लिफाफे के बाहर पता यों लिखा हुआ था :
सोसती सिरी सरबोपमा – सिरीमान ठाकुर जसोतसिंह नेगी, गाँव प्रधान – कमस्यारी गाँव में, बड़े पटबाँगणवाला मकान, खुमानी के बोट के पास पता ऊपर लिखा, पोस्ट बेनीनाग, पासपत्न ठाकुर उन्हीं जसोतसिंह नेगी को जल्द-से-जल्द मिले – भेजने वाला, उनका बेटा रतनसिंह नेगी. हाल मुकाम – मिलीटर क्वाटर, देहरादून. पोस्ट-जिला -वही. कियरोफ फिप्टी सिक्स ऐ.पी.ओ. बटैलन नंबर-के-बी-2, थिरी-थिरी नायन. सिपोय नंबर…
भेजने वाले के पते में से कई शब्द कटे हुए थे. पाने वाला का पता इस तरह लिखा गया था कि केवल टिकट ही पते की लिखावट से बचे थे, जो लिफाफे पर जगह-जगह चिपकाए गए थे.
पोस्टमैन ने हँसकर, पूरा पता प्रधान को सुनाया, तो जसोतसिंह सगर्व बोले – आँखें उघाड़ देने का यही तो फायदा. जिद करके बेटे को पिरेमरी तक पढ़ा ही दिया मैंने. नहीं तो, रतनुबा की माँ कहती थी, कि अँगूठा लगाने से जब काम चल जाता, तो कौन वक्त और पेसा गँवाए? मन्यौडर में अँगूठा लगाओ, तो उतने ही पैसे मिलने वाले ठहरे, दसखत करके दो, तो उतने ही… मैंने सोचा, चार आँखर बाँच ले, तो ठीक रहे. आखिर बिरमाजी ने बिद्या बनाई किसलिए ठहरी?
चिट्ठी हाथ में लेते हुए, प्रधान ने आवाज दी – अरी बहू! पोस्टमैन साहब के लिए दरी तो डाल दो. चा-तमाकू पिला. फिर, दयाराम की ओर मुड़कर बोले – त्याड़ी पोस्टमैन तो शहर चले गए. तुम नए ठहरे. फिर भी अपने ही ठहरे. लो, पढ़के सुना दो जरा चिट्ठी. रतनुआ घर पर होता, तो खुद पढ़के सुना देता. क्या कहें, साहब, लड़का क्या था, पढ़ने में जबरजंड था. सारी किताब तो उसे मुखागिरी याद रहतीं. वह तो मोतीराम मास्टर से अदावत हो गई, सो दर्जा चार में ही तीन साल रख दिया. ‘क्या आदर-कुसल लिखी है, साहब?’
दयाराम ने दरी पर बैठते हुए, लिफाफा खोलने के बाद पढ़ना शुरू किया – ‘ससती सिरी सरबोपमा पूज्य पिताजी का पाँव पकड़ी, पैलागन बार-बार कबूल हो और आशीर्वाद चिरंजीवी रहे. ऐसे ही काका जमनासिंह ज्यू व दाज्यू खड़कसिंह को भी बार-बार पैलागन पहुँचे. नाना-तिनान के सिर पर हाथ धरके आशीर्वाद पहुँचे. पटवारी सैप को मेरी दोनों हाथ जोड़ी ‘जैहिंद’ पहुँचा देना. खेती-बारी की, गाँव-पट्टी की समस्त आदर-कुसल भेजना. पोस्टमैन सैप खिमांद त्याड़ी जी को भी पैलागन बोलना कि जल्द-से-जल्द पता लिफाफे पर लिखा आपके खत पासपत्र मिले मेरे नाम से रतनसिंह नेगी करके भेज देवें. जरूर-जरूर. आपका बेटा, चरणतल आसीस पावे – रतनसिंह नेगी थिरी-थिरी नायन…
एक बात याद आ गई. छोटे भाई आनंदसिंह को मेरे हाथ की सिरघरी आशीर्वाद पहुँचे – उसकी शादी की कोशिश करना. जाती पांती को बहुत भेद क्या करना. भगवान की सृष्टि एक सरीखी हुई. ठाकुर चेतसिंह की बेटी को टीका लगा लेना. नाक-नकस की, भली होवे, देखना. बाकी क्या लिखूँ, आप खुद समझदार हुए. चरनसिंह सौरज्यू से बोल देना, बहू को मेरे घर आने पर मैत पहुँचावेंगे. सास-ससुर दोनों के चरणतल आसीस पावे – आपका बेटा रतन सिंह नेगी थिरी-थिरी नायन….’
