बात 1576 की है पर्शिया के एक परिवार ने हिन्दुतान की राह पकड़ी क्योंकि उन्हें शाह इस्माईल के राज्य में तंगहाली में दिन बिताने पड़ रहे थे और हिन्दुस्तान में उस वक़्त एक नेकदिल बादशाह की हुकूमत थी जो शरणार्थियों को खुले दिल से शरण और रोजगार के मौके दे रहा था. पर्शिया का यह परिवार भी बादशाह अकबर से मिल सकने वाले इसी मौके की तलाश में हिन्दुतान की राह निकला क्योंकि इसके पहले भी इसी परिवार के कई सदस्य हिंदुस्तान में पनाह पा चुके थे.
सफर मुश्किल था और परिवार के मुखिया ग्यास बेग की बेगम अपने गर्भकाल के आखिरी दौर से गुजर रही थी. परेशानियों के साथ सफ़र करते इस परिवार को लूट लिया गया और तंगहाली से अब वो कंगाली की ओर बढ़ चले थे. रास्ता लम्बा था पास में पैसा कम था. इसी बीच ग्यास बेग की बेगम ने कंधार में एक बच्ची को जन्म दिया. तंगहाली आदमी से जो न करा दे वो अच्छा. कहते हैं कि मुसीबत के मारे उन माँ-बाप ने अपने जीवन का सबसे मुश्किल फैसला लिया- उस बच्ची को रास्ते के किनारे छोड़ देने का क्योंकि वो इस हाल में उसकी परवरिश कर पाने में असमर्थ थे. उसे छोड़ वो अभागे माँ–बाप आगे तो बढ़ गए लेकिन औलाद के प्यार की बेड़ियों ने उन बेबस माँ बाप को ज्यादा दूर न जाने दिया और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी मांगते और अपनी औलाद की सलामती की दुआ मांगते वो लौट पड़े.
लौट कर देखते है कि एक भयंकर विषधर बच्ची के साथ खड़ा है जैसे की वह उसकी हिफाज़त में मुस्तैद हो. हो सकता है कि यह सिर्फ एक गड़ी गयी कहानी हो पर अगर किसी के जन्म के बारे में ऐसी अनोखी कथा गड़ी जाती है तो हम उसकी शानदार शख्सियत का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं. बहरहाल उस बच्ची को नाम दिया गया मेहरुन्निसा और शायद उस दिन उस विषधर को भी पता नहीं होगा कि उसने हिन्दुस्तान की औरतों के इतिहास के एक अलहदा मोती की रक्षा की है जो आगे जाकर न केवल नाम से बल्कि कामों से भी दुनिया की रौशनी बनेगी “नूरजहाँ ”.
इस बुद्धिमान और खूबसूरत रानी की कहानी एक आम लड़की की तरह शुरू होती है जिसके शुरू होते ही खत्म होने का अंदाजा होने लगता है. नूरजहाँ के माता-पिता हिंदुस्तान पहुंचे और उन्हें अकबर के दरबार में जगह भी मिली. नूरजहाँ अपने जन्म के नाम मेहरुन्निसा के अर्थ को सार्थक करती बड़ी होने लगी थी. उनके पिता ने उनकी शादी बादशाह से मशविरा कर पर्शिया से आये एक योद्धा अली कुली खान शेर अफगान के साथ तय कर दी थी.
कहानियाँ कहती हैं कि जवानी की दहलीज़ में कदम रखती बेपनाह हुस्न को समेटे नूरजहाँ का सामना एक बार बाग़ में घूमते शहजादा सलीम से हुआ और उस जवान शहजादे के साथ वह करिश्मा हुआ जिसे अंग्रेजी में लव एट फर्स्ट साईट कहा जाता है लेकिन उस वक्त वो किसी और की अमानत थी. फिर मेहरुन्निसा ब्याह कर अपने पति के साथ उसकी जागीर में बंगाल चली गयी जहाँ उन्होंने अपनी एकलौती संतान लाडली बेगम को जन्म दिया. इधर शहजादे सलीम की जिंदगी भी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ने लगी. उन्होंने शहजादे से बादशाह का सफ़र तय किया और इस बीच उनकी कई शादियाँ भी हुई. उनकी पहली शादी अपनी ममेरी बहन मानबाई से हुई जो कि राजा मान सिंह की बहन थी और फिर उन्होंने अनेक शादियाँ की. जाहिर सी बात है उनमें से कुछ राजनीतिक थी और कुछ मन बहलाने का जरिया.
