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नया साल और गहरे अवसाद का बीच हम लोग

हम लोग, जो आजादी के आस-पास पैदा हुए हैं, सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि हमारे समाज का किसी दिन इस तरह बटवारा हो जाएगा कि हम अपने ही दुश्मन हो जाएंगे. हमें किसी ने बताया नहीं, मगर हम जानते थे कि हमारे धर्म का क्या नाम है, हमारी कौन-सी जाति है और हमारे देवता का क्या नाम है? New Year and Current Depression Batrohi

कुछ समय बाद हमें दूसरे धर्मों, जातियों और देवताओं के नाम पता चले और ये सारे लोग भी उसी तरह हमारे हो गए, जैसे हमारे माता-पिता, देवता और भाई-बहिन. अपने परिवार-जनों की तरह हम उन सबको भी प्यार करने लगे; उनसे झगड़ा और छीना-झपटी भी करते मगर भूख लगने पर सब लोग मिल-बाँटकर पेट भरते. धीरे-धीरे सबकी आपस में दोस्ती हुई और सब लोग एक-दूसरे की दुनिया में घुल-मिल गए. पता ही नहीं चला कि कब हम एक-दूसरे को प्यार करने लगे और एक-दूसरे की दुनिया को अपना समझने लगे. कभी हमने यह महसूस नहीं किया कि ऐसा करते हुए हमने कुछ भी गलत किया. New Year and Current Depression Batrohi

मगर ढेर सारे नाम होते हुए भी हमें अपने परिवार से जुड़े सिर्फ एक नाम की जरूरत पड़ती थी; हम उसके सहारे अपनी सारी जिंदगी गुजार देते थे. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी कि अपने साथ एक और धर्म, एक और जाति और एक और देवता जोड़ लिया जाए. इस पूरी परंपरा को बनने में सदियाँ लगीं. जैसे एक परिवार का बड़ा भाई छोटे को संरक्षण देता है, उसकी हर जरूरत का ख्याल रखता है, इस देश के हिन्दुओं ने हमेशा अल्प-संख्यक समाजों को अपने छोटे भाई की तरह समझा, यही नहीं, जरूरत पड़ने पर उनकी नादानियों और शरारतों को नजरंदाज किया और उन्हें खुद में घुला-मिला लिया. New Year and Current Depression Batrohi

मगर यह कैसा नादिरशाही फरमान है, जो हमें आदिम कबीलों की तरह एक-दूसरे का दुश्मन बना रहा है. ऐसा समाज तो नहीं चाहा था हमने. ये उल्टी यात्रा कौन करा रहा है हमसे? हालाँकि यह भी हमारे समाज की विशाल-हृदयता है कि वह ऐसे जुल्म को भी सह ले जा रही है, मगर सहनशीलता की भी एक सीमा होती है.

क्या हम उस अप्रिय नियति की प्रतीक्षा कर रहे हैं?  

-बटरोही

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बटरोही

काफल ट्री में नियमित कॉलम लिखने वाले लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ का जन्म 25 अप्रैल 1946 को अल्मोड़ा के छानागाँव में हुआ था. अब तक अनेक कहानी संग्रह, उपन्यास व लघु उपन्यास लिख चुके बटरोही समकालीन हिन्दी के बेहद जरूरी लेखक हैं. उनके रचनाकर्म के केंद्र में पहाड़ और उस पर रहने वाला मनुष्य सर्वोपरि रहा है. आजीविका के लिए कुमाऊँ विश्वविद्यालय में अध्यापन कर चुके बटरोही फिलहाल सेवानिवृत्त हो कर हल्द्वानी/ नैनीताल में रहते हैं.

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