केशव भट्ट

नामिक गांव के शिक्षक भगवान सिंह जैमियाल

क़रीब साढ़े तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित नामिक ग्लेशियर से निकलने वाली जलधारा अपने साथ कई और धाराओं को समेट जब नामिक-कीमू गांव के पाँव पखारते हुए आगे बढ़ती है तो जैसे पल-पल अपनी सामर्थ्य काअहसास कराती है. इठलाती ही यही नदी रामगंगा(पूर्वी) कहलाती है. बागेश्वर और पिथौरागढ़ की सीमाओं को अपने किनारों से तय करती हुए अल्हड़ रामगंगा मध्य हिमालय के सबसे पिछड़े इलाकों की अहवाल लेती जान पड़ती है.
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

यद्यपि देश को आज़ाद हुए अर्सा बीत चुका है मगर रामगंगा से लगे गांवों की सुध लेने में कभी भी किसी की दिलचस्पी नहीं रही. बावजूद इस उपेक्षा के इन बीहड़ क्षेत्रों के वाशिंदों में अब कोई शिकायत नही रह गई है. अपनी कठोर ज़िन्दगी को उन्होंने अपनी नियती मान लिया है. कभी-कभार बाहर से आने वाले कोई आगंतुक उनकी दिनचर्या के बारे में पूछ भी लेता है तो फीकी हंसी उड़ेलते हुए वे बस इतना ही कहते हैं-“ऊपर वाले की दया बनी रहनी चाहिए…! यूं तो हिंदुस्तान को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा हो गए हैं और आज़ाद देश के इतने हिस्से कर दिए हैं कि जिससे भी पूछो वह हिंदुस्तान के बजाय अपने राज्य का ही नाम बताता है.. अब ये भी कोई आजादी हुई क्या…? इससे अच्छा तो हम ठीक हैं… जैसे पहले थे आज भी वैसे ही गुजर-बसर कर रहे हैं.. हिमाला हमारा रखवाला हुआ… आगे भी सब ठीक ही रहेगा…!”

जब कभी दुर्गम हिमालयी क्षेत्रों में जाना होता था, परिचित-अपरिचित सभी के व्यंग बाण झेलने पड़ते थे, “अरे! सैप आ गए अपनी दुनिया से उकता के हमारी जिंदगी में…! यहां भी ज्यादा दिन मन नहीं लगेगा आप लोगों का…!! पहाड़ सी जिंदगी हुई यहां की… आप लोगों के बस का जो क्या हुआ…!!” दो दशक से ज्यादा बीत गए लेकिन मैंने इन दुर्गम हिमालयी क्षेत्रों में जाना नहीं छोड़ा. अलबत्ता अब कोई ताने नहीं मारता, बल्कि अपनेपन से पेश आते हैं.

इस बार जून के पहले सप्ताह में रेडक्रॉस की टीम के साथ नामिक गांव जाने का संयोग बना. पिथौरागढ़ जिले की रामगंगा घाटी में नामिक और हीरामणी ग्लेशियर की तलहटी में बसा अंतिम गांव है नामिक. यहां पहुंचने के लिए उबड़-खाबड़ रास्तों को पैदल नापने की पहली शर्त है. पिथौरागढ़ जिले के बिर्थी/द्वालीगाड़ के समीप स्थित बाला गाँव से नामिक गांव की पैदल यात्रा शुरू होती है. सत्ताइस किमी लंबा यह पैदल मार्ग शेरधार, धारापानी, थालाग्वार होते हुए नामिक गांव पहुंचता है. बीहड़ और बेहद थकान भरे रास्ते को पैदल नापने के बजाय प्रशासनिक अमला गांव में सन्देश भिजवाकर किसी को मुख्यालय भेजने का फरमान देने में अपनी भलाई समझता है. बहुत ही मजबूरी हुई तो सरकारी मुलाजिम बागेश्वर के कपकोट, शामा, गोगिना होकर नामिक जाना मुनासिब समझते हैं.

