्य चोटी से होती हुई एक लाल और भूरे रंग की गोल चट्टान पूर्व की ओर तक फैली थी. इसकी धौंकनी की तरह की गहराइयों से बर्फ बहती हुई 8000 फीट तक खड़ी चढ़ाई से ग्लेशियर में जा मिलती थी. इस वृत्ताकार चट्टान को हमने कॉमिक स्पर (Comic spur) नाम दिया.
यहाँ की भू-संरचना जानने के लिए हमने एक किनारे से 21,000 फीट की चोटी की ओर चढ़ना प्रारम्भ किया. ऊपर चढ़ते हुये एक दर्रे से हमने नीचे जाते हुए एक ढलान का सर्वेक्षण किया, जो मिलम घाटी की ओर जाता था. नीचे मिलम की घाटी बहुत आकर्षक लगती थी, जो हमारे ठीक नीचे थी और दूर पहाड़ों की श्रृंखलायें उससे मिलती हुई चली गई थीं. इस चढ़ाई से उतरते ही सिम्पसन को बुखार आ गया और वह एक दिन तक बिस्तर पर पड़ा रहा. इसके बाद हमने अपना कैम्प ग्लेशियरों की दूसरी ओर डाला. यहाँ से हमने अन्य ग्लेशियरों की खोज की और सरसरी निगाह से उनका निरीक्षण किया. हर घाटी से बेसिन पर पहुँचने के रास्ते की तलाश की पर हम पूरी तरह असफल रहे.
दूसरे दिन हमने अपना सारा खाना, सामान और कैम्प आदि उत्तर की ओर एक ग्लेशियर के हिमोढ़ के बीच 16,400 फीट की ऊंचाई पर एक ऊबड़-खाबड़ स्थान पर पहुँचाया और कैम्प लगा लिया. जिस बुखार से सिम्पसन पिछले हफ्ते पड़ा रहा, उसी रहस्यमय बुखार से मैं भी घिर पड़ा. जबकि ग्लेशियर के बीच एक दिन बहुत मायने रखता है. मैं बिस्तर पर लेटा रहा पर एक दिन के खाने की बचत के कारण कुछ राहत महसूस हुई.
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उत्तरी ग्लेशियर का सिरा, जो लगभग 5 मील लम्बा है, इस ओर से बागिनी ग्लेशियर की ओर जाता नजर आया. यहाँ से 1905 में डा. लौंगस्टाफ का दल रामणी पहुंचा था. इस घाटी से ऊपर को एक धार ऊपर की चोटी की ओर जाती मालूम हुई. इस चोटी की ऊँचाई सर्वे ऑफ इण्डिया के नक्शे के अनुसार, 22,960 फीट दर्शाई गई है. यह चोटी आरोहण योग्य नजर आई. अभी तक जितने भी शिखर हमने देखे थे उन सबमें यह पहली बार ही देखने में सबसे अधिक आकर्षक लगी.
हमने एक हल्का टैन्ट लिया और दाहिनी ओर की चट्टानों से बचते हुए 18,500 फीट की ऊँचाई पर एक मण्डप बनाया और अपना टैन्ट डाल दिया. पासंग को अपने साथ ही टैण्ट के अन्दर सोने दिया. इस टैण्ट में तीन लोगों का रहना और उसकी गर्मी बहुत ही आरामदायक होती है. ऊपर से धीरे-धीरे खिसकता हुआ विकट हिमखण्ड घाटी पर आ गया.
हम दूसरे दिन तीन घंटे चल कर 9 बजे सुबह घाटी पर पहुँच गये. इस जगह की ऊँचाई 20,500 फीट है और यहाँ से बागिनी सीधे खड़े ढलान के नीचे है. यहाँ से लड़खड़ाते हुए हमने ऊपर चोटी की ओर चढ़ना शुरू किया. मैं वास्तव में लड़खड़ा रहा था और अन्त में मैं हार गया लेकिन सिम्पसन और पासंग ऊपर की ओर बढ़ते गये. पर शीघ्र ही भयानक बर्फ के कारण लौट आये. इस प्रकार दुखी दल खराब तरीके से भरे बर्फ के कारण वापस कैम्प पर आ पहुंचा.
दूसरे दिन हमने फिर दूसरी बार चोटी पर चढ़ने का प्रयास किया. सिम्पसन और मैं सुबह 4.15 बजे थका देने वाली चढ़ाई पर घाटी की ओर से चढ़ने के लिये गये और 9 बजे सुबह हम घाटी पर पहुँचे. मेरे लिये चढ़ना कठिन हो रहा था. ऊपर चढ़ने पर 10 बजे देखा कि पर्वत का शिखर हमसे केवल 1000 फीट की ऊँचाई पर है. पर हम हार गये. यह खेदजनक था लेकिन उतना नहीं जितना कि एक दिन बर्बाद करना.
