एक तो बचपन ऊपर से वो भी गांव का. अलमस्त सा. घर वाले गालियों से नवाजते थे, और ‘भूत’ हो चुके चाचाजी, जो भी उनके हाथ लगता रावल पिंडी एक्सप्रैस की स्पीड में दे मारते. और उनका निशाना हर—हमेशा अचूक ही रहता था. चाचाजी के लिए तो मैं एक तरह से आतंकवादी से कम नहीं था. वैसे मेरे काम भी कुछ ऐसे हो जाते थे कि उनका मन करता था कि, ‘पाताल’ से भी नीचे जाकर खुदाई कर मुझे वहां डाल हमेशा के लिए मुक्त हों लें. (Ramlila Memoir by Keshav Bhatt)
बरसातों में जब गांव—घरों के पतले रास्ते रड़—बग जाते थे तो चाचाजी अपने काम से वक्त निकाल उन्हें ठीक करने में जुट जाते थे. खेतों की टूटी दीवारों को वो ऐसे खड़ी कर देते थे कि यकीन नहीं होता था. वो हर काम में माहिर थे. भेमल के तनों को गधेरे में लंबे समय तक भिगोने के बाद वो तसल्ली से उनके रेशे निकाल सुखाया करते थे. कुछ दिनों के बाद शाम के वक्त वो उनसे पतली—मोटी रस्सी बुनने में लग जाते थे. गांव में संयुक्त बने आधे दर्जन मकानों की बाखली नीचे थी और हमारा पाथर वाला दो मंजिला मकान ऊपर था. नीचे बाखली में जाने को मन काफी मचलते रहता था तो बांस के झुरमुट में कीचड़ से पटे गधेरे से छुपते—छुपाते मैं बाखली में पहुंच ही जाता था. एक बार बाखली में छुपमछुपाई में भागते हुए मैं गिरा तो सिर में चोट आ गई. बाखली के ही तरूवा चाचा मुझे ले घर पहुंचाने आए तो उस वक्त चाचाजी रस्सियां बनाने में लगे थे. उन्होंने अंगारे फेंकते मुझे देख तरूवा चाचा से सवाल किया और उत्तर मिलने तक रस्सी बनाने वाली फंटी ही मेरे पांव में दे मारी. बमुश्किल बुआ ने मुझे उनसे बचाया. चाचाजी के ब्रहमास्त्र के बाद मैं सिर की चोट भूल, पांव पकड़े चुपचाप अंदर मंदिर के कोने में भकार ‘अनाज रखने वाले बक्से’ से टेक लगाए बैठ गया. (Ramlila Memoir by Keshav Bhatt)
वैसे! चाचाजी मेहनती बहुत थे और साथ में मजेदार कलाकार भी थे. रामलीला के दिनों में उनका गुस्सा हम पर कम हो जाता था. चालीसेक साल पहले की बात है जब रामलीला में मैंने उन्हें पहली बार हनुमान के रोल में देखा. घर में शायद किसी को इस बात का पता नहीं था कि वो रामलीला में इस बार उत्पाती बानर बनेंगे.
तब गांव से दो-एक किलोमीटर दूर प्राइमरी स्कूल के मैदान में रामलीला होती थी. रामलीला देखने को जाने के नाम पर घर में सब जल्दबाजी में रहते थे. खाना जल्दी बनाना हुआ और छिलुके (चीड़ के पेड़ की छाल) की मशाल भी तैयार करनी हुई. ये सब काम चाचाजी चुपचाप कर लिया करते थे. नीम अंधेरा होने पर गांव के लोग खाना खाकर रामलीला देखने को चल देते. गांव के अंतिम छोर में सब सांथ में आपस की रंजिशे भुला साथ हो लेते.