नामिक गांव के लिए दूसरा रास्ता है बागेश्वर जिले के गोगिना गांव से. शामा से गोगिना तक सर्पिल और टूटी-फूटी डरावनी सड़क है जो कि हर बरसात नेताओं-ठेकेदारों के चर्बीदार पेट के साथ-साथ उनके ‘किटकनदारों’ को पालती आ रही है. कई जगहों पर सड़क की चौड़ाई का यह हाल है कि सामने से छिपकली भी आ जाए तो निकलना दूभर हो जाए.
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

रातिरकेठी के पास ‘धामीजी’ भी हमारे संग हो लिए. धामीजी उर्फ गंगा सिंह महर. गंगा सिंहजी नंदा देवी के पुजारी हैं जिसकी वजह से इन्हें ‘धामी’ की उपाधि से नवाजा गया है. छरहरी काया के चालीसेक साल के धामीजी धीर-गंभीर मालूम पड़ते हैं.

गोगिना पहुंचे तो गाँव वैसा ही था जैसा 1995 में मैंने देखा था. कुछ तब्दीलियां थीं भी तो हल्की-फुल्की मकानों में देखने को मिली. कुछेक घरों ने पाथरों की छत को अलविदा कह दिया था और उनके मालिक सीमेंट की छत पर खड़े होकर गर्व महसूस करने लगे थे. सड़क के ऊपर किसी बाहरी धन्नासेठ का दोमंजिला सीमेंट का बंगला गांव के परिवेश को जैसे गंदला कर रहा था. पता चला कि इस अकूत धन स्वामी ने पहाड़ों में कई जगह जमीन खरीदकर बंगले बना लिए हैं, ताकि भविष्य में उसकी पीढ़ियां पहाड़ों पर आराम से राज कर सकें.

गोगिना में भवान सिंह से गर्मजोशी से मुलाकात हुई. यहां चालीस साल पुरानी उनकी दुकान है, जिसकी जिम्मेदारी उन्होंने अब अपने बालक नंदन को सौंप दी है. कीमू समेत अन्य गांवों में रेडक्रास द्वारा वितरित किया जाने वाला सामान उनकी दुकान में रखकर हमने नामिक गांव का रुख किया. गोगिना से करीब छः किलोमीटर उतार-चढ़ाव भरे की पैदल रास्ते पर है नामिक गांव. रामगंगा नदी तक का धुमावदार रास्ता उतार लिए हुए है.

सुबह बागेश्वर से रवानगी के वक़्त आलोकदा के वाहन में मेरे अलावा रातिरकेठी में तैनात मास्टर उमेश जोशीजी और कैलाश चंदोलाजी और मोनू तिवारी के वाहन में जगदीश उपाध्याय उर्फ ‘जैक’, मास्टरजी हरीश दफौटी और कपकोट से महेश गढ़िया समा गए.

शामा पंहुचने से पहले नाश्ते के नाम पर हम सभी पूरी-कचौरी-अचार के ऊपर जूस को पेट में धकेल चुके थे. रास्ते में दुकानें बंद होने की वजह से भूख से बचने के लिए हमारे साथी मास्टरजी कैलाश चंदोलाजी की भार्या ने रास्ते के नाश्ते के वास्ते पूरी-कचौरी बाँध दी थी और मास्टर आलोक पांडेजी की मास्टरनी ने तो दोपहर के भोजन के लिए बाकायदा सुंगधित पुलावमय गर्म कुकर हमें थमा दिया, जो शाम तक भी गर्म ही रहा.

रामगंगा नदी तक रास्ता कहीं समतल तो कहीं पर तीखा सीढ़ीनुमा उतार लिए हुए है. हर बार यह रास्ता कई जगह बरसात के बाद अपना रूप बदल लेता है. कन्धों पर सामान लादे हम नामिक गांव की ओर बढ़ चले. रास्ते में हो रही बातचीत से पता चला कि आज की रात नामिक गांव में भगवान सिंह के घर में रिहायश होनी है. इसके लिए उन्हें पिछले हफ्ते सन्देश भी भेज दिया गया था. धामीजी ने गर्दन हिलाते हुए इसकी पुष्टि भी की. बातचीत में पता चला कि भगवान सिंहजी ने नामिक गांव के लिए क्या-कुछ नहीं किया है. हर कोई उनका मुरीद है.

