उदयपुर परगने की जुवा पट्टी में गंगा नदी के किनारे एक ऊँचे टीले पर ‘उपुगढ़’ स्थित था. उसका शासक उन दिनों चौहान वंशीय युवक कफ्फू चौहान था. उसे अपने गढ़ की स्वाधीनता प्राणों से भी प्यारी थी और उसे दुख था कि दक्षिणी गढ़पतियों ने बिना लड़े कैसे महाराज अजयपाल की संरक्षता स्वीकार कर ली है. उसने उनके उत्सव में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया. जब उसे दुबारा चेतावनी भेजी गई तो उसने लिख भेजा- मैं पशुओं में सिंह की तरह और पक्षियों में गरुड़ की तरह हूँ, मैं किसी की भी अधीनता स्वीकार नहीं कर सकता. परिणाम यह हुआ कि महाराज अजयपाल ने एक बड़ी सेना भेजकर चढ़ाई बोल दी.
(Kaffu Chauhan Great Warrior of uttarakhand)
शाम झुट-पुटे का समय था कि अचानक पार गंगातट पर श्रीनगर की सेना का जमघट लग गया और इधर गंगा की गरजती तरंगों से संघर्ष करता हुआ उपुगढ़ अचल खड़ा था. सिर्फ एक झूलापुल ही इस ओर आने का एकमात्र साधन था. कफ्फू चौहान की मां ने झरोखे से नदी पार वह बड़ी फौज देखी तो अपने पुत्र से कारण पूछा. कफ्फू चौहान ने कहा- मां, राजा अजयपाल को हमारी स्वाधीनता खल रही है. बहुत से गढ़पति उनकी अधीनता स्वीकार कर चुके हैं लेकिन मेरे गढ़ को तो अपनी आज़ादी प्यारी है.
मां ने अपने बेटे को समझाया- क्यों लड़ रहे हो? तुम नहीं जीत सकोगे इसलिये पराधीनता क़बूल कर लो. लेकिन कफ्फू चौहान ने एक न मानी. रात को कफ्फू चौहान की बातचीत अपनी पत्नी से हुई. पत्नी ने भी कफ्फू चौहान को समझाया लेकिन वह क्यों मानने लगा था? आधी रात में पत्नी ने अनुभव किया कि कफ्फू अपने बिस्तर पर नहीं है. उसी समय उसने एक धड़ाका सुना झरोखे से झांक कर जो देखा तो पता लगा कि सामने का झूलापुल गंगा के वक्षस्थल पर लोट गया है. थोड़ी ही देर में उसने देखा कफ्फू चौहान अपनी उस करामात पर खुश होता हुआ लौट आया है.
सुबह तड़के दोनों ओर से युद्ध की तैयारी हो गई और मारू बाजे बजने लगे. माता रात भर देवी के मन्दिर में आराधना करती रहीं थीं और सूर्योदय के समय भी वहीं चिन्ताकुल पूजा में मग्न थीं. कफ्फू ने आकर चरण छुए आशीर्वाद मिला- मां, मेरे लाल की रक्षा करना. कुछ देर बाद माता ने एक सहायक सरदार देबू को बुलाकर कहा- बेटा, यदि उपुगढ़ के भाग्य फूट ही जाय तो पहले खबर कर देना. जब हमारा गढ़पति ही नहीं रहेगा तो हम भी नहीं रहेंगे. हमारे गढ़पति को आजादी प्यारी है तो हम भी अपने जीते जी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे. अजयपाल उपुगढ़ की राख पर ही अधिकार कर सकता है जीवित उपुगढ़ पर नहीं.
(Kaffu Chauhan Great Warrior of uttarakhand)
उधर जब श्रीनगर के सेनापति ने देखा कि एकमात्र झूलापुल टूटा हुआ है तो वह बहुत उत्तेजित हुआ. उन्होंने फौरन थोड़ी ही दूरी पर एक नया झूलापुल बनवाया और सेना लेकर उपुगढ़ को घेर लिया. इधर थोड़ी-सी सेना थी सेना क्या थी पागलों और स्वाधीनता के मतवालों का जुलूस था. भयंकर युद्ध हुआ. कफ्फू ने अपने घोड़े पर चढ़े हुए ऐसी वीरता से युद्ध किया कि अपने सामने के सब शत्रु-सैनिक तलवार के घाट उतार दिये. श्रीनगर की सेना में भगदड़ मच गई और मैदान साफ हो गया. कफ्फू चौहान खुशी-खुशी घर की ओर लौटा पर देखता क्या है, सारा गढ़ धर-धरा कर जल रहा है.
बात यह हुई कि जब कफ्फू शत्रु-सेना के बीच बहुत देर तक मार-काट मचाता रहा था और बड़ी देर तक बाहर नहीं दिखाई दिया तो देबू ने समझा कि माता की आशंका पूरी हुई इसलिये उसने गढ़ पर वही खबर पहुँचा दी थी.
वह पहाड़ी ललनाओं का जौहर था. आग के शोले आकाश में पहुंच रहे थे और कफ्फू बेसुध भूमि पर पड़ा हुआ सोच रहा था – जिस माता, जिस प्रियतमा और जिस गढ़ के लिये मैंने यह दुस्साहसपूर्ण कार्य किया था आखिरकार क्या उसका यही परिणाम होना था?
जब उसे होश आया तो क्या देखता है कि वह बन्दी दशा में महाराज अजयपाल के समक्ष सैनिकों से घिरा हुआ है. महाराज ने उसे आश्वासन दिया कि अगर अधीनता स्वीकार कर लो तो उपुगढ़ से भी बड़ा अधिपति बना दूंगा. उसने फौरन उत्तर दिया- मैं स्वाधीनता खोकर सम्मान प्राप्त करना पसन्द नहीं करता. महाराज को भी क्रोध आ गया और कहा-ओ स्वाधीनता के मतवाले, तुझे मेरे सामने सिर झुकाना ही पड़ेगा. साथ ही उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया कि इसका सिर इस तरह से काटो कि मेरे पैरों पर गिरे. उसी बीच कफ्फू ने दो मुट्ठी बालू उठ ली थी जैसे ही तलवार कफ्फू की गर्दन पर पड़ी उसने अपनी गर्दन पर ऐसे झटका दिया कि उसका सिर पीछे की ओर गिरा और राजा पैरों की ओर बस बालू आ गिरी.
इस अदभुत साहस, वीरता और ग्रात्म-सम्मान की भावना को देखकर महाराज आश्चर्यचकित हो गये. उन्होंने सिंहासन से उतर कर मृतक कफ्फू के लिये सिर झुकाया और कहा- वीर, तुम जीते, मैं हारा. उनकी आज्ञा से कफ्फू की अर्थी बहुत धूमधाम से सजाई गई उसके साथ-साथ स्वयं महाराज अन्य कई गढ़पतियों और सेनापतियों के साथ पैदल चले और गंगा-तट पर स्वयं अपने हाथों से उन्होंने चिता में आग लगाई. चिता की लपटों का धूमिल प्रकाश उस सन्ध्या को उपुगढ़ के भग्नावशेष पर पड़ रहा था. महाराज के साथ सब लोग शान्त खड़े थे और सब के मन में रह-रह कर यही भाव उठ रहा था- वीर गया, पर वीरता शेष रह गई.
(Kaffu Chauhan Great Warrior of uttarakhand)
भक्त दर्शन की किताब ‘गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ‘ से साभार
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