इस तरह दो जिन्दगियां अपने–अपने अलग रास्तों पर चल रही थी लेकिन शायद वक़्त इन जिंदगियों को ज्यादा वक़्त तक अलहदा रखने का हिमायती नहीं था. नूरजहाँ के पति नियति के इस रास्ते का अवरोध थे इसलिए नियति ने उनकी किस्मत में मौत लिखी और उन्हें मेहरुन्निसा की जिंदगी से दूर कर दिया. पति की मौत के बाद मेहरुन्निसा आगरा लौट आईं और उन्हें अकबर की विधवा रुक्क्य्या बेगम की सेवा में रख लिया गया.
कहानियां क्या कहती हैं उसका जिक्र हम कर चुके हैं. प्रमाणों की मानें तो इसी दौरान बसंत और नए साल का इस्तकबाल करते पर्शियन त्यौहार नौरोज के उत्सव के समय जहांगीर ने मेहरुन्निसा को देखा और उसकी ख़ूबसूरती पर मर मिटे. उस वक़्त मेहरुन्निसा की उम्र 34 साल थी. जल्द ही 1611 में उनकी शादी जहांगीर से हो गयी. मेहरुन्निसा, जहांगीर की बीसवीं और आखिरी बीवी थी उनसे शादी के बाद जहाँगीर ने फिर कभी शादी नहीं की.
बादशाह ने अपनी उपाधि नूरुद्दीन से मिलता जुलता नाम उसे दिया “नूर महल” फिर शायद बादशाह को जल्द ही पता लगा कि उन्होंने नूर की शख्सियत को कम करके आँका है इसलिए उन्होंने उसे एक और नाम दिया वो नाम जिस नाम से आज हम उसे याद करते हैं “नूरजहाँ“ यानि इस दुनिया का नूर. अपने बादशाह के दिल पर राज करने वाली नूरजहाँ जल्द ही उनके हरम पर भी राज करने लगी 1613 में नूरजहां को बादशाह बेगम बना दिया गया.
नूरजहाँ, बुद्धिमान, साहित्य और कला की संरक्षक, साहसी और लोकोपकारी थीं. वह महत्वकांक्षी थीं और उन्हें शक्ति और राजनीति से खेलना पसंद था. उन्होंने शासन की बागडोर मजबूरीवश नहीं संभालनी पड़ी थी जैसा कि हम आमतौर पर रानियों के साथ होता देखते हैं बल्कि नूरजहां ने अपनी इच्छा से इसमें भाग लिया और मर्दों के वर्चस्व वाली उस दुनिया में एक ताकतवर प्रशासक और राजनेता के तौर पर उभरी. जहाँगीर का शासन काल नूरजहाँ के फैसलों और बेहतरीन प्रशासन का काल है. अगर हम मर्दों के वर्चस्व वाली दुनिया में नहीं जी रहे होते तो हम निश्चित ही 1611 से 1627 तक के काल को नूरजहाँ के शासन काल के रूप में जानते.
नूरजहाँ के शासनकाल को दो कालों में विभाजित किया जा सकता है. पहला 1611 से 1622 तक का काल, जब उन्होंने अपने पिता ग्यास बेग, माँ अस्मत बेग, भाई आसफ खान और शहजादा खुरर्म के साथ मिलकर शासन किया. यह वह समय भी था जब जहांगीर सक्रिय रूप से शासन को सम्भला करते थे. दूसरा काल 1622 से 1627 तक का है जब जहाँगीर ने सत्ता पूरी तरह नूरजहाँ को सौंप दी. इस बारे में जहाँगीर का एक कथन भी मशहूर है कि “मैंने राज सत्ता नूरजहाँ को सौंप दी है वो शासन प्रबंध में बहुत निपुण है. मुझे तो केवल एक प्याला शराब और खाने को मांस का एक टुकड़ा चाहिए.”
