पौड़ी गढ़वाल में स्थित विख्यात कंकालेश्वर मंदिर को पर्यटन विभाग क्यूंकालेश्वर मंदिर के नाम से प्रचारित करता है अलबत्ता वहां रहने वाले महंत कहते हैं कि इसका वास्तविक नाम कंकालेश्वर है. वे मंदिर के बाहर लगे सरकारी बोर्ड की उस सूचना को भी गलत बताते हैं जिसमें बताया गया है कि इसे शंकराचार्य द्वारा बनाया गया था. (Kankaleshwar Temple Pauri Garhwal)
उनसे हुई बातचीत का ब्यौरा प्रस्तुत है.
इस परिसर में बने दोनों मंदिर नए हैं. आदि शंकराचार्य तो पौड़ी कभी आए ही नहीं. बाहर लिखी हुई सारी चीजें झूठ हैं. सच्ची जानकारी देने के लिए मैंने मंदिर परिसर में ही एक दूसरा होर्डिंग लगवा रखा है. यह जगह क्यूंकालेश्वर नहीं कंकालेश्वर है. क्या है कि लोगों को झूठ बहुत जल्दी पसंद आ जाता है. (Kankaleshwar Temple Pauri Garhwal)
केदारखंड के पद्मपुराण में भारत की पुरानी भौगोलिक और ऐतिहासिक स्थितियों का वर्णन है. इस में पूरे भारतवर्ष को छः हिस्सों में बांटा गया है – केदारखंड, मानसखंड, रेवाखंड, काशीखंड इत्यादि. इस लिहाज से उत्तर भारत में स्थित धार्मिक महत्त्व के स्थानों का जिक्र केदारखंड में पाया जाता है.
केदारखंड के अनुसार जिस पर्वत पर यह मंदिर अवस्थित है उसका नाम कीनाश पर्वत है. पहले इस पर्वत का निर्माण हुआ और उसके बाद यह जगह अस्तित्व में आई. कथा है कि श्रीनगर में माता भगवती ने एक दैत्य का वध किया. उसके पश्चात देवी ने उस दैत्य के शरीर के अंगों को यत्र-तत्र बिखेर दिया. उस दैत्य का नाम कूलासुर था. सतयुग में इस पर्वत का नाम कूलासुर पर्वत पड़ गया. त्रेता युग के अंतिम चरण में जब भगवती पार्वती ने कनखल में दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर का त्याग कर दिया था. उन दिनों ताड़कासुर नामक एक दैत्य था जिसने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की. वह जानता था कि इतिहास में अमरता का वरदान कभी सफल नहीं हो पाया था सो उसने ब्रह्मा जी से अमरता का वरदान तो नहीं माँगा लेकिन ऐसी जुगत लगाई कि उसका काम बन जाए. वह जानता था कि अमरता का वरदान मांगने पर देवतागण सीधे सीधे मना कर देंगे.
ताड़कासुर जानता था कि माता पार्वती ने देहत्याग कर दिया है और भगवान शिव तपस्या में बैठे हैं तो स्थिति का सहेई आकलन करते हुए उसने ब्रह्मा जी से वरदान माँगा कि उसकी मृत्यु शिव जी के पुत्र के हाथों हो. ऐसा हो सकना असंभव था. लेकिन ब्रह्मा जी ने तथास्तु कर दिया. इधर शंकर भगवान् किसी ज्वालामुखी के भीतर बैठ समाधिस्थ होकर तपस्या कर रहे थे जबकि उनकी पत्नी का देहोत्सर्ग हो चुका था. वरदान पाने के बाद ताड़कासुर ने त्रिलोकी पर विजय प्राप्त कर ली और मृत्यु के देवता यम को ललकारा.
युद्ध में जब यम ताड़कासुर से परास्त होने लगे तो इस पर्वत पर आकर उन्होंने भगवान् शंकर की आराधना की. इस बीच सारे अन्या देवता भी ताड़कासुर से परास्त होने के बाद उत्तरांचल में आकर भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के प्रयासों में लग गए कि आप समाधि छोड़ें और विवाह करें. उधर ऋषि-मुनियों में भगवती माता से प्रार्थना की कि वे नवीन अवतार धारण करें. इसके बाद भगवती ने पार्वती का रूप लेकर कर्णप्रयाग के उमा मंदिर में तप करना प्रारंभ किया. उसी काल में इस स्थान पर यमराज तपस्यारत थे. इसके अलावा उसी काल में यहाँ आगे एक अग्नि-पर्वत है जहाँ ऋषि लोग तपस्यारत थे जबकि नीचे यानी हमारे बाईं तरफ स्थित इन्द्रकील पर्वत है जहां इंद्र अदि देवता भी तप में रत थे.
तपस्या करते करते जब यम का शरीर कंकाल के जैसा हो गया तो भगवान् शंकर उस पर प्रसन्न हुए. तब उन्होंने समाधि छोड़ी और यमराज को दो वरदान दिए –पहला तो ताड़कासुर को समाप्त करने संबंधी था जबकि दूसरा यह था कि कलियुग आने पर वे इस स्थान पर गुप्त रूप से प्रकट होंगे.