दोपहर बाद चटपटे पुलाव को उदरस्थ करने की बात रामगंगा पुल के पार नदी के तीर पर तय हुई थी, लेकिन जब पुल पर पहुंचे तो आगे की टोली गायब पायी गयी. धामीजी उन्हें नामिक तक आगे की चढ़ाई में उड़ाते हुए ले चले थे. पानी की इकलौती बोतल में पानी सूख चुका था तो जैक खाली बोतल पकड़ कूदते-फांदते नदी तक पहुंच गया. मैं उसे बस कहते रह गया कि ग्लेशियर का पानी है, जरा ध्यान रखना, लेकिन वह कहां सुनने वाला था. दूर से हम देख रहे थे कि बोतल में थोड़ा सा पानी भरकर वह अपनी प्यास बुझाने में लग गया था. चंद पलों के बाद जब वह पानी लेकर आया तो आते ही आश्चर्यमिश्रित स्वर में बस इतना ही बोला, “बब्बाहो! बर्फ से भी ठंडा पानी हो रहा इसका तो…!! बोतल भरने तक तो हाथ ही गायब हो गया.. “
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

हंसते हुए हम सभी ने अपनी प्यास बुझाई तो बोतल खाली हो गई. आगे की चढ़ाई में पानी नहीं मिलेगा.  मेरे यह बताने पर मोनू ने झट बोतल पकड़ ली. थोड़ी ही देर बाद जब वह वापस आया तो उसके चेहरे पर भी जैक जैसे हैरानी भरे भाव थे, “कहां फंसा दिया यार इस बर्फीले पानी में, मैं तो मजाक समझ रहा था वाकई नदी बड़ी कातिल है…”

पुल पार नामिक की ओर रामगंगा के किनारे का रास्ता नया बना दिखा. बाद में पता चला कि हर साल बरसात में उतावली रामगंगा किनारे को अपने साथ बहा ले जाती है. कुछ दिनों के बाद जब नदी का रौद्र रूप शांत हो जाता है तो नामिक गांव के मास्टर भगवान सिंहजी, ग्रामीणों की मदद से उसे ठीक करा देते हैं. यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है.

रामगंगा से नामिक गांव की तिरछी सर्पिल चढ़ाई में कदम बढ़ाते ही दोपहर की धूप हमसे अठखेलियां करने लगी. पसीने से बुरी तरह तर-बतर शरीर को पेड़ों की छांव में कुछ पल ठहर आराम देते हुए चढ़ाई चढ़ने लगे. करीब डेढ़ किलोमीटर का सफर तय करने पर देखा कि सामने सीढ़ीनुमा रास्ते में पेड़ों की छांव में साथी दिन के भोजन की तैयारी में पोटलियों से बर्तन निकाल रहे हैं. यहां एक बड़ी सी गुफानुमा चट्टान है, जिसके बारे में धामीजी ने बताया कि इसे भालू उड्डयार कहते हैं. किसी जमाने में कभी कोई भालू यहां रहा होगा तो उसके नाम पर इस जगह का नामकरण कर दिया गया.

आलोकदा की भार्या के हाथों तैयार पुलाव अब तक गर्म था. पत्तेनुमा प्लेटों में पुलाव के साथ घी-अचार भी सभी को परोसा गया. पुलाव का जायका स्टारधारी बड़े-बड़े होटल को मात दे रहा था. पेट पूजा के बाद कुछ पल पसरकर आगे का रास्ता नापना शुरू किया. करीब आधा किलोमीटर के बाद नामिक गांव के स्कूल की चारदीवारी के बीच से स्कूल पहुंच गए. नामिक गांव की सरहद में सबसे पहले प्राइमरी और हाईस्कूल है. कुछ आगे चलकर गांव फैला हुआ है. लगभग 2200 मीटर की उंचाई पर बसे नामिक में टाकुली, भंडारी, कन्यारी, रौतेला, परिहार, जेम्याल आदि समुदायों के लगभग 124 मवासे बसे हुए हैं.
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

