कमला कांड : 1989 में जब हल्द्वानी दहल उठा था

6 सितम्बर 1989 का दिन भी हल्द्वानी में एक दुखद घटना वाला दिन रहा. दरअसल इस घटना के पीछे पुलिस के प्रति आम जनता का छिपा आक्रोश था जो पूरे कुमाऊं अंचल में छा गया पुलिस चौकियों-थानों में आगजनी, पत्थरबाजी करता. आम जनता पुलिस प्रशासन के खिलाफ उग्र होकर यों ही नहीं आ आती है. उसे एक बहाना चाहिए होता है और उसे बहाना मिल गया. (Kamla Kand Haldwani)

घटनाक्रम से पूर्व यह बताना जरूरी है कि 1988 में हल्द्वानी कोतवाली में रामचरण सिंह नामक कोतवाल की तैनाती कुछ ऐसी परम्परा कायम कर गई कि वे कोतवाल कम राजनेता अधिक लगने लगे. उन्हें एक इनामी डकैत को मार गिराने के एवज में राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था. कहा यह भी जाता था कि इस भगोड़े डकैत से दोस्ती कर धोखे से मार डाला गया था. रामचरण सिंह थाने में भी सादे कपड़ों में ही बैठा करते थे और पुलिस के उच्च अधिकारी भी उनकी राय को महत्व देते थे. दलाल नेताओं और दलाल पत्रकारों का जमावड़ा उनके पास रहता था. इसका परिणाम यह हुआ कि जहां राजनीति में पुलिस गुंडागर्दी का प्रवेश हुआ वहीं पत्रकारिता भी पुलिसिया जोर व लालच के गिरफ्त में चली गई. आम लोग इस तिकड़ी से त्रस्त थे किन्तु मजबूर थे और उन्हें अपना आक्रोश व्यक्त करने का एक बहाना मिला गया.

हुआ यों कि 5 सितम्बर 1989 की रात्रि में नवीन मंडी स्थल में एक आढ़ती की छत पर मनाघेर से आये नेपाली आलू व्यापारी सोये थे. जिनमें से रूप सिंह और उसकी 18 वर्षीय पत्नी कमला भी थी. पुलिस कांस्टेबल गीतम सिंह दो पुलिस कर्मियों के साथ आदतन पुलिसिया रौब झाड़ता वहां पहुंच गया और डंडा कोंचता हुआ भद्दी गालियां बकने लगा. लोगों का कहना था कि उसने रूप सिंह को लाठियों से पीटा और उसकी पत्नी को उठा कर ले गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया. यद्यपि बलात्कार की घटना संदेहास्पद थी, किन्तु उसके द्वारा मचाया गया हंगामा मंडी में रह रहे पल्लेदारों के लिए असहनीय हो गया. उनका कहना था कि नागरिक सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस ने नागरिक अधिकारों की धज्जियां उड़ा दी.

दूसरे दिन प्रातः 6 सितम्बर को घटना के समाचार से पूरा नगर आक्रोशित हो उठा और पुलिसकर्मियों की गिरफ्तारी की मांग करने लगा. भीड़ चाहती थी कि तीनों पुलिस कर्मियों को उसके हवाले किया जाये और उनके मुंह में कालिख पोत कर बाजार में घुमाया जाए. पुलिस कोतवाल के लिए ऐसा करना तो सम्भव नहीं था और कानून सम्मत भी नहीं था, किन्तु उन्होंने अपने स्वभाव के अनुरूप अति उत्साह में तीनों को गिरफ्तार कर 3 किमी लम्बे रास्ते से पैदल लाए जाने का निर्णय ले लिया. आगे-आगे पुलिस ओर पीछे-पीछे नारे लगाती अपार भीड़. ज्यों ही यह काफिला मंगल पड़ाव पहुंचा एका-एक पथराव शुरू हो गया. लगता था कि आसमान से पत्थरों की वर्षा हो रही है. कोतवाल साहब पुलिसकर्मियों के साथ दौड़ते-दौड़ते थाने के अन्दर पहुंचे और पथराव करती भीड़ थाने के बाहर एकत्रित हो गई.

