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2 Comments

  1. Dinesh Nikhurpa

    राजुला को दारमा की बता कर इस लोक गाथा को छेत्रवाद की ओर ढकेल दिया गया है प्रारम्भ से ही राजुला सम्पूर्ण कुमाऊ की रही है राजुला लोक गाथा को कुमाऊ में गाया गया है इससे इनकार नही किया जा सकता। उसी दृष्टिकोण में ही इसकी समालोचना हो सकती है राजुला को गाने वाले उसे जीने वाले कुमाउनी थे अगर कहे राजुला मायके में नही ससुराल में जीवंत रही गलत नही होगा। आज अगर कोई उसे अपने से जोडे तो उसे खुद जीना होगा , जोहार में जलथ (जलथल ) में सुनपति का भग्नावेष , दानपुर में शिखर निलिंग में सुनपति के पाषाण चिन्ह (संबोध), जोहर में वर्तमान ल्वाल जाति सुनपति के वंसज आज भी जीवंत है मालूशाही के वर्तमान वंसजो ने एक दसक पूर्व जोहार से मायके की मिट्टी उठायी यह जीवंतता का प्रमाण है, लोक गाथा होती है जन संवादों से पैदा होती है जिसमे भाव प्रधानता होती है स्थान संवाद भाषा सभी काल कालांतर में अतिशयोक्ति रोमांचो व्यक्ति की अपनी सूझ से बनती है । इस लिहाज से दारमा की राजुला मालूशाही लोकगाथा क्या इसे पोषित करेगी या पुनः भ्रम का एक जाल बुनेगी ? ऐसे कुमाऊ के लोगो ओर साहित्यकारों को समझना होगा, राजुला मालूशाही लोक गाथा को एक इतिहासकार ओर लोक साहित्यकार ही समालोचित कर सकता है । जिसके लिए हमे (राजुला मालूशाही एक समालोचना डॉ एस एस पांगती) को आधार मानना चाहिए जब तक कि आपके पास ठोस आधार न हो।

  2. चन्द्र बृजवाल

    कुमाऊँ के एतिहासिक व सांस्कृतिक तथ्यों व साक्षों के आधार पर श्री दिनेश निखुर्पा जी का समर्थन करता हूँ।

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