कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
दुष्यंत साहब की इन पंक्तियों के साथ याद करतें उस आंदोलन के दौर को जिसकी भट्टी में एक छात्र और मजदूर होम हो गए. तब युवाओं ने मांगा था अपने लिए एक विश्वविद्यालय. जो पहाड़ को समझे और जाने. यहां वालों को पढ़ाई के लिए घर न छोड़ना पड़े. 1 5 दिसम्बर 1972 की भरी दोपहरी पिथौरागढ़ सरे बाजार गोली चली थी. जिसमें दो मौते हुईं. और अब सज्जन कुमार साह और सोबन सिंह नेपाली की भुली जा चूकी कहानी फिर से जुबा पर चढ़ रही है. सत्तर के दशक में उत्तराखण्ड के युवाओं ने अपने लिए अलग विश्वविद्यालय की मांग की थी. उस दौर में युवाओं ने सड़कों के आसरे आसमान चढ़ने की बात की. अपने व आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा की लड़ाई लड़ी. छात्र आंदोलन का मुकाबला करने के लिए तब बंदुकें तैनात की गई. इस मुकाबले में विजय तो युवाओं की हुई और नैनीताल विश्वविद्यालय बना, पर उसकी कीमत थी दो निर्दोष जानें.
वर्तमान में उनके देखे सपने को बदरंग करने मनसूबों के खिलाफ लक्ष्मण सिंह महरा राजकीय स्नाकोत्तर, महाविद्यालय पिथैरागढ़ में एक आंदोलन फिर से अंगड़ाई ले रहा है. सोमवार 17 जून से महाविद्यालय के आगन में छात्र-छात्राएं किताबों और अध्यापकों के वास्ते धरना दे रहे हैं. आंदोलन की लड़ाई महाविद्यालय से होते हुए सड़कों पर उतर आई है. छात्रों के साथ उनके अभिभावक में झंडा, पोस्टर और तख्ती थामे आकाष भेदते नारों के साथ सड़के नाप रहे हैं. उनके इस आंदोलन को देश भर से समर्थन मिल रहा है. खबर लिखे जाने तक आंदोलन की आंच में पिथौरागढ़ आहिस्ता-आहिस्ता तप रहा है.
पिथौरागढ़ में अध्यापकों और किताबों की यह लड़ाई छात्र आन्दोलन का संभवतः पहला संघर्ष है. यह आंदोलन कई मामले में अपने आप में अनूठा है. यहां छात्र दिन भर धरना देते हैं, नारे लगाते है, तख्ती लिखते है साथ में परीक्षा भी देते हैं. छात्रों के इस आंदोलन में उनके साथ खड़े हैं उनके अभिभावक. वो दिन भर धरने में बैठे बच्चों के लिए चाय-नाश्ता भी लाते हैं. सड़कों पर उतरकर नारे भी लगाते हैं. यह आंदोलन का एक नया सुनहरा रंग है. जो कि किसी भी जिंदा कौम के संवेदनषील होने की बात पर मुहर लगाता है. उस पर प्रदेश के शिक्षा मंत्री का बयान उनकी संवेदनशीलता को दिखाता है.
महाविद्यालय में 89-90 में सचिव, 92-93 अध्यक्ष रहे जन मंच के भगवान रावत ‘भगवान दा’ ने राज्य के शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत को निलंबिल करने की मांग की है. उनका कहना है कि यहां छात्रों के आंदोलन पर वो बेतुकी बयानबाजी कर रहे हैं. कहने को तो यहां डीजिटल पुस्तकालय है. जो सिर्फ नाम का ही है. अन्दर जाने में हकीकत सामने आती है. यहां के पाठयक्रम में रूस आज भी सबसे ताकतवर देश है और अमेरीका के साथ शीत युद्ध में जुटा है. कागजों की बात करें तो 172872 (एक लाख ग्यारह हजार आठ सौ बहत्तर) पुस्तकें यहां दर्ज हैं, पर सिर्फ 15000 किताबें ही छात्रों को बांटी जा रही है. ऐसे में आंदोलन पर प्रश्न खड़ा करना रावत जी की अज्ञानता को ही दर्शाता है.
