सुबह- सुबह जब हम कौसानी से निकले तो कोई अनुमान न था कि आज का दिन कितना लम्बा होगा. कल रात हमने सहृदय मित्रों की बदौलत आलीशान मखमली ग्रेवी वाली अंडाकरी जीवन में पहली बार पेट में उतारी और बादल जैसे नरम बिस्तर में पसर गए थे. आज जब हम आगे के सफ़र पर निकले तो हमारे पास केवल अनुमान था कि हमें कहाँ जाना है. कोसी, जिसके बारे में कभी शेखर जोशी जी की एक कहानी में पढ़ा था आज हमारे साथ साथ चल रही थी. (Kausani to Devguru Travelogue)
सोमेश्वर की शानदार घाटी में रोपाई लगने लगी थी. ऐसे में कोसी का घटवार कैसे याद न आता. चटख हरे रंग के खेतों के बीच लाल, पीली नारंगी धोतियों में सजी पुतारु प्रकृति की लय पर धान रोपे जा रही थी. गाड़ी में किसी फौजी के गाये पहाड़ी गाने बहुत जोर से बज रहे थे जो ख़ास सुरीले या लुभावने न थे. खैर अल्मोड़ा पहुंचते-पहुंचते आधा दिन गुजर चुका था.
अल्मोड़ा से आगे हमें कहा जाना है इसका कोई इल्म न था. केवल इतना सुना था कि लमगड़ा के आसपास कोई जंगल है जिसकी चोटी में देवगुरु नाम का कोई मंदिर है. हम लमगड़ा की और केएमओयू की एक बस में सवार होकर चल पड़े. भारी भीड़ में हमें सबसे पीछे की सीट मिली. साथ के मुसाफिरों में से एक ने देवगुरु के बारे में इतना बताया कि यह कहीं शहरफाटक के आसपास है इसलिए इसी बस में शहरफाटक तक निकल जाओ.
लमगड़ा में सवारी उतरने चढ़ने की भगदड़ में मेरी बांयीं जेब से मोबाइल किसी भले आदमी ने निकाल लिया. शाम भी होने लगी थी और हमें पता नहीं चल पा रहा था कि आखिर जाना कहाँ है. शहरफाटक पंहुचे तो थक भी चुके थे और मोबाइल खोने का दुःख भी हो रहा था. यहाँ पर पूरी बाजार में भटकने के बाद आखिरी कोने में एक दुकानदार ने हमें बताया की देवगुरु कहाँ है. उन्होंने हमें बताया कि यहाँ से कुछ दूरी पर मोरनौला तक गाडी से चले जाओ. वहां से कोई रास्ता शायद देवगुरु को जाता है. लेकिन कहते हैं वह बहुत बड़ा और घना जंगल है. इस शाम को निकल कर वहां पहुंचोगे कैसे?
इतना सोचने का समय था कहाँ? हम निकल पड़े मोरनौला तक एक बस में सवार होकर. शहर फाटक से यह कुछ ख़ास दूर नहीं. यहाँ पर उतर कर चाय पानी के एक छप्पर पर रुके और आगे की जानकारी लेने लगे. लेकिन उससे पहले दूकान में बचे खुचे चने और चाय से पेट को शांत किया. यहाँ पर हमें बताया गया कि यहाँ से नाई तक गाडी का रास्ता सोलह किलोमीटर लम्बा है. छ: बज चुके थे. कोई गाड़ी भी मिलने की संभावना नहीं थी.
मोरनौला बहुत छोटा स्टेशन है जहाँ पर रहने की व्यवस्था हो जाय इसकी संभावना भी नहीं थी. जिस दुकान में हमने चाय पी थी वह भी दुकान बड़ा कर अपने गाँव को निकलने की तयारी में था. हमारे लिए मुसीबत यह थी कि यहाँ से न लमगड़ा की और लौटने की कोई व्यवस्था थी न लोहाघाट के लिए कोई गाड़ी मिल सकती थी. इतनी शाम को बिरले ही कोई गाड़ी मिलती. समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाय. लेकिन नाउम्मीदी में भी कभी उम्मीद मिल ही जाती है.
