नदी की उंगलियों के निशान हमारी पीठ पर थे. हमारे पीछे दौड़ रहा मगरमच्छ जबड़ा खोले निगलने को आतुर! बेतहाशा दौड़ रही पृथ्वी के ओर-छोर हम दो छोटी लड़कियाँ. मौत के कितने चेहरे होते हैं अनुभव किया था उस पल. दौड़ो… कितना भी दौड़ो पृथ्वी गोल है, घूम कर फिर इसी जगह… कुछ भी घट सकता है. नदी की उंगलियों को कोंचने के लिये आमादा मगरमच्छ. इससे लड़ नहीं सकते हम. इससे बचना है किसी तरह. यही समझ आया था. उस मूक स्वर से. उस मौन चीख से जो उस थरथराते गले में अटकी छटपटा रही थी. (Nadi Ki Ungliyon Ke Nishan)
एक तीली आग जली थी, उसमें जल रही थी हमारी इच्छायें हमारे स्वप्न और हमारी मुक्ति? उस मछली सी जिस पर बगुला घात लगाये खड़ा था धारा में.
बस एक तीली आग जली थी उसमें जलने लगा था भुवन चाचा का जिन्दगी की पन्द्रह सीढ़ियों पर अर्जित किया पौरुष! सुबह दम भरता वह साहस पल भी ही तिरोहित हुआ. अब वहाँ कातर पंछी की फड़फड़ाहट थी, माँ के शंकालू मन पर विश्वास का मरहम लगाते हुए कहा था, भुवन चाचा ने ‘‘इसमें डरने की बात क्या है भाभी! मैं हूँ न. अकेली कहाँ जा रही हैं लड़कियाँ… और अब उसका थर थर कांपता हाथ — भागोऽ… ‘‘भुवन चाचा के थरथर काँपते जिस्म और कातर चेहरे को देख हम समझ गई थी कि मृत्यु निश्चित है, फिर आखिरी सांस तक कोशिश जारी रखनी है.
पल भर में समय उलट जायेगा तब कहाँ सोचा था हमने. सोचने की फुर्सत भी कहाँ थी, नदी के किनारे रेत देखी, रेत के घरौंदे बनाने लगी. बमुश्किल आते हैं ऐसे विरल क्षण जब अपना समय था, जिसे हम अपने मुताबिक पा सकते थे. माँ ने बहुत रोका था — अभी छोटी है लड़कियाँ ‘‘कितनी बार की थी माँ की चिरौरी ‘‘माँ मुझे नदी देखनी है मछलियाँ देखनी हैं और देखना है घटवार…’’ नदी से तो माँ कांप ही उठी थी. “ना बाबा नदी में मछलियाँ देखने जाना है तो बिल्कुल नहीं भेजूँगी, नदी में कितने ही लोग डूब गये गर्मियों में बर्फ पिघल कर आती है ऊपर से. पानी कब बढ़ता है पता नहीं चलता.” भुवन चाचा बोले थे “नदी में कौन जाने देगा इनको… अरे! भाभी नदी में तो मगरमच्छ भी रहता है.” भुवन चाचा ने आँख झपकायी थी माँ को, भुवन चाचा के घर पिसान समाप्त हो चुका था, दादी बीमार थी, ‘‘चूल्हा जलाना है तो आटा घटवार से पिसा कर लाना होगा, भुवन” दादी ने बुखार में कराहते कहा था. भुवन अपने घर में बड़ा, बड़ी बहन शादी करके जा चुकी थी, छोटी बहन माधुरी मेरी सहेली मेरे बिना घटवार में जाना स्थगित कर रही थी. फिर उसने कहा कि नदी में मछलियाँ रहती हैं जो किनारे आकर लहरों को भी साथ लाती हैं, उसने खेत की ढ़लान से दिखाई थी नदी. नदी के ऊपर घटवार जिसके पत्थर धूप में चमक रहे थे. माँ ने कहा हमारे घर में पिसान के कनस्तर भरे हैं, फिर भी थोड़ा मक्की और ज्वार के दानों की पोटली बना कर झोले में रख दी थी, पिछली रात मुझे नदी का सपना भी आया था, नीले जल की धारा मीठा-मीठा राग गुनगुनाती लहरों के साथ उसकी मछलियाँ उछलती गोया लहरों में नृत्य कर रही हों.
