जवान होते बेटो
-अष्टभुजा शुक्ल
जवान होते बेटो!
इतना झुकना
इतना
कि समतल भी ख़ुद को तुमसे ऊँचा समझे
कि चींटी भी तुम्हारे पेट के नीचे से निकल जाए
लेकिन झुकने का कटोरा लेकर मत खड़े होना घाटी में
कि ऊपर से बरसने के लिए कृपा हँसती रहे
इस उमर में
इच्छाएँ कंचे की गोलियाँ होती हैं
कोई कंचा फूट जाए तो विलाप मत करना
और कोई आगे निकल जाए तो
तालियाँ बजाते हुए चहकना कि फूल झरने लगें
किसी को भीख न देना पाना तो कोई बात नहीं
लेकिन किसी की तुमड़ी मत फोडऩा
किसी परेशानी में पड़े हुए की तरह मत दिखाई देना
किसी परेशानी से निकल कर आते हुए की तरह दिखना
कोई लड़की तुमसे प्रेम करने को तैयार न हो
तो कोई लड़की तुमसे प्रेम कर सके
इसके लायक ख़ुद को तैयार करना
जवान होते बेटो!
इस उमर में संभव हो तो
घंटे दो घंटे मोबाइल का स्विच ऑफ रखने का संयम बरतना
और इतनी चिकनी होती जा रही दुनिया में
कुछ ख़ुरदुरे बने रहने की कोशिश करना
जवान होते बेटो!
जवानी में न बूढ़ा बन जाना शोभा देता है
न शिशु बन जाना
यद्यपि बेटो
यह उपदेश देने का ही मौसम है
और तुम्हारा फर्ज है कोई भी उपदेश न मानना
(Poem by Asht Bhuja Shukla)
1954 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद में जन्मे अष्टभुजा शुक्ल (Ashtbhuja Shukla) वर्तमान हिन्दी कविता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में शामिल हैं. चुटीली भाषा और समाज पर पैनी निगाह उनके काव्य की पहचान है. उनकी कविताओं का व्याकरण बहुत ही अभिनव है जिसने उन्हें कविता प्रेमियों के बीच अच्छी शोहरत दिलाई है. उनके तीन कविता संग्रह छपे हैं – पद-कुपद, चैत के बादल और दुःस्वप्न भी आते हैं. उन्हें उनके रचना कर्म के लिए अनेक सम्मान मिल चुके हैं जिनमें प्रमुख हैं – केदार सम्मान (2009) और श्रीलाल शुक्ल इफको स्मृति सम्मान (2016). प्रस्तुत कविता शुरू में एक बने बनाए पैटर्न पर चलती दिखाई देती है और जब उसमें कवि का खिलंदड़ रूप प्रविष्ट होता है आप हतप्रभ रह जाते हैं!
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सुंदर??