कुलीबेगार से पहले कुमाऊं में सामाजिक हलचल:
वर्ष 1942 में खुमाड़ सल्ट तथा सालम में जिस विद्रोह का प्रस्फुटन हुआ, उसकी पृष्ठभूमि को समझने के लिए कुमाऊं में ब्रिटिश राज के इतिहास को समझना भी आवश्यक है. सन 1815 में ब्रिटिश-गोरखा युद्ध में गोरखा की पराजय से नेपाल संधि से कुमाऊं में ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ. जिसका संचालन तीन कमिश्नरों ट्रेल, जे. एच. बैरन तथा हेनरी रैम्जे द्वारा किया गया. उस वक्त कुमाऊं का अधिकांश क्षेत्र, जहां आबादी निवास करती थी. बीहड़ पर्वतीय क्षेत्र था और 90 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल थे. लगान में यहां अंग्रेजों की रुचि नहीं रही, इस कारण समाज की आन्तरिक व्यवस्था में भी अंग्रेजों द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया गया. इस कारण 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊं (चम्पावत), हल्द्वानी भाबर को छोडकर समूचा क्षेत्र लगभग शांत रहा. काली कुमाऊं चम्पावत में कालू सिंह मेंहरा, आनन्द सिह फर्त्याल, बिशन सिंह करायत जो कि बिशंग पट्टी से थे और रूहेलखंड के नबाब के संपर्क में थे, ने बागी दल बनाकर बगावत का बिगुल फूका और लोहाघाट में ब्रिटिश बैरक में हमला किया. खबर अल्मोड़ा में हमला करने की भी थी जिस कारण ब्रिटिश परिवार सुरक्षा की दृष्टि से नैनीताल आ गए. बागी दल के विद्रोह को सहायक कमिश्नर सर कैल्विन ने काबू कर लिया. आनन्द सिंह फर्त्याल और बिशन सिंह करायल को गोली मार दी गई, जबकि कालू सिंह को आजीवन जेल हुई.
1868 में अल्मोड़ा में साम्य विनोद अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ और 1871 में अल्मोड़ा से ही अल्मोड़ा अखबार का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ. इसके संपादक कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी और राम सिंह धौनी हुए, जो कि सभी प्रगतिशील विचारो के थे. सामाजिक कुरीतियों छूआछूत उन्मूलन और शिक्षा के विस्तार में चेतना का कार्य इस अखबार द्वारा किया और इस क्षेत्र को राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोडने में महत्वपूर्ण योगदान देकर स्वतंत्रता संग्राम की चेतना का विस्तार किया, जो आगे चलकर कुमाऊं परिषद 1917 के गठन के रुप में दिखाई दिया. कुमाऊं परिषद का विलय कालान्तर में राष्ट्रीय कांग्रेस में हुआ. परिषद के श्री हरगोविन्द पन्त तब सम्मानित नेता थे, जो लगातार क्षेत्र में भ्रमणशील रहकर युवाओं को विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों के माधयम से परिषद और कांग्रेस से जोड जोड रहे थे.
कुलीबेगार आन्दोलन
कुमाऊं क्षेत्र में राजस्व की कोई स्थाई व्यवस्था नहीं थी. अंग्रेज अधिकारी तथा सेना के क्षेत्र भ्रमण पर उनकी सेवा और सामान को लाने ले जाने का कार्य स्थानीय ग्रामीणों द्वारा बारी-बारी से बेगार के रूप में किया जाता था और अफसरान के लिए डोली पालकी की भी व्यवस्था की जाती थी जिस का हिसाब बेगार के रजिस्टरों में रखा जाता था. यह बेगार अंग्रेजी दमन का प्रतीक बन गई थी जिसके उन्मूलन के लिए 14 जनवरी 1921 को बागेश्वर उत्तरायणी मेंले में सरयू बगड़ पर एक विशाल जनसभा में पूरे क्षेत्र के गांवों के कुली बेगार के रजिस्टरों को सरयू नदी में प्रवाहित कर अंग्रेजों को किसी प्रकार की बेगार और डोली पालकी की व्यवस्था नहीं करने का संकल्प लिया गया.