हम सड़क के किनारे यूँ ही खड़े थे कि दुकानदार ने आवाज देकर हमें बुलाया. एक ट्रक नाई की ओर जा रहा था. दुकानदार ने हमें इस पर बिठा दिया. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे दिन डूबता जा रहा था. नाई पंहुचे तो सूरज की अंतिम किरणें भी ढल गयी. यहाँ पर हमने देवगुरु के बारे में पूछताछ की तो पता चला की वह यहाँ से कम से कम दस किलोमीटर दूर है. रास्ता पूरा पैदल है और बहुत घना जंगल.
एक बुजुर्ग ने हमें बताया कि हम रास्ते में पड़ने वाले गाँव कोटली में रुक जाएँ. उन्होंने वहां के एक युवक का नाम बताया जिसके घर में हमें पनाह मिल जायेगी. हमने एक पैकेट क्रीमरोल और दो पैकेट नमकीन ली. पानी की बोतलें भरी और तेज क़दमों से कोटली की ओर चल पड़े. हम जितना तेज चल सकते थे उतना चल रहे थे और पूरी तरह अँधेरा होने से पहले हम कोटली पंहुच गए. यहाँ से जो सबसे ऊंची पहाड़ी दिख रही थी वही देवगुरु की पहाड़ी थी. (Kausani to Devguru Travelogue)
हमने गाँव के कुछ लड़कों से देवगुरु का रास्ता और अनुमानित दूरी पूछी तो उनको लगा कि शायद इनके कोई साथी आगे निकल गए हैं इसलिए उन्होंने हमें रास्ता बताया और कहा कि वहां पंहुचने में दो तीन घंटे लग सकते हैं. एक लड़के ने कहा कि कहीं भी दांये कटने वाले रस्ते में मत जाना सीधे चलते रहना. हम भी इस जोश में चल पड़े कि आज की रात किसी जंगल के बीच में आग जलाकर बिताई जाएगी. तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगे. लगभग एक किलोमीटर की चढ़ाई के बाद गाँव नजर आना बंद हुआ और हम घने जंगल में जा पंहुचे. इतना घना जंगल की सर पर आकाश भी नहीं दिख रहा था. हमने टॉर्च जला ली. एक तो टॉर्च ही थी लेकिन दूसरी थी एक लाइटर के पीछे लगी पिद्दी सी एलईडी. इस घने जंगल में और एक किलोमीटर चलने के बाद हम कहीं पर दांये एक पगडण्डी में चल पड़े और लगभग आधा किलोमीटर चलने के बाद अंदाजा हुआ कि हम भटक गए हैं. वापस वहीं गए जहाँ से मुड़े थे और फिर जंगल के बीचोबीच के रास्ते में हो लिए.
अब चढ़ाई कम हुई तो धुंधलके अँधेरे में सामने एक मैदान का जैसा आभास हुआ. यहाँ पर टॉर्च की रौशनी डाली तो सामने लगभग ढेर सारी बड़ी-बड़ी आँखे चमकती नजर आई. एक पल के लिए तो होश कबूतर हो गए लेकिन फिर टॉर्च के उजाले में नजर आया कि ये तो बैल हैं. गाँव वालों ने इन्हें चरने के लिए जंगल में छोड़ा होगा. यहाँ पर शायद दो दर्जन बैल रहे होंगे. सभी एक घेरा बनाए बैठे थे. हम इनको पीछे छोड़ अपने रास्ते में आगे बड़े. हमें कोटली से निकले एक घंटे से ज्यादा हो गया था. शायद चार-पांच किलोमीटर चल चुके थे. साढ़े आठ बज गया था और हमको जैसा बताया गया था वैसा कुछ मिला नहीं था. हमें लग गया कि या तो वह जगह हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा दूर है या फिर हम फिरसे भटक गए हैं. हमने तय किया कि ठीक नौ बजे तक हम चलते रहेंगे. इस बीच हमें देवगुरु मंदिर मिला तो ठीक वरना वापस कोटली के लिए चल पड़ेंगे और वहां शरण लेंगे. इतना तो यकीन था ही कि पहाड़ का गाँव हमारे गाँव जैसा ही होगा और हमें ठिकाना मिल ही जायेगा. अब हमें इस भटकन में भी मजा आने लगा.
