पिथौरागढ़ महाविद्यालय से शाम चार बजे के आस-पास बाहर निकलते ही मिल गये डॉ. मदन चंद्र भट्ट. इतिहास के विभागाध्यक्ष. अब मेरे पड़ोसी भी. बाल किशन पंडित जी के बराबर ही उनका दुमंजिला मकान था,रामाश्रय.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
“कैसा लगा भाई पिथौरागढ़? खूब पसंद आएगा तुम्हें. घूमने फिरने के शौकीन भी हो”.
जितने पहाड़ देखे उनमें सबसे अनोखा. सुंदर घाटी, बड़ी खुली जगह. आपने तो बहुत काम किया है यहाँ के इतिहास पर, बताइयेगा मुझे. आपके बहुत लेख पढ़े हैं मैंने. गौरवर्णीय अद्भुत तेज से तमतमाता चेहरा. मेरी बात सुन भट्ट जी मुस्कुराये.
“ये कॉलेज की बिल्डिंग भी बड़ी मजबूत पूरी मेहनत से बनी है. सिनेमा लाइन वाले जनार्दन पांडे जी हुए इसके एक ठेकेदार, बड़े ईमानदार. ये भवन पूरा करते-करते अपनी गांठ का भी पैसा लगा दिया. पढ़ने लिखने का खूब शौक. पूजा-पाठी, संगीत के पारखी. तुमको ले चलूंगा उनके पास”.
आर्ट्स ब्लॉक से बाहर निकलते ही भट्ट्जी रुके फिर मेरा हाथ पकड़ एक खुली सी जगह पर ले गए. महाविद्यालय का पूरा भवन अब ठीक सामने था. अब वह मुझे बताने लगे थे, “ये अपना कॉलेज 1962 में खोला गया. इस जगह पहले भवानी देवी प्राइमरी पाठशाला, पपदेऊ हुई. पपदेऊ में पढाई-लिखाई को समर्पित एक महिला हुईं जिनका नाम भवानी देवी था उन्होंने पांच हजार रूपये नकद दिए. वहीं गांव में बड़े कर्मठ श्री मोतीलाल चौधरी हुए. इनके दान और काम से ही ये विद्यालय खुला. जब तक बिल्डिंग बनीं तब तक मिडिल स्कूल बजेटी में क्लास चलीं. बजेटी में ही बहुत पहले सन 1906 में यहाँ का पहला मिडिल स्कूल खुला था.” वैसे तो सन 1871-72 में पिथौरागढ़ में दो मेथोडिस्ट शिक्षा केंद्र खोले जाने का श्रीगणेश हो चुका था. इनमें पहला था, लूसी डब्ल्यू ऍम गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल और दूसरा पिकेट इंटर कॉलेज”.
“सिर्फ सोर घाटी ही नहीं ऊपर सीमांत में भी शिक्षा की हल-चल हुई थी. 1893 में मेथॉडिस्टों की ओर से कु. मार्था शेल्डन पिथौरागढ़ भेजी गयीं. यहाँ वह शौका जनजाति के अपने लोगों से मिलीं. तब उन्होंने गर्मियों के लिए सिरखा और जाड़ों के लिए धारचूला को अपना मुख्यालय बनाया और लोग भी इस काम में साथ रहे जिनमें यहाँ के शिबदत्तजी थे, सतुकिया था, खूब लोकल सपोर्ट मिला उन्हें और एक अंग्रेज महिला कु. इवा ब्राउन का भी साथ मिला. यहाँ यह चालाकी भी छुपी थी कि पिथौरागढ़ को मिशन का हेड क्वाटर बनाने से आगे तिब्बत और नैपाल में घुसने के रास्ते भी खुलते थे. फिर 1884 में अमेरिका से कु. मेरी रीड भी पिथौरागढ़ पहुँच गयीं. वो बहुत ही भावुक लेडी थी. पिथौरागढ़ में कोढ़ के रोगियों की बिगड़ी हालत देख कर उनकी असह्य पीड़ा का भोगना देख उसने ठान ली कि वह जीवन भर इनकी सेवा करेगी”.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
अपना हाथ उठा ऊपर की एक पहाड़ी की ओर इशारा कर वह बोले, “वो देखो, यहाँ उत्तर की ओर चंडाक की पहाड़ी है यहाँ एस.एस.डी.एस कुष्ठालय की स्थापना पहले ही कर दी गयी थी. फिर 1887 में इन्हीं कोढ़ के रोगियों की सेवा करते यहीं मिस्टर एम.बी. कर्क की जीवन लीला भी समाप्त हो गयी थी तो उनकी स्मृति में यहाँ एक चर्च की स्थापना की गयी.
ये तो हुई उत्तर दिशा की बात अब दूसरे पल्ले दक्षिण की ओर ऐंचोली हुआ. इधर पूरब में बिण ठहरा और पश्चिम में पौंण. छह नौले हुए सोर में. सोर का मतलब ही सरोवर हुआ. अब पहले ये जो घाटी है इसमें सात सरोवर हुए फिर इन सरोवरों का पानी तो सूखता चला गया और ऐसी पठारी जमीन उभर गयी. यही सोर घाटी है इसकी लम्बाई आठ किलोमीटर और चौड़ाई पांच किलोमीटर है. अब ये भी कहा जाता है कि इस पठारी जमीन के कारण ही इस सोर को पिथोड़ागढ़ कहा गया. पर असल में ये राय पिथौड़ा की राजधानी रही जिनको राजा पृथ्वी शाह के नाम से जाना जाता है. उन्हीं के नाम से इसका नामकरण हुआ. अप्रैल 1960 को अल्मोड़ा जिले से हटा कर इसकी चार तहसील पिथौरागढ़, डीडीहाट, धारचूला और मुनस्यारी को मिला ये जिला बना तो 13 मई 1972 को इसमें अल्मोड़े की चम्पावत तहसील भी मिला दी गयी.
कॉलेज से निकलते ही उन्होंने फिर पूरब की ओर की पहाड़ी दिखाई और बताया कि जी.आई.सी. से होते फिर नीचे उतर छोटा सा मंदिर है. गाड़ है फिर ऊपर की ओर जाते पानी का एक धारा है. खूब पानी है उसमें. गर्मियों में ठंडा और जाड़ों में गुन-गुना. यहीं से पगडंडी इस पहाड़ी से ऊपर टॉप तक जाती है वहां अब खम्पा लोग बुद्ध का मंदिर बनाने की सोच रहे हैं. उस शिखर से नीचे तलाऊं में हमारा गांव है बिशाड़. तुमको ले चलूँगा वहां. पानी भी है खेत भी, फल फूल भी. बिषाड़ में बिल्वेश्वर महादेव का मंदिर हुआ. बहुत प्राचीन मूर्तियां हैं वहां, नौ सौ साल तक पुरानी. मंदिर में शेषशायी विष्णु का पट्ट है अब ध्वस्त हो गया है, काला भी पड़ गया है. उसमें ब्रह्मा, विष्णु ,लक्ष्मी ,विद्याधर गण सब धुंधले पड़ गए हैं. पुरातत्व की बहुत सामग्री है वहां.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
अब ये रस्ता नीचे जी.आई.सी को जाता है. हमारे प्राचार्य का आवास भी यहीं खेल के मैदान के पल्ले है. ये 1928 में किंग जॉर्ज कोरोनेशन हाई स्कूल कहा जाता था जिसको बनाने वाले ठेकेदार अल्मोड़ा की एल.आर. साह फर्म थी. जब ये सरकारी इंटर कॉलेज बना तो पहले ठाकुर दान सिंह मालदार के भवन में चला. इंटर कॉलेज खुलवाने में यहाँ के श्री कृष्णानंद उप्रेती ने बड़ा योगदान दिया. यहाँ के पहले प्रधानाध्यापक श्री चंचलाबल्लभ पंत थे. वैसे इस जगह का नाम घुड़साल हुआ. ये जो घुड़साल है उसके उत्तर-पश्चिम में उदयपुर और ऊंचाकोट की पहाड़ियां हुईं. उदयपुर के निचले हिस्से में गुरु गोरखनाथ की अलख भी हुई. इसका एक मंदिर ऊपर पपदेव गांव में है. इस उदयपुर और ऊंचाकोट में पांच सौ साल पहले बम राजा रहते थे जो फिर बमन धौं में चले गए.
