क्रिकेट भारत का एक लोकप्रिय खेल है. हर कोई थोड़ी बहुत खेलता ही है कभी न कभी या न भी खेला हो तो खेल का ज्ञान तो जरूर ही रखता है. जब भारत ने सन् तिरासी का विश्वकप जीता तो इसकी लोकप्रियता बढी और सन् सत्तासी में जब भारत में इस खेल का विश्वकप आयोजित हुआ तो इसका मानो बुखार ही चढ गया लोगों पर.
(Pahadi Cricket Uttarakhand)
हालांकि देश के मैदानी भागों की तरह हमारे पहाड़ में बड़े मैदान न के बराबर होते हैं और तब हमारे समय यानि हमारे बचपन में वो सब चीजें भी उपलब्ध नहीं थी पर खेल के दीवाने कहां हार मानते हैं. अपने आस-पास की चीजों से जुगाड़ करके हम लोग क्रिकेट का सामान जुटा लेते थे. आज मैं आपको हमारे प्रिय खेल ‘पहाड़ी क्रिकेट’ से रूबरू करवाता हूं.
पहाड़ी क्रिकेट के नियम, खेल सामग्री, मैदान, अम्पायरिंग सब अलग ही होती थी. कुछ नियम तो तात्कालिक परिस्थितियों के हिसाब से तुरन्त बनाए या बदले जाते थे. क्रिकेट हमारे लिए खेल नहीं था. खेल तो घर-घर खेलना, गाड़ी चलाने का खेल, अड्ड, दुकान-दुकान आदि थे. क्रिकेट तो क्रिकेट ही था. आओ रे आज खेल नहीं करते क्रिकेट खेलते हैं कहा जाता था.
खिलाड़ियों की सख्या कम से कम दो से शुरु होती थी और चार पांच सात बारह जितने हो जाये बहुत था. अगर खिलाड़ियों की सख्या विषम हुई तो या तो एक टीम को पिड्डू निलेगा (यानि एक खिलाड़ी दो बार खेलेगा) या कोई एक खिलाड़ी दोनों टीमों से खेलता था. कभी कभी दो दोस्त मिलकर भी अपने आंगन या मकान की कर्यैडी (पीछे) खेल लेते. कर्यैडी इसलिये ताकि बॉल दूर न जा सके.
(Pahadi Cricket Uttarakhand)
टॉस सिक्के से न होकर गील-सूक से होता था यानि एक पत्थर पर एक तरफ थूक लगाकर उछाला जाता और हैड-टेल की जगह गील-सूक पूछा जाता. बाद में जब सिक्का आ गया तो काफी समय तक हमें पता ही नहीं होता था कि हैड किधर होता है टेल किधर. टॉस के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम होता था टीम छाटना – मेंर तरफ खडकू आय, गणि आय, नब्बू आय, हरि आय, भौन्नी आय… टीम तैयार.
हमेशा टॉस जीती टीम ही बैटिंग करती थी. अम्पायरिंग बैटिंग टीम का आने वाला बल्लेबाज या आउट हो चुका बैटर ही करता था. कुछ छोटे बच्चे जिनको नहीं खिलाते उनका काम बाउन्ड्री या गधेरे जा चुकी बॉल को वापस करना होता था. बदले में उनको लास्ट में एक ओवर खिलाने का लालच दिया जाता था. यदि इस एक ओवर के खेल की वादाखिलाफी हो गई तो अगले दिन वो बच्चा या तो बॉल को और दूर फैंक देता या झुताणि छिपा देता ताकि खेल खराब हो जाय और उसका बदला पूरा.
ये झुताणि या पत्थर के बीच या पात पतेलो में बॉल तब भी छुपा दी जाती जब शाम हो जाय या दूसरी टीम को बैटिंग देने का मन न हो तो एक टीम का कोई खिलाड़ी ऐसी चालाकीपूर्ण हरकत कर देता था.
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मैदानी क्रिकेट की तरह हमारे यहां न केवल चौके-छक्के वरन इग्गा, दुग्गा, तिग्गा भी होता था. एक खेत में इग्गा, झाड़ी के दो रन, बॉल चौथे खेत में घुरीते हुए जाये तो चौक्का पांचवे खेत में जाए तो छक्का, बड़े ढूंग से टकराकर वापस आए तो तीन रन, पेड़ से टकराकर वापस आए तो दो रन. ये मैदान के भूगोल के हिसाब से तय होते थे. मैदान भी मैदान न होकर किसी के बंजर खेत, फसल कट चुके खेत, किसी का बड़ा आंगन या दूर जंगल का कोई मैदान होते थे.
बल्ला लकड़ी का खुद का बनाया होता था जिसे अच्छी तरह से ताछकर मुंगर (थपकी) का आकार दिया होता था. मजबूती के लिए बांज, फयांठ या पय्यां, तुन आदि की लकड़ी के बनाए जाते थे. गिनीज बुक जैसी कोई चीज वहां होती तो ये बल्ले वजन का विश्व रिकार्ड जरूर बनाते. बॉल कपड़े की होती थी बाद में लकड़ी को गोलकर, प्लास्टिक पिघलाकर, बनाई जाती थी. कुछ बड़े होने पर कार्क की बॉल ली जाती जो हर दूसरे-तीसरे दिन टूट जाती थी. इसके बाद जो बॉल हमने खरीदी वो लैदर की या सिलाई की बॉल कहलाती आधुनिक बल्ले भी यदा-कदा पैसे जमाकर खरीदे जाते जिनको हम पासमैन्ट का बैट कहते थे. ये लैदर की बॉल पत्थरों से टकराकर चार-पांच दिन चलती और पासमैन्ट का बैट लगभग एक महिना.