नदी कह रही थी, शिवानी मेरी मछलियों को छूकर देख. मैंने नदी को छुआ. तो मैं बहने लगी धारा में. मैंने मछलियों को छुआ तो मेरे पंख उग आये मैं उड़ने लगी हवा में ऊपर. मगरमच्छ को मैंने नहीं देखा, मैंने देखा सिर्फ पानी, बहता पानी, पानी के साथ बहती मछलियाँ, सपना मुझे पंख देकर उड़ाने पर आतुर चन्द्रमा के समीप! चन्द्रमा हँस रहा था. “इतनी सी खुशी चाहिये बस्स…” मैंने कहा “हाँ बस इतनी सी खुशी.” मैंने सपने की बात माधुरी और भुवन चाचा से कही, भुवन चाचा ने मेरे सिर पर चपत मारी ‘‘इतनी छोटी लड़की और इतने बड़े सपने कि चाँद से बतिया कर आये. उसने घुड़कने के अंदाज में कहा “छोटे सपने देखा कर लड़की.”
बेवकूफ! उसे पता ही नहीं सपनों पर अपना वश नहीं चलता उन्हें तो नींद लेकर आती है, जैसे मछलियों को लेकर आता है पानी. चीड़ के लम्बे जंगल को पार कर हम पहाड़ की ढलान पर उतरते खूब नीचे आये थे. घाटी में यहीं था घटवार, नदी के ऊपर घने पेड़ों के बीच जहाँ से एक छोटी धारा बहती थी. घटवार में कोई नहीं सिर्फ अनाज के बोरे ठसाठस भरे थे, बोरों के पीछे दिखी घटवाड़ी की टोपी, भुवन चाचा ने थैला उतार कर पूछा “हम दूर से आये हैं, हमारा अनाज पिस जायेगा घटवाड़ी भैजी?’’
घटवाड़ी ने कहा “पिसेगा, क्यों नहीं पिसेगा. दोपहर तक जरूर पिस जायेगा’’
भुवन चाचा बैठ गया अनाज के बोरों के ऊपर, हम देहरी से झांक कर घटवार को चलते देखने लगी, उसका पानी बहुत तेजी के साथ बहता, पानी का इतना शोर, घटवार की टिक टिक आवाज का शोर दोनों मिलकर दहशत देने लगे, तो हम बाहर हो लिये, माधुरी ने कहा “शिवानी चल. नदी देखने चलते हैं. तू मेरे भाई से पूछ ले.’’
भुवन चाचा ने घूरकर देखा ‘‘नदी में डूब जाते हैं लोग… क्या कहा था तेरी माँ ने. याद है न?’’
माधुरी भी हाँ सुनने के लिए अन्दर आ चुकी थी. उसने चिरौरी की, ‘‘हम रेत में ही खेलेंगे भाई आगे नहीं जायेंगे.’’ भुवन चाचा ने आँख दिखाई बोला ‘‘न… हींऽ ‘‘घटवारी को हमारे, उदास चेहरे अच्छे नहीं लगे वह भी उदास हो गया. उसके चेहरे पर आटा पुता था, पर आँखों से उदासी झलकने लगी. पृथ्वी पर कुछ अच्छे लोग भी होते हैं, जिन्हें छोटी बच्चियों का उदास होना अच्छा नहीं लगता. जैसे बाग को तितलियों का चुप बैठना अच्छा नहीं लगता. वह फूल खिलाता है कि तितलियाँ मंडराती रहें, तभी दिखता है सौन्दर्य प्रकृति का. मैंने ही मन कहा, हे भगवान! अच्छे लोगों की दुनिया बनाओ. जिन्हें छोटी लड़कियों की कद्र हो. हमारे घर वालों की तरह जेलर मत बनाओ कि जरा सा आसमान माँगने पर. मुट्ठी में कसने लगी है गर्दन — ‘‘जाने दो बेटा. कोई डर नहीं, नदी के किनारे पानी भी कम है.’’ घटवाड़ी भुवन चाचा की मनुहार कर रहा था.