आजकल यहाँ सर्दी का मौसम. बहुत गिर रही बर्फ. ड्यूटी जमादार आवाज देता. बूट में पोलिस लगा लूँ. टेम हो गया फौलन होने का – बाकी लिखना शाम को जी.
दयाराम ने पन्ना पलटाते हुए कहा – ‘इस तरु को इतना ही लिखा, दूसरी तरफ देखूँ. … इधर लिखा है
– बाकी क्या लिखूँ, आप खुद समझदार हुए. छुट्टी पर साल-भर बाद आऊँगा. व्वारियों को घाघरे-पिछौड़े बनवा लेना. माताजी और अपने लिए अलमोड़ा से तमाकू की असली पिंडी बनवा लेना, हीरालाल-मोतीलाल के यहाँ से. …और आते नौर्तों में गोल्ल देवता के मंदिर में मेरे नाम के दो बोकिए ठोंक देना. मेरे जोल हाथ गोल्ल देवता के दरबार में कर देना. यहाँ कुशल अच्छी है. तहाँ कुसल परमपिता परमेश्वर से नेक चाहता हूँ. चरणतल आसीस पावे… आपका बेटा वही, ऊपर खुलासा दिया हुआ.’
चिट्ठी समाप्त कर, दयाराम उठकर, आगे के घरों की ओर बढ़ गया.
कमस्यारी गाँव से पोस्टमैन दयाराम लौटा, तो संध्या हो गई. ब्रांच पोस्ट आफिस बेनीनाग में पोस्टमैन था. नया-नया नौकरी पर लगा था. हाईस्कूल पास करने के बाद बेकार पड़ा था. उसके पिता हरकारे की ड्यूटी करते थे. उन्होंने ही शहर-पोस्टमास्टर के यहाँ, चातुर्मास-भर दही की ठेकियाँ और ककड़ी-लौकी के बोरे पहुँचाने के बाद, बेटे को यह पोस्टमैनी दिलाई थी.
हफ्ते भर में दो बार दयाराम ड्यूटी पर कमस्यारी और उसके निकटवर्ती गाँवों में जाता. आज वह दूसरी बार ही वहाँ गया था. गाँव के लोग बड़ा सत्कार करने वाले थे. जब किसी का मनीआर्डर आता और दयाराम उसे देता, तो वह उसको तिलक लगाता और दक्षिणा देता.
मनीआर्डर आने पर कई लोग गाँव के आस-पास के पहाड़ी टीलों पर बने देवी, गंगनाथ, गोल्ल, हरु, सैम या भूमिया के मंदिर में दीया जलाने जाते और मनीआर्डर की रसीद को, बताशों के साथ, वही चढ़ा आते कि – हे परमेश्वर, मन्योडर ऐसे ही आते रहें. गोठ की गाय, भीतर के पुरखे-देवता ऐसे ही दाहिने होते रहे.
अपनी खाकी वर्दी पहनकर, खाकी झोला कंधे से लटकाए दयाराम पोस्टमैन जब गाँवों में जाता, तो जिस घर के समीप भी पहुँचता, ऊखल-कूटती औरतें मूसल रोक लेतीं, दूध दुहने वाली उत्सुकता और हड़बड़ी में थन और उँगलियों के बीच का संतुलन खो बैठती और एक धार तौली में दुहतीं, तो एक धार जमीन में बिखेर देतीं. बच्चे फलों के मौसम में पधारे हुए बानरों की तरह उझकने शुरू हो जाते और बूढ़ों के हाथ में चिलम की नली थमी रह जाती. सबकी जबान पर एक ही बात होती – पोस्टमैन सैप!