ये यहाँ का पोस्ट ऑफिस है. इधर ही आगे ये देखो, चंद कुटी है. यहां हमारे ही स्टॉफ के लोग रहते हैं. सोशियोलॉजी वाले डॉ के. बी. सिंह हैं, बगल में फिजिक्स वाले आर. सी. पांडे हुए. और भी दो लोग हुए. इनके आगे खम्पाओं के घर हुए तो गांधी चौक से नीचे इनकी दुकानें हैं. जम्बू, गंधरेणी, सेकुआ, तिब्बती मूंगा और भी कितनी ही चीजें, जड़ी-बूटी भी, डोलू भी, सालमपंजा-सालम मिश्री, पूरा खजाना हुआ. बासठ के बाद तिब्बत व्यापार तो ठप ही हो गया. समझो एक परंपरा ही सिमट गई. वो डॉ. जगदीश चंद्र पंत हैं, इकोनॉमिक्स वाले. यहीं गंगोलीहाट के हुए उन्होंने काम किया है भारत-तिब्बत व्यापार पर. अभी गोपेश्वर कॉलेज में हैं. यहां आने की कोशिश कर रहे हैं. तुम भी यहां के आर्थिक इतिहास की ओर ध्यान लगाओ, अभी तो एटकिंसन और शेरिंग के ही लिखे को जानते हैं लोग. मैं बताऊंगा तुम्हें बहुत कुछ.
चलते-चलते डॉ भट्ट रुक गए. बड़े गौर से वह कुछ पल मुझे देखते रहे. उनकी आँखों में कुछ विशेष चमक सी दिखी मुझे. हल्के से मुस्काते उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा और फिर वह आगे चले. दाईं ओर की पहाड़ी की ओर इशारा कर मुझे बताया कि यहां बजेटी गाँव है. हमारे कॉलेज के मैदान में हिरन, चीतल और हिलजात्रा कराने में सबसे आगे रहते हैं बजेटी वाले. पहले पहल कॉलेज भी यहीं के कमरों पर चला. खूब हरा-भरा है पूरा इलाका. ऊपर वो सब पौण पपदेव सुनार लोगों का गांव है बर्मा लोगों की राठ हुई.
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सड़क पर चलते कई लोगों से भट्ट जी की बातें भी हो रही थीं. सबकी कुशल बात. विस्तार से. मेरे बारे में भी सबको बताते जा रहे थे. सड़क के अगल-बगल के हर घर, हर परिवार की उन्हें जानकारी. ये अंग्रेजी वाले भट्ट जी का मकान वो ऊपर तुम्हारे विभाग के बिपिन उप्रेती का. वो बाहर उसके बाबू लगे हैं क्यारी में. ये लोग बर्मा से आये. यहीं नेताजी के साथ रहे पंत जी भी रहते हैं आज़ाद हिन्द फौज वाले. और ये देखो इस मोड़ पर ये सड़क से ऊपर दुमंजिला मकान. इस इलाके का सबसे बड़ा घर हुआ ये सौजू लोगों का. पहले तो ये पूरी जी.आई.सी रोड शाम होते ही वीरान हो जाती थी. घुड़साल कहते थे इस इलाके को. लोग आने में झसकते थे. सियार बोलने वाले हुए रात-भर. रोते तो अभी भी हैं पर अब काफी कम हो गये हैं. अब दुकान मकान बनने लगे हैं यहां. कुत्ते भी खूब हो रहे हैं. ये अब हम पांडे गांव आ गये हैं. ये जो मोड़ से पहले का रस्ता है ऊपर की ओर जाता वो बजेटी, पौण पपदेव जाता है. ऊपर के इलाके में कई गुफाएं भी हैं. कहते हैं उनमें यहाँ के पुराने राजाओं की संपत्ति छुपी है. तुमको ले जाऊंगा छुट्टी के दिन. लोग बता रहे थे फोटो खूब खींचते हो. वहां गुफा के भीतर खींचना. कई तो बहुत संकरी भी हैं तुम तो दुबले पतले हो छिरक जाओगे. तब खींचना कैल्शियम रॉक की अनोखी दुनिया.
ये है पांडे गांव का पुल. ऊपर गांव में अच्छा पानी है तो पुल के नीचे गाड़ में पानी बना रहता है. अभी भी घट खूब चलते हैं यहां सोर में. ये किनारे शिव जी का मंदिर बना है पुराना. माई रहती है. जोगी भी आते-जाते रहते है. मंदिर के पल्ले जहां से वो पगडंडी शुरू हो रही, वहां धारा है. खूब पानी है उसमें. इधर रोड में अब दुकान खुलती जा रही. आओ अब दाईं तरफ इन सीढ़ियों से चढ़ जाते हैं आगे पांडे गांव होते हम टकाना सड़क में पहुँच जायेंगे. बीच में पदिया धारा भी दिखाऊंगा तुमको. कई लोग तो पीने का पानी यहीं से भरते हैं. भीड़ रहती है सुबे शाम. अब जानवरों के लिए भी पानी चाहिए बहुत.
भट्ट जी का घर देखा रामाश्रय. नीचे का पूरा कमरा भरा पड़ा था किताबों से, पत्र पत्रिकाओं से. पांच मिनट में ही उत्साह से भरे भट्ट जी ने कहीं ताम्र पत्र दिखाए तो कहीं पुराने ग्रन्थ. भांति-भांति के बर्तन, भांड, हथियार सब कुछ इतनी जल्दी कि पूरी सोर घाटी का इतिवृत कुछ पलों के लिए इस अनोखे संग्रहालय में फ्रीज हो गया.
शाम होते दीप के साथ शहर की घुमक्कड़ी जारी रही. जैसे ही स्टेशन तक पहुंचे अचानक ही तेज बारिश के तहाड़े पड़े. जल्दी-जल्दी दीप मुझे खींचता उस बड़ी सी दुकान में ले आया जिसमें बोर्ड टंगा था, ठाकुर मिलाप सिंह अधिकारी, वस्त्र विक्रेता.
दीप ने सामने बैठे युवा से मेरा परिचय करा बताया कि ये हैं गजेंद्र भाई. ठीक जैसे नैनीताल में जहूर आलम की इंतखाब का मिलन केंद्र है वैसी ही संगीत प्रेमियों की रौनक यहाँ बनी रहती है. इनसे छोटा भाई है ललित. आल राउंडर है वो भी. पढाई, खेल और होली गायन में लाजवाब. हमारे केमिस्ट्री वाले के. बी. कर्नाटक जी की भी यही मंडली है. नैनीताल वाले तबला उस्ताद साह जी भी. इस बीच चाय भी आ गयी थी और मैं सोच रहा था कि अभी तक जो नाटक किये हैं उनमें संगीत बहुत ही कमजोर रहा. हालाँकि दीप ने बताया था कि कॉलेज में संगीत विभाग में हेमा जोशी हैं, गजब की गायिका और साथ में नैनीताल डी.एस.बी. वाले आत्मा राम जी. इन दोनों में पटती तो बिलकुल नहीं पर जहां संगत की बात हो वहां सुर ताल सम पैर आ जाते हैं.