महंत जी बताते हैं कि उनका अनुसंधान बताता है कि द्वापर और त्रेता युग में इस स्थान पर किसी भी मंदिर का कोई अस्तित्व नहीं था. भगवान् शिव का वचन था कि कलिकाल आने पर वे यहाँ गुप्त रूप से प्रकट होकर भक्तों को मुक्ति देने का मार्ग प्रशस्त करेंगे.
महंत जी कहते हैं कि उनके पास सुरक्षित एक लिखित वर्णन बताता है कि आज से लगभग 175-76 वर्ष पूर्व या संभवतः 180-90 साल पूर्व यहाँ पर मित्र शर्मा मुनि और बुद्ध शर्मा मुनि नामक दो साधु नेपाल के ऋशुंगा पर्वत से यहाँ तपस्या करने के लिए आए. मूलतः ये लोग बद्रीनाथ गए हुए थे लेकिन तत्कालीन एक ब्रिटिश अफसर उनकी साधना से बहुत प्रभावित हुआ और उन्हें अपने साथ यहाँ ले आया. इस पर्वत के ऊपरी पश्चिमी हिसी में उन साधुओं के लिए कुटियाएँ बनवाई गईं जो अब बहुत टूटफूट गयी हैं. यहाँ से नीचे पानी का एक स्रोत है तो ये साधु पानी लेने वहीं जाया करते थे. उन दिनों यहाँ पर जंगल था. एक दिन भगवान् शिव इन साधुओं के स्वप्न में आए कि जिस जगह पर आप अपने पानी का बिछौना करते हैं उस जगह पर किसी समय में यमराज ने तपस्या की थी. आप यहाँ पर मंदिर बनाइये जिसके लिए शिवलिंग की व्यवस्था मैं स्वयं करूंगा.
तो यहाँ मंदिर बनना शुरू हो गया. उसी दौरान केदारनाथ के रावल जी को भी स्वप्न हुआ कि पौड़ी में अमुक स्थान पर एक मंदिर बन रहा है और आपकी कुटिया के बाहर जो यह द्वादश समूल का शिवलिंग है इसे प्रतिष्ठा करने के लिए वहां ले जाएं. इस बात की तस्दीक करने के लिए रावल ने एक पत्र भेजा. उनका पत्र देखकर कमिश्नर ने बताया कि ऐसा एक मंदिर सचमुच बन रहा है. यह जमीन उन दिनों ब्रिटिश सरकार के पास थी और उसी की इजाजत से यह कार्य हो रहा था.
तो आषाढ़ के गंगा दशहरा के दिन संवत 1900 को यहाँ पर गीता शिवलिंग की स्थापना हुई. अभी भी इस मंदिर के मुख्य गेट पर उस समय का शिलालेख लगा हुआ है जिसमें मंदिर के निर्माण व उसके निर्माणकर्ता के सभी विवरण दिए हुए हैं.
जो लोग कहते हैं कि यहाँ शंकराचार्य आये थे और उन्होंने इसे स्थापित किया था वह ‘फेक’ है, झूठ है और सभी लोगों को देखना चाहिए कि ‘शंकराचार्य दिग्विजय’ के नाम से एक ग्रन्थ है जिसमें उनकी सभी यात्राओं के बारे में लिखा गया है. उस ग्रन्थ में कहीं भी यह प्रमाण नहीं है कि शंकराचार्य पौड़ी की तरफ मुड़े भी थे.
तो प्रमाण यह है कि इस मंदिर का निर्माण वर्ष 1843 में हुआ था. मेरे पास उस वर्ष के भू-अभिलेख और वह पत्र भी अभी तक रखे उए हैं जिसे रावल जी ने लिखा था. (जब मैं उनसे कहता हूँ कि क्या वे उन्हें मुझे दिखा सकते हैं तो वे तकरीबन दुत्कारते हुए कहते है कि ऐसे कैसे किसी भी ऐरे-गैरे को वह दुर्लभ कागज़ दिखा दें!)
महंत जी यह भी कहते हैं कि हम उनके हवाले से इन सारी बातों को सार्वजनिक रूप से कह सकते हैं.
मंदिर के परिसर में दो उल्लेखनीय चीजें और हैं. एक तो चबूतरा है जिसे जॉर्ज पंचम के सम्मान में बनाया गया था जिस पर उनका नाम भी उत्कीर्ण है. दूसरा मंदिर के दाईं तरफ बने एक मकान के बाहर एक पत्थर पर लिखा हुआ है – राजराजेश्वर भवन. इस का इतिहास यह है कि यह पहले अंग्रेजों का गेस्ट हाउस जैसा हुआ करता था लेकिन जब वर्ष 1913 में टेहरी के तत्कालीन नरेश ने एक रात यहाँ बिताई थी जिसके बाद इसे यह नाम दे दिया गया.
फिलहाल इस मंदिर का नाम भगवान् शंकर के एक नाम कंकालेश्वर के नाम पर है अलबत्ता यह बात अलग है कि लोगों की जबान पर इसका अपभ्रंश होते होते क्यूंकालेश्वर नाम चढ़ गया.
–काफल ट्री डेस्क
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