यह कुमाऊं में अपने तरीके का एक अलग असहयोग आंदोलन था जो हरगोविंद पंत, बद्रीदत्त पांडे और विक्टर मोहन जोशी आदि की देखरेख में चलाया गया जिसमें गोविंद बल्लभ पंत की भी भागीदारी रही. कुली बेगार के आंदोलन की सफलता से अंग्रेजी हुक्मरान बौखला गए और समाज में अपनी पकड़ बनाने के लिए सल्ट की चार पट्टियों और गुजुड़पट्टी पौड़ी से जो बीहड़ और सरकारी लूट खसौट के लिए मशहूर थे, से बेगार वसूली तथा प्रभुत्व स्थापन के लिए एस. डी. एम रानीखेत हबीबुर्रहमान को सल्ट के लिए रवाना किया !
एस. डी.एम के सल्ट पहुंचने से पहले ही हरगोविंद पंत सल्ट क्षेत्र में पहुंच गए. वहां उन्होंने पुरुषोत्तम उपाध्याय जो कि सरकारी विद्यालय में अध्यापक थे, से संपर्क किया और पूरे सल्ट क्षेत्र में तथा गुजुड़पट्टी पौड़ी क्षेत्र में बहुत व्यापक जनसंपर्क कर, लोगों के बीच यह चेतना पैदा की कि उनके द्वारा सरकार को बेगार नहीं दी जाएगी. इस प्रकार पुरुषोत्तम उपाध्याय, उनके सहयोगी अध्यापक लक्षमण सिंह अधिकारी और ठेकेदार पान सिंह पटवाल सल्टक्षेत्र में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ असहयोग तथा राष्ट्रीय चेतना जागरण के मुख्य संवाहक बन गए.
पुरूषोत्तम उपाध्याय का घर खुमाड़ में था. इसी कारण खुमाड़ सल्ट क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्यालय बन गया. पुरुषोत्तम उपाध्याय तथा उनके साथियों ने सल्ट क्षेत्र में अछूतोद्धार, सफाई और शिक्षा के क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहकर कार्य किया जिस कारण सरकारी नौकरी में बने रहना उनके लिए उसके बाद संभव नहीं था. फलतः पुरूषोत्तम उपाध्याय ने फरवरी 1927 नौकरी छोड़ दी.
मई 1927 में प्रेम विद्यालय ताड़ीखेत के वार्षिकोत्सव में महात्मा गांधी पहुंचे तो पुरुषोत्तम उपाध्याय अपने सहयोगी पान सिंह पटवाल आदि के साथ महात्मा गांधी से मिलने ताड़ीखेत गए. महात्मा गाधी ने सल्ट के सत्याग्रहियों की खूब तारीफ की जिससे आन्दोलनकारियों का उत्साह दोगुना हो गया और समूचे सल्ट क्षेत्र में राष्ट्रीय आन्दोलन की चेतना उफान पर पहुंच गई.
1927 में ही कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन मेंं पुरूषोत्तम उपाध्याय ने भाग लिया. जिसके बाद सल्ट क्षेत्र स्वाधीनता आन्दोलन में सीधे राष्ट्रीय धारा से जुड़ गया और कांग्रेस के राष्ट्रीय आह्वान का सीधा असर सल्ट क्षेत्र में दिखाई देने लगा.
अप्रैल 1930 में नमक आन्दोलन के प्रभाव में सल्ट के भी तीन गांव – चमकना, उभरी और हुटली में भी नमक बनाया. सल्ट क्षेत्र में स्वाधीनता आन्दोलन के चरम का वर्ष 1930 ही था जब वन-आन्दोलन के सत्याग्रह में भी यहां के लोगों ने भागीदारी की. मालगुजार ही सल्ट के बीहड क्षेत्र में अंग्रेजी हुकूमत के स्रोत थे.
17 अगस्त 1930 को क्षेत्र के मालगुजारों ने सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया. अब क्षेत्र में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखना कठिन हो गया. सरकार का इकबाल कायम रखने की गरज से एस. डी.एम हबीबुर्रहमान 50- 60 पुलिस जवान लेकर 20 सितम्बर 1930 को भिक्यासैण होता हुआ खुमाड़ के लिए रवाना हुआ.