गांव की पगडंडी के गुज़रते हुए हम गांव के शीर्ष में ‘हीरामणी होम स्टे’ में पहुंचे. इस दोमंजिले होमस्टे में रहने की अच्छी व्यवस्था है. सामान कमरों के हवाले कर हम बाहर बरामदे में आ गए. मैंने सांथियों को बताया कि गांव के ऊपर नंदादेवी का मंदिर है जहां बहुत बड़ा मैदान भी है. कुछ साथी गांव की बाखलियों से होते हुए नंदादेवी मंदिर की ओर निकल गए. गांव वालों ने इस जगह का नाम टीटीगेर रख छोड़ा है.

गाँव सामने नामिक ग्लेशियर की दिशा में दूर तक फैला हुआ है. होमस्टे के आगे एक बड़े से खेत में आलू की नई फसल अंकुरित हो बाहर की दुनिया को कौतुहल से देखने की कोशिश कर रही थी. जंगल गई गायें दिन भर चरकर घर की ओर वापस लौट रही थीं. नीचे किसी घर से छांछ फानने की आवाज ने ‘गिर्दा’ की मार्मिक कविता की याद दिला दी.

‘छानी-खरिकों में धुंआ लगा है,
ओ हो रे, आय हाय रे, ओ हो रे… ओ दिगौ लाली.
थन लगी बाछी कि गै पंगुरी है
द्वि-दां, द्वि-दां की धार छूटी है
दुहने वाली का हिया भरा है… ओ हो रे… आय हाय रे…
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है,
गीली है लकड़ी, गीला धुंआ है,
साग क्या छौका कि पूरा गौं महका है,
ओ हो रे आय हाय रे.. गन्ध निराली…

मध्यम गति से सांझ ढल रही थी कि कुछ भद्रजनों के होमस्टे के आंगन में पहुंचने पर मेरी तंद्रा भंग हुई. अभिवादन के बाद पता चला कि आगंतुकों से एक नामिक गांव के शिक्षक भगवान सिंह जैमियाल हैं, जो नामिक के ही वाशिंदे हैं और 1997 में शिक्षक बनने के बाद से नामिक गांव में ही ‘धरती पकड़’ होकर रह गए. नामिक गांव में पहली पोस्टिंग के बाद न उनका कहीं ट्रांसफर हुआ और न ही उन्हें इस बात की शिकायत आज तक रही.
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

रेडक्रास की हमारी टीम के आलोकदा ने उन्हें मेडिकल किट देकर समझाया कि किस तरह से इन्हें प्रयोग में लाना है. भगवानजी बहुत जल्दी उन उपकरणों का प्रयोग करना समझ गए. बाद में नंदा देवी के पुजारी ‘धामीजी’ से पता चला, “बाकी बातें छोड़िये नामिक में कोई पोलियो ड्रॉप तक पिलाने नहीं आता. मास्टरजी की पत्नी ग्राम प्रधान हैं और दोनों मिलकर बच्चों को पोलियो की ड्राप पिलाते हैं. पूरे गांव की जिम्मेदारी इन्हीं पर है. गांव वाले मास्टरजी को बहुत मानते हैं और हर बार उन्ही की पत्नी को ग्राम प्रधान बना देते हैं. बहुत ईमानदार हुए मास्साब…!”