भुवन चाचा के चेहरे पर धूप की तितली बैठी, माधुरी हवा में उड़ी उसके पंख पकड़ कर मैं भी उड़ने लगी.
उस विजन में हम दो लड़कियाँ जिंदगी की नौवीं-दसवीं सीढी पर पांव रखती प्रकृति की भव्यता से अभीभूत. रेत में नहा रही कत्थई रंग की चिड़िया हमारे पास आकर जल का मोती चुगने लगी. हमारे पांव नदी में थे. हम पत्थरों पर बैठी नदी का बहना देख रही थी. सिर्फ नदी का कोलाहल और दूर तक कोई नहीं. माधुरी बोली ‘‘नदी कुछ कह रही है सुन — मैंने उसकी आवाज पर कान रखा’’ नदी बोली ‘‘मछली की तरह उतरो मेरी धारा में.”
पारदर्शी जल में मछलियों का तैरना दिखा, लेकिन हमारे पास तो दूसरी फ्राकें नहीं हैं, नदी बोली ‘‘फ्राकें उतार दो कूद जाओ धारा में. किनारे कम पानी था. माधुरी बोली’’ शिवानी पहले रेत में लेटते हैं.
मैंने कहा, ‘‘नहीं पहले मछलियों के साथ तैरते हैं. हमने नदी के एक इशारे पर अपनी फ्राकें उतार दी और पानी में तैरने लगी. खूब देर तक हम दोनों मछलियों की तरह तैरती रही. मछलियाँ हमारी देह पर कुलबुलाती रही, जब ठण्ड लगने लगी तो हम रेत में लेट गईं. धूप ने गरम लिहाफ दिया दो चिड़िया पत्थर पर बैठी ताकने लगी. ”मजा आ रहा है न?” हमने कहा ‘बहुत.’ फिर हमने एक दूसरे की नंगी देहों पर खूब रेत मलते हुए हम मुक्त हँसी हँसती. एक दूसरे को गुदगुदाते हम नंगे बदन रेत के कछार में दौड़ती रहीं. हम भूल ही गईं कि हमारे क्रिया-कलापों पर किसी की दृष्टि हो सकती है. हम भूल गई कि मगरमच्छ हमारी कोमल किसलय देहों को कच्चा चबाने को आतुर है कहीं.
हम दो लड़कियाँ अपनी नंगी देह को रेत का बिछौना देती लेट गयी सूरज ने हमें धूप का लिहाफ ओढ़ाया और हँस दिया. कैसा लग रहा?
‘‘अच्छा बहुत अच्छा!”
पहली बार सूरज ने हमें देखा नंगे बदन, पहली बार नदी ने देखा नंगे बदन पहली बार हमें चिड़ियों ने देखा और वे हवा में उड़ने लगीं. मछलियों ने देखा वे पानी से डबक-डबक ऊपर आकर पांवों में कुलबुलाने लगी. घौंघे, केकड़े, कीड़े मकोड़े, चीटियाँ सब हमारे साथ उत्सव में शामिल होने लगी.
काफी देर तक हम गुनगुनी रेत से खेलते घरोंदे बनाते एक दूसरे पर रेत-काई मलती रही, फिर याद आया कि वक्त बीत चुका है, हमें वापस जाना चाहिए. हमने अपने शरीर देखे रेत और कीचड़ में सने फिर एक बार और नदी में नहाने की जरूरत पड़ी, तब हमने फ्राकें पहनी और हँसती खिलखिलाती गुनगुनाती वापस घटवार के रास्ते मुड़ी. ठण्ड में ठिठुरती देह धूप में सुखाई पत्थर पर बैठ कर माधुरी बोली थी “शिवानी, कितना मजा आया न?”