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जरा अपने पुलिस वाले पांडे जी से मिलना है. ईजा ने उनसे न जाने क्या-क्या माल-ताल और बरम का घी मंगाया था. अभी चौकी में ही मिल जायेंगे. फिर आते हैं हम दोनों. ठाकुर मिलाप सिंह की दुकान से निकल स्टेशन से दाएं ऊपर की ओर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे हम. यहाँ से स्टेशन की पूरी चहल-पहल दिखाई दे रही थी. अभी देखते ही देखते दो तीन सवारी बस आ गईं थीं. मेट उनके रुकने से पहले ही अपनी रस्सी छत पर डाल दे रहे थे. के.एम.ओ.यू. की बसें भी थी जो नीचे सिनेमा लाइन जाने वाली सड़क वाले कोने पर थीं. सड़क के किनारे कितनी सारी चीजें बिक रही थी. तली मछली और अंडे पकोड़े की मिली-जुली हीक यहाँ तक पहुँच रही थी. सीढ़ी के ही ठीक नीचे बड़ी-बड़ी मूंगफली लकड़ी के ऊपर जांती में टिकी एक बड़े से कड़ाहे में भुन रही थी और पार्श्वध्वनि रह रह उभर रही थी, “लुआघाट की मूम्फ़ली, पहाड़ वाली मूम्फ़ली, गरमा गरम”.
‘ये बिष्ट जी हैं ‘ दीप ने कहा तो मेरी नजर मुस्कुराते से उस साँवले सर में छपाछप तेल डाल कंघी किये बालों पर टिकी जिनमें कंघी की लाइनें साफ दिख रही थीं. बिष्ट जी ने फौरन अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा खूब गरमजोशी से मिलाया और बोले,’ये अपना इंस्टिट्यूट है अकेला. शार्ट हैंड टाइप सिखाता हूँ. अंग्रेजी बलाने का भी जोर हो रहा है, मुझे तो आती नहीं सो भाटकोट के दो अंग्रेजी में एम.ए. कर रहे लड़के सुबे आ दो क्लासों में गिट पिटा जाते हैं. जा चाय ला, वो गुप्ता समोसे के याँ से ओ सुन्दर. गरम समोसे भी ला’. न, न चाय अभी नहीं, गजेंद्र की दुकान में पी के आये हैं अभी. आराम से पिएंगे. दीप ने कहा और ऊपर की ओर जाती पगडंडी की ओर कदम बढ़ा दिए. भारत टाइप एंड शार्ट हैंड इंस्टिट्यूट. सरकार से मान्यता प्राप्त. मैं तब तक उस बोर्ड को पढ़ चुका था जिसके नीचे बड़े से चार्ट में लिखा था यहां अंग्रेजी बोलना भी सिखाते हैं लिमिटेड सीट. इंस्टिट्यूट के भीतर काफी गहराई तक पीले पड़े बल्ब जले थे और टाइप की खटपट सुनाई दे रही थी. आइयेगा जरूर हाँ, बिष्ट जी हाथ हिला रहे थे.
भला आदमी है बिष्ट. खूब सेवा सत्कार वाला. कई ऑफिस के टाइपिस्ट भी इसी के चेले हैं. ऑफिसों का काम भी पकड़ रखा है. कइयों की पढ़ाई की फीस भी दे देता है तो कितनों को ऐसे ही सिखा भी देता है. बड़े अरमान थे इसके फौज में भर्ती होने के, पर हाईट छोटी पड़ गई. कहता है हम तो टू-टू बटालियन के भी लायक न रहे. वो तिब्बती किशोरों की बटालियन है टू-टू यहीं धारचूला से आगे छिरकिला में. आगे तिब्बत की हर बारीकी जानते हैं वो. तू जरा नीचे देख के चलना हाँ. गोठ से आया सब गोंत-गोबर-कच्यार बहता रहता है यहाँ. अब सब जगह मकान बनाने लगे हैं लोग. प्लानिंग है नहीं. गड्ढे वाली लेट्रिन पिट हैं हर घर के आगे पीछे. बरसात में वो भी लबालब बहने लगतीं हैं. कई तो घनघोर बारिश के बीच उन्हें भी खाली करवा देते हैं अपने खेतों में.
मुझे नैनीताल का रूसी गांव याद आया जहां शहर का सारा हगा-मुता बड़े-बड़े पाइपों से जैविकीय उपक्रम से संचित हो रूसी गांव और खासे बड़े इलाके में खूब साग सब्जी पैदा करवा देता था. ऐसी बंद गोभियाँ जिसकी टक्कर बस शिवालय से सटे कृष्णापुर में जापानियों की नई तकनीक से उगी सब्जी ही देती थी. उत्तराखंड सेवा निधि ने शुरुवात कराई थी साग-सब्जी उगाने की नई जापानी तकनीक की, तो इसका वैकल्पिक तोड़ शहर भर के हगे-मुते को पाइपों के जरिये नीचे गांव तक पहुंचा देने के ब्रितानी उपक्रम पहले ही किये जा चुके थे. अब इस रूसी वाली हरी सब्जी खाने से कई लोग छी-छी,थू-थू कर परहेज भी करते थे और वो पंगूट और सूखाताल के इलाके वाली सब्जी लेते थे जो सुबह सबेरे मल्ली ताल रामलीला मैदान की आड़त तक पहुँच जाती थी.
स्टेशन से ऊपर इस कच्ची कुछ खड़ंजे पड़जे और कुछ चिकनी पीली मिट्टी वाली पगडंडी में बारिश के बाद बहते गोबर और कहीं न कहीं किसी पिट के बहने से नाक कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गई लग रही थी. कई किसम की गंध दुर्गन्ध थी. उस पर पगडंडी जैसे इस बाटे का ढाल कई जगह बड़ा तीखा था और तो और नीचे के छोटे-छोटे दरबे जैसे कमरों की खुली खिड़कियों से भीतर की गतिविधि भी दिखाई दे रहीं थीं. जोर की छ्याँ और सरसों के तेल में लाई और जलती लाल खुस्याणी की खरखराती खुश्बू. दूध की बाल्टी को आंचल से ढक लाती महिला. बछड़े के आगे घास का पूला डालती वो किशोरी. धूप की महक के साथ ढोलक और मजिरे की ध्वनि और कई स्वरों की जुगल बंदी में ओम जै जगदीश हरे. आरती के ऐसे स्वर अल्मोड़ा में बहुत बांधते थे. उनमें अक्सर हारमोनियम भी होती और ढोलक बिल्कुल ऐसी कसी कि हर थाप साफ लहर दे. पर अभी तो ढोलक को बस भटभटा देने की आवाज आ रही थी.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
अब एक सिमटा हुआ सा पगडंडियों का चौबाटा आया. कदम आगे बढ़ने से पहले रुक गये नीचे राई, उड़द-मिर्ची सुलगते कोयले का ताजा टोटका पड़ा था. उस पर पाँव न पड़े इस सावधानी से सब आगे बढ़ जा रहे थे. आगे फिर सीढियाँ थीं और दाईं तरफ मंदिर का प्रवेश द्वार जिस के बीच में बड़ी घंटी बँधी थी. दीप ने एक टुन्न की और हम आगे बढ़ गये. रस्ते के ही नीचे बने मकानों की करीब-करीब हर छत पर घास पुआल के ढेर थे.
“अब आगे वो थाना है, बस फिर सड़क आ जाती है”. कह दीप अचानक रुका और बोला,” अपने पांडे जी हैं यहाँ इंचार्ज, बड़े प्रेमी. पुलिस वाले जोगी. इतने मोहिले हो कर पूछताछ करते हैं कि चोर उचक्के भी लमलेट हो जाते हैं. जब भी जरा फुर्सत हो तो पढ़ते या गपियाते दिखते हैं. डायरी भी लिखते हैं. लोगों से मिलते-जुलते रहते हैं.अल्मोड़ा पिथौरागढ़ क्या चमोली उत्तरकाशी के भी इंसाइक्लोपीडिया है. वो देखो, कुर्सी में बैठे हैं जो सबसे घिरे हुए. ऐसा खबरी संपर्क है इनका कि इनके बड़े अफसर बस इनसे ही पूछ कराते हैं.