1993 में लक्ष्मण सिंह महरा राजकीय स्नाकोत्तर के छात्र रहे भुपेन्द्र वल्दिया वर्तमान में अल्मोड़ा में ग्रीन हिल्स संस्था के प्रबंधक हैं. वह कहते हैं छात्रों की मांग सौ प्रतिशत सही है. ये जिम्मेदारी सरकार की है कि वह छात्रों को समय के अनुसार किताबें मुह्या कराये. जिससे देश का भविष्य उज्जवल हो. अपने दौर को याद करते हुए उन्होंने कहा कि हमारे समय में बुक बैंक और पुस्कालय से किताबें आसानी से मिल जाती थी. आज के समय में हमारे दौर की किताबें ही छात्रों को दी जा रही हैं. जो उचित नहीं है क्यों कि वक्त काफी बदल गया है और किताबों में सेलेबस पुराना है. ऐसे में देश को विश्व गुरू बनाने की बात करना एक धोखा है.
धरने में पेपर की तैंयारी
बी.एस.सी. दूसरे वर्ष की छात्रा नूतन अपनी बड़ी बहन चेतना के साथ धरना देने आ रही है. चेतना एम.ए. होम सांइस प्रथम वर्षा की छात्रा है. नूतन ने 10 जुलाई में चतुर्थ सेमेस्टर का अंतिम पेपर दिया. उनका कहना है कि यहां हम धरना देने के साथ पढ़ाई भी कर रहे हैं. मैं जब बीएससी प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था. पहले वर्ष में न तो अध्यापक ही क्लास में आए, न ही किताबें ही पढ़ने के लिए मिली. ऐसे में आंदोलन ही एक मात्र रास्त रह जाता है. मैं अपनी दीदी(बड़ी बहन) के साथ यहां धरना स्थल पर आ रही हूं. यहां धरना स्थल से साथी पेपर देने भी जा रहे हैं. हमारे कुछ साथी यहां पढ़ाई भी कर रहे हैं. सीनियर हमारे डाउट धरना स्थल पर ही क्लियर कर देते हैं. कुछ लोग तो पहले धरना देते हैं फिर पेपर देने जाते हैं. पेपर होते ही फिर से धरना स्थल पर आ बैठते हैं.
और माँ बनी आंदोलनकारी
मातृ शक्ति की ताकत छात्र जानते हैं उन्होंने अपने आंदोलन को धार देने के लिए माताओं को भी आंदोलन में शामिल किया. छात्रसंघ अध्यक्ष राकेश जोशी बताते हैं कि धरने की शुरूआत में घरवालों का रूख सकारात्मक तो था नहीं , पर नकारात्मक भी नहीं था. तब हम लोगों ने तय किया कि इस आंदोलन में हम घर से माँ को बुलाएंगे. इसकी जिम्मेदारी सभी साथियों को दी गई. सब लोगों ने घर में बात कर अपनी माता के साथ पड़ौस की महिलाओं को भी आंदोलन का हमराह बनाया. नगर की सड़कों पर जब जुलूस दाखिल हुआ तो उसमें नारे लगाने वालों में माँ-बेटी साथ थे. सभी की बस ये मांग थी कि शिक्षक लाओ, किताबें दिलाओ.
राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक मीडिया आया साथ में
जब आवाज नहीं सुनी जाती तो जोर से चिल्ला पड़ता है. आंदोलन की आवाज को बड़ा करने के लिए राष्ट्रीय चैनलों का सहारा लेने का निर्णय किया गया. इस को अमल में लाने की जिम्मेदारी ली शिवम् पाण्डे ने. उनके प्रयासों से पिथौरागढ़ का कॉलेज रवीश कुमार के प्राइम टाइम में आ गया. एनडीटीवी में खबर के चलते ही आंदोलन की तस्वीर बदलने लगी. अब आंदोलन को देखने की नजर भी लोगों की अलग हो गई है. ऐसा कहना है आंदोलनकारी छात्रों का. स्थानीय अखबारों में अब खबरों का वजन भी बढ़ने लगा. स्थानीय छात्र नेता भी इस आंदोलन से जुड़ने लगे हैं. आज की तारिख में आंदोलन की रेखा लगातार बढ़ रही है.
