कला साहित्य

शैलेश मटियानी से पहली मुलाकात

यह किताब मैंने 2001 में मटियानीजी की मृत्यु के फ़ौरन बाद लिखनी शुरू की थी और इसके न जाने कितने ड्राफ्ट तैयार किये. हर बार लगता था कि मैं जो लिखना चाहता था, उसे न लिखकर कुछ और लिखने लगता था. मैंने लेखन के शुरुआती प्रयास उन्हीं की प्रेरणा से किये थे, पहले 1961 में  अल्मोड़ा और उसके बाद 1966 में इलाहाबाद में उनके संपर्क में आने के बाद. Remembering Shailesh Matiyani by Batrohi

1961 में मैं इंटर की परीक्षा में फेल हो गया था और गहरे सदमे में था. समझ नहीं पा रहा था कि मुझे परीक्षकों ने फेल क्यों किया और मुझे अब क्या करना चाहिए. कई दिनों तक फेल होने के कारणों को तलाशता रहा मगर कुछ भी हाथ नहीं लगा. हुआ यह था कि पढ़ाई के दौरान मेरे अध्यापक बार-बार कहते थे कि जो भी उत्तर हम परीक्षा में देते हैं, वो मौलिक होने चाहिए. रटे-रटाये उत्तरों के बदले विद्यार्थी के द्वारा लिखे गए मौलिक विवेचन से हर अध्यापक खुश होता है. बताया गया कि किताब में जो कुछ हम पढ़ते हैं, उसे रटकर नहीं, समझकर अपने शब्दों में लिखना चाहिए.

गलती शायद मेरी ही थी कि मैं उस कच्ची उम्र में ‘मौलिक’ शब्द का आशय गलत समझ बैठा था और अपनी मौलिकता प्रदर्शित करने के लिए मैंने अर्थशास्त्र के पहले पर्चे में, जिसमें प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों – माल्थस और रॉबिन्स की परिभाषाओं को मुझे उद्धृत करना था, मैं उनकी परिभाषाएं अपने शब्दों में छंदबद्ध लिख आया था. मैं समझ रहा था कि मेरी ‘मौलिकता’ को पढ़कर परीक्षक मुझे प्रथम श्रेणी के अंक प्रदान करेंगे, जब कि मुझे फेल कर दिया गया था. वह जून का महिना था और गर्मियों के दिन; बेचैन हालत में मैं अवसादग्रस्त भटकता रहा. समझ में नहीं आता था कि मैं कहाँ जाऊं, क्या करूँ! कई दिनों तक अनर्गल इधर-उधर भटकता रहा, एकाध बार अपनी जीवन-लीला ख़त्म करने आधी रात को तालाब किनारे पाषाण देवी मंदिर के पास भी गया, (नैनीताल की सर्वाधिक गहराई इसी जगह होने के कारण यहीं पर आत्म-हत्याएं की जाती थीं) मगर अज्ञात कारणों से बचा रह गया. Remembering Shailesh Matiyani by Batrohi

जब कोई रास्ता नहीं बचा तो मैं अपने रिश्ते के चाचा के पास अल्मोड़ा चला गया. पोखरखाली में जेल के नीचे चाचाजी का घर था ‘विद्या भवन’; और उसी मोहल्ले में एक किराये के मकान में मटियानीजी रहते थे. दसेक साल तक वो शाहजहांपुर, दिल्ली, इलाहाबाद और बम्बई के असंख्य तीते-मीठे अनुभव प्राप्त करने के बाद अल्मोड़ा लौट आए थे और एक लेखक के रूप में खुद को स्थापित करने में लगे हुए थे. हिंदी की लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में वह प्रकाशित हो रहे थे और पहाड़ी आंचलिक मुहावरे को एक नयी तरह की शैली में प्रस्तुत करने वाले हिंदी कथाकार के रूप में वो जाने जा रहे थे. मगर यह देखकर मैं हैरान था कि देश भर में चर्चित होने वाले इतने बड़े लेखक की अल्मोड़ा में ज्यादातर लोग निंदा करते दिखाई देते थे.