नूरजहां ने न केवल राज्य के प्रशासन को चाक-चौबंद किया बल्कि उन्होंने जहाँगीर के शासनकाल में होने वाले दो प्रमुख विद्रोहों शहजादा खुर्रम और महाबत खान को भी धैर्य, निर्भीकता और चतुराई से खत्म किया. महाबत खान के विद्रोह के समय नूरजहाँ ने खुद हाथी पर बैठकर सेना की कमान संभाली थी. मध्यकालीन परम्पराओं के उलट उन्होंने अपने आप को केवल बादशाह को परदे के पीछे से सलाह देने तक सीमित नहीं रखा बल्कि सशक्त रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. 1617 के बाद सिक्कों पर बादशाह के साथ उनका नाम भी उकेरा जाने लगा वह ऐसा सम्मान हासिल कर पाने वाली अकेली मुगल महिला हैं. उन्होंने बादशाह के साथ संयुक्त और एकल रूप से कई फरमान जारी किये. फरमानों में उनका नाम नवाब महद उलिया या महद उलिया मिलता है. वह बादशाह के साथ जनता को झरोखा दर्शन भी देने लगी. वह महल की ऊँची खिड़की से आम और खास लोगों की समस्यायें सुना करती थी. इसके अलावा उन्होंने केवल पुरुषों के लिए आरक्षित प्रशासनिक चर्चा के स्थानों में जाना शुरू किया. जहांगीर उनके परामर्श के बिना कोई काम नहीं करते थे.
जहांगीर के समय आने वाले विदेशी यात्री प्रशासन में नूरजहाँ के वर्चस्व के गवाह हैं. नूरजहाँ के पास एक 30 हजारी मंसबदार जितनी जागीर थी. इसके अलावा उनके पास कई पानी के जहाज़ थे जिनसे वह सूरत के बंदरगाह से व्यापार भी किया करती थी. उन्हें नजर यानि तोहफों के रूप में भी काफी धन मिला करता था. वह अपनी आय का अधिकांश हिस्सा विधवा औरतों, अनाथ बच्चों और गरीब लड़कियों की शादी पर खर्च करती थी. कहा जाता है कि उनके पास से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था. निसंदेह वह एक कुशल प्रशासक थी और एक प्रशासक के तौर पर वह कभी-कभी निर्मम और स्वार्थी नजर आती हैं पर सभी जानते हैं कि सत्ता औरत और मर्द का भेद नहीं जानती सत्ता की चाह रखने वाले को अनेक परिस्थितियों में खुद को साबित करना पड़ता है.
राजनीति के साथ–साथ नूरजहाँ की रुचियों का विस्तार असीम था. इतिहास में इतनी रुचियों और हुनर वाली महारानियाँ न के बराबर हैं. नूरजहाँ को अच्छी शिक्षा मिली थी वह अरबी की जानकार थीं और फ़ारसी में कवितायें लिखती थी. उनकी कविता में प्रेम, दुःख और सूफीमत की झलक है. खफी खां ने अपनी किताब मुन्ताख्वाब-उल–लुबाब में बादशाह और बेगम के बीच के कवितामय संवाद को कलमबद्ध किया है. उन्होंने कई महिला कवित्रियों को संरक्षण भी दिया. उनकी रुचि भव्य इमारतें बनाने में भी थी. उन्होंने अपने माता और पिता का मकबरा आगरा में यमुना तट पर बनवाया जिसका डिजाईन उन्होंने खुद तैयार किया था. इस मकबरे को सजाने के लिए पित्रादुरा शैली का प्रथम बार उपयोग किया गया था. इसी डिजाईन पर बाद में ताजमहल बनाया गया यह ताजमहल जैसा भव्य नहीं है पर ये भी प्यार, सम्मान और सबक की कहानी कहता है. एक बेटी के अपने माता और पिता के लिए प्यार और सम्मान की कहानी एवं दुनिया के लिए सबक कि अगर बेटियों को भी समान मौके और परवरिश मिले तो वह भी माँ बाप के लिए वो सब कुछ कर सकती हैं जो दुनियादारी के कायदे अनुसार आज तक सिर्फ बेटों ने किया हो. इसके अलावा उन्होंने नूर महल सराय (जालन्धर), पत्थर मस्जिद (श्रीनगर) और जहांगीर और स्वयं के मकबरे का निर्माण लाहौर में किया.