गांव के ढलाननुमा रास्ते के बाद तिरछे रास्ते में डेढ़-एक किलोमीटर चलने के बाद चाचाजी रास्ते के किनारे में झाड़ियों में छिलुक की मशाल को छुफा कर रख दिया करते थे. आगे कुछ ढ़लान के बाद गधेरे का पुल पार करने के बाद मीठी चढ़ाई के बाद स्कूल के मैदान के किनारों में जमीन में सजी दुकानें हमें आज के मॉल से ज्यादा मीठी और सुकून भरी लगती थी. घर से खाना खाने के बाद भी हमारा मन रामलीला में कम उन दुकानों में तरह—तरह के खाने वालों सामानों में रमता था. उन दुकानों से नमकीन बिस्कुट के पैकेट के साथ ही मूंगफली को चुराने की फिराक में हम रहते थे. कई बार हमारे साथी इसमें सफल होने हो जाते थे और रामलीला के मैदान के नीचे जाकर खेतों की आड़ में हम चोरों की तरह आपस में इसे मिल-बांट लिया करते थे.
रात की रामलीला हो और वो भी गांव के इलाके में. बीड़ी का बंडल पूरी रामलीला में साफ हो ही जाता था. रामलीला के स्टेज को तब चारेक पेट्रोमेक्सों से रोशन किया जाता था. दर्शकों को रामलीला के दृश्य में बताया जा रहा था कि सीता माता का अपहरण रावण ने कर दिया है और श्रीराम ने हनुमान को लंका में जाने को कहा है. और जटायु के याद दिलाने के बाद हनुमान, जेट विमान बन गए और उन्होंने सीधे लंका के अशोक वाटिका में ही लैंडिंग की. सीता माताजी को श्रीराम की अंगूठी देकर हाल—चाल बताया और पूछा. उसके बाद अपने पेट का हवाला देकर वो गार्डन में गए और वहां उत्पात मचानी शुरू कर दी. लंका में हड़कम्प मचना ही था. सब आ गए और हनुमानजी ने उन्हें पटकनी दी और दृश्य खत्म हो गया. रामलीला के मंच के परदे आनन—फानन खींच—खांच के नीचे कर दिए गए.
(Ramlila Memoir by Keshav Bhatt)
हनुमान की ये सारी एक्टिंग चाचाजी ने करनी थी. इस एक्टिंग को करने से पहले उन्होंने ‘अशोक—वाटिका’ में लगे पेड़ों में जलेबी और केलों की फरमाइश कई दिन पहले ही की तो स्टेज में रस्सियों में ये सब बांध कर लटका दिए गए. स्टेज में जैसे ही अशोक वाटिका का सीन शुरू हुआ हनुमान बने चाचा ने चाव लेके जलेबी और केलों का हकीकत में भंजन शुरू कर दिया. हम भी उन्हें मस्त हो देख अपने मुंह में आए पानी को संभालने की कोशिश में लगे रहे. आधेक घंटे में चाचाजी सब चट कर चले गए तो साथियों में नजरो ही नजरों में इशारे हुए और हम मैदान में सजे बाजार में कुछेक चीजें चोरी कर नीचे खेत के किनारे में जाकर आपस में मिलबांट कर वापस आ चुपचाप अपनी जगहों में बैठ गए.
रामलीला खत्म होने के बाद चाचाजी के साथ हम वापस गांव—घरों को लौट पड़ते और रास्ते में छिलुके की मशालें जलाने के बाद दौड़ते हुए गांव के रास्ते में भागते हुए जाते. चाचाजी अपने बड़े से पांच सैल के टार्च लेकर आगे—आगे चलते थे. ये सिलसिला हर साल होता था.
