वर्ष 1975 के जनवरी माह की कोई तारीख रही होगी, सही से याद नहीं, लेकिन इतना अवश्य याद है कि वह शनिवार का दिन था. जाहिर है कि प्रताप भैया हर रविवार को ग्रामीण क्षेत्रों के भ्रमण पर निकल जाया करते थे और अक्सर एक-दो लोगों को साथ ले जाते थे. आज भी उन्होंने दूसरे दिन यानि रविवार को हल्द्वानी साथ चलने को कहा और ठीक प्रातः 8 बजे तल्लीताल डांट पर मिलने को बोला. लेकिन रात में ही अचानक मौसम ने करवट ली और सुबह तक पूरा नैनीताल बर्फ से लकदक हो चुका था. शायद नैनीताल में यह उस मौसम की ही नहीं बल्कि कई वर्षों के बाद इतनी भारी बर्फवारी थी और सुबह तक बर्फ की बड़ी बड़ी फांहें लगातार गिरने से बर्फवारी रूकने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. भारी बर्फवारी के चलते नैनीताल से कहीं के लिए भी यातायात पूर्णतः बन्द हो चुका था. ऐसे विपरीत मौसम में उनके साथ हल्द्वानी जाने का कार्यक्रम मेरी ओर से यों ही निरस्त हो गया. तब आज की तरह मोबाइल तो थे नहीं कि उनसे सम्पर्क हो सके, लैण्डलाइन फोन उनका जरूर था, पर मेरे आस-पास में यह सुविधा भी नहीं थी कि मैं वस्तुस्थिति बता कर उनका मूड जान लॅू. परिस्थितिवश मैंने इसे आवश्यक समझा भी नहीं.
(Remembering Pratap Bhaiya 2021)
कोई 6 माह पूर्व ही प्रताप भैया के सम्पर्क में आया था. पहली मुलाकात का मकसद था -डी0एस0बी0 महाविद्यालय नैनीताल में प्रवेश करवाने में मदद का. खैर – प्रताप भैया ने एक स्वहस्तलिखित पत्र मेरे एडमिशन के सिलसिले में तत्कालीन प्राचार्य प्रो0 छैल बिहारी गुप्त (जो प्रो0 राकेश गुप्त के नाम से भी जाने थे) के नाम लिखकर मेरे हाथ थमा दिया. स्नातक कक्षाओं की अन्य विषयों में सीटें पूरी हो जाने के कारण उन्होंने इच्छित विषय के स्थान पर संगीत विषय के साथ स्नातक कक्षाओं में प्रवेश की सहमति दी. च्योंकि संगीत विषय का मैंने अब तक के पाठ्यक्रम में ककहरा तक नहीं सीखा था, इसलिए प्रवेश की प्रक्रिया को वहीं विराम लग गया. यदि इसी महाविद्यालय में प्रवेश लेना है, जो कि मेरे लिए एकमात्र विकल्प था, तो एक साल की प्रतीक्षा लाजिमी थी. जब मैंने प्रताप भैया से इच्छित विषय में प्रवेश न मिलने की बात कही तो उन्होंने दूसरे दिन से ही नियमित रूप से अपने कोर्ट कार्यालय में आने को कहा और यहीं से उनका सान्निध्य ताउम्र मिलता रहा.
जैसा कि अमूमन होता है,अगले दिन मौसम तो एकदम खुल चुका था, चटक धूप खिली थी. मेरा उनके कोर्ट कार्यालय में ही मिलना हुआ,तपाक से बोले कल हल्द्वानी क्यों नहीं आये? मैं खराब मौसम की दुहाई देता, इससे पहले ही खुद बोले – ’’ मौसम की प्रतिकूलता का मतलब ये नहीं कि हम उसके आगे हाथ-पांव चलाना छोड़ दें, विपरीत मौसम को भी अपने अनुकूल बनाना, यही तो जिन्दगी का फलसफा है. ’’ मुझे समझने में देर न लगी कि उस बर्फवारी में भी वे जरूर गये होंगे. बाद में पता चला कि बर्फवारी के कारण यातायात बन्द होने के बावजूद उन्होंने नैनीताल से वीरभट्टी की पैदल यात्रा तय की और वीरभट्टी से सड़क मार्ग से वाहन द्वारा अपने गन्तव्य तक गये. इस प्रसंग का लब्बोलुआब ये कि ऐशोआराम से दूर उनका अविराम कर्म उनको ’’ माइल्स टू गो बिफोर आई स्लीप ’’ कविता की तर्ज पर रॉबर्ट फ्रास्ट की दुनियां के करीब लाती हैं अथवा उनको उपनिषदों के ’चरैवेति, चरैवेति’ का ध्वजवाहक बना देती है. कुल मिलाकर मेरे किशोर मन में उनके प्रति दिल से सम्मान जगाने के लिए यह घटना एक टर्निंग प्वाइन्ट साबित हुई और बाद के वर्षों में उनके करिश्माई व्यक्तित्व का जो परिचय हुआ, वह असाधारण था.