नूरजहां ने उस वक़्त की महिलाओं के कपड़ों को अपनी कल्पनाशीलता से नया रंग और आकार दिया. अगर संक्षेप में कहे तो वह उस समय की महिलाओं की फैशन आइकॉन थी. उन्होंने महिलाओं के लिए पायजामा और जगुली (गाउन जैसा वस्त्र जो कि तंग पूरी बाजू और गहरे गले का होता था) का अविष्कार किया. उनके बनाए कपड़े फैशनबल होने के साथ–साथ आरामदायक थे. यह महिलाओं के फैशन में क्रांति सरीखा वक़्त था. उन्होंने “नूरमहली” नामक वैवाहिक लिबास बनाया जो कि अपनी कम लागत के कारण आमजनों में भी मशहूर हुआ. उन्होंने कपड़ों के सजाने के नए–नए कई तरीकों का भी अविष्कार किया जैसे पंच्तोलिया, किनारी, बदला, दुदामी. नूरजहां न केवल कपड़ों को डिजाईन करने के लिए महशूर थी बल्कि उनके भोज आयोजित करने के नए तरीके और महल और दरबार को सजाने के अपने स्टाइल को लेकर भी ख़ासा चर्चा में थी. उन्होंने कई सोने और चांदी के गहने भी डिजाईन किये. अपने ज़माने का महशूर कारपेट फर्श–ए–चांदनी को भी नूर ने डिजायन किया था. उनकी मौत के तकरीबन सौ साल बाद खफी खां उनके बारे में लिखता है कि उनका शुरू किया गया फैशन आज भी समाज में प्रचलित है.
नूरजहां एक कुशल शिकारी थी. शिकारी के अपने हुनर में वह केवल महिलाओं को ही नहीं बल्कि पुरुषों को भी टक्कर देती थी. एक बार उन्होंने 6 गोलियों से चार शेरों का शिकार किया. उनके इस शानदार शिकार से खुश हो कर जहांगीर ने उन्हें हीरे का कंगन और हज़ार अशर्फिया उन पर लुटाई. उन्हें पेंटिंग में भी रूचि थी. उन्होंने अपने समय की मुग़ल पेंटिंग पर ख़ासा प्रभाव डाला धार्मिक मसलों से निकल कर अब पेंटिंग में नए–नये प्रयोग किये गए. खासकर औरतों को पेन्ट करने के तरीके में एक बड़ा बदलाव आया. उनसे पहले मुग़ल औरतों की पेंटिंग परदे के साथ की जाती थी. उन्होंने इस प्रथा को बदला और गहरे गले और खुली खूबसूरत कमर को दिखाती तस्वीरें बनाई जाने लगी. उन्होंने अपनी जिंदगी को भरपूर जिया और अपने रंग हर जगह बिखेरे. अक्टूबर 1627 में जहांगीर की मौत के बाद 1628 में शाहजहाँ बादशाह बना और नूरजहां का काल खत्म हो गया. नूरजहाँ तब से 1645 अपनी मौत तक लाहौर में ही रहीं.
दुनिया भले ही शाहजहां और मुमताज़ के प्रेम के कसीदे पड़े लेकिन नूर और जहाँगीर का प्रेम सही मायने में प्रेम कि मिसाल है. जहांगीर ने नूरजहां की बढती शक्ति देखकर कभी उनसे ईर्ष्या नहीं की और न ही बेगम ने कभी अपनी शक्ति की आड़ में बादशाह से बेअदबी की. वो एक दूसरे के पूरक बन कर रहे. नूरजहां ने अपनी शर्तों पर जिंदगी जी, तमाम वर्जनाओं को तोड़ा और दुनिया के सामने एक बेहतरीन मिसाल पेश की. कुल मिलाकर नूरजहां के लिये कहा जाता सकता है
उसको किस्मत ने बनाया था हुकूमत के लिये
वक्त ने उसको तराशा था मोहब्बत के लिये
–अपर्णा सिंह
इतिहास विषय पर गहरी पकड़ रखने वाली अपर्णा सिंह वर्तमान में सोमेश्वर महाविद्यालय में इतिहास विषय ही पढ़ाती भी हैं. महाविद्यालय में पढ़ाने के अतिरिक्त अपर्णा को रंगमंच पर अभिनय करते देखना भी एक सुखद अनुभव है.
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नूरजहाँ शिया थी और जहांगीर सुन्नी... जहांगीर को शिया बनने के लिए मनाने का उन्होंने भरपूर प्रयास किया, पर नाकाम रही।