और अब ग्लेशियर के संगम स्थित अपने मुख्य कैम्प की ओर चल दिये. रास्ते में नक्शे पर उत्तरी घाटी का विस्तार से विवरण दर्शाया. अब हमारे पास केवल चार दिन का खाना घाटी पर कार्य करने के लिये बचा था. पहले सोचा कि शेरपाओं को जोशीमठ भेजकर और खाना मंगवाया जाय. यह सोचते हुए कि मानसून आते ही नदियाँ पार करने योग्य नहीं रह जायेंगी, यह विचार त्याग दिया. दूसरे दिन शेरपाओं और मैंने मुख्य ग्लेशियर से कैम्प हटा डाला, पर सिप्टन पूर्वी शाखाओं पर अधिक तथ्य नक्शे के लिए खोजता रहा.
अब मौसम अधिक बदलने लगा था. दो दिन तक काफी घना कोहरा छाया रहा और 25 जून के दिन लगातार वर्षा की फुहार पड़ती रही. अभी भी चंगबंग ग्लेशियर, जिसकी थूथनी हमारे नये कैम्प से अधिक दूर नहीं थी, खोजना बाँकी था, लेकिन मानचित्र पर काम करना असंभव था. अपनी खाद्य सामग्री को और कम करने की बजाय हमने यहाँ से कूच करना ही अधिक बेहतर समझा. कुछ दिन पहले से नदी की हालत भी चिन्ताजनक होने लगी थी.
उत्तरी ग्लेशियर से लौटने के बाद बढ़ते तापमान से जाहिर था कि छोटी नदियों का पानी खतरे के स्तर तक बढ़ गया होगा. घास अधिक हरी हो गई थी और अनेक प्रकार के फूल खिल रहे थे. दो चेरी खाते खाते ही हमें बढ़ते पानी से बचने की आशा पैदा हो गई. बढ़ते पानी के परिणाम से बचने के लिए पहले खास ग्लेशियर को थूथनी से (जहाँ नन्दादेवी की चट्टानों को हम पार नहीं कर पाये थे) पार किया, फिर उत्तर पश्चिम की धार को पार कर लिया और फिर अन्त में दक्षिण की नदियों की धाराओं को भी पार कर डाला. मुख्यधारा अधिक कठिन थी. आगे केवल एक कैम्प के लिये बची खाद्य सामग्री काफी नहीं थी.
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हमने 27 जून के दिन महसूस किया कि हम यहाँ पर अधिक समय व्यतीत नहीं कर सकते. हमारे पास अब बहुत ही कम समय था. यहाँ से बचा काफी सामान ले जाना था अतः हम अगली बार आने के लिए सामान छोड़कर बचे हुये सामान को लादकर चले. यह सामान भी छोड़े गये सामान से अधिक था. नदी की हालत से मालूम होता था कि हमारा पुराना पुल अब नष्ट हो गया होगा. कुछ सर्वेक्षण के बाद हमने नया रास्ता खोज लिया, जो उफनती ऋषि गंगा को पार करने के लिए प्राकृतिक चट्टानों से बना एक पुल था. हजार फुट नीचे रामणी नाले से उतर कर रामनी नदी पार की. यहाँ से पहले की अपेक्षा और ज्यादा तिरछा रास्ता पकड़ा और डिब्रूगेटा के लिए सरल और छोटा रास्ता खोज लिया.
अब दुरासी पर गड़रिए और उनकी भेड़ें गर्मी बिताने आ पहुंची थीं. उन्होंने हमें भेड़ का दूध दिया. हमने जितना भी दूध हो सकता था पिया. यह बहुत स्वादिष्ट था. दुरासी के दर्रे से होते हुए सुराईथोटा पर उतरने के बजाय हम लाता की चोटी की ओर बढ़े और फिर एक रास्ते से दुरासी घाटी के लाता गाँव पहुंचे. 2 जुलाई के दिन लगातार हो रही वर्षा में चलते हुए इस गाँव से हम 6 सप्ताह बाद जोशीमठ पहुंचे.
कलकत्ता से आये मौसम विभाग के पत्रों से हमें मालूम हुआ कि जुलाय के मध्य तक मानसून संयुक्त प्रदेश में आ जायेगा. 24 जून से हम लगातार बारिश का सामना करते आये थे. इस कारण चलना और मानचित्र बनाना कठिन था. हमने नदी घाटी छोड़ देने के लिए अपने आप को धन्य माना. एक हफ्ते तक सभी प्रकार की चीजें खरीद कर आराम किया और जी भर कर दूध पिया. सिम्पसन ने हमें घाटी में कमजोरी दिखाने का दोष दिया, जिसे हमने सहर्ष स्वीकार कर लिया.
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–एच. डब्लू. टिलमैन
एच. डब्लू. टिलमैन के इस यात्रा वृतांत का हिन्दी अनुवाद के. पी. सिंह द्वारा किया गया है. यह यात्रा वृतांत पहाड़ पत्रिका के बारहवें अंक में वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ. काफल ट्री में यह लेख पहाड़ पत्रिका से साभार लिया गया है.
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