चाय पीने के बाद मैंने भगवानजी से गांव-घर के बारे में गपशप लगाई. वे बहुत ही आत्मीयता से अपने बारे में बताते चले गए, “प्राइमरी तक की पढ़ाई गांव में ही हुई. उसके आगे की पढ़ाई के लिए मुनस्यारी चला गया. फिर पढ़ने का ऐसा जुनून छाया कि पढ़ाई की खातिर रिश्तेदारों के घर पिथौरागढ़ चला गया. पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज से बीए और एमए किया और फिर डीडीहाट से बीटीसी करने के बाद मास्टर बन गया. पहली पोस्टिंग यहीं गांव में हुई और तब से यहीं हूं. अब बाहर जाने का मन नहीं है. गांव में रहकर अपनी माटी की भी सेवा हो जाती है.”
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

हंसते हुए आगे बताते हैं, “दो भाई फौज में हैं. कहते रहते हैं कि तूने अपनी जिंदगी खराब कर ली… अब मैं तो सोचता हूं कि परेशानियां तो खूब हैं लेकिन सबको साथ लेकर चलने का आनंद कुछ और ही है… अपना गांव छोड़कर बाहर बस चुके लोग ये बातें नहीं समझ सकते. वे सब तो परदेशी जैसे हो गए ठैरे..!”

नंदा देवी के मंदिर गए साथी भी अब तक लौटआए थे. वे बहुत खुश नज़र आ रहे थे. वहां टीटीगेर में गांव के बच्चों के साथ उन्होंने क्रिकेट भी खेला. गांव में मोबाइल नेटवर्क नहीं होने से गांववालों को ज़रूर परेशानी उठानी पड़ती है, लेकिन बच्चे को अपना बचपन जी लेने का भरपूर मौक़ा मिल जाता है. युवावर्ग सरकार के डिजिटल इंडिया के सपनों से वाकिफ़ ज़रूर हैं लेकिन रामगंगा की इस दुर्गम घाटी में डिजिटल जीवन एक सपना ही है. यूं तो भगवानजी के पास सेटेलाइट फोन भी है लेकिन उसके माध्यम से बात करना किसी फाइव स्टार होटल में चाय-कॉफी जैसा ही है. खुद भगवानजी भी किसी का फोन आने पर बांकी ग्राम वासियों की तरह गांव के उप्पर की खड़ी चढ़ाई तय कर धूरा कांठा को दौड़ पड़ते हैं.

सांझ ढलने लगी और धीरे-धीरे नामिक गांव के सामने घाटी के दूसरी और स्थित कीमू और गोगिना गांव अंधेरे के आगोश में समाने लगे. काले पहाड़ों के बीच चमकते बिजली के लट्टुओं को देखकर ऐसा लगता था जैसे तारे एकदम करीब उतर आये हों! हमारी रात्रि भोजन की व्यवस्था करने के बाद भगवानजी सुबह आने की बात कहते हुए बाखलियों के बीच अपने घर को चल दिए.

खाना खाते वक्त ‘धामीजी’ ने बताया, “अभी गांव में दो होमस्टे बन गए हैं. एक मास्टरजी का और दूसरा भंडारीजी का. लेकिन पहले जब भी कोई साहब लोग गांव आते थे तो मास्टरजी के ही घर में उनका बसेरा हुआ करता था. घर में मेहमानों के आ जाने से परिवार को दिक्कतें हो जाने वाली हुईं तो उन्होंने होमस्टे बना लिया. कहने को तो यह होमस्टे है लेकिन मैंने टूरिस्टों को यहां रुकते हुए कम ही देखा है. बाहर से आने वाले उनके परिचित-और मित्र ही यहां ठहरते हैं.. और उनसे पैसे लेने की बात भी कैसे सोची जा सकती है.” ठंडी हवा के बीच हिमालय की इस तलहटी में भोजन बहुत स्वादिष्ट लग रहा था. कुछ और पल गपियाते हुए हम सब जल्दी ही रजाई के आगोश में समा गए.
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

सुबह मौसम बेहद सुहावना था. नामिक गांव किसी कैनवास पर बनी सुन्दर पेंटिंग की तरह सामने दिखाई दे रहा था. घर-खेतों में चहल-पहल शुरू हो चुकी थी. बैलों की जोड़ियां अपने मालिकनुमा दोस्त के साथ मस्ती से जुताई में लगी थीं. एक जगह बूढ़े दादाअपने पोते को बकरियां चराने का हुनर सिखा रहे थे तो कुछ युवा गांव की पगडंडी के किनारे पतली नालियों को साफ करने में जुटे थे. उनके आगे-पीछे मुर्गियां अपने बच्चों के साथ भोजन की तलाश में जुटी पड़ी थीं. अपने वादे के मुताबिक भगवानजी भी अपने होमस्टे में पहुंच चुके थे. हमारी टीम ने वापसी की तैयारी कर ली थी. भगवानजी से विदा ले हमने गोगिना की पैदल राह पकड़ ली.

