‘खलंगा’ नेपाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ छावनी या कैंटोनमेंट होता है. अंग्रेज इतिहासकारों ने अपनी भाषिक समझ के हिसाब से इसे किला कहा, जबकि यह एक सुदृढ़ किला नहीं था. युद्ध के ठीक पहले सेनापति बलभद्र कुँवर ने जैसे-तैसे गारा-पत्थर की पर्खाल (चहारदीवारी) खड़ी करके युद्ध लड़ा. बलभद्र कुँवर को भी विदेशी इतिहासकार बलभद्र थापा लिखते आए हैं.
(Khalanga War Uttarakhand)
वह तब श्रीनगर गढ़वाल में मौजूद महासेनापति अमर सिंह थापा का भांजा था. यहाँ पर भी अंग्रेज इतिहासकारों ने भतीजे-भांजे (नेफ्यू) का अंतर न कर पाने के कारण उसे थापा मान लिया, जबकि उसका कुलनाम ‘कुँवर’ था. तो खलंगा में रहने वाले महज पाँच सौ लोग थे, जिनमें से आधे तो स्त्रियाँ और बच्चे थे. हथियार के नाम पर देसी तोड़ेदार बंदूकें-गोलियाँ गढ़ी के अंदर ही ढाली गयीं. तीर-धनुष, भाले-खुखरी दस्तकार अंदर ही ढ़ाल रहे थे. और सबसे बड़ी बात पत्थरों का संग्रह, जो ऊपर से फिरंगी सेना पर बरसाने के खूब काम आया.
ईस्ट इंडिया कंपनी के पक्ष में तीन हजार सैनिक थे, हजार के आसपास तो रिजर्व में थे. पहले दो हमलों में मात खाने के बाद दिल्ली, मेरठ, सहारनपुर से कुमुक मँगाई गई. हाथियों पर लादकर लंबी दूरी तक मार करने वाली तोपें इस्तेमाल में लाई गई. इसके मुकाबले गोरखा खेमे के पास छोटी-छोटी ढलवा तोपें थी.
यह असमान पक्षों का युद्ध साबित हुआ, जिसमें गोरखा पक्ष ने अद्भुत रण कौशल दिखाया. ‘आईमाई’ स्त्रियों-बच्चों ने जान की बाजी लगा दी. ईस्ट इंडिया कंपनी की विस्तारवादी नीति के प्रभाव में देसी रियासतें एक के बाद एक, विदेशी साम्राज्यवाद के चंगुल में फँसती चली जा रही थीं. अंग्रेज जनरलों को विश्वास था कि खलंगा का गढ़पति, संदेश पाते ही आत्मसमर्पण कर देगा.
आधी रात को ब्रिटिश दूत जब गढ़ी के अंदर दाखिल हुआ और बलभद्र कुँवर के हाथ में उसने संदेशा थमाया तो गढ़पति ने संदेश पढ़े बिना ही उसके टुकडे-टुकडे कर दिए. यह देख ब्रिटिश अफसर हतप्रभ होकर रह गया. उसने कहा- तुमने तो संदेश पढ़ा ही नहीं. इस पर बलभद्र नें गरजकर कहा- “आध रातिमा चिठ्ठी हेर्ने वा जबाफ दिने हाम्रो चलन छै नतर छिर्ट कर्नल संग युद्ध भूमिमा भेंटने छूँ.” (आधी रात में चिट्ठी पढ़ने, जवाब देने का हमारा चलन नहीं है, पर मैं कर्नल से युद्धभूमि में जरूर मिलूँगा.)
(Khalanga War Uttarakhand)
शुरुआती हमलों में कंपनी की सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा. स्त्री-टोली मचान बनाकर फिरंगी सेना पर पत्थरों की वर्षा करने लगी. फिरंगी सेना को दो बार पीछे हटना पड़ा. यह खबर सुनकर मेजर जनरल गिलेस्पी को मेरठ से चलकर युद्ध के मैदान में आना पड़ा. वह ‘वेल्लोर’ युद्ध का हीरो था. नेपोलियन के विरुद्ध युद्धों में उसे पर्याप्त अनुभव था.