हम सामने पंहुचे और सामने जिसे पकड़ लाया गया था उस मरगिल्ले से हो रही पांडे जी की बातचीत बंद हो गई. बस एक भारी सी आवाज आई,”रात भर तो यहीं रखना पड़ेगा इसे. गांव वालों ने चूटा भी खूब है. वो दर्द की गोली दे देना रे इन्दर इसे. ये भुतनी वाला भी मालू का बिरादर होगा, अपनी राजुला को चाने गाय के गोठ में घुस गया. वहां दूध दुह रही थी माशूका की माई. उसने जो फतोड़ा उसकी गुमचोट तो डोलू जड़ी घिस के लगाने से भी नहीं जाएगी. फचका-फचका के रई गांव से ले आये यहाँ. अब क्या बताऊँ पण जू साले की माशूका अभी दर्जा सात में पढ़ती है. अंडर ऐज हुई. अब उसके स्वैण देख यहीं नींद भी गाड़ेगा. मच्छर भौत हैं. हवलात की कोठड़ी हुई. तू क्या इंतज़ाम करेगा रे इन्दर’?
सामने मुस्तैद खड़े जवान सिपाही ने फ़ौरन कहा, “हंतरे में गोबर का कंडा सुलगा दूंगा शाब. इसकी पूरी रात कट जाएगी”.
ठीक हो गया फिर कहते पुलिस वाले पांडे जी की नजर फिर हमारी ओर घूम गई. “आओ हो प्रोफ़ेसर साब. खड़े क्यों हो. भैटो. यहाँ के रोज के किस्से हुए. अब लव-सव की भी रपट दर्ज होने लगीं हैं. हाँ, मैं तो आपको याद ही कर रहा था. वो ईजा ने बरम से घी मंगाया था. गया था न उधर जौलजीबी एक केस में. सो ले आया. वो रखा है. पूरा चार सेर है. ये कौन है आज साथ में? पहली बार देखा है आपके साथ”.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
कुर्सी से उठते पांडे जी दीप से हो रही बात के साथ ही वह अपने मातहतों से बोलने लगे, “मैं जरा चल फिर के आता हूँ भक्तो. आठ बजे आऊंगा. तभी साब भी आने हैं. भीतर मुंशी जी से सारे कागज रेडी रखवा देना हाँ. और किशन तू भुला नीचे कमरे में जा खिचड़ी बना देना हां. मास की, मूंग-मसूर मत डाल देना, इधर नातक हो रहा. दो आलू भी डालना. चावल वो तिलक वाले डालना. साथ खाएंगे फिर बरम वाले घी के साथ.”
हमारे साथ चलते पांडे जी थाने के गेट से बाहर आ गये. इस बीच परिचय भी हुआ और बड़ी देर तक वह मेरा हाथ पकड़े चलते रहे. मैं बरम के उस घी के बारे मैं अपनी उत्कँठा पूछ ही बैठा जो गणेश मार्का तेल के लाल पेंट वाले चार सेर के टीन में रखा था और अब दीप के हाथ में था.
बरम पड़ती है जगह उधर जौलजीबी साइड. वहां खूब गाय भैंस पालते हैं. ऐसी कोई घास होती होगी जिसे खा दूध दन्याली की बहार दिखती है इलाके में और उससे निकला घी आप देखोगे तो काला सा चिताई देगा पर जहां गरम हो रोटी पर लगा या दाल में पड़ा तो खाते ही जाओगे. वैसे भी आप दोनों को घी खाने की जरुरत है. ऐसे दाढ़ी बढ़ा थोड़ी सेहत बनती है. क्यों पांडे जी आपने किस गम में बढ़ा ली दाढ़ी. पणजू तो नैनीताल ही हार आये दिल इसलिए वैरागी बन गये”.
“अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं”
“पांडे जी सब बातों में भेद ले लेते हैं. खिंचाई भी खूब लगाते हैं मजाक-मजाक में. और हां, ये फोटो खींचने का बढ़ा शौक़ीन है”. दीप बोला और हमारे पांडे जी खिंचाने के. फिर वो फोटो सब अपने गांव पिलखा अल्मोड़ा भेजते हैं तुरंत अपनी मीम साब को”.
“ये लो अब देखो कैसी नहले पे दहली लगाते हो हो तुम पणज्यू. अब प्रोफेसर साब जब फोटोग्राफी के शौक़ीन हो तो हर बखत कैमरा लटका होना चाहिए हथियार की तरह. यह कह उन्होंने अपना दायां हाथ बायीं तरफ कमर में छुवा भी दिया. अब देखो कैमरा होता तो वो नीचे पूरा पुरानी बाजार, स्टेशन से वो हनुमान मंदिर तक खींच लेते. कित्ती बढ़िया फोटो आती. एक दो मेरी भी खींचते.”
कैमरा हर समय साथ हो. मुझे याद आ गये नैनीताल लच्छी लाल साह जी के बगल में बी दास एंड ब्रदर्स की दुकान जहां करीने से सजी अंग्रेजी लिकर बाकायदा भूरे लिफाफे में रख कस्टमर के हाथ में रखी जाती थी और सामने टेबल पर कैमरा भी रखा होता जो छोटे से कद वाले सौ जू का होता और दुकान से निकलते ही उनके कंधे पर लटक जाता. उनका नाम तो में भूल गया. वो महेश दा के दोस्त थे और कई ऑब्जरवेटरी वालों के भी. कई शनिवार की शाम से इतवार भर महेश दा के यहां दोस्तों का कई प्रकार का सत्संग होता तो उसमें भी शौ जू की फ़्लैश खूब चमकती वो बड़े से बल्ब वाली. हनुमान गढ़ से होने वाले सूर्यास्त की एक फोटो उन्होंने मेरी भी खींची थी. मेरा पोज था कि मैं बस ढलते सूरज को देखूं और हिलूँ नहीं. वो मेरी साइड पोज के साथ सूरज का गोला फोकस कर चुके थे. इतनी देर बैठा दिया कि मेरी गर्दन में दर्द हो गया था.
ऑब्जरवेटरी में एस्ट्रोनोमर पुनेठा जी भी थे डॉ ललित मोहन पुनेठा. बड़े घुमक्कड़ और पियक्कड़ भी, पहली पायदान के. देशी विदेशी नेम ब्रांड की कोई परवाह नहीं करते थे. एक आध पेग के बाद वो पूरा खुल जाते थे और फिर शौजू को खिजाते, “तो फिर अपनी शादी में भी, फेरों में भी ये कैमरा लटकाये घूमते रहे. हनीमून में भी था न. अरे यार बताओ क्या खींचा.अरे हमें सब मालूम है. यार को ऐसी सजा मिली कि हमारी ब्वारी ने कैमरा ही लुका दिया.घर के अंदर बैन है उनके कैमरे. सवाणी ने डिक्लेयर कर दिया कि इस सौत से घर से बाहर ही लिपटें.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
पांडे जी का प्रवचन जारी था. दीप ने मुझे बताया था कि पहाड़ के हर रंग की पछान है उन्हें. जो पसंद आ गया उससे खूब निभती है. खूब बात करते हैं. हर छोटे बड़े के साथ उठना बैठना है. गिरफ्त में आये चोर उचक्के भी उनकी बातों में ऐसे मुनी जाते हैं कि सारे भेद खोल देते हैं. उनका खबरी नेटवर्क भी गजब का. अभी कुछ महिने पहले जाड़े के मौसम में जोहार के इलाके से पोचिंग वाले शिकारियों की सुरागकसी कर दी. वो मदकोट से आगे रिगू गाँव पड़ता है वहां से आगे भालू के गू की निशान देही से बढ़ते गए एक उडयार तक. वहीं पकड़े गये शिकारी.