“घी मिलेगा कहीं यहां गांव में?” पूछने पर धामीजी ने त्वरित जवाब दिया, “ज़रूर मिल जाएगा. अभी पता लगाता हूं.” यह कहते हुए वह गांव के भीतर चले गए. हम धीरे-धीरे नीचे उतर कर गांव की सीमा में धामीजी के इंतजार में हरी मखमली घास पर जहां-तहां पसर गए. आधे घंटे बाद वह जब आते दिखे तो दो महिलाएं अपनी पोटली लिए उनके साथ थीं. “किसका घी है?” पूछने पर उन्होंने बताया, “यहां गांव में हम सभी गाय ही पालने वाले हुए. उसी का घी है.” “भैंस का घी नही मिलेगा?” इस सवाल पर फीकी हंसी हसते हुए उन्होंने बताया, “भैंस कैसे आ पाएगी यहां? रास्ते तो आपने देखे ही हैं… और फिर किसी तरह से ले भी आएं तो कितना जिंदा रह पाएगी वह! हम हिमालावासी तो सभी जगह से कटे ठैरे..!’
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

करीब दस किलो घी वे लाई थीं, जो साथियों ने आपस में मिलबांट कर ले लिया. एक डिब्बे में कितना किलो घी है? इस सवाल का जवाब भी उन्हीं के मूल्यांकन पर निर्भर था. जो कीमत उन्होंने बताई हमने खुशी-खुशी उन्हें सौंप दी. घी के डिब्बे अपने-अपने रुकसेक में डालकर हमने रामगंगा का उतार नापना शुरू कर दिया.

भालूउड्यार से आगे नीचे समतल रास्ते में सामान ला रही कुछ महिलाएं-बच्चियां सुस्ता रही थीं. नजर पड़ते ही मैं कभी सामान को, तो कभी उन महिलाओं और बच्चियों को हैरत से देखने लगा. लोहे की सरिया के कुंतलों भारवाले बंडल सामने रखे हुए थे, जिन्हें वे गोगिना से नामिक गांव के लिए ला रही थीं. इतनी ऊंचाई के पथरिले रास्तों पर वे पुरुषों की बराबरी के दावे की पुष्टि का जीता-जागता प्रमाण दे रही थीं.

“सामान लाने के लिए इन्हें तीन सौ रुपए मजदूरी मिल जाती है. भोर होने से पहले ही ये कूदते-फांदते हुए गोगिना पहुंच जाती हैं और दोपहर से पहले सामान लेकर गांव लौट जाती हैं. उसके बाद ये अपने घर-खेती में जुट जाएंगी.” धामीजी की बात पर मेरी त्रंदा टूटी. साथी लोग आगे-पीछे चल रहे थे तो उन्होंने मेरा ही साथ पकड़ लिया. वैसे वह हिमालयी घुरड़ जैसे हुए. चाल में बिजली की जैसी तेजी हुई! अपने ठिकाने पर घुरड़-काकड़ शायद बाद में पहुंचे, धामीजी उससे पहले आराम फरमा रहे होंगे.