एक ऎसी जगह पंहुचे जहाँ पर पेड़ कम थे और आसमान खुला नजर आ रहा था. बहुत दूर घाटी में बहुत छितरे हुए गाँव होने शायद जिनकी रोशनियाँ याहां आते-आते टिमटिमाने लग गयी थी. हमारे पसीना-पसीना हुए चेहरे जो इस बांज के जंगल की ठंडी हवा सहला कर निकल रही थी. हम कुछ देर यहीं बैठ गए. बिलकुल खामोश. कोई बात नहीं. बस जंगल से आती आवाजें हमारे कानों में पड़ रही थी. झींगुर की रिंग-रिंग-रिंग लगातार बज रही थी. बाकी कोई आवाज न थी. हम अपनी धड़कन को सुन सकते थे. ऐसा सुकून, ऐसी बेपरवाही. यह सब आसानी से नहीं मिल सकता था.
लगभग पांच मिनट की ख़ामोशी के बाद घडी में नजर डाली तो अभी नौ बजने में पंद्रह मिनट बचे थे और हम लगभग डेढ़ किलोमीटर और चल सकते थे. जैसे तय किया था हम आगे निकल पड़े. नौ बजे तक चलने के बाद हमें कहीं भी देवगुरु के रास्ते का आभास न हुआ. शायद हम ज्यादा आगे निकल आये थे. नौ बजा तो हमने कोटली की ओर वापसी का रुख किया. इस बार हमारी रफ्तार पहले से दोगुनी थी. जिस रास्ते को जाते हुए दो-ढाई घंटे में पार किया उसे ठीक एक घंटे में पार कर हम कोटली में उसी घर में पंहुचे जहाँ पर हमने रास्ता पूछा था.
घर के लोगों ने बहुत ग्लानी और आत्मीयता से हमें जाने देने के लिए पछतावा जताया. उन्हें लगा था जिस आत्मविश्वास से हमने उनसे रास्ता पूछा शायद हमारे साथी आगे निकल गए होंगे इसलिए हमें रोकने की बजाय उन्होंने आगे जाने दिया वरना ऐसे घने जंगल में जाने न देते. खैर आज का दिन बहुत ही लम्बा था और कौसानी से यहाँ आने तक बहुत से टुकड़ों ने बीता. अब जब हम आसरे तक पंहुचे तो हमें खान परोसा गया. अंडाकरी और रोटी. साथ में दही के गिलास. थकान और भूख ऐसी कि हम रोटियों पर टूट पड़े. बस अंतर यह था कि आज की अंडाकरी में कहीं-कहीं अंडे ले छिलके भी आ रहे थे. और दही के गिलास के अन्दर एक मक्खी उड़ रही थी लेकिन आज जो हम खा रहे थे वह कल से कहीं अधिक स्वादिष्ट, कहीं अधिक मीठा और कहीं अधिक प्रेम भरा था.
कल फिर से हमने सफर करना था देवगुरु का और जानना था कि हम जिसके लिए इतना भटके वह है कैसा. खैर अगली सुबह सात बजे हम देवगुरु के पहाड़ में थे और जो हमने देखा, महसूस किया उसके लिए इतना कष्ट कोई बड़ी कीमत नहीं थी. इतनी दूर पेड़ में बंधी घंटियाँ सिर्फ घंटियाँ नहीं होती इनमें छुपी है गज़ब की कहानियां और अजब से फलसफे. (Kausani to Devguru Travelogue)
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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no travalogue is complete with without photographs sir.