“मैंने कहा हाँ आया तो पर कोई जान गया तो?”
“हम किसी से कहेंगे क्यों?” उसने कसम दिलवायी मैंने कसम खाई “माँ की कसम, विद्या माता की कसम!” उसने फिर धूल झाड़ी. मेरे बालों पर रेत के कण चमक रहे थे. उसने एक एक लट को उंगलियों से झाड़ा ‘‘तू समझदार हो गई शिवानी! वह बोली “हम ऐसे ही छुपकर मजे करते रहेंगे… गांव में किसी भी लड़की को कुछ न बतायेंगे.”
मैंने हामी भरी माँ तो बेकार ही डरती है कुछ हुआ क्या यहाँ तो बन्दर भी नहीं दिखा. खिल-खिल हँसी विजन में गूंजने लगी, लगा सब हँस रहे हैं हमारे साथ. जंगल, पहाड़, पेड़, सारी कायनात. मैंने माधुरी से कहा चल अब कोई कविता सुना. उसने कविता सुनाई — यह लघु सरिता का बहता जल कितना निर्मल कितना शीतल.
उसने कहा “अब तू भी सुना.”
मैं लय में गाने लगी — ज्यों निकलकर बादलों की गोद से कि अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी.
गीत गुनगुनाते हँसते-खेलते हम उस मोड़ पर आ गई जहाँ घटवार और दूसरा रास्ता बाजार को जाता था. इस मोड़ से ऊपर पेड़ों का झुरमुट था जिसमें कुछ चीड़ और देवदार के पेड़ थे. रास्ता पगड़डी जैसा. जैसे ही हम मुड़ने को हुए धप्प कूदा वह गुन्डा किस्म का लड़का भुवन चाचा से थोड़ा बड़ा, वह मौत का चेहरा ओढे खड़ा, उसने पूछा “नदी पर नहा रही थी तुम? हमारी सांस अटकने लगी हमसे कुछ कहते नहीं बना, उसने फिर पूछा “कौन से गांव से आई हो?”
मैंने उंगली से इशारा किया पहाड़ी के ऊपर. ऊपर उसके दो साथी खड़े थे. वह अजीब सी दृष्टि से हमें घूरने लगा “बहुत सुन्दर हो तुम दोनों, मैं देख रहा था पानी के अन्दर तुम्हारी नंगे शरीर चमक रहे थे. मछली जैसी मचल रही थी तुम.” उसकी आँखें हमारी नन्हीं देहों को कच्चा चबाने को आपुर दिखीं.
वह बीच में खड़ा था, हम इर्द गिर्द से निकल आगे बढ़े उसने फिर टोका “ए लड़कियों!”
हमारे पांव धरती में गढ़ गये.
‘देखो इधर’ उसने आदेश दिया. हमने चेहरा घुमाया, वह पैन्ट की जिप खोले था. माधुरी ने मेरा हाथ पकड़ा. “चल भाग शिवानी.” हम दौड़ते रहे. एक जगह कीचड़ में मेरी चप्पल धंस गई, लेकिन हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा. बदहवास भागते हम भुवन चाचा के पास पहुँचे, लगा कि अब सुरक्षित हो गये. घटवार की देहरी के भीतर पांव रखते ही देखा, दो लड़कों ने भुवन चाचा को पकड़ा था और वह गुन्डा दियासलाई से भुवन चाचा का गाल जला रहा था. घटवाड़ी नदारद था.
हम दोनों भागने लगीं.
भागती ही जा रही हैं अब तक…
कहानी : ‘वह भूखी और गन्दी लड़की’
पौड़ी गढ़वाल की रहने वाली कुसुम भट्ट की विभिन्न रचनाएँ देश के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. कुसुम भट्ट के कहानी व कविता संग्रह साहित्य जगत में चर्चित रहे हैं. कुसुम भट्ट को उनके साहित्यिक योगदान के लिए विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है.
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