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स्ट्राइक बल्लेबाज पासमेंन्ट के बल्ले से और नानस्टाइक के पास बांज का बैट होता या एक स्टम्प जैसी लकड़ी. हर सिंगल के बाद जिसकी अदला-बदली दोनों बल्लेबाज किया करते थे. स्टंप हमेशा घिगारू की जांठी ही हुवा करते थे. इसके अलावा एक लम्बा पत्थर भी स्टम्प बनता था. नान स्ट्राइकिंग एण्ड पर तो हमेशा पत्थर के स्टम्प ही रहते थे. इसके अलावा हैलमेट, ग्ल्बज, गार्ड, पैड आदि तो हमने सिर्फ रेडियो में सुने थे.कॉर्क की बॉल या सिलाई की बॉल जब भी पैर में या हाथ की उंगुलियों पर लगती तो पैर का नड़क्याठ टूटता या नाखूनों पर नील पड़ जाती थी पर मजाल हम लोग खेलना छोड़ते. पैर में सूजन आदि पर तुरन्त लिसकातर चिपका दिया जाता और असहनीय दर्द भी घरवालों से छिपाने की कला हम बखूबी जानते थे. वरना बाबू दो चार झापड़ रसीद कर खेलने पर महिने भर का प्रतिबन्थ लगा दिया करते थे.
आउट के नियम भी बहुत अलग थे. सिर्फ बोल्ड और कैचआउट रन आउट ही मान्य था, एलबीडब्ल्यू तो होता ही नहीं था. इसके अलावा बौल को धान, गेहूं के खेत में मारने पर या गधेरे पहुंचाने पर भी आउट होने का नियम था. कई बार गधेरे जाने पर बैट्समैन को खुद लानी होती थी. बॉल पेड से टकराकर कैच नहीं माना जाता था. पहली बॉल ट्राई बॉल होती थी. विकेटकीपिग भी कई बार बैटिंग टीम का खिलाड़ी करता था. बाई और लैगबाई के रन नहीं माने जाते थे. कम उम्र के खिलाड़ी को बेबी ओवर मिलता था जो तीन बॉल का होता था.
विवाद भी बहुत होते थे मैच में. स्टम्प के बीच से बॉल निकलने पर और रनआउट विवाद, क्रीज से आगे की नो-बॉल इसका सबसे बड़ा कारण थे. अम्पायर को हर आउट देने के बाद माँ कसम और विद्या कसम बोलनी होती थी वो भी गले की खाल को खींचते हुए. कभी-कभी अपीलकर्ता और अम्पायर दोनों कसम खाने लगते और स्थिति विचित्र हो जाती थी. अगर कभी रन आउट नहीं दिया और अगली बॉल पर बल्लेबाज बोल्ड हो जाये तो नारे लगते – भल भो… पापक् फल फुटि गो… या झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है.
जिसका बॉल या बैट होता था ओपनिंग वही करता था. या बालिंग ज्यादा वही करता था. अच्छे खिलाड़ी को ‘पक्क खिलाड़ि’ और बेकार खिलाड़ी को ‘कच्च खिलाड़ि’ कहा जाता था. बालिंग तेज ही होती थी स्पिन नाम की चीज हम जानते ही नहीं थे. बॉल के प्रकार – टप्पा, फुलटौस, ब्हाईट और सुर्रा होती थी. सुर्रा जिसे घुसकट्टा भी कहते थे नो-बॉल होती थी पर उस पर कोई रन नहीं मिलता था.
(Pahadi Cricket Uttarakhand)
जो खिलाड़ी अपनी बैटिंग करके घर भाग जाता था उसे अगले मैच में नहीं खिलाया जाता था. बॉल खोने पर सभी खिलाड़ियों को ढूंढने जाना होता था. लास्ट में बचा खिलाड़ी अकेले बैटिंग करता था उसे अन्दाजन किसी भी स्टम्प के छोर पर रनआउट किया जा सकता था. खिलाड़ियों के नाम भी भारतीय खिलाड़ियों के नाम पर रखे जाते थे – वो गाउस्कर है, वो अजरुद्दीन, वो कपिल, वो किरमानी, वो हिरमानी (नरेन्द्र हीरवानी). कप्तान वो खिलाड़ी बनता था जो सबमें दादा (बॉस) टाइप का होता था. वो बोल्ड होने पर भी ‘आँखन मांट न्है गोछी’ बोलकर क्रीज नहीं छोड़ता था.
कुछ बड़े होने पर दूसरे गांव के लड़कों से बिटमैच भी खेला जाता था जिसमें हर खिलाड़ी को पांच या दस पैसे जमा करने होते थे. कुछ ऐसा था हमारा पहाड़ी क्रिकेट. अभावों में भी अपनी कलाकारी से पहाड़ के बच्चे वो पूरा मजा ले लेते थे जो शायद ही आजकल के सुविधासम्पन्न बच्चे ले पाते होंगे.
(Pahadi Cricket Uttarakhand)
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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