पुलिस थाने से निकल अब आगे पक्की सड़क पर चलते पांडे जी की भारी गूंजती आवाज फिर सुनाई देने लगी- “नए हुए यहाँ के लिए तो बता दूँ आपको कि ये अब हम नगरपालिका की तरफ जा रहे हैं. यहाँ से देखिये आप, वो नीचे पुराणी बाजार साफ़ दिखाई दे रही है. अब सौ सवा सौ साल पहले तो यहाँ गिने-चुने मकान थे. उस ज़माने में जो खास दुकानदार हुए उनमें परचून और कपड़े की दुकान हुई ठुलघरिया जी की. वो कपड़ा भी बेचते थे और परचून का सामान भी. उनका पूरा नाम भौन दास साह ठुलघरिया हुआ. दयाराम खर्कवाल और जय भान माहरा भी हुए कपड़े लत्ते के दुकानदार. दो तीन परिवार खत्री लोगों के भी बस गए थे जो आम जरुरत के सामान के साथ जड़ी-बूटी और दवाई भी बेचते थे. वह जो पुराने शिव मंदिर का हिस्सा यहाँ से दिख रहा है वहां पास में ही राम किशन साह कुमैंया की खोये की मिठाई की दुकान थी. ये सब पुरानी बातों का पिटारा आप डॉ रामसिंह जी से जानना. आपके कॉलेज में हैं. खादीधारी बड़े खरे. बस देबी देबता वाली बात नहीं मानते. टीका पिठ्या भी नहीं लगाते. उनके साथ बहुत घूमा हूँ मैं. गांव-गांव जा यहां के इतिहास, रीति-रिवाज की पड़ताल करते हैं. हुए तो हिंदी के पर ज्यादा काम पहाड़ की थात पर है. इतिहास पै है. उनसे मिलिएगा आप जरूर. कॉलेज मैं ही हुए.”
हां उनके कई लेख पढ़े हैं मैंने, दिनमान में, धर्मयुग में. ब्रिटिश काल के पहाड़ के बारे में उनसे समझना है. “उस पर तो डॉ श्याम लाल से मिलना, वो लगे पड़े हैं इस पर.” दीप ने बताया.
“अब ये नगर पालिका वाली सड़क हुई. आगे सिमलगैर आएगा जहां पहले जंगल था. लोग बाग हगने-मूतने जाते थे वहां. फिर बसने लगी नई किसम की दुकानों से. अब चलो हो दीप बाबू. अपने भवानदा की दुकान आ गई. चलो चाय पी जाये. अपना हाथ में पकड़ा ये घी का डब्बा भी यहीं रख देना. घूमने में कहाँ-कहाँ बोकोगे. डेरे पे जाते उठा लेना”.
सड़क के किनारे की चाय की दुकान एक विशाल पेड़ के नीचे पसरी थी. वहां से नगरपालिका दिखाई दे रही थी. तो उसके बगल से ऊपर की ओर जाती सीढ़ियां जो राम लीला मैदान की तरफ गईं थीं दुकान में भीतर भी काफी जगह थी मेज कुर्सी सब लगीं थीं. बाहर सड़क की तरफ लकड़ी की बेंच लगीं थीं. अच्छी खासी चहल पहल थी. नीचे रोडवेज स्टेशन दिख रहा था.
पांडे जी के पीछे-पीछे हम दोनों दुकान के भीतर खिड़की के पास लगी कुर्सियों में बैठ गये. जहां पर मैं बैठा था वहां से नीचे को सिल-सिले से बने मकान नीचे तक पसरे दिख रहे थे. पांडे जी ने पनामा सिगरेट की डिब्बी निकाली और उसके कोने में दो उंगलियां ठोक दो सिगरेट निकाली, एक दीप के हवाले हुई और दूसरी खुद लगी. फिर तेजी से उठ वह चूल्हे की तरफ बढ़े और एक जलती लकड़ी से बड़े इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई. इस बीच दीप ने बताया कि ये दुकान भवान दा की है. फौज से पेंसन वाले हैं. यहीं रई में मकान है. कनालीछीना के धामी हुए. कई पुश्त पहले यहाँ पिथौरागढ़ आ बसे. यहां के बड़े पुराने किस्से सुनाते हैं. बस जरा छेड़ दो.
पांडे जी के पीछे-पीछे स्टील की थाली में रखे बड़े गिलासों में चाय लिए भवान सिंह हाजिर थे. “ये देखो सूबेदार साब, ये भी आ गये पिथौरागढ़. ये इकोनॉमिक्स वाले हुए. अब इनको भी यहाँ के पुराने हाल-चाल सुनाओ. इनका मन भी ऐसी ही क्वीड़ों में खूब लगता है”. दीप मुस्काया.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
अधेड़ से भरपूर बदन वाले, मिलिट्री वाली जैकेट पहने और सर में टोप लगाए भवान दा मेरे आगे थे. बड़े इत्मीनान से उन्होंने चाय का गिलास उठा मेरे सामने की मेज पर रखा और दीप की तरफ देख बोले, “अकेले ही थे ये दाढ़ी वाले, अब आपकी संगत हो गई. लो हो, कहाँ गये कप्तान साब”. पांडे जी सामने दो तीन लोगों से घिरे कुछ बतिया रहे थे.
“वो नीचे जो आप देख रहे हो वो स्टेशन हुआ. यहां सोर में 1952 से मोटर आनी शुरू हो गई थी. मैं दर्जा छे में था तब. मिसन स्कूल में. चार बजे स्कूल से छुट्टी हुई तो सीधे रेस लगायी भटकोट से शिब मंदिर की. पहले आ कर मोटर देखने की बड़ी हौस थी पर हमारे प्रिंसिपल थे न ग्रीन वर्ड साब. बड़े कड़क थे, रौब दाब वाले. हमेशा टाई सूट में रहते. जरा खचबच की लौंडे-मौडों ने तो ऐसे बेंत पड़ते कि रातभर टिटाट पड़ा रहता. छोटी बेणी हुई भटकोट के स्कूल में. वहां मिस फ्रांसिस हुई बड़ी मास्टरनी. मैं तो दर्जा आठ ही कर पाया कि भरती में नंबर आ गया. तब जा के जो रेल देखी आगे दुनिया देखी. आप चाय सुड़काओ न. ठंडी चाय क्या पीनी.” मैं बड़ी देर से चाय का गिलास देख रहा था जिस पर काफी मोटी मलाई पड़ी थी. ये शायद पुलिस वाले पांडे जी के साथ आने की सौगात रही हो. बड़े संकोच से चाय का एक घूंट भरा तो लगा रस मलाई पी रहा हूँ. थोक में चीनी घुली थी उसमें. और बातों में भी, जो जारी थीं.