लड़ाई का जमाना, कुमाऊँ के अधिकांश बेरोजगार जवान बेटे पलटन में भर्ती हो गए थे. आर्थिक विवशताओं ने उन्हें अपने परिजनों – अपनी धरती-पार्वती से विलग होने को बाध्य किया था.
दयाराम जब जंगली रास्तों से गुजरता, तो उसे पहाड़ी औरतों के व्यथा-भरे विरह-गीत सुनाई पड़ते, जिनमें वे अपने पलटनवाले स्वामी को याद करतीं. जिस तरह के जोड़ मारती, वो हिटलर को गालियाँ देतीं और उसकी चुटिया-जनेऊ को पत्थरों पर रखतीं, उसके मुँह साल का नवान्न नहीं लगने का शाप देती – लगता उनके हाथों की दरातियों और लाम में कोई बहुत ज्यादा फासला नहीं! हालाँकि भारत आजाद हो गया और विश्व युद्ध को खत्म हुए तथा हिटलर को मरे बरसों बीत चुके थे, लेकिन इनके लिए अभी भी लड़ाई का नायक हिटलर ही था.
दयाराम अकसर देखता कि जहाँ भी वह पहुँचता है, पलटनिया स्वामी वाली हर औरत हिरन की-सी आँखें और खरगोश के-से कान बना लेती है. दयाराम की ओर वे ऐसे देखती थीं, जैसे कोई लाम से पधारा हुआ फरिश्ता हो. कंधे पर के खाकी झोले और जेब में खोंसी कलम से लगता, जैसे वह उनके सौभाग्य-दुर्भाग्य का विधाता हो. वह लिफाफे या ‘मन्योडर’ की जगह कही तार ले आए, तो… एक माथे का सिंदूर पोछता, दो हाथों की चूड़ियाँ टूटतीं और गाँव भर में मातम का गिद्ध अपने मनहूस डैने पसार देता…
दयाराम को मुवाणी गाँव की बात याद है. एक तार वह ले गया था. धन-सिंह बिष्ट का बेटा मारा गया था पलटन में. कश्मीर की लड़ाई में. तार दयाराम ने खुद पढ़के सुनाया था और उसकी जान खतरे में पड़ गई थी.
धनसिंह की बहू बिजली की चपेट में आई हुई-सी मर्मांतक चीखें मारती, दराँती लेकर दयाराम को मारने दौड़ी थी – मर जाए पोस्टमैन, तेरा पालने-पोसने वाला, जिसने तुझे ऐसे कुकर्म सिखाए! तेरी माँ-बहनों के काले चर्यों, क्या पहले ही टूट चुके कि यह पापी तार मेरे घर वज्र गिराने को लाया? अरे, तेरे गोठ का बैल, गाँव का प्रधान मर जावे! जैसा जैहिंदी-तार तूने मेरे घर पहुँचाया, गोल्ल देवता के थान में बकरे काटूँ, जो कोई तेरे घर भी ऐसा ही तार पहुँचा आवे!…
…और फिर उसका वह मर्मवेधी रुदन, करुण विलाप और बात-बात पर छाती कूटना, उल्टी हथेलियों से माथा ठोंक-ठोंककर गालियाँ देना ‘पोस्टमैन तुझे आँचल की छाया, हाड़-माँस की काया देने वाली भी ऐसे ही छातियाँ कूटें…!
दयाराम के माथे पर पसीना आ गया. उसे लगा जैसे सैकड़ों गिद्ध उसके इर्द-गिर्द आ बैठे हैं. जब वह डाकिए की नौकरी के लिए घर से कस्बे को चला था, माँ ने उसे छाती से चिपटा लिया था – ‘मेरे लाल! आज मेरी छाती का पत्थर हटा! मैं डरती थी, कहीं तू भी पलटन में भर्ती न हो जाए. जाने कहाँ भडाम्म बम फूट पड़े – जाने कहाँ से तड़ाम्म गोली आ लगे! सरकार के थान में बलि चढ़ाने की नौकरी ठहरी. …लेकिन जब जिंदा थे, तो इतना जरूर कहते थे तेरे बाप की पोस्टमैनी की नौकरी में कोई खतरा नहीं.’