एक बार पता चला कि कठपुड़िया की रामलीला तो बड़े ही मजे की होती है. इस पर हम तीन नटवरों ने कठपुड़िया की रामलीला को देखने का मन बना लिया. रामलीला के दिन थे और इस बार चाचाजी का रामलीला में जलेबी खाने का कोई इरादा नहीं था तो वो रामलीला से दूर ही थे. तीन जनों की तिकड़ी में राय बनी तो सांझ ढ़लते ही कठपुड़िया को जाने की बात तय हो गई. रामलीला के खर्चे के लिए मुझे घर में कुछ भी नहीं मिला. बताया जो नहीं था. घर के मंदिर में गया तो वहां दो—तीन पैसों की ही भेंट मुझे दिखी. डरते—डरते मैंने वहां से पांच पैसे सरकाए और घर से छुपते हुए रफू हो गया. नीचे गधेरे में दो साथी मुझे मेरे देर से आने की वजह से गालियां देने में लगे थे. नीम अंधेरे में ही करीब तीनेक किलोमीटर का जंगल पार कर हम तीनों रोड में पहुंचे और दो किलोमीटर रोड़ के साथ मग्न हो चलते हुए कठपुड़िया पहुंचे. आगे दौलाघट वाली रोड के किनारे रामलीला का मंच सजा दिखा.
(Ramlila Memoir by Keshav Bhatt)
दोपहर के बाद कुछ खाया नहीं था तो भूख ने पेट में खलबली मचाई थी. भूख की वजह से आगे मंच में चल रही रामलीला में मन ही नहीं लग रहा था तो आपस में राय—मशवरा बना कि मेरे पांच पैसे से कुछ खाने की जुगत की जाए. एक साथी ने हाथ में पैसे पकड़ दुकानदार से सामान के भाव पूछने शुरू कर दिए. भीड़ में दुकानदार का ध्यान हम दोनों पर नहीं था तो हमने कुछेक बिस्कुट के पैकेट वहां से पार कर लिए और चुपचाप किनारे खिसक लिए. साथी ने हमें खिसकते देखा तो वो भी पांच पैसे वापस लेकर हमारे पास आ गया. गांव की बेकरी में बने नमकीन—मीठे बिस्कुटों को हमने धारे के पानी के साथ रात का भोजन मान मजे से खाया और उसके बाद रामलीला देखने के लिए आगे से बैठ गए.
पेट भर चुका था तो रामलीला हमें काफी अच्छी लगी. एक बजे रामलीला खत्म हो गई तो अब रात बिताने की मुसीबत आन खड़े हुई. अचानक ही हमारी नजर तलखोला गांव के रामलीला में तबला वादक पर पड़ी तो हम तीनों उनकी शरण में चले गए. भीड़ में उन्होंने हमें पहचान लिया तो कुछ साहस मिला. उन्होंने बताया कि आगे दोमंजिले में उनका रहने का है वहां ही आ जाना. कुछ साथियों के साथ वो किनारे के एक चाय की दुकान में अपनी थकान मिटाने को चले गए तो हम उनके बताए पते पर मकान की सीढ़ीयों में बैठ उनका इंतजार करने लगे. घंटे भर बाद वो लहराते हुए आए तो हम भी चुपचाप उनके साथ हो लिए. दोमंजिले में एक दरवाजे को कुछ देर तक उन्होंने पीटा तो दरवाजा खुला. अंदर कमरे में दरी बिछी थी और उसमें दर्जनभर से ज्यादा लोग लुढ़के पड़े थे. हम भी चुपचाप एक कोने में तिरछे हो लिए.
सुबह नींद खुली तो गांव की ओर भाग लिए. घर में जाने का खतरा था तो घर से ग्वाला को आ रहे गाय, बैल, बकरियों के इंतजार में एक जगह बैठ गए. कुछ देर बाद हम सभी ग्वाले बन चुके थे. शाम को घर गए तो सिर्फ मां ने ही पूछा, तो उसे सच बता दिया. चाचाजी का कोप से मैं बच गया था.
अब रामलीला देखने जाने को कम ही हो पाता है. अब तो रामलीला के दिनों में बचपन की वो रामलीला की ही यादें ताजा हो जाती हैं. आज भी बचपन के वो खुराफाती दिन और रामलीला भूले नहीं भूलते हैं.
(Ramlila Memoir by Keshav Bhatt)
– बागेश्वर से केशव भट्ट
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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1 Comments
Vivek Saunakiya
शानदार रचना और उससे भी शानदार अभिव्यक्ति