हमारे ठुल बौजू बताने वाले हुए प्रोफेसर साब कि पुरानी बजार तो पहले नाम मात्र ही हुई. पांच सात हुए किराना कपड़े वाले एक जलेबी मिठाई वाले. बिल्कुल शुद्ध घी का माल हुआ तब. चाशनी भी मौ की हुई. ले दे के एक नाई हुआ. चार-पांच सुनार. पटवे और मुसलिए गांव-गांव फेरी लगा सामान बेचते थे. चूड़ी, चर्यो, बिंदी, चुटीला आरसी के साथ तमाम अटरम बटरम. हैसियत वाले अफगान स्नो की डिब्बी भी लेते थे और भीमसेनी काजल भी. हमारे घर तो दिए से एकबटयाये काजल से ही सिंगार हो जाने वाला हुआ. नानतिनों की आंख पै, माथे पै तो हुआ ही गलड़ों में और जहां मन आई मोख में, नाख में नजर का बट्टू लगा देती ईजा आमा. एक से धौ कहाँ हुई, चार-पांच तो लग ही जाने वाले ठहरे. अब कहाँ कहाँ फेरी लगा आने-वाले ठहरे ये मुसलिए. क्या जाने कौन कैसे घूर दे नान तीनों को. झस्का दे. वैसे तो ज्यादातर से पछान हो जाने वाली हुई. तब सामान भले ही वह गुड़ चना हो या कटकी मिश्री का मोल डबल में, पैसे में नहीं होने वाला हुआ. इनके बदले सब मौ उन्हें अनाज देते थे. साल भर के लायक का अन्न अपनी खेती पाती से हो जाता था. बजार से मोल नहीं लेना पड़ता था तब. ठुल बौज्यू तो कहते थे कि बजार में अनाज की दुकान ही नहीं थी. और बर्तन भांडो की भी नहीं. लकड़ी के बर्तन बिंडा, ठेकी, ठेक्के, पाल्ले, द्वाबा वगैरह सब यहाँ के वनरौत बनाते थे. ठीक मुंह के सामने नहीं आते थे वो, रात को घर की देली में रख जाते थे. पत्थर के कटोरे भी होते थे जिनमें खटाई रखी जाती. ठाकुर जिमदार बामण दीवान सौजू लोग तौले-कसेरे कुन, तौली-भड्डू वल्ला-पल्ला सभी वाले हुए.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
कपड़ा लत्ता बुन्ने का काम भी हुआ उस बखत. कोली और लाबड़ बुनते थे कपड़ा. खूब मजबूत होता था बल जो पहन लिया जब तक घिस न गया तब तक पैरे रखा. ठुलबोज्यू बताते कि स्कूल अस्पताल कुछ नहीं हुआ. बस जड़ी-बूटी के जानकार और बैद हुए गों पन. शाम पड़ते ही छिलूके जला इधर से उधर जाना होता. ठाकुर जी के आगे दिया जलता. ये घासलेट, मट्टी तेल, लम्पू, लालटेन तो बाद में आये.
सारा मालपानी टनकपुर से लदता था. हैसियत वाले लोग अपने घोड़ों में माल लदवा ले आते थे. जब पहली जंग छिड़ी दुनिया में यही उन्नीस सौ पंद्रा सोला में, तब के टेम से तो बंजारे व्यापारी माल ले कर सोर कि तरफ आने लगे. फिर काली कुमाऊं वालों के घोड़ों से भी माल की आवक हुई. इस टाइम तक खुले आम दारू-सारु पीने-खाने का भी चलन न था. कोई खुले आम पीता हुआ मिल गया तो उसका हुक्का-पानी बंद समझो. न्याय कानून भी मनमर्जी के होते थे. छोटे-मोटे फैसले पेशकार निबटाता था इसके नीचे हर पट्टी में पटवारी होते थे. इनकी खूब चलती थी तो हर इलाके में मुखिया पधान हुए. एक इलाके का मुखिया दूसरे के इलाके के मामले में हाथ नहीं डालता था.
खूब मीठी चाय पी जा चुकी थी. अब संध्या हो गई जरा धूप दीप जला लूँ हो कह भवान सिंह जी अपनी दुकान के काउंटर की ओर चल पड़े. दीप ने बताया कि शाम होने के बाद अब मंगलवार को छोड़ भवान दा भड्डू घोटने में लग जाते हैं. तीन चूल्हे हैं उनमें भड्डू चढ़ते है वो भी खस्सी का. भीड़ भी खूब रहती है बनता एक दम पहाड़ी स्टाइल है. ठीक नौ बजे दुकान बंद कर भवान दा चल देते हैं रई के पुल के पार, अपने घर.
हम भी भवान दा के खोमचे से बाहर निकाल आये. पांडे जी की कई लोगों से बात-चीत चल रही थी. उनके पास पहुंचे बाकी लोग सरकते रहे अब सिर्फ एक सज्जन उनके साथ रुके थे जिनके हाथ में काफी सारी पत्र पत्रिकाऐं थी. औसत कद. बड़ी-बड़ी आंखें. आँखों में दूर और पास का भारी फ्रेम का चश्मा. दीप ने उन्हें देख हाथ जोड़े. उन्होंने गर्दन तक सर झुकाया. हाथ पत्रिकाऐं थामे थे.
वो पांगती जी थे. पिथौरागढ़ की सरकारी लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन. अब पांडे जी ने बताया कि बड़ी मेहनत से इन्होने लाइब्रेरी ऐसी बना दी है कि वहां लोगों की खूब आवत-जावत रहती है. स्टूडेंट्स भी आते रहते हैं. आप किसी नई किताब की बात करो पांगती जी जब तक उसे मंगा न लें तब तक चैन न लेंगे. खुद भी खूब पढ़ते हैं.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
अब पांगती जी भी हमारे साथ चलने लगे. छह बजे लाइब्रेरी बंद कर वह भी टहलने के मूड में थे. नगरपालिका की सीढियाँ चढ़ अब हम रामलीला मैदान में खड़े थे. सूर्यास्त के बाद नीचे पसरा दूर तक फैला पिथौरागढ, उसकी चोटियां सिलॉट सी लग रहीं थीं. कई बसें स्टेशन की ओर आती दिख रहीं थीं जिनकी लाइट जल गई थी और मोड़ों पर प्रकाश की दो धाराएं आस-पास को गजब का लाइट एंड शेड दे रहीं थीं. पांडे जी ने अपनी पनामा सिगरेट फिर सुलगा ली थी और मेरी नजर में सिमटे दृश्य के कौतूहल को उन्होंने सही पकड़ लिया था. दीप और पांगती जी आपस में बतिया रहे थे. अब पांडे जी की आवाज धीरे-धीरे बढ़ते सामने के फ्रेम व दृश्य से संवाद करने लगी थी. स्टेशन की चहल-पहल. ऊपर चढ़ते, नीचे उतरते लोग.
“वह स्टेशन से नीचे सिनेमा लाइन फैली है. आगे ऐचोली जाने वाले रस्ते से मिल जाती है. अब काफी दुकानें खुलने लगीं हैं सिनेमा लाइन में. लकड़ी का काम लोहे का काम पनप रहा है. सिनेमाहाल की वजह से भी अब रौनक रहती है. अब इसके बायीं तरफ वो जो पहाड़ी है उसमें सड़क से ऊपर हनुमान मंदिर हुआ. यही सड़क ऐंचोली-गुरना होते नीचे घाट को जाती है. वो तो आप देख ही चुके हो. वहीं रामगंगा नदी पर पुल हुआ जिससे नीचे की सड़क टनकपुर और ऊपर की ओर अल्मोड़ा को जाने वाली सड़क है. घाट से पनार के बीच में रामेश्वर हुआ संगम स्थल. बड़ा प्राचीन तीर्थ माना गया. उसी के ऊपर से गंगोलीहाट, बेरीनाग जाने वाली सड़क गयी. रामेश्वर घाट में अंतिम क्रिया भी होने वाली हुई. पिथौरागढ़ शहर को पीने के पानी की लिफ्ट योजना भी इसी रामगंगा नदी से होती है. वैसे धारे और नौले भी बहुत हुए यहाँ. पिथौरागढ़ और रामेश्वर के बीच में एक गांव है हाट वहां अब एक ही नौला रह गया है जिसे रानी का नौला कहते हैं. यहाँ पिथौरागढ़ में जो बम राजाओं वाला सातशिलिंग गांव है वहां भी पुराने नौले के अवशेष मिले हैं जिसमें आसमानी रंग के पत्थर हैं और यह खूब बड़ा भी है. यहाँ मांडलिक राजा हुए जिनके समय के बने मंदिर ,स्तम्भ और नौले अभी भी हैं”.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
पांडे जी की बात पूरी हुई तो पांगती जी ने बात का सिरा पकड़ लिया. “इधर ही कपिलेश्वर की गुफा भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि ये कभी कपिल मुनि का आश्रम थी. यह ऐसा गुफा मंदिर है जिसमें बहुत पहले की निर्मित मूर्तियां और कलाकृतियां हैं. हाट, कासनी, दिंगास, मर्सोली घुंश्यारी और नकुलेश्वर इनमें खास हैं.