दयाराम की आँखों में आँसू आ गए. कितना ममत्व भर दिया है ईश्वर ने माँ के मन में जैसे कि जंगल में वनस्पति, खेतों में अन्न या कि नदियों में पानी, आज यह धनसिंह की घरवाली रुदन मचा रही है, और उस दिन विधवा होने वाली भागुली भी तो अपने छोटे-मोटे बालकों की दुहाई दे रही थी – ‘कौन सिर को छत्र, पीठ को आधार देगा, रे, मेरे छोटे-छोटे बालकों को? कौन पलटन से छुट्टी में आके, बिस्कुट और बिलैंत मिठाई खिलाएगा, मेरी गोदी के छौनों को? हाय, पोस्टमैन, तुझे दूध पिलाने वाली की छाती फट जावे!’
दयाराम कहना चाहता था, मुझे क्यों गालियाँ देती हो, दीदी? मैंने तो तुम्हारे स्वामी को गोली नहीं मारी! पर, कह वह कुछ भी न पाया था. धनसिंह की घरवाली के करुण विलाप के आगे उसकी वाणी मूक हो गई थी. चोरी करते हुए पहली बार में ही रंगे हाथों धर लिए गए नौसिखए चोर की सी फजीहत भुगतने के बाद, वह सीधे कस्बे को लौट आया था. कई दूसरे घरों की डॉक तक झोले में ही पड़ी रही गई.
तब से, गनीमत है, कोई तार नहीं आया था. पर वह ब्रांच पोस्टमास्टरजी की ‘साटिंग’ को आकुल दृष्टि से देखता रहा था.
आज सोमवार था.
कमस्यारी गाँव की तरफ जाने की पारी थी. ब्रांच पोस्टमास्टर पांडे चिट्ठियाँ छाँट रहे थे, और दयाराम कुछ खोया-खोया-सा डाक थैले में भर रहा था कि सहसा वह बिच्छू के काँटे-सा चिहुँक उठा – उसकी तरफ, पोस्टमास्टर पांडे तार का एक लिफाफा बढ़ा रहे थे. तार पर पता था – जसोतसिंह नेगी, विलेज-कमस्यारी…
दयाराम का कलेजा काँप उठा. वह विचलित हो उठा. पोस्टमास्टर पांडे ने पूछा -‘क्या बात है, दयाराम बेटे?’
ख्याली राम पांडे बड़ी उमर के हो चले थे. दयाराम उनकी इज्जत करता था, वह दयाराम को बेटे की तरह प्यार करते थे. ‘इस्नानम, ध्यानम, पुंडरी काक्षम्-सर्व पाप हरोहरे’ वाले पंडित हुए, एक उजलापन था उनके व्यक्तित्व में.
दयाराम अपनी हड़बड़ी को ढाँपता, थोड़ा चतुराई से बोला – ‘कुछ नहीं, पांडे काका जी, कल से कुछ तन ठीक नहीं सा मालूम पड़ रहा. रात झिमझिम पानी बरसा. लगता, मेरे को कुछ जुकाम हो गया….’ वह कोशिश करके अपनी नाक सिनकने लगा.
‘तो मत जा आज ड्यूटी पर. कमस्यारी की तरफ तो बड़ी तेज ठंडी हवा बहती है, कहीं निमोनिया न हो जावे. रात क्या खुले में सो गया?’ पांडे बोले.
‘अं-अं ककाजी, खुले में तो नहीं सोया, मगर खिड़की-दरवाजे साले खुले रह गए. कुछ चणक-मणक-जैसी शरीर में कुछेक दिन पहले से ही रही… जाने की हिम्मत इसलिए भी नहीं पड़ रही कि कमस्यारी वज्याणी का इलाका ठहरा – वहाँ दोपहर तक तुष्यार रहने वाला हुआ… लेकिन तार जो है…’
‘अच्छा, ऐसा कर’ – पांडे बोले – ‘तू आज दुकान पर रह. टिकिट-लिफाफों के पैसे गल्ले में डाल देना और सौदा बिके, तो वो पैसे अलग रख देना. बीड़ी के बंडल नौ पैसे से कम में न देना, तुझसे मैं आठ ही लिया करता हूँ – और उन्होंने दयाराम वाला खाकी झोला अपने कंधे पर डाल लिया – ‘कमस्यारी के पास वाले गाँव रतन्यारी में मेरी ससुराल है. अच्छा है, तेरी चाची को भी लेता आऊँगा, और डाक भी निपटा आऊँगा. भला, तू कब तक सेंकेगा मेरे लिए रोटियाँ?’