रविवार अथवा छुट्टी का दिन हो, बाहर कंपकपाती ठण्ड हो, मूसलाधार बारिश हो या जेठ कि चिलचिलाती धूप, किसका मन नहीं चाहेगा कि वह फुरसत के दो पल आराम से अपने परिवार के बीच बिताये. लेकिन प्रताप भैया के जीवन में शायद ही ऐसा कोई दिन आया हो, जब वे आराम से परिवार के सदस्यों के बीच रहे हों. नियत दिनचर्या के तहत सुबह नित्य कर्म से निवृत्ति के बाद अपने चैम्बर में मुवक्किलों से मुलाकात व मुकदमों की फाइलें तैयार करना, ठीक समय पर भोजन और उसके बाद नियत समय पर अदालत में उपस्थिति और शाम को पांच बजे तक अदालत में डटे रहना. भले कोई वादकारी वहां हो अथवा नहीं, लेकिन समय से पहले अदालत से निकलना उन्हें मंजूर न था. कितनी ही कंपकपाती ठण्ड हो, लेकिन आग सेंकना उन्हें कतई पसन्द न था, भले ज्यादा ठण्ड होने पर हथेलियों को आपस में रगड़कर वे तसल्ली कर लेते. हर अवकाश के दिन ग्रामीण भ्रमण अथवा मुख्यालय पर ही कोई समारोह, विचार गोष्ठी या अन्य कार्यक्रम में स्वयं को व्यस्त रखना उन्हें भले पसन्द हो, लेकिन उनके मातहत/सहयोगियों को इससे कभी कभी खीझ भी होती. कचहरी के काम निबटाने के बाद वे सीधे घर लौटने के बाद अपने मल्लीताल मोहन को0 के ऊपर के जन सम्पर्क कार्यालय में बैठते और यहीं बैठकर जनता की समस्याओं को सुनते. जलेबी क्लब नाम से मशहूर उनके इस कार्यालय में विशेष रूप से गर्मियों के सीजन में देश की कई नामी शख्सियतों का आना-जाना लगा रहता, जिसमें राजनेता से लेकर न्यायमूर्ति, वरिष्ठ अधिवक्ताओं व विभिन्न क्षेत्रों के अतिविशिष्ट व्यक्ति बिना किसी सुरक्षा घेरे के आम नागरिक की तरह शिरकत करते. देर रात घर लौटने के बाद भोजन उपरान्त कोर्ट के सारे मामलों की तैयारी वे रात में कब करते, इसके वे स्वयं साक्षी थे. कुल मिलाकर वे रात को कब सोते तथा सुबह कब जागते इसका पूरा आभास परिजनों को तक नहीं होता.
न जाने किस मिट्टी के बने थे प्रताप भैया कि कभी भी अपनी अस्वस्थ्यता का उन्होंने किसी से जिक्र तक नहीं किया. ऐसा नहीं है कि सामान्य सर्दी-जुखाम से लेकर बुखार तक की समस्या उनको रहती न हों, लेकिन अपनी परेशानी को अपने तक ही सीमित रखकर किसी कि सहानुभूति का पात्र बनना ही नहीं चाहते थे. यहॉं तक कि यदि कोई उनकी सेहत की कमजोरी अथवा बुढ़ापे पर अफसोस जताये तो उसका दांव उल्टा पड़ जाता. ग्रामीण क्षेत्रों के दौंरो के दौरान वे कई बार चोटिल भी हुए, हल्के फ्रैक्चर भी हाथ-पैंरो में आये लेकिन अपनी इस तकलीफ को लेकर न वे कभी डॉक्टर के पास जाते और न परिजनों से अपनी तकलीफ साझा करते. एक बार किसी बारात में शामिल होने वे सीतला गये थे, संयोग से मैं भी उनके साथ था. गांव के रास्ते पर मोटे पाइप पर पैर रपटने से वे बुरी तरह मुंह के बल गिर गये. हमने बमुश्किल उन्हें उठाया, छाती में गम्भीर चोट आई थी. साथ चल रहे हम लोगों को उन्होंने हिदायत दी कि घर में इसका कोई जिक्र न करें. लौटते समय बाजार से आयोडैक्स लिया और रात को फोन पर बताया कि उन्हें इससे आराम है. उनकी हस्तलिपि पढ़ पाना हर व्यक्ति के बूते की बात नहीं थी, बहुत बाद में पता चला कि इसका कारण कभी उनके दायें हाथ की अंगुली में आया फ्रैक्चर था, लेकिन स्वयं उन्होंने अपनी इस परेशानी को किसी से कभी साझा नहीं किया.
(Remembering Pratap Bhaiya 2021)
निठल्ले होकर खाली बैठना व फिजूल की गप्पें मारना उन्हें कतई पसन्द नहीं ही था, उनके सामने भी एक क्षण को कोई निठल्ला बैठा रहे, यह उन्हें नागवार लगता. अपने जनसम्पर्क कार्यालय अथवा चैम्बर में मिलने वाले आगन्तुक भी उनसे अपनी बात कहने के इन्तजार में जब मुंह लटकाकर बैठे हों तो या वे उन्हें पढ़ने को अखबार अथवा कोई पत्रिका दे देते अथवा कोई अन्य कार्य उनको सौंप दिया जाता.