रामगंगा के पार मीठी चढ़ाई हमारी राह जोह रही थी. धामीजी का तो यह रोज का रास्ता हुआ. वह बतियाते जा रहे थे, “यहां नामिक, कीमू, गोगिना समेत दर्जनों गांवों के बच्चों का भविष्य अंधकारमय ही रह जाता है. लड़के तो मुनस्यारी जैसी जगहों में पढ़ने चले जाते हैं लेकिन लड़कियां इच्छा के बावजूद आगे पढ़ नहीं पाती हैं. गांव में साल भर के लिए आलू, राजमा, जौं, मडुवे की फसल हो जाती है, लेकिन बांकी जरूरतों के लिए गोगिना या बागेश्वर जाना पड़ता है. नामिक गांव में बिजली परियोजना भी है मगर उसकी देखरेख गांव के लोगों को ही करनी पड़ती है. पिछली बार आपदा के बाद नौ महीने तक बिजली गुल रही मगर कोई सुध लेने नहीं आया. गांव वालों को खुद ही बिजली घर की मरम्मत करनी पड़ी.”
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

सीढ़ीदार चढ़ाई खत्म हो गई थी और सुस्ताने का खयाल हावी हो रहा था कि आगे कुछ दूर साथी भी आराम फरमाते दिखे. सामने से आपस में बतियाती महिलाओं का काफिला ईटों का बोझ लाते दिखाई दिया. बीस किलो के करीब भार को पीठ में लादे हुए ये इसे गोगिना से नामिक गांव को ले जा रहे थीं.

आगे झरने के पास ही चाय-नास्ता बनाने के विचार पर सभी की सहमति बन गई. झरना छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत था. स्टोव और बर्तन निकालकर मैगी बनाने की तैयारी शुरू की. साथी झरने से बने तालाब के ठंडे पानी में अपनी थकान मिटाने में लगे. मैगी-चाय का नाश्ता करने के बाद हम आगे गोगिना की राह पर फिर से बढ़ चले. घंटेभर बाद गोगिना पहुंच गए और वहां सामान बांटने के बाद बागेश्वर को वापस लौट चले.

हिमालय की गोद में बसे इन दुष्कर ग्रामीण इलाकों में पुरुषों और महिलाओं, दोनों को दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, तब कहीं जाकर उनकी गुजर बसर होती है. सदियों से चला आ रहा यह सिलसिला कभी थमने का नाम नहीं लेता. रामगंगा  की इस घाटी में बच्चे क्या बूढ़े, हर कोई हरपल काम में जुटे रहते हैं. ज्यादातर गरीब परिवार खेतों की जुताई के लिए बैल नहीं पाल सकते तो उन्होंने इसका हल निकाल लिया और परिवार की महिलाएं-बच्चे हल में खुद को ही जोत लेते हैं. परिवार का एक सदस्य हल-दन्याली की मूंठ थामता है तो दो महिलाएं आगे से बैलों की जगह सिर में रस्सी फंसाकर हल-दन्याली को खींचती हैं. सुबह दो-एक घंटे खेतों के काम के बाद वे फिर गृहस्थी के कामों में जुट जाती हैं. आराम तो उनके लिए सपने जैसा ही हुआ. बावजूद इसके उन्होंने इसे अपनी नियती मान हार मानना नहीं सीखा है. सदियों से वे अपने पूर्वजों के नक्शे-कदम पर इसी तरह चलती जा रही हैं.
(Namik Village Uttarakhand Travelogue)

केशव भट्ट 

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें : साठ के दशक में हिमालय अंचल की यात्रा से जुड़ी यादें

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कानून के दरवाजे पर : फ़्रेंज़ काफ़्का की कहानी

-अनुवाद : सुकेश साहनी कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है. उस देश का एक…

21 hours ago

अमृता प्रीतम की कहानी : जंगली बूटी

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की…

3 days ago

अंतिम प्यार : रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी

आर्ट स्कूल के प्रोफेसर मनमोहन बाबू घर पर बैठे मित्रों के साथ मनोरंजन कर रहे…

4 days ago

माँ का सिलबट्टे से प्रेम

स्त्री अपने घर के वृत्त में ही परिवर्तन के चाक पर घूमती रहती है. वह…

5 days ago

‘राजुला मालूशाही’ ख्वाबों में बनी एक प्रेम कहानी

कोक स्टूडियो में, कमला देवी, नेहा कक्कड़ और नितेश बिष्ट (हुड़का) की बंदगी में कुमाऊं…

7 days ago

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

1 week ago