23 सितंबर को खुमाड़ से 3-4 किलोमीटर पहले नेएड नदी के किनारे कैंप लगा कर डूंगला गांव को घेर लिया गया. उस वक्त गांव में बड़े-बुजुर्ग ही थे. एस.डी.एम के दल ने गांव में बर्बरता की, उसके घोड़ों ने फसल रौंदी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बच्चे सिंह के घर की कुर्की, बहुत बुरी तरीके से की गई. अधिकांश सामान लूट लिया गया बकरियां पुलिस वाले खा गए.
यह खबर जब आसपास के गांवों में पहुंची तो नरसिंघा बजाकर गांव के लोग इकट्ठा हुए और उन्होंने एस.डी.एम के दल को घेर लिया. खुद को घिरा पाकर एस.डी.एम. ने अपना निर्णय वापस ले लिया और ग्रामीणों की फसल के नुकसान का 5 रूपये मुआवजा भरकर खाली हाथ वापस हुआ.
अंग्रेज पुलिस कप्तान गोली चलाना चाहते थे लेकिन एस.डी.एम ने जमीनी हकीकत समझकर गोली चलाने से मना कर दिया. यह सल्ट के ग्रामीणों की नैतिक विजय थी लेकिन इस घटना से क्षेत्र में व्यापक असंतोष व्याप्त हुआ. श्री पान सिंह पटवाल ने इसके विरोध में मोलेखाल के टीले में बैठक कर स्वयं की सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तारी देने की घोषणा की और एस.डी. एम को नोटिस दिया. एस.डी.एम. हालात पर नजर रखने देवालय पहुंच गया. यहाँ पुलिस कप्तान को कुर्सी नहीं दी गई.
खुमाड़ में पुरुषोत्तम उपाध्याय के घर बैठक कर यह निर्णय लिया गया कि जिन सत्याग्रहियों के विरुद्ध वारंट हैं वे स्वयं अपनी गिरफ्तारी देंगे और लक्ष्मण सिंह अधिकारी बाहर रहकर आंदोलन की रणनीति बनाते रहेंगे. इस सहमति के आधार पर पुरुषोत्तम उपाध्याय, धर्म सिंह, चंदन सिंह आदि सत्याग्रही 24 अक्टूबर 1930 को बड़े जुलूस के साथ गिरफ्तारी देने रानीखेत को रवाना हुए. रास्ते में डूंगला गांव में जसोद सिंह ने सत्याग्रहियों का भव्य स्वागत किया. दूसरे दिन सत्याग्रह का जुलूस भारतीयों के लिए प्रतिबंधित माल रोड में पहुंचा. जहां सत्यग्रहियों ने अपनी गिरफ्तारी दी. स्वयं अपनी गिरफ्तारी दिए जाने से क्षेत्र में स्वतंत्रता संग्राम के प्रति व्यापक चेतना का विकास हुआ और यह समझा जाने लगा की ब्रिटिश हुकूमत अब थोड़े दिनों की मेहमान है.
अन्य क्षेत्रों में भी आन्दोलन का विस्तार किया गया. 30 नवम्बर 1930 को जंगल सत्याग्रह में गिरफ्तारी देने के लिए पुरुषोत्तम उपाध्याय के नेतृत्व में 404 सत्याग्रहियों का दल मौलेखाल पहुंचा. पुरुषोत्तम उपाध्याय सहित 58 सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया गया लेकिन कोई केस नहीं बनाया गया. पहले उन्हें काशीपुर हवालात में रखा गया फिर मुरादाबाद जेल भेज दिया गया. रिहाई के बाद पुरुषोत्तम उपाध्याय 16 मार्च 1931 को खुमाड़ पहुंचे. फरवरी 1932 में उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया जहां, दिसंबर 1932 में गले की बीमारी के कारण बरेली जेल में उनका देहांत हो गया.