ये है कॉलेज की हकीकत
शुभम् पाण्डे ने बताया कि पिथौरागढ़ में कॉलेज 1963 में अस्तिव में आया. गांधीवादी आंदोलकारी लक्ष्मण सिंह महर के नाम से इसका नाम लक्ष्मण सिंह महर राजकीय स्नाकोत्तर, महाविद्यालय रखा गया. आज हम गांधीवादी रास्ते से ही कॉलेज की दशा-दिशा सुधारने की बात कर रहे हैं. पाण्डे ने कहा कि 1963 में कॉलेज 120 अध्यापकों के पदों का सृजन किया गया था. कॉलेज में तब लगभग 200 से 300 छात्र हुआ करते थे. आज विश्वविद्यालय में छात्र संख्या 7000 पहुंच गई और अध्यापकों की संख्या 99 है. यूजीसी के मानकों में 25 छात्रों में 1 अध्यापक तय है. आज यहां 70 छात्रों में एक अध्यापक है. बातें किताबों की करें तो यहां 1,11872(एक लाख ग्यारह हजार आठ सौ बहत्तर) हैं. 7000 छात्रों में बंटती हैं 15000 किताबें. प्रत्येक बच्चे को मिलती है 2 किताबें. बीएससी के एक सेमेस्टर में नौ पेपर होते हैं किताबें हैं 2, तो कैसे होगी पढ़ाई. जो किताबें मिलती हैं उसमें सलेबस कम ही मिलता है. आधे से ज्यादा किताबें फटी हुई है. हमारे शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत बोल रहे हैं कि आंदोलन के पीछे कौन है इसकी जांच कराएंगे. मंत्री जी बताऐं किताबें मांगना गुनाह है क्या ! वह भी उस राज्य में जहां के सांसद केन्द्र में मानव संसाधन मंत्री है.
ऐसे हुई शुरूआत
कॉलेज के छात्रों किताबों की मांग को लेकर पहला ज्ञापन सोमवार 8 अक्टूबर 2018 को सौंपा था. इसके बाद तमाम मौकों पर छात्रों की ओर से ज्ञापन सौंपे गए. नतीजा सिफर ही रहा. आखिर में तय कर मंगलवार 11 जून 2019 में छात्रसंघ अध्यक्ष राजेश जोशी नेतृत्व में किताबों, शिक्षकों की मांग को लेकर ज्ञापन सौंपा था. मांगे पूरी न होने पर 17 जून से घरने में बैठने का ऐलान किया गया था. जब कॉलेज प्रशासन ने छात्र की नहीं सुनी तो उन्हें धरने पर बैठना पड़ा.
ये हैं मुख्य मांगें
कॉलेज में शिक्षकों और किताबों की कमी दूर हो.
सब रजिस्ट्रार की नियुक्त की जाए.
सब रजिस्ट्रार की नियुक्त की जाए.
शोध करने वाले छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाए.
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दिग्विजय बिष्ट ने पत्रकारिता की शुरूआत टीवी 100 रानीखेत से की. न्यूज 24, डीडी न्यूज होते हुए कई इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में उन्होंने काम किया. बाद में अमर उजाला के बरेली संस्करण के न्यूज डेस्क पर काम. दिल्ली मीडिया में साल भर काम किया. वर्तमान में आल इण्डिया रेडियो, आकाशवाणी अल्मोड़ा से जुड़े हैं.
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1 Comments
किशोर वासवानी
प्रशासन द्वारा हर मुद्दे को नकारात्मक तरीक़े से या रानीतिक रंग देकर सोचना वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है…. शिक्षा सुविधाओं और बेहतर ढांचे की बात करना गुनाह तो नहीं है ….. प्रशासन को विद्यार्थियों का नज़रिया भी समझना चाहिए ….. प्रधानमंत्री जी तो अपने ” मन की बात ” में बढ़िया शिक्षा के महत्व को प्रचारित करते हैं….. 21वीं सदी के हिसाब से ज़रा सोचिए …