लोगों का कहना था कि वो पहाड़ी संस्कृति का विद्रूप अपनी कहानियों में पेश करते हैं और एक जातिवादी लेखक हैं. बाद में प्रकाशित अपने पहले कहानी-संग्रह ‘मेरी तैंतीस कहानियाँ’ की लम्बी भूमिका में उन्होंने इस बात का मार्मिक जिक्र किया कि जब वो अपने चाचा की दुकान में कीमा कूट रहे होते थे, कई मनचले युवक उनकी ओर इशारा करते हुए व्यंग्य करते, ‘अरे यार जितना बारीक़ कीमा कूटते हो, हम तो तब मानें, जब उतनी ही बारीक कविता लिखकर दिखाओ!… क्या जमाना आ गया है, जुआरी का बेटा और बूचड़ का भतीजा पन्त और इलाचंद्र की बराबरी करने निकला है!’ उन्हीं दिनों उनकी एक किताब ‘एक मंगलदीप और’ प्रकाशित हुई थी जिसे वह अल्मोड़े के बाज़ार में मुफ्त बाँट रहे थे. इस किताब में अल्मोड़े की एक ब्राह्मण लड़की के साथ उनके प्रेम प्रसंग को लेकर शहर भर के लोगों का एक बड़ा वर्ग उनका दुश्मन बन गया था. उनके खिलाफ जनमत बनाया जा रहा था कि उन्हें शहर से बाहर कर दिया जाना चाहिए. इसी सन्दर्भ में शैलेश जी के द्वारा इस किताब में अल्मोड़ा के कुलीनों को ललकारते हुए उनका किस्सा लिखा गया था.

(दुर्भाग्य से आज उस किताब की कोई प्रति उपलब्ध नहीं है. मुझे लगता है, एक साजिश की तहत उस किताब को गायब कर दिया गया है! किसी के पास किताब की कोई प्रति हो तो कृपया सूचित करने का कष्ट करें.)

अल्मोड़ा यों तो कलाकारों-बुद्धिजीवियों का गढ़ रहा है, मगर पूरे शहर में उन दिनों उनके एकमात्र साहित्यकार मित्र पानू खोलिया थे, जिनका घर पास की ही कोढ़ियों की वर्जित बस्ती कर्बला के पास था. पानू भाई सप्ताह में एक बार सुबह खाना खाने के बाद पोखरखाली आते थे और शाम पांच-छः बजे के आसपास मटियानीजी उन्हें छोड़ने कर्बला तक जाते. जब तक मैं अल्मोड़ा रहा, मैं भी पन्दा को छोड़ने मटियानीजी के साथ उनके घर जाता. उन्हीं दिनों हम तीनों ने लाला बाज़ार के एक स्टूडियो में फोटो खिंचाई थी, जो मेरे पास तो उपलब्ध नहीं है मगर, अभी-अभी पता चला कि मेरे अभिन्न मित्र प्रख्यात विज्ञान कथा-लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के पास सुरक्षित है और उसे पाठकों को समर्पित कर रहा हूँ.

शैलेश मटियानी के साथ बटरोही. साभार : देवेन्द्र मेवाड़ी

मुझे उन दिनों की बातें विस्तार से तो याद नहीं हैं, इतना याद है कि उन दोनों ने मेरा हौसला बढ़ाया था और शायद कहा था कि परीक्षा में पास या फेल होने का सम्बन्ध रचनात्मकता के साथ नहीं है. अलबत्ता उन दोनों ने ही मेरे बजाय परीक्षकों का ही पक्ष लिया था. उन्होंने यह भी कहा था कि अगर वो परीक्षक होते तो वो भी मुझे फेल करते. हर क्षेत्र का अपना एक अनुशासन होता है, जिससे बाहर जाने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती. इस टिप्पणी के शुरू में जिस किताब ‘एक बड़े लेखक की नियति’ का मैंने जिक्र किया है, उसका कलात्मक मुखपृष्ठ मेरे मित्र अनुज कवि डॉ. शिरीष मौर्य ने बनाया है और किताब के प्रकाशक हैं, ‘अंकित प्रकाशन, चन्द्रावती कॉलोनी,पीलीकोठी, हल्द्वानी-263139. Remembering Shailesh Matiyani by Batrohi

बटरोही

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फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. 

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Girish Lohani

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  • काफल की कहानी क़िस्से मुझसे अन्य कई पाठकों को नित्य एक युग से जोड़ते होंगे मस्तिष्क की सारी थकान उतार देते हैं ।माडल की समस्त टीम को हृदय से धन्यवाद।

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