उनके निधन पर आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में किसी वक्ता ने उनकी सक्रियता पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था कि प्रताप भैया उस दुनियां में भी कई लोगों को संगठित कर नया संगठन बना चुके होंगे. किसी संगठन को खड़ा कर लोगों को इससे जोड़ने की अद्भुत क्षमता थी उनमें. शैक्षिक संगठनों के अलावा भी न जाने कितनी संस्थाओं को गठित किया उन्होंने. जन नियोजन आयोग, राष्ट्रीय लोकमंच, राष्ट्रीय लोकसदन, राष्ट्रीय समग्र क्रान्ति परिषद्, अखिल भारतीय विधि विचार गोष्ठी समिति, युसुफ मेहर अली केन्द्र जैसे कई संगठन थे और इन संगठनों की गतिविधियों का वार्षिक कैलेण्डर तैयार किया जाता और तय तिथि को तय समय पर कार्यक्रम अवश्य होता, अपरिहार्य परिस्थिति जैसा शब्द उनके शब्द कोष में ही नहीं था. छात्र जीवन से ही छात्र आन्दोलन से लेकर राजनैतिक सफर, जिसमें ज्यादा समय विपक्ष की आवाज बुलन्द करने में ही बीता. विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से जनता की आवाज बने. जगबूड़ा पुल से टैक्स हटाने को लेकर किये गये आन्दोलन में उन्हें जेल भी जाना पड़ा. लेकिन आज के आन्दोलनों की तरह उनके आन्दोलन बेलगाम नही होते. जिस आन्दोलन का वे आगाज करते उसमें इस बात का पूर्ण एहतियात बरता जाता कि असामाजिक तत्व उसे ’हाईजैक’ न कर पायें. आन्दोलनकारी अहिंसात्मक एवं लोकतांत्रिक तरीके से इस प्रकार विरोध दर्ज करते कि वे आन्दोलनकारी न होकर अनुशासित सिपाही नजर आते. नैनीताल मालरोड पर 1970 के दशक का पंक्तिबद्ध होकर विरोध प्रदर्शन के अनुशासित तरीके को यह चित्र स्वयं ही बयां कर रहा है.
(Remembering Pratap Bhaiya 2021)
वर्ष 2005 में उनकी जीवनसंगिनी श्रीमती बीना जी का असामयिक निधन हुआ. उनकी अर्थी शयन कक्ष में लोगों से घिरी थी, लेकिन प्रताप भैया अपने आवास के चैम्बर में बैठकर श्रीमती बीना जी के जीवन पर सद्यप्रकाशित पुस्तक का शोक व्यक्त करने को उपस्थित लोगों से बारी-बारी से वाचन करवा रहे थे तथा स्वयं भी बड़ी तल्लीनता से सुनते हुए लोगों को अहसास करवा रहे थे, जैसे वे इस घटना से विचलित ही न हुए हों. श्रीमती बीना जी को वे इतना सम्मान देते थे कि उनकी राय को कभी नहीं टालते. भले ही उन्होंने समाज के सम्मुख इस अपूरणीय क्षति का इजहार न किया हो, लेकिन सच्चाई ये थी कि श्रीमती बीना जी की मृत्यु के बाद वे अन्दर ही अन्दर टूट चुके थे जिसकी परिणति वर्ष 2007 में उनका मस्तिष्काधात होना रहा. न्यायालय में जिरह के दौरान ही उन्हें मस्तिक आघात हुआ और वहीं दिन उनका न्यायालय का अन्तिम दिन भी रहा. जिन्दादिली इतनी कि पक्षाघात के बाद भी उन्होंने अपने सभी अदालती कार्य निबटाये और प्रतिदिन की भांति तय समय पर ही घर को लौटे.
विडंबना देखिये, जो इन्सान एक पल के लिए बैठना पसन्द न करे और मन, वचन व कर्म से सदैव गतिशील रहा हो, उसने तीन साल का समय रूग्णशैय्या पर कैसे बिताया होगा ? जब न हाथ-पांव काम करें और न ठीक से जुबान तो उनकी मौनसाधना ही उनको मन्तव्य को बयां कर रही थी. यदि रूग्णशय्या के इस तीन साल के कालखण्ड को हटा दिया जाय तो उनका शेष जीवन अविराम संधर्ष और कर्मशीलता की बेमिशाल दास्तां है. वे अक्सर कहा करते – Live like a hermit, work like a horse, जिसे उन्होंने पूरी संजीदगी से ताउम्र निभाया भी.
ऐसे कर्मवीर प्रताप भैया को उनकी ग्यारहवीं पुण्य तिथि पर सजल नेत्रों से सादर नमन.
(Remembering Pratap Bhaiya 2021)
– भुवन चन्द्र पन्त
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
लछुली की ईजा – भुवन चन्द्र पन्त की कहानी
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