अभी वह जो नगरपालिका से नीचे की ओर फैली बाजार है वह सिमलगैर बाजार हुई. इसका नाम सिमल के पेड़ से पड़ा जो पहले यहाँ बहुत होते थे. यहीं ऊपर की ओर फिर अस्पताल बना. 1955 में जहाँ अभी जिला अस्पताल है वहाँ मैला गावं से दस हज़ार रूपये खर्च कर पाइप बिछाकर पानी लाया गया जिसमें शहर के खर्कवाल बंधुओं ने बड़ी भागीदारी की थी.
ये नगरपालिका से आगे इस मैदान के ऊपर किला हुआ. किले का निर्माण बताते हैं कि सन 1840 तक हो गया था. जोहार, दारमा और सोर के लोगों ने इसके बनने में खूब पसीना बहाया. फिर सन 1935 में इस किले में तहसील ले आयी गयी जो पहले बजेटी में थी. इस किले को लंदन फोर्ट कहा जाता था. पहले इसके भीतर पानी का नौला भी था जिसे बाद में पाट दिया गया. फिर इसमें तहसील लाई गई.
अब हम सब किले के सबसे ऊपरी हिस्से की ओर चढ़ने लगे थे. चलते-चलते पांडे जी की पनामा फिर सुलगी. एक गहरा कश ले वो फिर बताने लगे, “अब यहां के बारे में, पूरे सोर और सीमांत के बारे में और ज्यादा जानना हो तो ये पांगती जी हुए परफेक्ट. इन्हें यहां का इतिहास भूगोल सब ज़बानी याद हुआ. इनके ही बिरादर हुए मुंशियारी वाले मासाब शेर सिंह पांगती जी. खूब पढ़े गुने हैं. आप तो पांडे जी वहां चलने का प्रोग्राम बनाओ बस. कुछ न कुछ काम मेरा पड़ता ही रहता है बस चढ़ लेंगे कालामुनि से ऊपर. मासाब सब व्यवस्था कर देते हैं रहने खाने की. कितनी लोक काथ. गजब हैं वो. मेमोरी भी बड़ी शार्प. इन्हीं की बिरादरी के हुए आईएएस पांगती जी और वो बॉटनी वाले पांगती जी जो वनस्पति विज्ञान के जिनियस हुए कुमाऊं यूनिवर्सिटी में. उन्हें भी पेड़ पौधों का फितूर हुआ. उनसे खूब मिलता हूं में नैनीताल में. और बताऊँ अब वो रघुनन्दन सिंह टोलिया जी भी वहीं मुंसियारी के हुए. आजकल तो लखनऊ सचिवालय में हैं. ग्रामीण विकास की नब्ज़ पकड़ी है उनने. अपना इतिहास भूगोल खूब जानते हैं लिखने पढ़ने वाले लोग हुए. इतने बड़े पद में हुए तो सोच भी ऐसी कि क्या जो कर दूँ पहाड़ के लिए”.
सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते हम तहसील पहुँच गये. ये वही किला था जिसके बारे में कहा गया कि पहले इसके भीतर पानी का नौला भी था. बाद में कभी इस नौले को पाट दिया गया. एक स्थानीय ने वहां एक पीपल का पेड़ लगा दिया. पांगती जी वहां फैले एक विशाल पेड़ की ओर इशारा कर बता रहे थे कि देखिये गोरखों के बाद यहां के राजा और फिर ब्रिटिश हुकूमत के कितने दौर का साक्षी रहा होगा यह पेड़”. यह कहते हुए पांडे जी ने उस पीपल के पेड़ को अपने हाथों के घेरे में ले लिया.
अचानक ही मुझे नैनीताल ऑब्जर्वेट्री के खब्ती एस्ट्रोनोमर डॉ ललित मोहन पुनेठा याद आ गये. जब में वहां कुछ समय के लिए तकनीकी सहायक ग्रेड टू था तब उनके ही अधीन मुझे रखा गया था. जिंदगी के बारे में उनकी फिलोसोफी बिल्कुल अलग थी. वो अपने काम के पक्के थे और उनकी जुबान बस वही कहती थी जो इंस्टेंट उनके मन में आता था. कोई छिपाव दुराव नहीं. कुछ भी श्लील -अश्लील का पर्दा नहीं, भेद नहीं. फिर सामने उनके आगे वहां के खुर्राट डायरेक्टर डॉ सिनवल ही क्यों न हों. घूमने के बड़े शौक़ीन थे और उनके साथ धूमने का मतलब यह था कि जमाने भर के अनेक रहस्यों की बात और उनका भेद अब सामने चलचित्र की तरह आना है जिसमें आये पात्र की भूमिका वह उसी टोन में जिन्दा कर देते थे जिसे उसने भोगा होगा. नैनीताल की कितनी दूरस्थ ऊँची जगहें और चोटियों में मैं उनके व ऑब्जरवेटरी के अन्य वैज्ञानिकों के साथ चढ़ा हूंगा. जहां कहीं वह चरम तृप्त और असीम आनंद से भरे होते तो बिल्कुल शांत हो निर्जीव से जमीन पर पसर जाते. कोई परवाह नहीं कौन देख रहा है क्या सोच रहा है. कई बार तो पहाड़ी पर उगे किसी पेड़ को अपने दोनों हाथों की गिरफ्त में ले उससे लिपट जाते. बड़ी देर तक जब तक वह चाहें. उनके लिए कोई रुके या न रुके. आखिर एक दिन मैंने अयारपाटा के जंगल में एक पेड़ से लिपट उससे विलग होने के बाद उनसे पूछ ही लिया.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
“ये पेड़ से लिपटना? ये क्यों”?
“पेड़ में जान है मेरे यार, इस पहाड़ में जान है, चुम्बक है, उसका अलग स्पर्श है ताकत है वह स्खलन कर देता है ऊर्जा से भर देता है. अब तू भी लिपट जाया कर. अरे इस चट्टान पर पसर अपने दिल की धड़कन सुना इसे और फिर देख ये तुझे क्या कुछ नहीं सुनाता”.
अभी पुराने इस किले जिसे ब्रिटिश फ़ोर्ट कहा जाता है में इस पुराने पेड़ को देख मन हुआ कि इससे लिपट जाऊं, देर तक. बहुत देर तक.