अपनी दुकान में ही ख्याली राम ब्रांच-पोस्टआफिस भी चलाते थे. वर्षों से पोस्टमास्टरी और खिर्ची-मिर्ची की दुकानदारी करते-करते, पांडेजी के लिए इन दोनों कामों में कोई खास फर्क नहीं रह गया था.
दयाराम को याद आया, परसों जब तक जसौंत प्रधान के घर चिट्ठी पढ़ रहा था, प्रधान की बहू बेर-बेर कनखियों से हेर रही थी. कितना कौतूहल था, उसकी आँखों में! कैसा छोह छलक रहा था! कितना दूध-शक्कर डाल लाई थी वह चाय में – ‘लियो, पोस्टमैन सैप!’
दयाराम को लगा, कोई हल्के से उसके कानों को कुर्रा गया – ‘लियो पोस्टमैन सैप!’
उसे बड़ी व्यथा हो आई.
…और आज तार आया है! …कहीं लड़ाई में रतनसिंह नेगी… और दयाराम की आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया. धुंध की परतें, जैसी बैठती गई पुतलियों में. …उसे लगा, रतनसिंह की घरवाली ख्याली राम पोस्टमास्टर को दराँती से चीरने, विलाप करती हुई दौड़ रही है – जिसने तुझ बुढ़वा को छाती का दूध पिलाया, उसकी छाती फट जावे पोस्टमैन! जिसने…’
दोपहर बीतने को आई, तो न जाने क्यों दयाराम को लगा, उसे चक्कर आ रहा है वह जैसे किसी दुष्कल्पना के भँवर में पड़ गया हो. चारों ओर रतनसिंह की विधवा की गालियाँ, तीर बिंधे पंछी की तरह फड़फड़ाकर, उसके कानों में गिरने लगी थीं – ‘मर जावे पालने वाला, पोस्टमैन, तेरा कि गोल्ल देवता करे, ऐसा ही तार कोई तेरे घर पहुँचा आवे! जिसने तुझे आँचल की छाया दी, उसके सिर का साया उठ जावे! जिसने तेल लगाया, उसके घर दिया जलाने को नहीं रहे तेल – जिसने नौनी चुपड़ी, उसकी गाय-भैंसों को बाघ उठा ले जाय… जिसने…
दयाराम चीखने-चीखने को हो गया. उसे लगा जसौंत प्रधान की विधवा बहू तार हाथ में लिए, सिर के बाल फैलाए, उल्टी हथेलियों से माथा ठोंकती और छाती कूटती, सीधे उसके घर आ रही है… गाँव… उसकी माँ के पास!
फिर उसे ख्याल आया, तार लेकर तो पांडेजी गए हैं! थोड़ी राहत मिली उसे और वह गल्ले की संदूक से कमर टिकाए लेट गया.