रणनीति बनाकर उसने चौतरफा हमला किया. गोरखा वीरों ने जी जान से युद्ध लड़ा. मरने-मारने की परवाह किए बिना युद्ध लड़ा. फिरंगी सेना जब पीछे मुड़ने लगी तो जनरल गिलेस्पी को अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने, साहस का संचार करने के लिए आगे आना पड़ा. वह उन्हें ब्रिटिश सम्राट की दुहाई देने लगा. अंग्रेज सेना का मान-गौरव बनाए रखने की दुहाई देने लगा. तभी ऊपर से एक गोली सनसनाते हुए उसके सीने को पार कर गई. उसके एडीसी ओ’ हारा ने जैसे ही अपने जनरल को गिरते हुए देखा, तो वह दौड़ता हुआ आया, लेकिन वह भी गोलियों से छलनी हो गया.
पाश्चात्य लेखक जॉन पारकर ने अपनी पुस्तक ‘द गुरखा’ में इस दृश्य का रोमांचक चित्रण किया है पारकर के मुताबिक, मरते हुए जनरल गिलेस्पी ने अपने एडीसी से वचन लिया कि वह इस बहादुर कौम की पल्टन जरूर खड़ी करेगा. जबकि एडीसी भी जनरल के साथ ही युद्ध भूमि में खेत रहा. लेकिन इस तथ्य में जरूर बल दिखता है कि इस युद्ध में गोरखों का साहस और आक्रामकता देखकर ब्रिटिश शासकों के मन में एक पृथक गुरखा पलटन खड़ी करने का विचार आया होगा. (पहली पलटन 1815 में ही खड़ी कर दी गई.)
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कर्नल मॉबी ने किसी भेदिए से पता लगा लिया कि गढ़ी में ऊपर पानी नहीं है. शत्रु-पक्ष पानी के लिए नालापानी की एक बावड़ी पर निर्भर है. फिर उसने फरेब से काम लिया. पानी के स्रोत पर फिरंगी सेना का कड़ा पहरा बिठा दिया. लंबे चल रहे इस युद्ध में प्यासी गोरखा सेना जी जान से लड़ी. स्त्रियाँ-बच्चे तक प्यासे रहे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. आखिर गढ़पति बलभद्र कुँवर अपने 69 साथियों के साथ एक रात खलंगा गढ़ी को छोड़कर आगे बढ़ा. उसका निकलना आसान नहीं था. फिरंगी सेना की तिहरी पंक्ति को खुखरी से भेदते हुए वह अपने साथियों के साथ जंगल में विलीन हो गया.
सुगौली की संधि से बलभद्र सहज नहीं था. वह वीर था. जीतना या प्राणोत्सर्ग करना ही उसका ध्येय था. अपने साथियों को लेकर वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हो गया. सिख युद्धों में उसने ऊँचा नाम कमाया। 1824 के सिख-अफगान वार के नौशेरा युद्ध में उसने अपने साथियों के साथ प्राणोत्सर्ग किया.
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सैन्य परंपरा में गोरखा बेहतरीन सैनिक साबित हुए. युद्ध में उनका नारा- ‘जय महाकाली, आयो गोरखाली’ है. तो गोरखा पलटनों का ध्येय वाक्य- ”काफर हुना भंदा मर्नु राम्रो’ (बेटर टू डाई दैन लिव लाइक ए कवर्ड) उनके रचे गए सैन्य-इतिहास से मेल खाता है. भारत के पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ जनरल सैम मानेकशा, जो खुद गोरखा रेजिमेंट से थे, की इस कौम के बारे में राय थी-
इफ ए मैन सेज, ही इज नॉट अफ्रेड ऑफ डाइंग, ही इज आइदर लाइंग ऑर इज ए गुरखा.
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उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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