पुरुषोत्तम उपाध्याय की मृत्यु से सल्ट क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन की गति में कमी आ गई. फरवरी 1939 में खुमाड़ में रघुवर दत्त उपाध्याय, हरिदत्त वैद्य, लालमणि आदि ने विशाल सभा कर यह संकल्प लिया कि स्व. पुरुषोत्तम उपाध्याय के सपनों को पूरा किया जाएगा और उनके अधूरे कामों को आगे बढ़ाया जाएगा. सल्ट क्षेत्र में आन्दोलन की सक्रियता से अंग्रेज चौकन्ने हो गए. उन्होंने 7 मार्च 1939 को देवालय में रघुवर दत्त उपाध्याय, हरिदत्त भट्ट, लक्ष्मण सिंह आदि को गिरफ्तार कर लिया जबकि क्वैराला में लक्षमण सिंह तथा हरिद्वारी गिरी को गिरफ्तार किया. पूरे सल्ट क्षेत्र में इस अवधि में राजनीतिक चेतना बढ़ती गई.
देघाट क्षेत्र में भी भारी विरोध था. एस.डी.एम. जानसन द्वारा देघाट पटवारी चौकी में 19 अगस्त 1942 को 7-8 आन्दोलनकारी बंद कर दिए जाने की खबर क्षेत्र में आग की तरह फैल गई, पटवारी चौकी का जबरदस्त घेराव हुआ. जानसन ने गोली चला दी जिससे दो व्यक्ति शहीद हुए – हरि कृष्ण उप्रेती और हीरामणि बडोला. हीरामणि अविवाहित थे जबकि उप्रेती का परिवार अब हल्द्वानी रहता है.
1 सितंबर 1942 को 20-25 सत्याग्रहियों द्वारा 4-5 सितंबर 1942 को पोबरी में एकत्रित होने तथा आगे की रणनीति पर कार्य करने की योजना बनाई गयी. इस योजना से रानीखेत में तैनात एस. डी. एम जानसन के आंख कान खड़े हो गए और वह 3 सितंबर 1942 को पुलिस पेशकार तथा लाइसेंस दारान के कोई 200 के सशस्त्र जत्थे को लेकर भिक्यासैण, चौकोट, देघाट होकर खुमाड़ के लिए बड रहा था.
रास्ते में लोगो ने इस दल का विरोध किया तो चौकोट में गोली चला दी गई. देघाट में सैकडो की संख्या में लोग सड़क पर आ गए थे. जानसन ने यहां पहले ही बडी गोलीबारी की थी जिससे देघाट में दो लोगो की गोली लगने से मौत हो गई थी. इस घटना से जन असंतोष पहले से ही उफान पर था.
जब जानसन का यह खूनी जत्था खुमाड़ पहुंचा तो क्षेत्र के लोग अपने आप खुमाड़ पहुंच गए जहां हजारों की संख्या में आक्रोशित ग्रामीण अंग्रेजों से पहले पहुंच गए. 5 सितम्बर 1942 को खुमाड़ पहुंचने पर उत्साह और आक्रोश से भरे ग्रामीणो का मेला सा लगा था. उत्साही युवक गोविंद ध्यानी ने जत्थे का रास्ता रोक, नारेबाजी शुरु कर दी. माहौल उत्तेजना पूर्ण हो गया.
एस.डी.एम जानसन ने सत्यग्रहियों का पता मालूम करने के लिए गोली चलाने तथा गांव में आग लगाने की धमकी दी तो उत्तेजना और बढ़ गई. इसी बीच नैनमणी उर्फ नैनुआ ने जानसन पर हमला कर उसकी पिस्टल छिनने का प्रयास किया तो जानसन ने गोली चलाने का आदेश दे दिया. सरकारी दल में अधिकांश सिपाही और लाइसेंसदार स्थानीय थे. इस कारण उन्होंने सीधे गोलीबारी न कर हवा में गोलियां चलाईं. यह देख जानसन ने स्वयं सीधे गोलियां चलाई जिससे कई लोग जख्मी हुए. गंगाराम और खीमराम जो कि दो सगे भाई थे, की मौके पर मृत्यु हो गई. 4 दिन बाद गोली लगने से घायल चूड़ामणि और बहादुर सिंह की भी मृत्यु हुई.
जनाक्रोश के आगे जानसन को भी वापस लौटना पड़ा.