लेटे-लेटे सहसा उसे लगा, वह कमस्यारी गाँव की तरफ जा रहा है. रतन की विधवा जंगल में घास काटने आई है और रो रही है – दो तारीक तार – सिर का छतर न रे… पिठी का आधार…’
यानी उसके सिर का छत्र, पीठ का आधार रतनसिंह कश्मीर की लड़ाई में मारा गया है. दयाराम की आँखों में, फिर एक बार, वह तार का लिफाफा घूमने लगा. उसने कल्पना में देखा, लिफाफे के एक कोने में लिखा है – तार मिले कमस्यारी गाँव के प्रधान श्री परमपूज्य जसौंतसिंह नेगी जी को… भेजने वाला उनका बेटा रतनसिंह नेगी, थिरी-थिरी… जो कि लाम में फौद हुआ…’
विधवा जैंतुली ने खुले बाल कंधों पर फैला लिए हैं और दयाराम का खाली झोला दराँती से चीर डाला है और विकराल मुखाकृति बना, चिल्ला रही है – ‘इसीलिए डाली थी, पोस्टमैन, तेरी चाय में दो मुट्ठी चीनी कि तू मेरी जिंदगी में बिस घोल जाएगा? इसीलिए डाल दिया था, अपने बालक के हिस्से का दूध भी कि तू मेरे बालकों के मुँह से बिलैती बिस्कुट छीन लेगा? मर जाए पोस्टमैन तू और तुझे जन्म देने वाले के घर पहुँचे सरकारी तार! …कल इसीलिए तूने बेचारे बूढ़े मास्टर को भेज दिया, अपने हाथ का बज्र उसके हाथ में देकर?’
और दयाराम चीख उठा – ‘पर, दीदी, मैंने तो नहीं मारी तुम्हारे रतनसिंह को गोली? मुझ गरीब को क्यों गालियाँ देती हो… नहीं करूँगा आज से सरकारी तार पहुँचाने की नौकरी…
एक शब्दहीन नदी: हंसा और शंकर के बहाने न जाने कितने पहाड़ियों का सच कहती शैलेश मटियानी की कहानी
‘बुखार ज्यादा चढ़ आया है क्या बेटे दयाराम?’ – पोस्टमास्टर ने उसे झकझोरा. फिर उसकी नब्ज देखते हुए बोले – ‘तकदीर का तू कुछ कच्चा ही निकल आया, यार दया बेटे! तार लेकर प्रधान जसौंतसिंह नेगी के घर तेरी जगह पर मैं गया. अलमोड़ा जो उनकी बेटी ब्याही है, उसके लड़का हुआ है. बेचारों ने खूब आवभगत की! …ऊपर से आठ आने दक्षिणा दी कि ब्राह्मण आदमी हो, खुशखबरी लाए हो. ऐसी बढ़िया खीर खिलाई – पूर्ण तृप्ति हो गई! एक वक्त का सीता भी रख दिया.’
दयाराम अपार विस्मय और मद्धिम-मद्धिम-सी खुशी के साथ पांडेजी को देखता रहा. चवन्नी जेब से निकाल कर उसे देते हुए, पांडेजी बोले – ‘चलने लगा था कि प्रधान की बहू प्रधान से बोली, ‘चार आने दक्षिणा छोटे पोस्टमैन के लिए भी भेज दीजिए!’ अहा रे, बड़ी लक्ष्मी बेटी है. – चाय में भी इतनी शक्कर घोली…’
दयाराम ने पांडेजी के चरण छू लिए, जैसे कि कोई प्रेत बाधा छूट गई हो.
पांडेजी आराम से पाँव पसारते बोले – ‘लेकिन यार, पुत्र, खीर के अफारे में पन्यारी, अपने ससुराल की चढ़ाई चढ़ने की ऊर्जा नहीं रही… फिर वहाँ कमस्यारी में बज्याणी जंगल की फर-फर-फर-फर हवा आ रही – सिर में टोप-जैसी पड़ गई. अब तेरी चाची जी को किसी अगली ट्रिप में लाना पड़ेगा… अर्थात आज शाम के भोजन की तैयारी भी तुझे ही करनी…’ (Postman Story of Shailesh Matiani)
हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी (Shailesh Matiyani) अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे थे. सतत संघर्ष से भरा उनका प्रेरक जीवन भैंसियाछाना, अल्मोड़ा, इलाहाबाद और बंबई जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः हल्द्वानी में थमा जहाँ 24 अप्रैल 2001 को उनका देहांत हुआ. शैलेश मटियानी का रचनाकर्म बहुत बड़ा है. उन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे और लगभग दो दर्ज़न कहानी संग्रह प्रकशित किये. आंचलिक रंगों में पगी विषयवस्तु की विविधता उनकी रचनाओं में अटी पड़ी है. वे सही मायनों में पहाड़ के प्रतिनिधि रचनाकार हैं.
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