थोड़ी देर बाद बन्दूकें गरजने लगीं और कई लोगों के मारे जाने की अफवाहें शहर को अशान्त कर गयीं. गोली चलाने का आदेश किसने दिया इसका उत्तर किसी के पास नहीं था. एसडीएम ने कहा उन्होंने आदेश नहीं दिया, क्षेत्राधिकारी ने कहा कि उन्होंने नहीं दिया, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक का कहना था कि एसडीएम ने दिया. जिलाधिकारी पीडी सुधाकर ने कहा कि पुलिस ने आत्मरक्षार्थ गोली चलाई और हर व्यक्ति को आत्मरक्षा का पूरा अधिकार है. इस पर सवाल उठा कि जिलाधिकारी का वक्तव्य दमदार है किन्तु वे यह भी बतायेंगे कि पुलिस कांस्टेबिल अपने दो पुलिसकर्मियों के साथ किसकी रक्षा के लिए दूसरे के घर में घुस गये? माना कि आक्रामक हो गई भीड़ से उन्हें खतरा था किन्तु इस गोली कांड में जो लोग मारे गए उनसे उसे कोई खतरा नहीं था.

मुरादाबार में अध्यरत बीसीसी का छात्र विक्रम सिंह (जैंती निवासी) बस से उतर रहा था, रोडवेज कंडक्टर संतोष स्टेशन से बाहर निकल रहा था, पोस्ट ऑफिस के पास बस स्टेशन पर कंडक्टर दीवानगिरी खड़ा था, रानीखेत से बहुत दूर जालली निवासी भवान सिंह इस हंगामे से बेखबर खानचन्द मार्केट में था, गिरीश उपाध्याय अपनी छत से झांक रहा था, अस्पताल के सामने बेखबर दो युवक अपनी बातों में मशगूल थे उनमें से एक को गोली का शिकार होना पड़ा. इसका उत्तर जिलाधिकारी के पास नहीं था कि इन मारे गए लोगों से पुलिस को क्या खतरा था.

बहरहाल पुलिस का कहर जारी रहा और तीन दिन तक शहर में कर्फ्यू की मार झेलता रहा न्यायिक जांच के आदेश के बाद बवाल समाप्त तो हुआ लेकिन न्यायिक जांच कैसी होती है यह सभी जानते हैं. नगर के बहुत से तेजतर्रार समझे जाने वाले लोग बड़े-बड़े डींग मारने वाले वकीलों के साथ विचार विमार्श करते रहे. भीड़ का आक्रामक हो जाना अलग बात है किन्तु न्यायिक जांच में किसी व्यक्ति का पहुंच पाना और सही जवाब देना इतना वर्तमान व्यवस्था में आसान नहीं है.

यहां एक बात और सोचने की है कि हल्द्वानी के अलावा इस घटना के बहाने कुमाऊं अंचल के छोटे-बड़े लगभग सभी कस्बों में लोग आक्रोशित होकर पुलिस चौकियों और थानों में आगजनी पथराव के लिए उद्यत हो उठे. इससे यही साबित होता है कि हमारा पुलिस और प्रशासनतंत्र जनभावनाओं की परवाह नहीं कर रहा है और जनता जिस दिन अपना आक्रोश करने बाहर निकल पड़ती है तब उसके सामने नियम-कानूनों की धज्जी उड़ाती व्यवस्था से निपटने के लिए कानून को ही अपने हाथ में लेने की मजबूरी हो जाती है. भले ही इसका खामियाजा भी उसे ही क्यों न भोगना पड़े. रामचरण सिंह का भी यहां से कुछ दिन बाद तबादला हो गया और एक दिन वह किच्छा में अपने फार्म में ही ट्रैक्टर के नीचे आकर बहुत बुरी तरह घायल हो गये.

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर

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Sudhir Kumar

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