पांगती जी मेरे बगल में थे. मुझसे कुछ कह रहे थे. वो मुझे एक किताब के बारे में बता रहे थे जिसमें इस किले के बारे में भी लिखा गया था इस किताब का नाम था “मेमोयर्स ऑफ द राज”. इसके लेखक थे पंडित गोविन्द राम काला जो उन चंद भारतीयों में एक थे जिन्हें ब्रिटिश शासन काल में बड़े महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर काम करने का मौका मिला था. वह 1932 से 1937 तक पिथौरागढ़ के डिप्टी कलेक्टर और एसडीओ रहे.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
पांगती जी ने मुझे बाद में लाइब्रेरी की सदस्यता दिलाई और मैंने पढ़ी पंडित गोविन्द राम काला की आत्मकथा. वह मुझे इतनी रोचक लगी कि एक बार उसे पलटने के बाद में उसके कई हिस्सों को अपनी डायरी में लिखता भी रहा. ये आज की बदलती हुई सोर घाटी को उसके अतीत की कई यादों से झुला रहीं थीं. पंडित गोविन्द राम काला जी ने अपने संस्मरणों में लिखा था-
पिथौरागढ़ के डिप्टी कलेक्टर का आवास एक पुराने किले में था जिसे गोरखा युद्ध के समय बनवाया गया था. इस जगह में, यहाँ के मकान में, सापों का आतंक था. मैंने डिप्टी कमिश्नर बेंस को लिखा. उन्होंने स्थानीय मिशनरियों से एक पुराना घर दस हजार रूपये में खरीदा. उसकी मरम्मत कर उसे रहने लायक बनाया गया. तब पिथौरागढ़ में ग्रामीण माहौल था. सुख सुविधाऐं नहीं के बराबर थीं और सबसे बड़ी बात तो यह कि साथ का अभाव था जिसने मुझे बेचैन कर दिया. इसी किले के पास हमने एक टेनिस कोर्ट बनवाया.
तब पिथौरागढ़ की स्थानीय जनसंख्या पांच सौ से ज्यादा नहीं थी और बस पचास-साठ घर थे. कुछेक दुकानें थीं जो शहर के अफसरों और ग्रामीण जनता की जरूरतें पूरा करती थी. शहर के ऊंचाई वाले हिस्से में मिशनरी रहते थे जो दो स्कूल चलाते थे- एक लड़कों के लिए और दूसरा लड़कियों के लिए. स्कूल केवल आठवीँ कक्षा तक थे. किले से तीन मील ऊपर चंडाक में एक कुष्ठाश्रम था जिसे एक अमेरिकन मिशनरी मिस रीड चलाती थीं. वह स्थानीय लोगों से घुलमिल गईं थीं और उनका काफी रुतबा था.
मुझे मिशनरियों ने काफी परेशान किया. एक साहब ने कुली एजेंसी के एक मेट की घरवाली का अपहरण कर लिया. लड़की कम उमर की थी नाबालिग, उसके आदमी ने रपट लिखवा दी. मैंने नायब तहसीलदार को जाँच करने को कहा. दो अमेरिकन मिशनरियों मिस पेरिल और मिस कॉक्स को महिने भर तक लगातार कटघरे में आना पड़ा. नये डिप्टी कमिश्नर मिस्टर सेल ने भी हस्तक्षेप किया. पर्याप्त साक्ष्य न थे इसलिए अभियुक्त बच गया और अपह्रत कन्या अपने आदमी के पास पहुँच गई. दो स्थानीय वकीलों, पंडित गंगा राम पुनेठा और कुंवर बहादुर सिंह पाल ने शुद्धि अनुष्ठान करवा लड़की को पुनः हिन्दू समाज में स्वीकृत करवा लिया.
पिथौरागढ़ में पीने के पानी की दिक्कत थी. बहुत कोशिशों से पाइप से होते नल से पीने का पानी मिला. यहां के एक प्रतिष्ठित व्यापारी रहे पंडित प्रेम बल्लभ खर्कवाल उन्होंने पाइप बिछाने के लिए चौदह हजार रूपये दान में दिए. उस समय की यह बड़ी रकम थी.
मेरे वहां रहते कुछ समय बाद पिथौरागढ़ टाउन एरिया घोषित कर दिया गया. मैंने टाउन एरिया कमेटी के प्रेजिडेंट हेतु कुंवर बहादुर सिंह पाल का नाम सुझाया. वह एक ईमानदार, लोकप्रिय और धर्मभीरु व्यक्ति थे. वह असकोट के रजवार वंश के थे. वह नेपाल के राजाओं से भी सम्बंधित थे और जनता के भले हर अच्छे काम के लिए दिल खोल कर खर्च करते थे. परन्तु तब के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर सेल ने अल्मोड़ा के एक वकील लाला हरकिशन साह को जो पिथौरागढ़ ही बस गये थे को टाउन एरिया का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया.
मिस्टर सेल का तबादला होने पर जो नये डिप्टी कमिशनर पिथौरागढ़ आये वो थे मिस्टर फिनले. मैं मिस्टर सेल को विदा करने अल्मोड़ा गया था. लौटने पर पता चला कि पिथौरागढ़ के एक स्थानीय डॉक्टर भवानी दास गंगोला का स्थानांतरण मैदानी इलाके में कर दिया गया है. टाउन एरिया कमेटी के चेयरमैन लाला हरकिशन साह और डॉ भवानी दास गंगोला दोनों मूलतः अल्मोड़ा निवासी थे और उनमें कोई पुश्तेनी रंजिश थी. मेरी अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए लाला हरकिशन साह ने डॉक्टर के खिलाफ एक ज्ञापन लिख उसमें अनेक लोगों के दस्तखत करा लिए थे. मिस्टर फिनले उस समय काली कुमाऊं के दौरे में थे. तब मैंने उनको लोहाघाट चिट्ठी भेज डॉ गंगोला का स्थानांतरण रोकने की सिफारिश की. मिस्टर फिनले ने चिट्ठी मिलते ही इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ हॉस्पिटल मिस्टर प्रॉक्टर को सब बातें समझा डॉ गंगोला की बदली को एक साल के लिए रुकवा दिया.
पिथौरागढ़ में सबसे धनी मालदार परिवार के लोग थे ठाकुर देब सिंह और उनके सुपुत्र दान सिंह.इनका उत्कर्ष उल्लेखनीय है. ठाकुर देब सिंह एक कपड़ा व्यापारी थे तथा घी का व्यापार भी करते थे. आगे चलकर वह जंगलात के ठेकेदार बन गये और उनका कारोबार नेपाल और कश्मीर तक फैल गया. इनके पुत्र दान सिंह एक चतुर व्यापारी थे. उन्होंने जो भी छुवा वह सोना बन गया. उन्होंने बेड़ीनाग के पास एक विशाल चाय का बगीचा खरीद लिया जिसका मालिक मिस्टर रॉबर्ट्स केन्या चला गया था. पिथौरागढ़ में स्कूल कॉलेज खोलने में इस परिवार का बड़ा योगदान रहा.
गोविन्द राम काला लिखते हैं कि मैंने जितने आईसीएस अफसरों के मातहत काम किया उनमें मिस्टर फिनले सर्वश्रेष्ठ थे. उनकी ईमानदारी अद्भुत थी. वह तो अपने निजी पत्र तक अपनी स्याही से लिखते थे और उन्हें अपने व्यक्तिगत सहायक से डाक में डलवाते थे. सरकारी चपरासी से कोई निजी कार्य नहीं करवाते थे. वह निष्पक्ष और सत्यनिष्ठ थे और छोटे-बड़े में कोई भेद नहीं करते थे. मोस्टमानु के मेले में मैंने एक आदमी को अवैध शराब बनाकर बेचते हुए पकड़ा. ये आदमी इस इलाके के एक बड़े प्रभावशाली परिवार से सम्बंधित था और उसके कुष्ठाश्रम की संचालक मिस रीड से बड़े अच्छे सम्बन्ध थे. जब मिस्टर फिनले कुष्ठाश्रम का मुआयना करने आये तो मिस रीड ने मेरे विरुद्ध बोलना शुरू कर दिया. पर मिस्टर फिनले ने मेरा समर्थन किया. जब वह वापस अल्मोड़ा जाने लगे तो मैंने उनसे अनुरोध किया कि मुझे अल्मोड़ा स्थान्तरित कर दिया जाये. और 1937 में मेरी बदली अल्मोड़ा हो गयी.
(Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)
(जारी)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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