प्रत्येक वर्ष खुमाड़ सल्ट में शहीदों की स्मृति में मेला लगता है और सल्ट क्षेत्र का नाम आजादी की लड़ाई में बड़े गर्व से लिया जाता है. उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने खुमाड़ को कुमाऊं की वारदोली कहा था.
प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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5 Comments
Devendra Kotliya
स्वत्रन्त्रता आन्दोलन में उत्तराखंड की उल्लेखनीय भूमिकाओं के सम्बन्ध में जानकारियाँ एकत्रित करने और प्रकाशित करने का यह प्रमोद साह जी का प्रयास केवल सराहनीय ही नहीं, वन्दनीय है| हम उत्तराखंड वासियों को अपने क्षेत्र के उन वीरों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, जिन्होनें अंग्रेजों के शोषण, दमन और अत्याचारों के विरुद्ध न केवल आवाज उठाई, बल्कि अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से नहीं चुके|
आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले, और इस संघर्ष में अपना जीवन लगाने वाले सभी वीरों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तो या होगी कि हम इस स्वतंत्रता के वास्तविक मूल्य को समझें, उसे संरक्षित करें| आजादी तभी सुरक्षित रह सकती है जब हरेक पीढ़ी उसका मूल्य चुकाए| जो पीढ़ी स्वतंत्रा का मूल्य नहीं चुकाती, वह या तो स्वयं परतंत्र हो जाती है, अन्यथा अपनी अगली पीढ़ी को परतंत्र होने की स्थिति में ला कर खड़ा करने की अपराधी बन जाती है| हमें अपनी वर्तमान पीढ़ी, जिसमें हम सब सम्मिलित हैं, को इस बात के लिए तैयार करना होगा, कि यदि हमने समय रहते अपनी स्वतंत्रता के साथ-साथ देश की अखण्डता, एकता, सद्भाव, न्यायप्रियता, समानता, धार्मिक सहिष्णुता, मानवीय गरिमा, सर्वधर्मसमभाव की परम्पराओं और मूल्यों को सुरक्षित करने के लिए संघर्ष नहीं किया तो निश्चित रूप से हम अपने पूर्वजों के बलिदान को व्यर्थ व निर्मूल सिद्ध करने का पाप करने जा रहे हैं|
(देवेन्द्र कोटलिया)
Pramod sah
आभार श्री देवेंद्र कोटलिया जी…।
Anonymous
श्री प्रमोद साह प्रतिभावान लेखक व विचारक हैं। उन्हें नियमित प्रकाशित कर हमें लाभान्वित करते रहें।
श्यामसिंह रावत
मैं स्वयं 1857 के स्वतंत्रता सेनानी कालूसिंह महर जी के गांव कर्णकरायत अनेक बार गया हूं। जहां मुझे ग्रामीणों ने बताया था कि कालूसिंह जी की गिरफ्तारी के वारंट जारी होने पर वे कभी-कभी अपने गांव के सामने वाले घने बाज के जंगल या गांव के ऊपर स्थित कथित ‘बाणासुर के किले’ में छिप जाया करते थे। उनको कुटिल अंग्रेजों ने एक खतरनाक गुंडा प्रचारित करके अपने कुछ चाटुकारों को उनकी जासूसी पर लगाया हुआ था। उन्हीं के माध्यम से कालूसिंह जी को जंगल से गांव में धोखे से बुलाया गया। जैसे ही वे जंगल और गांव के बीच बहने वाले गधेरे के निकट पहुंचे, उन पर घात लगाकर अचानक हमला कर दिया गया। जिसमें वे शहीद हो गये।
अब लेखक को यह जानकारी कहां से प्राप्त हुई कि कालूसिंह महर को आजीवन कारावास हुआ? संभवत: उनके पास इसका कोई दस्तावेजी प्रमाण हो।
बहरहाल, आलेख अच्छी जानकारी देता है और सपादन की त्रुटियो के बावजूद लेखक का श्रम स्तुत्य है।
भावना
बहुत रोचक जानकारी sir क्या आप कृपया ये साँझा कर सकते है आपने इनका सन्दर्भ कहाँ से लिया है मुझे सन्दर्भ की आवश्यकता है